क्षरित भूमि के तहत आने वाली अपदरित भूमि, लवणीय एवं क्षारीय भूमि, जलजमाव से प्रभावित भूमि, बीहड़ भूमि, खनन कार्य गतिविधियों से प्रभावित भूमि को सुधार कर खेती योग्य बनाना बेहद जरूरी है। इससे उत्पादन के साथ ही उत्पादकता भी बढ़ेगी क्योंकि आज की सबसे बड़ी चुनौती है खेती योग्य जमीन को बचाना। जिस गति से विकास हो रहा है, उसी गति से खेती योग्य भूमि कम हो रही है। ऐसी स्थिति में क्षरित भूमि को संरक्षित करके खेती योग्य भूमि का रकबा बरकरार रखा जा सकता है। वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं। कृषि प्रबंधन का सबसे अहम हिस्सा अब क्षरित भूमि को संरक्षित करना ही है। हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इस दिशा में बेहतर कदम उठाए जा रहे हैं। भूमि संरक्षण मिशन के जरिए जिला-स्तर पर भूमि सुधार की योजनाएं बनाई जा रही हैं। और मृदा संरक्षण की दिशा में काफी काम हो ही रहा है।आज दुनिया के सामने मरुस्थलीकरण को रोकना भी एक बड़ी चुनौती है। चूंकि आंकड़ें बता रहे हैं कि वर्ष 2025 तक दुनिया का 70 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान में तब्दील हो जाएगा। मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ रही धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ खेतों को प्रभावित कर रही है तो भारत में थार की रेत उत्तर भारत के मैदानी खेतों को अनुपजाऊ बना रही है। इतना ही नहीं मिट्टी की ऊपरी परत, जो करीब 20 सेंटीमीटर गहरी है, तेजी से नष्ट हो रही है और यही मिट्टी जीवनदायिनी है। यही वजह है कि संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को ‘मरुस्थलीकरण विरोधी दशक’ के रूप में मनाने का निर्णय किया है क्योंकि अगले 40 वर्षों में दो अरब लोग बढ़ेंगे और इसी अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन भी बढ़ाना होगा। ऐसे में क्षरित भूमि को संरक्षित करना ही एकमात्र विकल्प है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट में भी यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रति वर्ष 27 अरब टन मिट्टी अपरदन, जलभराव, क्षारीयकरण के कारण नष्ट हो रही है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि के बराबर है।
चूंकि भारत कृषि प्रधान देश है। इसके बाद भी भारत में करीब 50 फीसदी से ज्यादा भूमि किसी न किसी कारण बेकार पड़ी हुई है। इस बेकार पड़ी भूमि पर खेती न होने के पीछे एक बड़ा कारण इनका अनुपजाऊ होना है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह भी है कि जो भूमि उपजाऊ है वह भी किसी न किसी कारण अनुपजाऊ होती जा रही है। देश में कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा क्षरित भूमि का है। इस भूमि को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि विकास समय की जरूरत है। विकास की दौड़ में कृषि योग्य भूमि का प्रभावित होना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में हमारे पास जो विकल्प हैं, उनमें अनुपयोगी मिट्टी को कृषि योग्य बनाना बेहद जरूरी है। इससे कृषि योग्य भूमि का रकबा बरकरार रह पाएगा और खाद्य संकट की समस्या से भी निजात पायी जा सकती है। चूंकि जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि हो रही है, उसी अनुपात में खेती योग्य जमीन कम हो रही है। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही मानव जीवन की तमाम जरूरतें बढ़ रही हैं। रहने के लिए आवास बनाना है तो कामधंधे के लिए कल-कारखाने लगाने हैं। शिक्षा के लिए विद्यालय भवन बनाना है। इस तरह के तमाम कार्य हैं जिसके लिए भूमि की जरूरत पड़ रही है। शहरों का विकास हो अथवा कोई अन्य कार्य - हर कार्य भूमि पर ही किया जा सकता है। यही वजह है कि खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल लगातार कम हो रहा है। हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं कि जंगलों को काटकर और नदी-नालों को पाटकर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा उत्पादन पर। इन सभी कारणों से खेती योग्य जमीन का क्षेत्रफल घटता जा रहा है।
आंकड़ों पर ध्यान दें तो भारत में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपातों में से एक है। वर्ष 2025 में घटकर यह आंकड़ा 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसे में खेती की अनुपयोगी जमीन को खेती योग्य बनाकर एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है। भारत में कुल भूमि क्षेत्रफल 329 मिलयन हेक्टेयर है। इसमें अभी तक कृषि कार्य में करीब 144 मिलियन हेक्टेयर भूमि ली जा रही है। करीब 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि विभिन्न कारणों से बंजर पड़ी हुई है। इसमें करीब 40 मिलियन हेक्टेयर क्षरित वन भी सम्मिलित हैं और 84 मिलियन हेक्येटर वर्षा पर आधारित हैं। भारत में मृदा अपरदन की दर करीब 2600 मिलियन टन प्रतिवर्ष है। देश की करीब 140 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल तथा वायु अपरदन से प्रभावित है।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष अपरदन के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब-करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान होने से बचाया जा सकता है। यानी हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा को बचाया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष अपरदन के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब-करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान होने से बचाया जा सकता है। यानी हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा को बचाया जा सकता है। इस तरह जहां बंजर होती जमीन को बचाया जा सकेगा वहीं किसानों की जेब को भी कटने से बचाया जा सकेगा। क्योंकि जानकारी के अभाव में किसान अपने खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाने की तमाम तरकीबें निकालते रहते हैं। इसके लिए वे रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग करने से बाज नहीं आते, जिनका फायदा मिलने के बजाय नुकसान ही होता है।
आंकड़ें बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। यदि हम आकलन करें और देखें कि एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को करीब तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इस तरह समूचे देश से किसानों की आय का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ मिट्टी को बार-बार उपजाऊ बनाने में ही खर्च हो जाता है जबकि वही पौधे को मिलता तो किसान को बिना लागत फायदा होता, लेकिन जानकारी के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है।
इस तरह देखा जाए तो मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है। यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसे और विस्तारित करने की जरूरत है।
भारत में हर साल कहीं बाढ़ की नौबत रहती है तो कहीं सूखे की। बाढ़ और सूखे के कारण कृषि तो प्रभावित होती ही है, लेकिन इसके अलावा भी कई कारणों से भारतीय खेती प्रभावित होती है, इन्हीं में से एक है जल अपरदन। पारिस्थितिकीविदों के आंकड़ों पर विश्वास करें तो भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्य तत्व भी बह जाते हैं। इससे किसानों का खेत अनुपजाऊ हो जाता है। या यह कहें कि फसल के दौरान पौधा जिन तत्वों को एक बार ग्रहण नहीं कर पाया होता है, वे दूसरी फसल के लिए बचने के बजाय पानी के साथ बहकर खेत से बाहर चले जाते हैं। इस तरह हर साल करीब एक हजार से ज्यादा का नुकसान होता है। खासतौर से मध्य एवं पूर्वी भारत जल अपरदन की चपेट में ज्यादा आता है। इसका एक बड़ा कारण यहां की मिट्टी की स्थिति भी है। उत्तर भारत की अपेक्षा मध्य भारत की लाल मिट्टी में जल अपरदन की संभावना ज्यादा रहती है। इसी तरह उत्तरी-पूर्वी भारत के भी कुछ हिस्से जल अपरदन की चपेट में रहते हैं।
जल अपरदन की समस्या से निजात पाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं। जिन इलाकों में जल अपरदन की ज्यादा समस्या है वहां उसके अनुरूप फसल चक्र अपनाया जाए। जल अपरदन से बचने के लिए जड़युक्त फसलों की खेती ज्यादा से ज्यादा कराई जाए। बाढ़ प्रभावित इलाके में पानी के तीव्र गति से होने वाले बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह बाड़बंदी कराई जाए। पट्टीदार खेती करने वाले किसानों को मेड़बंदी में विशेष सहयोग किया जाए। इससे पानी के नीचे उतरने की स्थिति में कुछ देर पानी रुकेगा और मिट्टी को उर्वर बनाने वाले तत्व परत के रूप में जम जाएंगे। सिंचाई की विधि मिट्टी की स्थिति के अनुरूप बनाई जाए। कृषि भूमि के संरक्षण के अलावा अन्य मिट्टी के संरक्षण के लिए विभिन्न तरह की जड़युक्त घास का रोपड़ कराया जाए, बहुवर्षीय पौधे लगवाए जाएं।
वायु अपरदन का असर आमतौर पर शुष्क क्षेत्रों में ज्यादा होता है। जिस इलाके की ज्यादातर मिट्टी बलुई अथवा बलुई दोमट होती है और वहां पेड़-पौधे कम उगते हैं वहां जड़युक्त घासों के उगने की स्थिति बहुत कम होती है। वहां वायु अपरदन ज्यादा होता है। भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश का कुछ हिस्सा एवं गुजरात का कुछ हिस्सा इससे प्रभावित है। एक रिपोर्ट के तहत वायु अपरदन से भारत में करीब 5.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। घास न होने एवं मिट्टी के बलुई होने के कारण हवा का तेज झोंका अपने साथ उपजाऊ मिट्टी का एक बड़ा हिस्सा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है। इसमें पानी को संचय करने की क्षमता कम होती है। इन क्षेत्रों की भूमि में जीवांश पदार्थों का अभाव रहता है।
एक रिपोर्ट के तहत वायु अपरदन से भारत में करीब 5.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है।राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर एवं बीकानेर का कुछ ऐसा हिस्सा है जहां खेती तो नहीं होती, लेकिन तेज हवा के साथ बलुई मिट्टी इस कदर चलती है कि मानो पानी बह रहा हो। हालांकि इस तरह की मिट्टी में खेती नहीं होती है, लेकिन वायु अपरदन का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस इलाके में जहां एक तरफ बलुई मिट्टी ज्यादा है वहीं एक समस्या और है। वह यह कि बलुई मिट्टी जब हवा के साथ उड़ती है तो आसपास के खेतों में फैल जाती है। इससे जो खेतीयोग्य भूमि है, उसकी उपजाऊ मिट्टी काफी नीचे पड़ जाती है और अनुपजाऊ बलुई मिट्टी ऊपर जमा हो जाती है। इससे खेतीयोग्य भूमि में जब फसल बोई जाती है तो पौधे की जड़ें उपजाऊ मिट्टी तक नहीं पहुंच पाती हैं। इसी तरह अन्य हिस्से में बलुई मिट्टी होने के कारण किसानों को अपने खेत उपजाऊ बनाने एवं पौधों को आवश्यक तत्व देने के लिए निरंतर सूक्ष्म तत्वों की जरूरत पड़ती रहती है।
वायु अपरदन से प्रभावित इलाके में कठोर प्रवृत्ति वाले पौधों का रोपड़ कराया जाए। इन इलाकों में गेहूं, चना के बजाय मेहंदी, बेर, खैर, अरंड, इमली आदि के पौधे लगवाए जाएं और इसी की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। प्रभावित इलाके के किसानों को इस दिशा में सरकारी-स्तर पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। यह संतोष की बात है कि सरकार की ओर से विभिन्न राज्यों में बागवानी मिशन के तहत यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। फिर भी किसानों को इसमें सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है। खेतों के किनारे झाड़ियों की बाउंड्री बनाई जाए। इससे हवा के साथ उड़ने वाली रेत खेत की मेड़ पर ही थम जाएगी और अनावश्यक रूप से उपजाऊ खेत में नहीं फैल सकेगी।
हालांकि राजस्थान में मेहंदी की खेती बड़े स्तर पर हो रही है। पाली जिले की सोजत तहसील के करीब-करीब 90 फीसदी भूभाग पर मेहंदी की खेती होती है और यहां की मेहंदी को पूरे देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहचान मिली है। सरकार की ओर से भी इसके लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे जहां वायु अपरदन की समस्या खत्म होगी वहीं किसानों की माली हालत में भी सुधार होगा। इसके अलावा यहां के किसानों को वायु अपरदन से बचाव संबंधी प्रशिक्षण नियमित दिए जाएं। इससे किसानों में जागरुकता आएगी।
देश में एक बड़ा भूभाग बीहड़ भूमि का है। बीहड़ भूभाग बनने का मूल कारण तीव्र जल अपरदन ही है। इसकी चपेट में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात जैसे राज्य हैं। राजस्थान का भी कुछ हिस्सा बीहड़ भूभाग में शामिल है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इन तीनों राज्यों के बीहड़ भूभाग की वजह से करीब तीन मिलियन टन उत्पादन प्रभावित हो रहा है और करीब 157 करोड़ रुपये का हर साल नुकसान हो रहा है।
बीहड़ भूमि सुधार के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाए। बीहड़ भूमि सुधार में जुटे किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। इसके अलावा इस भूमि पर खैर, पलास, शीशम, चिलबिल सहित उन पौधों का रोपण किया जाए, जिनकी प्रवृत्ति कठोर है। काष्ठीय पौधों का रोपण करने से बीहड़ भूमि का विस्तार थमेगा। साथ ही इन पेड़ों से लकड़ी की जरूरत भी पूरी हो सकेगी।
खेतीयोग्य जमीन के बीच काफी भूभाग ऐसा है जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है। कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जलजमाव से प्रभावित है। देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जलजमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिनों में यह अधिक कठोर हो जाता है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है। यदि इस समस्या का निराकरण कर दिया जाए तो खाद्य उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। इसी तरह रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है।
सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। खेती योग्य भूमि के बीच जहां भी नहर गुजर रही हो, उसके लीकेज को ठीक किया जाए। नहरों से अनावश्यक रूप से बहने वाले पानी को रोकने की पुख्ता व्यवस्था की जाए क्योंकि नहरों के किनारे स्थित भूमि के लवणीय भूमि में परिवर्तित होने की समस्या तेजी से बढ़ रही है। जिस इलाके से भी नहरें गुजर रही हैं, उस इलाके में एक बड़ा भू-भाग लवणीय हो चुका है। इसी तरह खेतों की मिट्टी के अनुरूप ही सिंचाई की व्यवस्था की जाए। कई बार खेत में पानी अधिक भरने के कारण भी संबंधित खेत की मिट्टी लवणीय हो जाती है। ऐसे में किसानों को किस फसल में कितना पानी देना है, इसका विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाए। नील हरित शैवाल लवणीय एवं क्षारीय भूमि के सुधार में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। नील हरित शैवाल ऐसी भूमि में आसानी से उगते भी हैं। ये लवणीयता और क्षारीयता कम करने के साथ ही मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने का भी कार्य करते हैं। इसलिए इन्हें उगाने के लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जाए। इसके अलावा आंवला, बेर, शहतूत जैसे वृक्ष लगाकर एक तरफ मिट्टी को सुधारा जा सकता है तो दूसरी तरफ इनके फलों से आर्थिक समृद्धि भी लाई जा सकती है। जहां जलभराव की समस्या हो वहां जलनिकासी की समुचित व्यवस्था किए जाने की जरूरत है। जलनिकासी की व्यवस्था कर देने के कुछ दिन बाद संबंधित इलाके की मिट्टी खेती योग्य तैयार हो जाती है।
इस तरह देखा जाए तो मृदा संरक्षण के जरिए धरती को हरा-भरा बनाने के साथ ही उत्पादन को भी बढ़ाया जा सकता है। उचित तरीके से फसल चक्र का प्रयोग एवं बेहतर कृषि प्रबंधन की तकनीक अपना कर अपरदन कम किया जा सकता है। क्षारीय एवं लवणीय भूमि के सुधार से जहां उत्पादन बढ़ेगा वहीं किसानों को काफी फायदा मिलेगा। हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इस दिशा में बेहतर कदम उठाए जा रहे हैं। भूमि संरक्षण मिशन के जरिए जिला-स्तर पर भूमि सुधार की योजनाएं बनाई जा रही हैं। इससे मृदा संरक्षण की दिशा में काफी काम हो ही रहा है। दूसरी तरफ अब किसान पहले की अपेक्षा पढ़े-लिखे एवं जागरूक हो रहे हैं। इससे उम्मीद की जा रही है कि जिस अनुपात में देश में खेती योग्य भूमि कम हो रही है, उसी अनुपात में अभी तक खेती के लिए अनुपयोगी भूमि को खेती के लिए उपयोगी भूमि में परिवर्तित किया जा सकेगा। यह परिवर्तन देश के विकास में मील का पत्थर साबित होगा।
(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)
ई-मेल: dr.shambhunath@gamil.com
चूंकि भारत कृषि प्रधान देश है। इसके बाद भी भारत में करीब 50 फीसदी से ज्यादा भूमि किसी न किसी कारण बेकार पड़ी हुई है। इस बेकार पड़ी भूमि पर खेती न होने के पीछे एक बड़ा कारण इनका अनुपजाऊ होना है। इसके अलावा एक बड़ी समस्या यह भी है कि जो भूमि उपजाऊ है वह भी किसी न किसी कारण अनुपजाऊ होती जा रही है। देश में कृषि योग्य भूमि का एक बड़ा हिस्सा क्षरित भूमि का है। इस भूमि को बचाना सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि विकास समय की जरूरत है। विकास की दौड़ में कृषि योग्य भूमि का प्रभावित होना भी स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में हमारे पास जो विकल्प हैं, उनमें अनुपयोगी मिट्टी को कृषि योग्य बनाना बेहद जरूरी है। इससे कृषि योग्य भूमि का रकबा बरकरार रह पाएगा और खाद्य संकट की समस्या से भी निजात पायी जा सकती है। चूंकि जिस अनुपात में जनसंख्या वृद्धि हो रही है, उसी अनुपात में खेती योग्य जमीन कम हो रही है। जनसंख्या वृद्धि के साथ ही मानव जीवन की तमाम जरूरतें बढ़ रही हैं। रहने के लिए आवास बनाना है तो कामधंधे के लिए कल-कारखाने लगाने हैं। शिक्षा के लिए विद्यालय भवन बनाना है। इस तरह के तमाम कार्य हैं जिसके लिए भूमि की जरूरत पड़ रही है। शहरों का विकास हो अथवा कोई अन्य कार्य - हर कार्य भूमि पर ही किया जा सकता है। यही वजह है कि खेती योग्य भूमि का क्षेत्रफल लगातार कम हो रहा है। हालात तो यहां तक पहुंच गए हैं कि जंगलों को काटकर और नदी-नालों को पाटकर शहरीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर पड़ेगा उत्पादन पर। इन सभी कारणों से खेती योग्य जमीन का क्षेत्रफल घटता जा रहा है।
आंकड़ों पर ध्यान दें तो भारत में मनुष्य भूमि अनुपात 0.48 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति है, जो दुनिया के न्यूनतम अनुपातों में से एक है। वर्ष 2025 में घटकर यह आंकड़ा 0.23 हेक्टेयर होने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसे में खेती की अनुपयोगी जमीन को खेती योग्य बनाकर एक बड़ी चुनौती से निबटा जा सकता है। भारत में कुल भूमि क्षेत्रफल 329 मिलयन हेक्टेयर है। इसमें अभी तक कृषि कार्य में करीब 144 मिलियन हेक्टेयर भूमि ली जा रही है। करीब 178 मिलियन हेक्टेयर भूमि विभिन्न कारणों से बंजर पड़ी हुई है। इसमें करीब 40 मिलियन हेक्टेयर क्षरित वन भी सम्मिलित हैं और 84 मिलियन हेक्येटर वर्षा पर आधारित हैं। भारत में मृदा अपरदन की दर करीब 2600 मिलियन टन प्रतिवर्ष है। देश की करीब 140 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल तथा वायु अपरदन से प्रभावित है।
कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष अपरदन के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब-करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान होने से बचाया जा सकता है। यानी हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा को बचाया जा सकता है। कृषि वैज्ञानिक डॉ. एमएस स्वामीनाथन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में प्रतिवर्ष अपरदन के कारण करीब 25 लाख टन नाइट्रोजन, 33 लाख टन फास्फेट और 25 लाख टन पोटाश की क्षति होती है। यदि इस प्रभाव को बचा लिया जाए तो हर साल करीब-करीब छह हजार मिलियन टन मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान होने से बचाया जा सकता है। यानी हर साल करीब 5.53 मिलियन टन नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा को बचाया जा सकता है। इस तरह जहां बंजर होती जमीन को बचाया जा सकेगा वहीं किसानों की जेब को भी कटने से बचाया जा सकेगा। क्योंकि जानकारी के अभाव में किसान अपने खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाने की तमाम तरकीबें निकालते रहते हैं। इसके लिए वे रासायनिक खादों का अंधाधुंध प्रयोग करने से बाज नहीं आते, जिनका फायदा मिलने के बजाय नुकसान ही होता है।
आंकड़ें बताते हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में मिट्टी की एक इंच मोटी परत जमने में करीब आठ सौ साल लगते हैं, जबकि एक इंच मिट्टी को उड़ाने में आंधी और पानी को चंद पल लगते हैं। यदि हम आकलन करें और देखें कि एक हेक्टेयर भूमि की ऊपरी परत में नाइट्रोजन की मात्रा कम होने से किसान को करीब तीन से पांच सौ रुपये खर्च करने पड़ते हैं। इस तरह समूचे देश से किसानों की आय का एक बड़ा हिस्सा सिर्फ मिट्टी को बार-बार उपजाऊ बनाने में ही खर्च हो जाता है जबकि वही पौधे को मिलता तो किसान को बिना लागत फायदा होता, लेकिन जानकारी के अभाव में ऐसा नहीं हो पा रहा है।
इस तरह देखा जाए तो मृदा के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों को बचाना बेहद जरूरी है क्योंकि मृदा की उर्वराशक्ति के क्षीण होने का नुकसान किसी न किसी रूप में समूचे राष्ट्र को चुकाना पड़ता है। यदि फसलों की वृद्धि के लिए आवश्यक नाइट्रोजन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम, गंधक, पोटाश सहित अन्य तत्वों को बचाकर उनका समुचित उपयोग पौधे को ताकतवर बनाने में किया जाए तो एक तरफ हमारी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा और दूसरी तरफ मृदा संरक्षण की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल होगी। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से भूमि सुधार कार्यक्रम, बंजर भूमि सुधार कार्यक्रम सहित कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इसे और विस्तारित करने की जरूरत है।
जल अपरदन
भारत में हर साल कहीं बाढ़ की नौबत रहती है तो कहीं सूखे की। बाढ़ और सूखे के कारण कृषि तो प्रभावित होती ही है, लेकिन इसके अलावा भी कई कारणों से भारतीय खेती प्रभावित होती है, इन्हीं में से एक है जल अपरदन। पारिस्थितिकीविदों के आंकड़ों पर विश्वास करें तो भारत में हर साल करीब छह हजार टन उपजाऊ ऊपरी मिट्टी का कटाव होता है। पानी के साथ बहने वाली इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, कैल्शियम, मैग्नीशियम के साथ ही अन्य सूक्ष्य तत्व भी बह जाते हैं। इससे किसानों का खेत अनुपजाऊ हो जाता है। या यह कहें कि फसल के दौरान पौधा जिन तत्वों को एक बार ग्रहण नहीं कर पाया होता है, वे दूसरी फसल के लिए बचने के बजाय पानी के साथ बहकर खेत से बाहर चले जाते हैं। इस तरह हर साल करीब एक हजार से ज्यादा का नुकसान होता है। खासतौर से मध्य एवं पूर्वी भारत जल अपरदन की चपेट में ज्यादा आता है। इसका एक बड़ा कारण यहां की मिट्टी की स्थिति भी है। उत्तर भारत की अपेक्षा मध्य भारत की लाल मिट्टी में जल अपरदन की संभावना ज्यादा रहती है। इसी तरह उत्तरी-पूर्वी भारत के भी कुछ हिस्से जल अपरदन की चपेट में रहते हैं।
बचाव उपाय
जल अपरदन की समस्या से निजात पाने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किए जाएं। जिन इलाकों में जल अपरदन की ज्यादा समस्या है वहां उसके अनुरूप फसल चक्र अपनाया जाए। जल अपरदन से बचने के लिए जड़युक्त फसलों की खेती ज्यादा से ज्यादा कराई जाए। बाढ़ प्रभावित इलाके में पानी के तीव्र गति से होने वाले बहाव को रोकने के लिए जगह-जगह बाड़बंदी कराई जाए। पट्टीदार खेती करने वाले किसानों को मेड़बंदी में विशेष सहयोग किया जाए। इससे पानी के नीचे उतरने की स्थिति में कुछ देर पानी रुकेगा और मिट्टी को उर्वर बनाने वाले तत्व परत के रूप में जम जाएंगे। सिंचाई की विधि मिट्टी की स्थिति के अनुरूप बनाई जाए। कृषि भूमि के संरक्षण के अलावा अन्य मिट्टी के संरक्षण के लिए विभिन्न तरह की जड़युक्त घास का रोपड़ कराया जाए, बहुवर्षीय पौधे लगवाए जाएं।
वायु अपरदन
वायु अपरदन का असर आमतौर पर शुष्क क्षेत्रों में ज्यादा होता है। जिस इलाके की ज्यादातर मिट्टी बलुई अथवा बलुई दोमट होती है और वहां पेड़-पौधे कम उगते हैं वहां जड़युक्त घासों के उगने की स्थिति बहुत कम होती है। वहां वायु अपरदन ज्यादा होता है। भारत में राजस्थान, उत्तर प्रदेश का कुछ हिस्सा एवं गुजरात का कुछ हिस्सा इससे प्रभावित है। एक रिपोर्ट के तहत वायु अपरदन से भारत में करीब 5.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है। घास न होने एवं मिट्टी के बलुई होने के कारण हवा का तेज झोंका अपने साथ उपजाऊ मिट्टी का एक बड़ा हिस्सा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचा देता है। इसमें पानी को संचय करने की क्षमता कम होती है। इन क्षेत्रों की भूमि में जीवांश पदार्थों का अभाव रहता है।
एक रिपोर्ट के तहत वायु अपरदन से भारत में करीब 5.9 मिलियन हेक्टेयर भूमि प्रभावित है।राजस्थान के बाड़मेर, जैसलमेर एवं बीकानेर का कुछ ऐसा हिस्सा है जहां खेती तो नहीं होती, लेकिन तेज हवा के साथ बलुई मिट्टी इस कदर चलती है कि मानो पानी बह रहा हो। हालांकि इस तरह की मिट्टी में खेती नहीं होती है, लेकिन वायु अपरदन का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस इलाके में जहां एक तरफ बलुई मिट्टी ज्यादा है वहीं एक समस्या और है। वह यह कि बलुई मिट्टी जब हवा के साथ उड़ती है तो आसपास के खेतों में फैल जाती है। इससे जो खेतीयोग्य भूमि है, उसकी उपजाऊ मिट्टी काफी नीचे पड़ जाती है और अनुपजाऊ बलुई मिट्टी ऊपर जमा हो जाती है। इससे खेतीयोग्य भूमि में जब फसल बोई जाती है तो पौधे की जड़ें उपजाऊ मिट्टी तक नहीं पहुंच पाती हैं। इसी तरह अन्य हिस्से में बलुई मिट्टी होने के कारण किसानों को अपने खेत उपजाऊ बनाने एवं पौधों को आवश्यक तत्व देने के लिए निरंतर सूक्ष्म तत्वों की जरूरत पड़ती रहती है।
बचाव उपाय
वायु अपरदन से प्रभावित इलाके में कठोर प्रवृत्ति वाले पौधों का रोपड़ कराया जाए। इन इलाकों में गेहूं, चना के बजाय मेहंदी, बेर, खैर, अरंड, इमली आदि के पौधे लगवाए जाएं और इसी की खेती के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। प्रभावित इलाके के किसानों को इस दिशा में सरकारी-स्तर पर प्रोत्साहित किया जा रहा है। यह संतोष की बात है कि सरकार की ओर से विभिन्न राज्यों में बागवानी मिशन के तहत यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। फिर भी किसानों को इसमें सक्रिय भूमिका निभाने की जरूरत है। खेतों के किनारे झाड़ियों की बाउंड्री बनाई जाए। इससे हवा के साथ उड़ने वाली रेत खेत की मेड़ पर ही थम जाएगी और अनावश्यक रूप से उपजाऊ खेत में नहीं फैल सकेगी।
हालांकि राजस्थान में मेहंदी की खेती बड़े स्तर पर हो रही है। पाली जिले की सोजत तहसील के करीब-करीब 90 फीसदी भूभाग पर मेहंदी की खेती होती है और यहां की मेहंदी को पूरे देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी पहचान मिली है। सरकार की ओर से भी इसके लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इससे जहां वायु अपरदन की समस्या खत्म होगी वहीं किसानों की माली हालत में भी सुधार होगा। इसके अलावा यहां के किसानों को वायु अपरदन से बचाव संबंधी प्रशिक्षण नियमित दिए जाएं। इससे किसानों में जागरुकता आएगी।
बीहड़ भूमि
देश में एक बड़ा भूभाग बीहड़ भूमि का है। बीहड़ भूभाग बनने का मूल कारण तीव्र जल अपरदन ही है। इसकी चपेट में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात जैसे राज्य हैं। राजस्थान का भी कुछ हिस्सा बीहड़ भूभाग में शामिल है। एक रिपोर्ट के मुताबिक इन तीनों राज्यों के बीहड़ भूभाग की वजह से करीब तीन मिलियन टन उत्पादन प्रभावित हो रहा है और करीब 157 करोड़ रुपये का हर साल नुकसान हो रहा है।
बचाव उपाय
बीहड़ भूमि सुधार के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास किया जाए। बीहड़ भूमि सुधार में जुटे किसानों को प्रोत्साहित किया जाए। इसके अलावा इस भूमि पर खैर, पलास, शीशम, चिलबिल सहित उन पौधों का रोपण किया जाए, जिनकी प्रवृत्ति कठोर है। काष्ठीय पौधों का रोपण करने से बीहड़ भूमि का विस्तार थमेगा। साथ ही इन पेड़ों से लकड़ी की जरूरत भी पूरी हो सकेगी।
लवणीय एवं क्षारीय भूमि
खेतीयोग्य जमीन के बीच काफी भूभाग ऐसा है जो लवणीय एवं क्षारीय है। इसका कुल क्षेत्रफल करीब सात मिलियन हेक्टेयर बताया जाता है। मिट्टी में सल्फेट एवं क्लोराइड के घुलनशील लवणों की अधिकता के कारण मिट्टी की उर्वरता खत्म हो जाती है। कृषि में पानी के अधिक प्रयोग एवं जलजमाव के कारण मिट्टी उपजाऊ होने के बजाय लवणीय मिट्टी में परिवर्तित हो जाती है। भारत में सिंचाई कुप्रबंधन के कारण करीब छह-सात मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता से प्रभावित है। यह स्थिति पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में ज्यादा है। इसी तरह करीब छह मिलियन हेक्टेयर भूमि जलजमाव से प्रभावित है। देश में पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा एवं उत्तर-पूर्वी राज्यों में जलजमाव की समस्या है। असमतल भू-क्षेत्र वर्षा जल से काफी समय तक भरा रहता है। इसी तरह गर्मी के दिनों में यह अधिक कठोर हो जाता है। ऐसे में इसकी अम्लता बढ़ जाती है और इसमें खेती नहीं हो पाती है। यदि इस समस्या का निराकरण कर दिया जाए तो खाद्य उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। इसी तरह रासायनिक खादों के अधिक प्रयोग के कारण अम्लीय भूमि भी हमारे देश की उत्पादन क्षमता को प्रभावित कर रही है। अम्लीय मृदा में विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इससे मृदा अपरदन की संभावना बढ़ने लगती है।
बचाव उपाय
सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त किया जाए। खेती योग्य भूमि के बीच जहां भी नहर गुजर रही हो, उसके लीकेज को ठीक किया जाए। नहरों से अनावश्यक रूप से बहने वाले पानी को रोकने की पुख्ता व्यवस्था की जाए क्योंकि नहरों के किनारे स्थित भूमि के लवणीय भूमि में परिवर्तित होने की समस्या तेजी से बढ़ रही है। जिस इलाके से भी नहरें गुजर रही हैं, उस इलाके में एक बड़ा भू-भाग लवणीय हो चुका है। इसी तरह खेतों की मिट्टी के अनुरूप ही सिंचाई की व्यवस्था की जाए। कई बार खेत में पानी अधिक भरने के कारण भी संबंधित खेत की मिट्टी लवणीय हो जाती है। ऐसे में किसानों को किस फसल में कितना पानी देना है, इसका विस्तृत प्रशिक्षण दिया जाए। नील हरित शैवाल लवणीय एवं क्षारीय भूमि के सुधार में बहुत ही कारगर साबित हुए हैं। नील हरित शैवाल ऐसी भूमि में आसानी से उगते भी हैं। ये लवणीयता और क्षारीयता कम करने के साथ ही मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने का भी कार्य करते हैं। इसलिए इन्हें उगाने के लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जाए। इसके अलावा आंवला, बेर, शहतूत जैसे वृक्ष लगाकर एक तरफ मिट्टी को सुधारा जा सकता है तो दूसरी तरफ इनके फलों से आर्थिक समृद्धि भी लाई जा सकती है। जहां जलभराव की समस्या हो वहां जलनिकासी की समुचित व्यवस्था किए जाने की जरूरत है। जलनिकासी की व्यवस्था कर देने के कुछ दिन बाद संबंधित इलाके की मिट्टी खेती योग्य तैयार हो जाती है।
इसरो ने किया खुलासा इसरो की रिपोर्ट में भी यह खुलासा हुआ है कि वायु अपरदन की वजह से रेगिस्तान का विस्तार हो रहा है। वर्ष 1996 तक जहां थार का रेगिस्तान 196150 वर्ग किलोमीटर था वहीं अब 208110 वर्ग किलोमीटर तक हो गया है। इतना ही नहीं थार मरुस्थल हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को भी प्रभावित कर रहा है। हालांकि अरावली की पहाडि़यां वायु अपरदन से आसपास के बड़े क्षेत्रफल को बचा रही थीं लेकिन अंधाधुंध खनन के कारण पहाडि़यां खत्म होती जा रही हैं और रेत खेतों तक पहुंच रही है। इसी तरह अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) एवं कुछ अन्य एजेंसियों ने मरुस्थलीकरण पर रिसर्च की। इसमें पाया गया कि देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का करीब 25 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान है और 32 फीसदी भूमि की गुणवत्ता घटी है। |
इस तरह देखा जाए तो मृदा संरक्षण के जरिए धरती को हरा-भरा बनाने के साथ ही उत्पादन को भी बढ़ाया जा सकता है। उचित तरीके से फसल चक्र का प्रयोग एवं बेहतर कृषि प्रबंधन की तकनीक अपना कर अपरदन कम किया जा सकता है। क्षारीय एवं लवणीय भूमि के सुधार से जहां उत्पादन बढ़ेगा वहीं किसानों को काफी फायदा मिलेगा। हालांकि केंद्र एवं राज्य सरकारों की ओर से इस दिशा में बेहतर कदम उठाए जा रहे हैं। भूमि संरक्षण मिशन के जरिए जिला-स्तर पर भूमि सुधार की योजनाएं बनाई जा रही हैं। इससे मृदा संरक्षण की दिशा में काफी काम हो ही रहा है। दूसरी तरफ अब किसान पहले की अपेक्षा पढ़े-लिखे एवं जागरूक हो रहे हैं। इससे उम्मीद की जा रही है कि जिस अनुपात में देश में खेती योग्य भूमि कम हो रही है, उसी अनुपात में अभी तक खेती के लिए अनुपयोगी भूमि को खेती के लिए उपयोगी भूमि में परिवर्तित किया जा सकेगा। यह परिवर्तन देश के विकास में मील का पत्थर साबित होगा।
(लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)
ई-मेल: dr.shambhunath@gamil.com
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Post By: pankajbagwan