सतीसर नामक पौराणिक सरोवर को तोड़कर ही तो कश्मीर का प्रदेश बना हुआ है, झेलम नही मानों इस उपत्यका की लंबाई और चौड़ाई को नापती हुई सर्पाकार में बहती है। इसके अलावा जहां नजर डालें वहां कमल, सिंघाड़े तथा किस्म-किस्म की साग-सब्जी पैदा करने वाले ‘दल’ (सरोवर) फैले हुए दीख पड़ते हैं। जिस वर्ष जल-प्रलय न हो वही सौभाग्य का वर्ष समझ लीजिये ऐसे प्रदेश में गाड़ी के संकरे रास्ते जैसे छोटे प्रवाह को भला पूछे ही कौन?
फिर भी ऐसे एक प्रवाह को कश्मीर में भी प्रतिष्ठा मिली है।
इसमें पानी अधिक चाहे न हो, किन्तु यह प्रवाह अखंड रूप से बहता है। न कम होता है, न बढ़ता है। इसका पानी सफेद रंग का है। इसीलिए शायद इसका नाम दूधगंगा रखा गया होगा। जिस नारायणाश्रम में हम रहते थे, उसके नजदीक से ही यह दूधगंगा बहती थी। एक लंबी लकड़ी डालकर उस पर पुल बनाया गया था। नहाने के लिए दूधगंगा बहुत अनुकूल है। उसमें खड़े-खड़े नहाया जा सकता है, और तैरना हो तो थोड़ा तैरा भी जा सकता है। बुवा बीमार थे तब बर्तन मांजने में, कपड़े धोने में और अन्य कामों में दूधगंगा की मुझे काफी मदद मिलती थी। उस अपरिचित प्रदेश में जब हम दोनों बीमार पड़े, तब यदि दूधगंगा की मदद हमें न मिलती तो हमारी क्या दशा हुई होती?
कृतज्ञता के कारण दूधगंगा का माहात्म्य खोजने की इच्छा हुई। सार्वजनिक पुस्तकालय में जाकर मैंने अनेक पुस्तकें ढूंढ़ निकाली। यह जानकर मुझे आश्चर्य हुआ कि इतनी छोटी दूधगंगा बहुत दूर से आती है और दूर-दूर तक जाती है। किस ऋषि ने दूधगंगा को जन्म दिया, किस-किसने उसके किनारे तपस्या की आदि सब जानकारी मैंने खोज करके प्राप्त कर ली। इतिहास की अनंत घटनाओं की तरह यह जानकारी भी विस्मृति के प्रवाह में फिर से बह गई, और असली कृतज्ञता ही केवल शेष रही है।
इतना याद है कि रोज सुबह मठ के साधु स्नान करने के लिए नदी पर इकट्ठा होते थे। और रात को जब सब सो जाते तब मैं दूधगंगा के किनारे बैठकर आकाश के ध्रुव का ध्यान करता था। मेरा ध्यान भी अधिक न चला, क्योंकि कश्मीर में ध्रुव इतना ऊंचा होता है। कि उसके ओर देखने में गर्दन दर्द करने लगती है। वहां सप्तर्षि में अरुंधती-सहित वसिष्ठ को सीधा सिर पर विराजमान देखकर कितना आश्चर्य मालूम होता था!
कश्मीर-तल-वाहिनी सती-कन्या दूधगंगा को मेरा प्रणाम।
1926-27
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