उज्जैन में क्षिप्रा नदी ने अपने किनारों को तोड़ कर सब मन्दिरों, घाटों, हाट-बाजारों और गली-मोहल्लों में चक्कर लगा कर एक बार फिर यह बताने, समझाने की कोशिश की है कि नदियों को जीवित करने के लिये उनमें कहीं और से पानी लाकर डालना ठीक नहीं है। ऐसी सूखी मानी गई नदी पूरे शहर-गाँवों को डुबो सकती है। नदी, वर्षा, तालाब और भूजल का यह विचित्र खेल समझा रहे हैं श्री विनायक परिहार।
देश भर में नदियों को जोड़ने की बात एक बार फिर तेजी से होने लगी है। इसे समय की जरूरत बताते हुए कहा जा रहा है कि इससे देश की 90 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि को सिंचित किया जा सकता है। इस परियोजना को देश के सर्वोच्च न्यायालय से समयबद्ध क्रियान्वयन का निर्देश भी दिया जा चुका है।
लेकिन इस पर न तो कोई आम बहस होने दी गई और न सम्बन्धित लोगों, जन संगठनों या स्वतंत्र विशेषज्ञों से कोई राय ही ली गई है। वैसे तो नदी जोड़ो परियोजना कागज और भाषणों में सम्मोहक लगती है लेकिन इस परियोजना के दूसरे पहलुओं पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जब तक यह कागज और जुबान पर है, तभी तक अच्छी है।
जमीन पर आते ही कई तरह की मुसीबतें आ जाएँगी। नमूना देखिए नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना का। 26 फरवरी, 2014 को देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मध्य प्रदेश में नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना का शुभारम्भ किया गया था। इसे मध्य प्रदेश सरकार देश की पहली नदी जोड़ो परियोजना बता रही है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने असम्भव को सम्भव करने का दावा किया था। उन्होंने कहा था कि इस परियोजना से सूख गई क्षिप्रा नदी को नया जीवन मिलेगा। सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र को भरपूर पानी मिलेगा।
प्रथम चरण में ओंकारेश्वर परियोजना से नर्मदा जल क्षिप्रा में प्रवाहित किया जाएगा। इससे उज्जैन, देवास सहित 250 गाँवों को पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा। साथ ही सिंहस्थ मेला, कृषि कार्य तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर के औद्योगिक क्षेत्रों को भी पानी मिलेगा। आगामी चरणों में नर्मदा के पानीको गम्भीर, कालीसिंध और पार्वती आदि नदियों में भी डालने की योजना है।
इससे मालवा के 70 नगरों और 3000 गाँवों को पेयजल सहित 17 लाख एकड़ में सिंचाई तथा सम्पूर्ण मालवा के उद्योगों को जल की कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। शासन की अधिकृत प्रेस विज्ञप्तिमें तो इस परियोजना के जरिए नर्मदा जल को इलाहाबाद की गंगा में मिलाने का दावा भी किया गया है।
परियोजना के पहले चरण में 432 करोड़ रुपए की लागत से 47 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन के माध्यम से ओंकारेश्वर परियोजना के छोटे सिसलिया तालाब से 5 क्यूसेक अर्थात 5000 लीटर प्रति सेकेंड की दर से 2250 किलो वाट के 18 बड़े पम्पों के माध्यम से लगभग 1000 फुट की ऊँचाई पर बह रही क्षिप्रा के उद्गम उज्जैनी गाँव में पानी मिलाया गया है।
नर्मदा नदी घाटी में है, क्षिप्रा उससे 1000 फुट ऊपर मालवा के पठार पर। इतनी बड़ी जल राशि को इतने ऊपर चढ़ाने में कोई 27.5 मेगावाट बिजली खर्च होती है। सरल शब्दों में कहें तो रोज कोई 15-16 लाख रुपए की बिजली खर्च हो रही है।
नीचे का पानी उठाकर ऊपर फेंकने वाली इस परियोजना में कई मूलभूत कमियाँ हैं। यह परियोजना गुजरात की नकल करने के प्रयास का नतीजा है। गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया। लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया गया था। नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया था।
नर्मदा-क्षिप्रा परियोजना में चार-चार पंपिंग स्टेशनों के माध्यम से पानी को 348 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचाया जाएगा। स्वाभाविक है 47 किलोमीटर लम्बा जल पथ, चार चरणों की पम्पिंग और कोई 1000 फुट की ऊँचाई पर पहुँचने वाले पानी की मात्रा में भी भारी कमी आएगी।
सूखी बताई गई क्षिप्रा और सूखे भूमिगत जल स्रोतों की प्यास बुझाने के बाद आम आदमी तक कितना पानी पहुँचेगा, यह वक्त के साथ पता चलेगा। इस पूरी प्रक्रिया में भारी मात्रा में बिजली की खपत भी होगी। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकारण के अनुसार इस काम के लिये 27.5 मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी मात्रा में बिजली लेने पर वर्ष 2012 की दर से 118.92 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का खर्च आएगा।यानी इस पानी की कीमत 24 रुपए प्रति हजार लीटर होगी।
अगर रखरखाव, कर्चचारियों के वेतन, जल रिसाव आदि अन्य तरह के खर्चों को भी जोड़ दें तो पानी की कीमत 48 रुपए प्रति हजार लीटर के आसपास होगी। यह सब भी तब जब इसमें इस परियोजना की 432 करोड़ रुपए की मूल लागत और ओंकारेश्वर परियोजना की लागत को नहीं जोड़ा गया है।
हमारे देश में शहरी क्षेत्र में दिये जाने वाले जल की अधिकतम कीमत 8 रुपए प्रति हजार लीटर है। मध्य प्रदेश में तो यह मात्रा दो रुपए प्रति हजार लीटर है। परियोजना प्रतिवेदन में यह स्पष्ट नहीं है कि बिजली बिल के भुगतान के लिये इतनी बड़ी राशि कहाँ से आएगी। जाहिर है अन्त में सब खर्च आम जनता को ही वहन करना पड़ेगा।
परियोजना के इस चरण से देवास, उज्जैन शहरों सहित 250 गाँवों को पेयजल, कृषि, सिंचाई तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र को जल देने के साथ भूमिगत जल स्रोतों के संवर्धन का लक्ष्य भी रखा गया है।
योजनाकारों के अनुसार इन क्षेत्रों के लिये जल की आवश्यक मात्रा, परियोजना द्वारा प्रस्तावित मात्रा से कई गुना ज्यादा है। यहाँ जल की वर्तमान खपत का आँकड़ा देखें तो यह मात्रा ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। यह जीरा भी बहुत ही महंगा होगा। परियोजना में यह भी ठीक से नहीं बताया गया है कि जो स्थान क्षिप्रा नदी से दूर बसे हैं, वहाँ तक पानी कैसे जाएगा। यह सब खर्च में खर्च जुड़ने जैसी अव्यावहारिक योजनाएँ हैं।
नदी जोड़ो परियोजना का आम सिद्धान्त यही है कि किसी भी दानदाता नदी का पानी किसी दूसरी नदी में तभी डाला जाना चाहिए जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकता से अधिक पानी उपलब्ध हो। वाशिंगटन की वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट नामक संस्था के अनुसार नर्मदा दुनिया की 6सबसे संकटग्रस्त नदियों में से एक है।
नीचे का पानी उठाकर ऊपर फेंकने वाली इस परियोजना में कई मूलभूत कमियाँ हैं। यह परियोजना गुजरात की नकल करने के प्रयास का नतीजा है। गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया। लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया गया था। नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया था। नर्मदा-क्षिप्रा परियोजना में चार-चार पंपिंग स्टेशनों के माध्यम से पानी को 348 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचाया जाएगा। स्वाभाविक है 47 किलोमीटर लम्बा जल पथ, चार चरणों की पम्पिंग और कोई 1000 फुट की ऊँचाई पर पहुँचने वाले पानी की मात्रा में भी भारी कमी आएगी।केन्द्रीय जल आयोग भी बता रहा है कि नर्मदा में पानी कम होता जा रहा है। इस विचित्र योजना के लिये शासन ने न तो कोई सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया और न कोई कानूनी पर्यावरणीय मंजूरी ही ली है। पेयजल परियोजना बनाते समय पर्यावरणीय मंजूरी की जरूरत नहीं मानी जाती। कानून में इस छूट का फायदा उठाते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने परियोजना के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का भी कोई ठीक अध्ययन नहीं किया है।
नदी केवल बहता पानी नहीं है। वह जीवित है। उसका अपना एक जीवन होता है, स्वभाव होता है। चरित्र होता है, प्रवाह होता है, जैविक विविधता होती है। नदियों की ऊँचाई-निचाई होती है। नदी के प्रवाह क्षेत्र में उसके भू-सांस्कृतिक क्षेत्र की मिट्टी, तापक्रम, पंचतत्व शामिल रहते हैं। अगर उसमें अचानक कोई दखल दिया जाये तो नदी का स्वभाव और जीवन बदल जाता है।
उसके बहाव से खिलवाड़ करना जीवन से छेड़छाड़ करने जैसा है। आवश्यकता पड़ने पर प्रकृति नदियों को जोड़ने का काम भी करती है। लेकिन तब ऐसी किसी योजना को पूरा करने में उसे हजारों लाखों वर्ष लग जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रकृति की मेहनत के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए समाज ऐसे मिलन को तीर्थ की संज्ञा देता है। प्रकृति में कोई भी बदलाव अचानक नहीं होता। लेकिन हम सब अपने घमंड में कुछ ही सालों में सब कुछ कर लेना चाहते हैं।
देश की नदियों को देखें तो हम पाएँगे गंगा, यमुना, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ आसपास से निकल कर अलग-अलग बहती हैं और एक-दूसरे से न जाने कितनी दूर जाकर आपस में मिलती भी हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा और सोनभद्र एक ही स्थान से निकल कर अलग-अलग दिशा में बहती हैं।
एक ही उद्गम से निकलकर नदियाँ अलग-अलग क्यों बहती हैं? प्रकृति ने अनेक नदियाँ बनाई लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक नदी क्यों नहीं बनाई? लाखों वर्ष लग जाते हैं एक नदी को अपने लिये एक खास रास्ता बनाने में। तब समाज उसके तट पर अपने को बसाता है।
हमारे देश में सरकारें प्यास लगने पर कुआँ खोदना चाहती हैं। इसलिये कभी नदी जोड़ तो कभी नदी तोड़ जैसी योजनाएँ आती हैं। इसी मानसिकता के कारण हमारे देश में जल संरक्षण पर कोई स्वस्थ बहस नहीं हो पाती है। हमारे देश में पुराने समय से पानी इकट्ठा करने के अच्छे, सस्ते और व्यावहारिक स्वदेशीतरीके मौजूद हैं।
पानी के मामले में हम दुनिया के सम्पन्नतम देशों में हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। वर्षाजल को छोटे-बड़े तालाबों में एकत्र करने की सम्पन्न परम्परा अंग्रेजी राज में उपेक्षित हुई और आजादी के बाद तो विलुप्त ही हो चली है।
विशेषज्ञों के अनुसार देश की कुल 3 प्रतिशत भूमि पर बने तालाब कुल वर्षा का 25 प्रतिशत भाग जमा कर सकते हैं। इसी से हमारी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। यदि बिजली फूँक कर पाइप लाइन के जरिए पानी चढ़ा कर ही नदियाँ जिन्दा हो सकतीं तो शायद अब तक देश की कोई भी नदी सूखी नहीं रहती।
नर्मदा क्षिप्रा परियोजना से क्षिप्रा को नया जीवन मिलेगा या नहीं, मालवा की प्यास बुझेगी या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल जब मालवा के समाज ने खान, गम्भीर, क्षिप्रा, कालीसिन्ध, पार्वती आदि सदानीर नदियों की दुर्दशा कर दी तो नर्मदा के साथ कैसा सलूक करेगा। और जब मालवा की इन अन्य नदियों की तरह नर्मदा भी सूखने लग जाएगी तो नर्मदा को जीवितकरने के लिये किस नदी का पानी लाया जाएगा?
देश भर में नदियों को जोड़ने की बात एक बार फिर तेजी से होने लगी है। इसे समय की जरूरत बताते हुए कहा जा रहा है कि इससे देश की 90 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि को सिंचित किया जा सकता है। इस परियोजना को देश के सर्वोच्च न्यायालय से समयबद्ध क्रियान्वयन का निर्देश भी दिया जा चुका है।
लेकिन इस पर न तो कोई आम बहस होने दी गई और न सम्बन्धित लोगों, जन संगठनों या स्वतंत्र विशेषज्ञों से कोई राय ही ली गई है। वैसे तो नदी जोड़ो परियोजना कागज और भाषणों में सम्मोहक लगती है लेकिन इस परियोजना के दूसरे पहलुओं पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि जब तक यह कागज और जुबान पर है, तभी तक अच्छी है।
जमीन पर आते ही कई तरह की मुसीबतें आ जाएँगी। नमूना देखिए नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना का। 26 फरवरी, 2014 को देश के पूर्व उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मध्य प्रदेश में नर्मदा क्षिप्रा सिंहस्थ लिंक परियोजना का शुभारम्भ किया गया था। इसे मध्य प्रदेश सरकार देश की पहली नदी जोड़ो परियोजना बता रही है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने असम्भव को सम्भव करने का दावा किया था। उन्होंने कहा था कि इस परियोजना से सूख गई क्षिप्रा नदी को नया जीवन मिलेगा। सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र को भरपूर पानी मिलेगा।
प्रथम चरण में ओंकारेश्वर परियोजना से नर्मदा जल क्षिप्रा में प्रवाहित किया जाएगा। इससे उज्जैन, देवास सहित 250 गाँवों को पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा। साथ ही सिंहस्थ मेला, कृषि कार्य तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर के औद्योगिक क्षेत्रों को भी पानी मिलेगा। आगामी चरणों में नर्मदा के पानीको गम्भीर, कालीसिंध और पार्वती आदि नदियों में भी डालने की योजना है।
इससे मालवा के 70 नगरों और 3000 गाँवों को पेयजल सहित 17 लाख एकड़ में सिंचाई तथा सम्पूर्ण मालवा के उद्योगों को जल की कोई कमी नहीं आने दी जाएगी। शासन की अधिकृत प्रेस विज्ञप्तिमें तो इस परियोजना के जरिए नर्मदा जल को इलाहाबाद की गंगा में मिलाने का दावा भी किया गया है।
परियोजना के पहले चरण में 432 करोड़ रुपए की लागत से 47 किलोमीटर लम्बी पाइप लाइन के माध्यम से ओंकारेश्वर परियोजना के छोटे सिसलिया तालाब से 5 क्यूसेक अर्थात 5000 लीटर प्रति सेकेंड की दर से 2250 किलो वाट के 18 बड़े पम्पों के माध्यम से लगभग 1000 फुट की ऊँचाई पर बह रही क्षिप्रा के उद्गम उज्जैनी गाँव में पानी मिलाया गया है।
नर्मदा नदी घाटी में है, क्षिप्रा उससे 1000 फुट ऊपर मालवा के पठार पर। इतनी बड़ी जल राशि को इतने ऊपर चढ़ाने में कोई 27.5 मेगावाट बिजली खर्च होती है। सरल शब्दों में कहें तो रोज कोई 15-16 लाख रुपए की बिजली खर्च हो रही है।
नीचे का पानी उठाकर ऊपर फेंकने वाली इस परियोजना में कई मूलभूत कमियाँ हैं। यह परियोजना गुजरात की नकल करने के प्रयास का नतीजा है। गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया। लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया गया था। नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया था।
नर्मदा-क्षिप्रा परियोजना में चार-चार पंपिंग स्टेशनों के माध्यम से पानी को 348 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचाया जाएगा। स्वाभाविक है 47 किलोमीटर लम्बा जल पथ, चार चरणों की पम्पिंग और कोई 1000 फुट की ऊँचाई पर पहुँचने वाले पानी की मात्रा में भी भारी कमी आएगी।
सूखी बताई गई क्षिप्रा और सूखे भूमिगत जल स्रोतों की प्यास बुझाने के बाद आम आदमी तक कितना पानी पहुँचेगा, यह वक्त के साथ पता चलेगा। इस पूरी प्रक्रिया में भारी मात्रा में बिजली की खपत भी होगी। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकारण के अनुसार इस काम के लिये 27.5 मेगावाट बिजली की जरूरत होगी। इतनी मात्रा में बिजली लेने पर वर्ष 2012 की दर से 118.92 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष का खर्च आएगा।यानी इस पानी की कीमत 24 रुपए प्रति हजार लीटर होगी।
अगर रखरखाव, कर्चचारियों के वेतन, जल रिसाव आदि अन्य तरह के खर्चों को भी जोड़ दें तो पानी की कीमत 48 रुपए प्रति हजार लीटर के आसपास होगी। यह सब भी तब जब इसमें इस परियोजना की 432 करोड़ रुपए की मूल लागत और ओंकारेश्वर परियोजना की लागत को नहीं जोड़ा गया है।
हमारे देश में शहरी क्षेत्र में दिये जाने वाले जल की अधिकतम कीमत 8 रुपए प्रति हजार लीटर है। मध्य प्रदेश में तो यह मात्रा दो रुपए प्रति हजार लीटर है। परियोजना प्रतिवेदन में यह स्पष्ट नहीं है कि बिजली बिल के भुगतान के लिये इतनी बड़ी राशि कहाँ से आएगी। जाहिर है अन्त में सब खर्च आम जनता को ही वहन करना पड़ेगा।
परियोजना के इस चरण से देवास, उज्जैन शहरों सहित 250 गाँवों को पेयजल, कृषि, सिंचाई तथा उज्जैन, देवास व पीथमपुर औद्योगिक क्षेत्र को जल देने के साथ भूमिगत जल स्रोतों के संवर्धन का लक्ष्य भी रखा गया है।
योजनाकारों के अनुसार इन क्षेत्रों के लिये जल की आवश्यक मात्रा, परियोजना द्वारा प्रस्तावित मात्रा से कई गुना ज्यादा है। यहाँ जल की वर्तमान खपत का आँकड़ा देखें तो यह मात्रा ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। यह जीरा भी बहुत ही महंगा होगा। परियोजना में यह भी ठीक से नहीं बताया गया है कि जो स्थान क्षिप्रा नदी से दूर बसे हैं, वहाँ तक पानी कैसे जाएगा। यह सब खर्च में खर्च जुड़ने जैसी अव्यावहारिक योजनाएँ हैं।
नदी जोड़ो परियोजना का आम सिद्धान्त यही है कि किसी भी दानदाता नदी का पानी किसी दूसरी नदी में तभी डाला जाना चाहिए जब दानदाता नदी में अपने इलाके के लोगों की आवश्यकता से अधिक पानी उपलब्ध हो। वाशिंगटन की वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट नामक संस्था के अनुसार नर्मदा दुनिया की 6सबसे संकटग्रस्त नदियों में से एक है।
नीचे का पानी उठाकर ऊपर फेंकने वाली इस परियोजना में कई मूलभूत कमियाँ हैं। यह परियोजना गुजरात की नकल करने के प्रयास का नतीजा है। गुजरात में नर्मदा जल को सूखी साबरमती में डाला गया। लेकिन साबरमती में नर्मदा का पानी नहर के माध्यम से मिलाया गया था। नीचे से ऊपर नहीं चढ़ाया था। नर्मदा-क्षिप्रा परियोजना में चार-चार पंपिंग स्टेशनों के माध्यम से पानी को 348 मीटर की ऊँचाई पर पहुँचाया जाएगा। स्वाभाविक है 47 किलोमीटर लम्बा जल पथ, चार चरणों की पम्पिंग और कोई 1000 फुट की ऊँचाई पर पहुँचने वाले पानी की मात्रा में भी भारी कमी आएगी।केन्द्रीय जल आयोग भी बता रहा है कि नर्मदा में पानी कम होता जा रहा है। इस विचित्र योजना के लिये शासन ने न तो कोई सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन किया और न कोई कानूनी पर्यावरणीय मंजूरी ही ली है। पेयजल परियोजना बनाते समय पर्यावरणीय मंजूरी की जरूरत नहीं मानी जाती। कानून में इस छूट का फायदा उठाते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने परियोजना के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का भी कोई ठीक अध्ययन नहीं किया है।
नदी केवल बहता पानी नहीं है। वह जीवित है। उसका अपना एक जीवन होता है, स्वभाव होता है। चरित्र होता है, प्रवाह होता है, जैविक विविधता होती है। नदियों की ऊँचाई-निचाई होती है। नदी के प्रवाह क्षेत्र में उसके भू-सांस्कृतिक क्षेत्र की मिट्टी, तापक्रम, पंचतत्व शामिल रहते हैं। अगर उसमें अचानक कोई दखल दिया जाये तो नदी का स्वभाव और जीवन बदल जाता है।
उसके बहाव से खिलवाड़ करना जीवन से छेड़छाड़ करने जैसा है। आवश्यकता पड़ने पर प्रकृति नदियों को जोड़ने का काम भी करती है। लेकिन तब ऐसी किसी योजना को पूरा करने में उसे हजारों लाखों वर्ष लग जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में प्रकृति की मेहनत के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए समाज ऐसे मिलन को तीर्थ की संज्ञा देता है। प्रकृति में कोई भी बदलाव अचानक नहीं होता। लेकिन हम सब अपने घमंड में कुछ ही सालों में सब कुछ कर लेना चाहते हैं।
देश की नदियों को देखें तो हम पाएँगे गंगा, यमुना, सिन्धु और ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ आसपास से निकल कर अलग-अलग बहती हैं और एक-दूसरे से न जाने कितनी दूर जाकर आपस में मिलती भी हैं। मध्य प्रदेश में नर्मदा और सोनभद्र एक ही स्थान से निकल कर अलग-अलग दिशा में बहती हैं।
एक ही उद्गम से निकलकर नदियाँ अलग-अलग क्यों बहती हैं? प्रकृति ने अनेक नदियाँ बनाई लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक नदी क्यों नहीं बनाई? लाखों वर्ष लग जाते हैं एक नदी को अपने लिये एक खास रास्ता बनाने में। तब समाज उसके तट पर अपने को बसाता है।
हमारे देश में सरकारें प्यास लगने पर कुआँ खोदना चाहती हैं। इसलिये कभी नदी जोड़ तो कभी नदी तोड़ जैसी योजनाएँ आती हैं। इसी मानसिकता के कारण हमारे देश में जल संरक्षण पर कोई स्वस्थ बहस नहीं हो पाती है। हमारे देश में पुराने समय से पानी इकट्ठा करने के अच्छे, सस्ते और व्यावहारिक स्वदेशीतरीके मौजूद हैं।
पानी के मामले में हम दुनिया के सम्पन्नतम देशों में हैं लेकिन दुर्भाग्यवश हम इस वरदान का सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। वर्षाजल को छोटे-बड़े तालाबों में एकत्र करने की सम्पन्न परम्परा अंग्रेजी राज में उपेक्षित हुई और आजादी के बाद तो विलुप्त ही हो चली है।
विशेषज्ञों के अनुसार देश की कुल 3 प्रतिशत भूमि पर बने तालाब कुल वर्षा का 25 प्रतिशत भाग जमा कर सकते हैं। इसी से हमारी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है। यदि बिजली फूँक कर पाइप लाइन के जरिए पानी चढ़ा कर ही नदियाँ जिन्दा हो सकतीं तो शायद अब तक देश की कोई भी नदी सूखी नहीं रहती।
नर्मदा क्षिप्रा परियोजना से क्षिप्रा को नया जीवन मिलेगा या नहीं, मालवा की प्यास बुझेगी या नहीं यह तो भविष्य ही बताएगा, लेकिन सबसे बड़ा सवाल जब मालवा के समाज ने खान, गम्भीर, क्षिप्रा, कालीसिन्ध, पार्वती आदि सदानीर नदियों की दुर्दशा कर दी तो नर्मदा के साथ कैसा सलूक करेगा। और जब मालवा की इन अन्य नदियों की तरह नर्मदा भी सूखने लग जाएगी तो नर्मदा को जीवितकरने के लिये किस नदी का पानी लाया जाएगा?
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