ओजोन परत का उद्गम प्राचीन महासागरों से हुआ है और वह धीरे-धीरे दो अरब वर्षों में पूरा बनकर तैयार हुआ है। ओजोन परत में जो ओजोन है उसका मूल स्रोत महासागरों के पादपों द्वारा किए गए प्रकाश-संश्लेषण के दौरान पैदा हुई ऑक्सीजन है। महासागरों से निकली ऑक्सीजन के अणु ऊपर उठते-उठते वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंच जाते हैं। वहां वे परमाणुओं में टूट जाते हैं। ये परमाणु दोबारा जुड़कर ओजोन का निर्माण करते हैं। आक्सीजन के अणुओं के बिखरने और आक्सीजन के परमाणुओं के जुड़कर ओजोन बनने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों से प्राप्त होती है।ऊपर आसमान में कुछ विचित्र सा घट रहा है। मनुष्यों को हानिकारक पराबैंगनी किरणों से सुरक्षा प्रदान करनेवाली ओजोन परत पतली होती जा रही है। पराबैंगनी किरणों के लगने के कारण चर्मकैंसर हो सकता है। सांघातिक प्रकार के चर्मकैंसरों में 30 प्रतिशत रोगी पांच साल के अंदर मर जाते हैं। पराबैंगनी किरणों के कारण मोतियाबिंद भी होता है। अधिक संगीन मामलों में लोग इसके कारण अंधे हो सकते हैं। ओजोन परत क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित रसायनों के कारण पतली हो रही है।
पहले हम यही समझते थे कि सीएफसी एक वरदान हैं और वे मनुष्य के जीवन को समृद्ध और आरामदायक बना सकते हैं। सीएफसी कृत्रिम यौगिक होते हैं, जो क्लोरीन, कार्बन और फ्लोरीन से बने होते हैं। उनका न कोई रंग होता है न गंध। हमने रोजमर्रा के कई कार्यों में सीएफसी का उपयोग किया है। मुख्यतः सीएफसी का उपयोग शीतलक के रूप में होता है। जब वे वाष्पीकृत होते हैं, वे आसपास से ऊष्मा ग्रहण करते हैं। इससे फ्रिजों में खाना ठंडा रहता है। वातानुकूलक सीएफसी के वाष्पीकरण ऊर्जा का उपयोग करके कमरों और वाहनों को ठंडा रखते हैं। विकासशील देशों में सीएफसी से यूरीथेन फोम बनाया जाता है जो कारों की सीटें आदि बनाने के काम आता है। सीएफसी का उपयोग सेमीकंडक्टरों को धोने के लिए विलायक के रूप में और ड्राइक्लीनिंग में भी होता है।
ओजोन परत का उद्गम प्राचीन महासागरों से हुआ है और वह धीरे-धीरे दो अरब वर्षों में पूरा बनकर तैयार हुआ है। ओजोन परत में जो ओजोन है उसका मूल स्रोत महासागरों के पादपों द्वारा किए गए प्रकाश-संश्लेषण के दौरान पैदा हुई ऑक्सीजन है। महासागरों से निकली ऑक्सीजन के अणु ऊपर उठते-उठते वायुमंडल के समताप मंडल में पहुंच जाते हैं। वहां वे परमाणुओं में टूट जाते हैं। ये परमाणु दोबारा जुड़कर ओजोन का निर्माण करते हैं। आक्सीजन के अणुओं के बिखरने और आक्सीजन के परमाणुओं के जुड़कर ओजोन बनने के लिए आवश्यक ऊर्जा सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों से प्राप्त होती है। ओजोन परत सूर्य से आने वाली अधिकांश पराबैंगनी किरणों को इन क्रियाओं के लिए अवशोषित कर लेती है, जिससे ये अत्यंत घातक पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक पहुंचने नहीं पातीं।
लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व ओजोन परत पूर्ण रूप से बन गई थी। उसके बन जाने से महासागरीय जीव-जंतु जमीन की ओर बढ़ सके क्योंकि वे अब ओजोन परत के कारण पराबैंगनी किरणों से सुरक्षित थे। इससे पूर्व केवल महासागरों में ही जीवन का अस्तित्व था, क्योंकि वही इन घातक किरणों से मुक्त था।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बड़ी मात्रा में सीएफसी वायुमंडल में छोड़े जाने लगे। समताप मंडल में पहुँचकर सीएफसी टूट जाते हैं, जिससे उनमें मौजूद क्लोरीन मुक्त हो जाती है। यह क्लोरीन ओजोन परत के लिए घातक होती है। जब ओजोन परत नष्ट हो जाती है, पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह तक फिर से पहुंचने लगती है। इससे चर्मकैंसर, मोतियाबिंद आदि होने लगते हैं, और मनुष्य सहित सभी जीव-जंतुओं का स्वास्थ्य संकट में पड़ जाता है।
विश्व भर की मौसम वेधशालाएं उपग्रहों और मौसम गुब्बारों के उपयोग से ओजोन परत का निरीक्षण कर रही हैं। उनके निरीक्षणों से चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। भूमध्य रेखीय प्रदेशों के अलावा बाकी सब स्थानों में ओजोन परत पतली हो रही है। ओजोन परत पतली तब आती है जब समताप मंडल में तापमान कम हो। ऊंचाई जितनी अधिक हो, ओजोन परत उतनी ही अधिक क्षीण हो रही है। सबसे अधिक नुकसान अंटार्कटिका के ऊपर देखा गया है। वहां ओजोन इतना कम हो गया है कि ओजोन परत में एक बड़ा छिद्र ही बन गया है। यह छिद्र वर्ष 1980 में प्रथम बार प्रकट हुआ था। यह छिद्र बढ़ता ही जा रहा है। यदि ओजोन की मात्रा 1 प्रतिशत घट जाए, तो पराबैंगनी किरणों के आपतन में 1.5 प्रतिशत का इजाफा हो जाता है। पराबैंगनी किरणों के कारण होने वाले रोग विश्व भर में बढ़ रहे हैं। सबसे अधिक चिंता चर्मकैंसर है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार 22 लाख व्यक्तियों को हर साल चर्मकैंसर हो जाता है। इनमें से दो लाख व्यक्तियों में यह कैंसर संघातिक होता है। क्योटो विश्वविद्यालय में एक प्रयोग किया गया, जिसके अंतर्गत चूहों को सप्ताह में तीन दिन पराबैंगनी किरणों के सामने रखा गया। लगभग 40 सप्ताह बाद सभी चूहों में चर्मकैंसर के लक्षण देखे गए। जब शोधकर्ताओं ने इन चूहों के जीनों का परीक्षण किया, तो उन्होंने देखा कि कैंसर को रोकने वाले जीन इन चूहों में नदारद थे।
पराबैंगनी किरणें जीनों में उत्परिवर्तन लाती हैं, जिससे कैंसर हो जाता है। पराबैंगनी किरणें आंखों के लेन्स को भी नुकसान पहुँचाती हैं, जिससे मोतियाबिंद हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुसार हर साल 32 लाख व्यक्ति पराबैंगनी किरणों के कारण बने मोतियाबिंद से अंधे हो जाते हैं। पराबैंगनी किरणें फसलों को भी नुकसान पहुंचाती हैं। यदि पराबैंगनी किरणों का आपतन बढ़ जाए, तो विश्व भर में पैदावार घट सकती है और पृथ्वी का संपूर्ण पारिस्थितिकीय तंत्र प्रभावित हो सकता है।
सीएफसी के कारण ओजोन परत का पतला होना एक गंभीर विश्व स्तरीय समस्या है। वर्ष 1987 में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने मांट्रियल प्रोटोकोल अपनाकर सीएफसी में कमी लाने का निश्चय किया। इस प्रोटोकोल में शामिल देशों ने तय किया कि वर्ष 1996 तक वे सीएफसी का उपयोग पूर्णतः बंद कर देंगे।
पश्चिमी देशों में उपयोग किए हुए सीएफसी की पुनर्प्राप्ति के कड़े नियम हैं। इससे वहां इन्हें हवा में छोड़े जाने की समस्या उतनी संगीन नहीं है। परंतु जापान तथा विकासशील देशों में ऐसे नियमों की कमी है। इन देशों का कहना है कि सीएफसी की पुनर्प्राप्ति अव्यावहारिक है। सबसे बड़ी समस्या इसमें आने वाली ऊंची लागत है, जो हर वर्ष लगभग 26 अरब रुपए के बराबर है।
तेजी से विकसित होते एशिया में सीएफसी की मांग बढ़ती ही जा रही है। आज विश्व भर में जितना सीएफसी उपयोग किए जाते हैं, उसका आधा एशिया में होता है, मुख्यतः चीन, जापान, भारत और आसियान देशों में। मांट्रियल प्रोटोकोल की धारा 5,122 विकासशील देशों को सीएफसी का उपयोग समाप्त करने के लिए कुछ अधिक समय देता है, ताकि उनका आर्थिक विकास न रुके। इन देशों को 2010 तक सीएफसी का उपयोग बंद करना है, जबकि समृद्ध देशों के लिए यह सीमा 1996 है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने विकासशील देशों को सीएफसी के उपयोग में कमी लाने में मदद देने के लिए एक बहुपक्षीय कोष स्थापित किया है।
ओजोन परत के पूर्णतः स्वस्थ होने के लिए काफी लंबा समय लगने वाला है। इसका मतलब यह है कि हम सबको अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए आज इसी समय निर्णय लेना होगा कि हम सीएफसी का उपयोग नहीं करेंगे।
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