कस्तूरी बनी मृग की दुश्मन

उत्तराखंड में हुए भौगोलिक और पर्यावरणीय बदलावों ने कस्तूरी मृग समेत कई दुर्लभ वन्यजीवों के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न कर दिया है। रही-सही कसर शिकारियों ने पूरी कर दी है।

प्रतिवर्ष हिमालय से 200 किलो तक कस्तूरी विदेशी बाजारों में भेजी जाती है जिसके लिए शिकारी बीस से लेकर तीस हजार तक मृगों का शिकार करते हैं। जाहिर है इसकी वजह से मृगों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। हालांकि सरकार ने इसे लुप्तप्राय जानवरों की सूची में शामिल कर इसके शिकार पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अलावा इस मृग के संरक्षण व संवर्धन को लेकर कई मृग फार्म भी बनाए गए हैं लेकिन वह अपनी सार्थकता साबित नहीं कर पाए हैं।

उत्तराखंड यानी कुमाऊं-गढ़वाल हिमालय में उतुंग हिम शिखर व हरे-भरे चरागाह, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘बुग्याल’ कहते हैं, के साथ घने जंगल आज भी मौजूद है। वैसे कहने को तो राज्य का 65 प्रतिशत भू-भाग वन क्षेत्र है मगर इनका विस्तार दिनोंदिन कम हो रहा है। वन के अलावा यहां हिम सिंचित सदानीरा झीलें भी मिलती हैं लेकिन भौगोलिक, भूगर्भीय एवं जलवायु परिवर्तन में हो रहे बदलावों के कारण माहौल काफी हद तक बदल गया है। इससे करीब 6 दर्जन वन्यजीव प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। हिमालय क्षेत्र में कुछ विशिष्ट प्रकार के जानवर यहां की जैव-विविधता को विशेष बनाते हैं। यहां पाया जाने वाला कस्तूरी मृग 8 हजार से 15 हजार फुट की ऊंचाई वाले क्षेत्र दिखाई देता है लेकिन नर मृग की नाभि में पाई जाने वाली कस्तूरी ही इसका दुश्मन है लेकिन शिकारी नर और मादा का फर्क नहीं करते और इन मृगों का शिकार कर लेते हैं। इसकी कस्तूरी का इस्तेमाल कई प्रकार आयुर्वेदिक दवाइयों के निर्माण में होता है।

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ कंजर्वेशन ऑफ नेचर यानी आईयूसीएन के माइकल ग्रीन ने इस मृग को शोध के लिए चुना है। उनका अनुमान है कि प्रतिवर्ष हिमालय से 200 किलो तक कस्तूरी विदेशी बाजारों में भेजी जाती है जिसके लिए शिकारी बीस से लेकर तीस हजार तक मृगों का शिकार करते हैं। जाहिर है इसकी वजह से मृगों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। हालांकि सरकार ने इसे लुप्तप्राय जानवरों की सूची में शामिल कर इसके शिकार पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा रखा है। इसके अलावा इस मृग के संरक्षण व संवर्धन को लेकर कई मृग फार्म भी बनाए गए हैं लेकिन वह अपनी सार्थकता साबित नहीं कर पाए हैं। चमोली जिले के कांचुलाचखार्क में बना मृग अभ्यारण्य इसका उदाहरण है जहां मृग बच ही नहीं पाए हैं। ऐसे में इसे अन्यत्र स्थानांतरित करने की योजना भी धराशायी हो गई है। गौरतलब है कि कस्तूरी मृग विहारों में कस्तूरी मृगों का प्रजनन कर उनकी नाभि से कस्तूरी निकाली जाती थी और फिर पुनः उन्हें कस्तूरी पैदा करने के लिए छोड़ दिया जाता था लेकिन यह विधि ज्यादा कारगर नहीं हो पाई और विहार असफल हो गए।

कई स्थानों पर तो ये विहार निरीह पशुओं के यातनागृह ही बनकर रह गए। इस तरह कस्तूरी मृग, जिसका वैज्ञानिक नाम मोकस मोसिकेट्स है, हिमालय का संकटग्रस्त जीव बन गया है। दरअसल, इस पशु की कमजोरी है कि यह बर्फ पड़ने के दौरान गांवों के समीप पहुंच जाता है और वहां छिपे शिकारी उनका आसानी से शिकार कर लेते हैं। इसके अलावा शिकारी कुत्तों द्वारा हांक लगाकर भी इसका शिकार किया जाता था। कस्तूरी मृग की ही तरह बकरी और भेड़ के बीच की कड़ी माने जाने वाले शराउ की भी गिनती दुर्लभ जीवों में की जाती है। कैपरी कानिस सुमात्रासशिश वैज्ञानिक नाम से इस पशु के शिकार पर भी प्रतिबंध है। यह पशु ढालदार वनों में रहना पसंद करता है लेकिन धीरे-धीरे यह लुप्तप्राय हो गया। एक दौर में इसको यहां खूब देखा जा सकता था लेकिन वनों का घनत्व कम होने तथा आबादी बढ़ने से इनका खूब शिकार हुआ।

उत्तराखंड क्षेत्र में पाया जाने वाला भरल भी एक संकटग्रस्त जीव है। कहा जाता है कि भरल यानी स्यूडोबिस लायोर हजार फुट से नीचे उतरता नहीं है। भेड़ की जाति का यह पशु झुंड में रहकर जीवनयापन करता है। यह जीव भी अपने सीधेपन एवं किसी को नुकसान न पहुंचाने के कारण संकट में पड़ा है। इनके झुंड पहाड़ों में बहुतायत में दिखते थे लेकिन यह सब बीते दिनों की बात हो चुकी है।

कस्तूरी के कारण होता है मृगों का शिकारकस्तूरी के कारण होता है मृगों का शिकारइसी तरह बकरी की जाति का माना जाने वाला ताहर जिसका वैज्ञानिक नाम हिमट्रेगस जेमलाहीकस है, वह 10 हजार से 15 हजार फुट की ऊंचाई वाले क्षेत्र में मिलता था। यह खड़ी पहाड़ी चट्टानों एवं घनी झाड़ियों के बीच रहता है। सुबह-सवेरे के वक्त इन पशुओं के झुंड 15-20 की संख्या में दिख जाते थे। इस पशु की विशेषता यह है कि इनके शरीर पर जाड़ों में चर्बी चढ़ जाती है जिससे यह लंबे समय तक एक जगह बैठकर बिना खाए-पीए रह सकते हैं। गुफाओं में रहने की इनकी आदत इन्हें शिकारी तक ले जाती है। इसी तरह हिमालयन पॉम शिविर, भूरा भालू, रेड पांडा, ऊदबिलाव रूप्रा, मांटिकोनश, बीचमार्टिम यानी मार्टिस इंटर मीडिया, पेलबिजिल, उड़न गिलहरी, सेई, हिमालयन माउस हेयर, यॉक बूसियश, नयन ग्रेट, टिव्टन शीय जिसे ओबिस अमन होक सोनी भी कहते हैं, जैसी प्रजातियां भी दुर्लभ हो चली हैं।

यह तो सर्वविदित है कि बाघ पूरे देश में विलोपित होने के कगार पर हैं। इसी बिरादरी के कई पशु भी संकट में हैं। इनमें बाघ, बिल्ली, लैपर्ड कैट यानी फैलिस बंगालोसिस, हिम बाघ, पंथेर, यूरेशिया जैसे प्राणी भी है। बाघ-बिल्ली 6 हजार से 11 हजार फुट की ऊंचाई पर मिलती है। इसके शिकार पर भी प्रतिबंध है। पालतू बिल्ली से कुछ बड़ी यह प्रजाति बदन में बाघ जैसे काले-पीले धारियां होने के कारण बाघ के बच्चे की तरह दिखता है। इसको जंगली मुर्गे या चिड़ियों का भोजन पसंद है। पहाड़ों में बहुतायात से दिखने वाली यह प्रजाति अब कभी-कभार देखने में आती है। हिम बाघ 12 से 13 हजार फुट की ऊंचाई वाले क्षेत्र में पाए जाने वाला जानवर है जो 19 हजार फुट की ऊंचाई पर भी देखा जा सकता है लेकिन यह जीव भी दुर्लभतम है और शिकारियों के निशाने पर है।

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