कृत्रिम मेधा के लाभों का दोहन


कृत्रिम मेधा 1950 के दशक के मध्य से कम्प्यूटर साइंस में शोध का विषय रहा है। इसकी नींव काफी पहले ही पड़ चुकी थी आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क के लिये 1958 में पर्सेपट्रॉन एलॉगरिह्म के आविष्कार के साथ ही इसकी शुरुआत हो गई थी। उसी दौरान 1950 के दशक में एलन ट्यूरिंग ने ‘कम्प्यूूटर मशीनरी एंड इंटेलिजेंस’ शीर्षक से शोध पत्र छापा। इसका मकसद ऐसी मशीन तैयार करना था, जो मानवीय बुद्धि और व्यवहार की नकल कर सके। ज्ञान या जानकारी सम्बन्धी मामलों में किसी मशीन के मानवीय दिमाग की तरह काम करने की क्षमता को कृत्रिम मेधा (एआई) कहा जाता है। मसलन महसूस करने या समझने, तर्कसंगत ढंग से सोचने, सीखने, समस्याओं को हल करने और यहाँ तक रचनात्मकता का इस्तेमाल इसके दायरे में आते हैं। कृत्रिम मेधा को लेकर वैश्विक स्तर पर अलग-अलग राय है। कुछ विद्वान इसे ऐसी बदलावकारी तकनीक मानते हैं, जो ग्रोथ और उत्पादकता की रफ्तार तेज करेगी, जबकि कुछ अन्य लोगों की राय में इसके नकारात्मक मायने हैं और इससे बड़े पैमाने पर रोजगार को नुकसान होगा।

प्राइसवाटरहाउस कूपर्स (पीडब्ल्यूसी) के अनुमानों के मुताबिक, कृत्रिम मेधा का 15.7 खरब डॉलर का अतिरिक्त बाजार है और यह तेजी से बदल रही अर्थव्यवस्था में सबसे बड़ा व्यावसायिक मौका है। यह आलेख कृत्रिम मेधा से सम्बन्धित कुछ तथ्यों के बारे में जानकारी मुहैया कराकर मोटे तौर पर इसकी पड़ताल कर रहा है, जबकि इस विषय के विकास से सम्बन्धित पृष्ठभूमि के बारे में भी बताएगा।

लेख में हालिया बजट के दौरान इस सम्बन्ध में की गई घोषणाओं की भी समीक्षा की जाएगी। मसलन किस तरह से भारत को आने वाले वक्त में कृत्रिम मेधा और इसके असर से फायदा हो सकता है।

कृत्रिम मेधा की बुनियादी अवधारणा और अन्य सहयोगी तकनीक को समझने के लिये हम 2009 की लोकप्रिय फिल्म ‘3 इडियट्स’ के चरमोत्कर्ष पर विचार करते हैं। फिल्म के चरमोत्कर्ष वाले दृश्य में नायक रैंचो (अामिर खान ने इसकी भूमिका निभाई है) को एक गर्भवती महिला को आपातकालीन अवस्था में बच्चे की डिलीवरी करानी पड़ती है, जबकि वह इंजीनियरिंग का छात्र है और उसके पास मेडिकल की कोई ट्रेनिंग नहीं है। गाँवों (खासतौर पर दूर-दराज और आदिवासियों के गाँव में) में इस तरह की हालत काफी आम है, जहाँ मेडिकल सुविधाएँ नहीं के बराबर हैं।

इस फिल्म में समस्या को हल करने में तकनीक अहम भूमिका निभाती है, जहाँ गर्भवती महिला की बहन पिया (यह किरदार करीना कपूर ने निभाया है) बच्चे की डिलीवरी में वीडियो कॉल के जरिए रैंचो की मदद करती है और एक स्वस्थ बच्चे का जन्म होता है। भारतनेट (गाँवों में तेज स्पीड वाले इटरनेट कनेक्शन), आरईसीएल (ग्रामीण विद्युतीकरण) और डिजिटल इण्डिया अभियान जैसी सरकार की अहम योजनाओं के जरिए अब भारत के विभिन्न हिस्सों में टेली-मेडिसिन के जरिए इस तरह का काम मुमकिन है।

इस फिल्म में पिया (प्रशिक्षित डॉक्टर) डिलीवरी के दौरान पूरे वक्त रैंचो की मदद के लिये उपलब्ध रहीं। हमें गाँवों में ऐसी स्थिति में हर नर्स पर एक प्रशिक्षित डॉक्टर की जरूरत होगी। वास्तव में देश के सभी गाँवों में इस तरह की स्थितियों से निपटना बड़ी चुनौती है। कृत्रिम मेधा आधारित सिस्टम यहाँ कारगर हो सकता है और इससे नर्स को रोग के इलाज के बारे में जरूरी निर्देश दिया जा सकता है।

कृत्रिम मेधा सिस्टम बड़ी मात्रा में मौजूद ऐतिहासिक डेटा से सीख सकता है। मसलन एक तरह के रोग और लक्षणों की सूरत में डॉक्टरों द्वारा दी गई दवा के मामले। कृत्रिम मेधा डिजिटल तकनीक के साथ मिलकर ज्ञान और इंटेलिजेंस के जरिए लोगों को सशक्त बनाने में अहम रोल अदा करता है। उदाहरणस्वरूप गाँव के स्वास्थ्य केन्द्र में नर्स को सशक्त बनाना कृत्रिम मेधा द्वारा सशक्तीकरण का एक नमूना है।

कृत्रिम मेधा का इतिहास

कृत्रिम मेधा 1950 के दशक के मध्य से कम्प्यूटर साइंस में शोध का विषय रहा है। इसकी नींव काफी पहले ही पड़ चुकी थी आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क के लिये 1958 में पर्सेपट्रॉन एलॉगरिह्म के आविष्कार के साथ ही इसकी शुरुआत हो गई थी। उसी दौरान 1950 के दशक में एलन ट्यूरिंग ने ‘कम्प्यूूटर मशीनरी एंड इंटेलिजेंस’ शीर्षक से शोध पत्र छापा। इसका मकसद ऐसी मशीन तैयार करना था, जो मानवीय बुद्धि और व्यवहार की नकल कर सके। तर्क, सोच, बोली, धारणा, प्रतिक्रिया और संवाद जैसी मानवीय समझ की बराबरी करने वाली मशीन विकसित करना लम्बे समय से शोधकर्ताओं का मकसद रहा है।

इंटेलिजेंट मशीन की थीम शोधकर्ताओं और विज्ञान गल्पकथाओं पर आधारित फिल्में बनाने वालों के लिये अहम आइडिया रही है। आईबीएम के कम्प्यूटर ‘डीप ब्लू’ ने 1996-97 के दौरान शतरंज के खेल में तत्कालीन चैम्पियन गैरी कास्परोव को हरा दिया था। यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि थी और ‘डीप ब्लू’ मशीन का प्रदर्शन स्वभाव से पूरी तरह तर्कसंगत था और इसमें नजर और भाषा से सम्बन्धित गहरा मानवीय बोध शामिल नहीं था। पिछले कुछ दशकों में डिजिटल तकनीक के क्षेत्र में कई तरह के बड़े बदलाव हुए हैं, जिससे कृत्रिम मेधा की प्रासंगिकता की वापसी हो गई है। इसके साथ बिग डेटा भी कदम-से-कदम मिलाकर चल रहा है।

1960-70 के दौरान दुनिया भर में तेजी से डिजिटाइजेशन हुआ और बैंकिंग, बीमा से लेकर रिटेल तक तमाम तरह के बिजनेस का कामकाज कागज से इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम में पहुँच गया। ऐसे में बड़े पैमाने पर डेटा तैयार हुआ। इसके साथ ही उचित लागत पर बड़े पैमाने पर कम्प्यूटिंग पावर और डेटा स्टोरेज की सुविधा भी हासिल की गई। ऐसे में ‘बिग डेटा’ का विकास हुआ, जिससे बड़े पैमाने पर डेटा की प्रोसेसिंग और एनालिसिस की राह आसान हुई। कम्प्यूटेशन के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी और सस्ती स्टोरेज सुविधा ने कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में नई जान फूँक दी है।

कइयों का मानना है कि ‘डीप लर्निग’ एलॉगरिह्म आविष्कार के कारण ही कृत्रिम मेधा का नए सिरे से उभार हुआ। ‘डीप लर्निग’ एलॉगरिह्म के सैद्धांतिक आधार पर 1965 में मल्टीलेयर आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क (एनएनएन) को खोजा गया। उस वक्त कृत्रिम मेधा प्रणाली को प्रशिक्षित करने के लिये गीगाबइट या टेराबाइट जैसी डेटा की आकलन करने वाली व्यापक प्रणाली नहीं थी। मानवों की भाषा से सम्बन्धित पहल मसलन इंसानों की बातचीत को समझने और उसके उचित जवाब को इस सिस्टम के जरिए अंजाम देेने को काफी जटिल काम माना गया।

आईबीएम का सवाल-जवाब वाला सिस्टम ‘वॉट्सन’ 2011 में दो बड़े गेम प्लेयर्स- ‘जेपर्डी’ को पीछे छोड़ देता है। ‘जेपर्डी’ अलग तरह का शानदार गेम शो है, जिसमें जवाब पहले दिये जाते हैं और इसके भागीदारों को दिये गए सुराग के आधार पर सवाल तैयार करने पड़ते हैं। इंसानों द्वारा जिस दूसरे जटिल काम को अंजाम दिया जाता है, उसमें चीजों को पहचानना, समझना और महसूस किया जाना शामिल है।

कृत्रिम मेधा आधारित एक प्रणाली ने 2012 में बड़े अन्तर से इमेज नेट की तस्वीरों के वर्गीकरण की प्रतियोगिता जीती थी। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय का कृत्रिम मेधा सूचकांक इंसानों की तुलना में कृत्रिम मेधा के प्रदर्शन की तुलना करता है। इसके तहत भाषा और बोली को पहचानने\समझने और वस्तुओं\चीजों के जरिए तस्वीर को पहचानने जैसे काम बेहतरीन कृत्रिम मेधा के प्रदर्शन के स्तर तक पहुँच गए हैं।

किस तरह से मददगार है कृत्रिम मेधा

हम एक बार फिर स्वास्थ्य क्षेत्र के उसी उदाहरण की बात करते हैं- भारत में प्रति हजार लोगों पर एक से भी कम (0.75) डॉक्टर है और अगर विशेषज्ञ डॉक्टरों की बात करें, तो यह आँकड़ा और खराब है। जिस रफ्तार से नए फिजिशियन या डॉक्टर सिस्टम में आ रहे हैं, उसके मद्देनजर निकट भविष्य में इस आँकड़े में बदलाव के आसार नहीं दिखते।

जाहिर तौर पर बड़ी संख्या में ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्रों में डॉक्टरों की दिक्कत है और ऐसे कई केन्द्र जमीनी स्तर पर सिर्फ एक नर्स के भरोसे चलते हैं। दूर-दराज और आदिवासी क्षेत्रों में हालात और खराब हो सकते हैं। रेडियोलॉजी या पैथोलॉजी से जुड़े स्पेशल क्लीनिक में प्रशिक्षित मेडिकल कर्मी की और कमी है-ऐसे पेशेवर मरीजों की बीमारी के बारे में पक्की जानकारी देने के लिये अधिकांश वक्त तस्वीरें देखने में गुजारते हैं। हम तस्वीरों की पहचान में कृत्रिम मेधा का बेहतरीन प्रदर्शन देख चुके हैं।

यहाँ पर बिग डेटा आधारित कृत्रिम मेधा कौशल और काबिलियत के अन्तर को पाटने में मदद कर सकता है। इससे जमीनी स्तर पर मेडिकल स्टाफ का भी सशक्तीकरण होगा। कृत्रिम मेधा आधारित सिस्टम तस्वीरों के आधार पर सुझाव मुहैया कराकर रेडियोलॉजी\पैथोलॉजी के विशेषज्ञों का वक्त बचा सकता है। वे विस्तृत जाँच करने के बजाय काफी कम समय में सीधा मामले की पड़ताल कर सकते हैं। साथ ही, क्लिनिकल विशेषज्ञ जमीनी स्तर पर वैसे जटिल मामलों पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं, जिसमें विशेषज्ञ के दखल की जरूरत होती है।

मरीज की देखभाल करते वक्त नर्स कृत्रिम मेधा से लैस उपकरण के जरिए बीमारी के लक्षणों की पड़ताल कर सकती है। मरीज के लक्षणों के बारे में जानकारी और माप के आधार पर उपकरण सम्भावित इलाज और उचित दवा का सुझाव देता है।

इस तरह से नर्स द्वारा अनुभवी डॉक्टर की तरह ही इलाज किया जा सकता है। साथ ही, अगर नर्स को लगता है कि कोई सुझाव मरीज की मौजूदा हालत में ज्यादा उपयुक्त नहीं है, तो उसके पास इस सुझाव को नहीं मानने का भी विकल्प होगा। ये सभी सुझाव बिग डेटा आधारित कृत्रिम मेधा एलॉगरिह्म के आधार पर मुहैया कराए जाते हैं, जो बड़ी संख्या में ऐसे ही लक्षण वाले गुमनाम मरीजों के रिकॉर्ड का विश्लेषण कर दवाओं के लिये सलाह देता है।

भारत में स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र में बड़े पैमाने पर कौशल का अभाव है और इस तरह की कृत्रिम मेधा आधारित तकनीक इस कमी की भरपाई कर सकती है और लोगों का सशक्तीकरण कर उन्हें रोजाना के कामकाज में ज्यादा कारगर बनाया जा सकता है।

स्टैनफोर्ड में प्रोफेसर और कोर्सेरा के सह-संस्थापक एंड्रयू एनजी ने अपने मशहूर कथन में कृत्रिम मेधा को नई बिजली बताया है। उनके मुताबिक, ‘जिस तरह से बिजली ने 100 वर्षों पहले तकरीबन सब कुछ बदलकर रख दिया, मुझे लगता है कि कृत्रिम अगले कुछ वर्षों में कुछ वैसा ही कर सकता है।’ भारतीय सन्दर्भ में कृत्रिम मेधा के असीमित उपयोग हैं। न्यायपालिका अदालतों में लम्बित पड़े मामलों की संख्या घटाने में इसका इस्तेमाल कर सकता है। शिक्षा के क्षेत्र में भी इसकी मदद से सीखने का सिस्टम विकसित किया जा सकता है या कृषि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस आधारित उपग्रह की तस्वीरों के विश्लेषण के जरिए काफी पहले फसलों की उपज का अनुमान पेश किया जा सकेगा।

अहम बदलाव वाली बाकी तकनीक की तरह कृत्रिम मेधा लोगों के जीवन जीने और काम करने के वर्तमान तौर-तरीकों में बुनियादी बदलाव लाएगा। पिछला बड़ा बदलाव उस वक्त हुआ था, जब देश के बैंकों और बाकी संस्थानों में पहली बार कम्प्यूटर लगाए गए। हालांकि, बड़े पैमाने पर इसका विरोध भी हुआ।

कम्प्यूटरों ने सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) क्रान्ति लाई और इससे भारत आईटी के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देश बना। भारत की घरेलू कम्पनियाँ वैश्विक स्तर पर दुनिया को बेहतरीन आईटी कम्पनियों से प्रतिस्पर्धा कर रही हैं और भारत से सबसे ज्यादा सॉफ्टवेयर का निर्यात (वॉल्यूम के लिहाज से) होता है।

भारत में जब कम्प्यूटर की शुरुआत हुई, तो उस वक्त देश में सूचना प्रौद्योगिकी के जानकार लोग नहीं थे और अब यहाँ काफी बड़ी संख्या में आईटी पेशेवर मौजूद हैं। इसी तरह, कृत्रिम मेधा जैसी अहम बदलाव वाली तकनीक रोजगार के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर उथल-पुथल मचाएगी। नए तरह के कौशल उभरकर सामने आएँगे और इन लोगों को फिर से नए कौशल के साथ लैस करने में सरकार को अहम भूमिका निभानी होगी। विनिर्माण के क्षेत्र में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस अॉटोमेशन की राह खोल सकता है और लोग कम उत्पादकता वाले रोजगार से उच्च उत्पादकता वाले काम की तरफ बढ़ सकते हैं।

ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्र (जैसा कि ऊपर उदाहरण दिया गया है) में नर्स को सशक्त बनाने के लिये कृत्रिम मेधा आधारित बिग डेटा के इस्तेमाल समेत किसी भी नई तकनीक को अपनाने में बदलाव प्रबन्धन का मामला अहम होता है। यह प्रबन्धन किसी भी नई तकनीक को अपनाने से जुड़े अभियान का अहम पहलू है और यह बदलाव के लिये पहल की सफलता और असफलता के बीच की बारीक लाइन हो सकती है। नर्स को खुद डिजिटल प्लेटफॉर्म के इस्तेमाल के लिये खुद को सक्षम बनाने की जरूरत है, जिसका मकसद उसे सशक्त बनाना है। इसमें थोड़े से नए कौशल विकास की बात हो सकती है।

नई तकनीक को अपनाने में उचित कौशल की कमी अक्सर ऐसे अभियानों और नई तकनीक की नाकामी का सबब बन जाती है। ऐसे में नए कौशल की कमी के कारण रोजगार गँवाने की बात सामने आती है। मिशाल के तौर पर कोई नर्स मरीज की देखभाल और उस पर नजर रखने में अच्छी तरह से प्रशिक्षित हो सकती है, लेकिन मुमकिन है कि वह किसी उपकरण और इसके विभिन्न विकल्पों का इस्तेमाल करने में कुशल नहीं हो। ऐसी स्थिति में मेडिकल क्षेत्र की विशेषज्ञ नर्स को उचित डिजिटल कौशल को सीखने की जरूरत होगी। इससे नर्स को कृत्रिम मेधा की मदद से बेहतर तरीके से अपना काम करने में मदद मिलेगी।

कृत्रिम मेधा का इकोसिस्टम

मौजूदा बजट में इस बारे में यह ऐलान किया गयाः ‘वैश्विक अर्थव्यवस्था डिजिटल क्षेत्र में नई-नई तकनीक के विकास के कारण डिजिटल अर्थव्यवस्था में बदल रही है। मशीन लर्निंग, कृत्रिम मेधा, इंटरनेट अॉफ थिंग्स, 3डी प्रिटिंग और ऐसी अन्य चीजों के कारण ऐसा हो रहा है। डिजिटल इण्डिया जैसे अभियानों से भारत को ज्ञान और डिजिटल आधारित समाज बनाने में मदद मिलेगी। नीति आयोग शोध और एप्लिकेशन के विकास समेत कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में हमारी कोशिशों को दिशा देेने के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू करेगा।’

आज कृत्रिम मेधा को रणनीतिक तकनीक के रूप में देखा जाता है, जिससे आर्थिक वृद्धि और देश के विकास की रफ्तार तेज होगी। कुछ देश पहले ही कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में तेज बढ़ोत्तरी के लिये नीति पेश कर चुके हैं। सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में कृत्रिम मेधा का असर कारपोरेट इकाइयों से इतर भी हो सकता है।

आईटी सेवाओं और कृत्रिम मेधा\बिग डेटा के इर्द-गिर्द सेवाओं में अग्रणी देश की हैसियत होने के बावजूद फिलहाल भारत को कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में अगुआ नहीं माना जाता है। शोध प्रयोगशालाओं, अकादमिक हलकों, स्टार्टअप और प्राइवेट खिलाड़ियों के दायरे में कृत्रिम मेधा शोध ओर शुरुआती प्रदर्शन के कई बेहतरीन उदाहरण मौजूद हैं। साथ ही, जमीन पर काम कर रहे लोगों के पास कृत्रिम मेधा को अपनाने के बारे मे काफी कम जानकारी है। कृत्रिम मेधा को तेजी से अपनाने में एक बड़ी बाधा इन खिलाड़ियों के बीच लम्बे समय तक लगातार सहयोग की कमी है।

कृत्रिम मेधा के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर भारत के अग्रणी बनने के लिये क्या अहम शर्ते हैं?

एक्सेंचर रिसर्च के मुताबिक, मजबूत इकोसिस्टम विकसित करने के अहम स्तम्भों में विश्वविद्यालय, स्टार्टअप, बड़ी कम्पनीयाँ, नीति-निर्माता और बहु-पक्षीय साझीदारी शामिल हैं। इनमें से कई स्तम्भों के मामले में भारत के पास मजबूत सम्भावना है।

भारत में विश्वविद्यालय और शोध प्रयोगशालाएँ पिछले 40 वर्षों से कृत्रिम मेधा से जुड़े अत्याधुनिक शोध में सक्रिय हैं। भारत दुनिया की सबसे बड़ी आईटी कम्पनियों का ठिकाना है और कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के शोध और विकास केन्द्र पहले ही भारत में बन चुके हैं। भारत के पास स्टार्टअप का मजबूत इकोसिस्टम है। यहाँ बड़ी संख्या में वेंचर कैपिटल फंड भी हैं और स्टार्टआप सम्बन्धी पहल को लेकर सरकार का रवैया काफी सहयोगात्मक है।

नीति आयोग पहले ही भारत में नवोन्मेष से जुड़े इकोसिस्टम को रफ्तार देने के मिशन पर काम शुरू कर चुका है। आयोग स्टार्टअप की मदद के लिये अटल इनोवेशन मिशन (एआईएम) कार्यक्रम के जरिए स्कूलों में प्रयोगशालाओं और इनक्यूबेशन सेंटर को बढ़ावा देता है। स्टार्टअप और वेंचर कैपिटल फंड के बीच काफी हद तक साझीदारी है। हालांकि, इस बारे में सूचना टुकड़ों में बँटी है।

भारत में साझेदारी और सहयोग के जरिए कृत्रिम मेधा इकोसिस्टम में जबरदस्त बढ़ोत्तरी है सकती है। स्टार्टअप नए सॉल्यूशन विकसित करने की दिशा में तेज और केन्द्रित रवैया अपनाते हैं, लेकिन अक्सर उनके पास गहन शोध के लिये पर्याप्त बैंडविथ नहीं होता। ऐसे में शोधकर्ताओं के लिये उस डोमेन में पहुँच वाकई में मददगार होगी। सरकार को विभिन्न स्तरों पर इन साझेदारियों को अंजाम देने में अहम भूमिका अदा करनी होगी। कृत्रिम मेधा में शोध को अकादमिक जगत\शोधकर्ताओं और इंडस्ट्री व स्टार्टअप के बीच साझेदारी के जरिए बढ़ावा दिया जा सकता है।

इसी तरह, कृत्रिम मेधा को तेजी से अपनाने का काम उद्योग और अकादमिक जगत के साथ विभिन्न क्षेत्रों- स्वास्थ्य, कृषि, शिक्षा आदि की साझेदारी के जरिए हो सकता है। कृत्रिम मेधा अाधारित तकनीक को सेवाओं, उपयोग और अन्दर में मौजूद हार्डवेयर के तौर पर बढ़ावा दिया जा सकता है। उद्योग जगत के खिलाड़ियों को वेंचर कैपिटल और व्यापक संस्थाओं के साथ जोड़कर ऐसी मुमकिन हो सकता है।

कृत्रिम मेधा ऐसी तकनीक है, जिसमें अगले कुछ दशकों में भारत के विकास को संचालित करने की सम्भावना है। यह विकास मुख्य तौर पर कृत्रिम मेधा इकोसिस्टम में निजी खिलाड़ियों से संचालित होगा और सरकार इस इकोसिस्टम में साझेदारी की राह आसान करने में अहम रोल अदा करेगी। चूँकि तकनीक में उथल-पुथल मचने से मौजूदा नौकरियों के बदले नई नौकरियाँ पैदा होंगी, लिहाजा लोगों को नए कौशल से लैस करने पर भी ध्यान देने की जरूरत है।


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