कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति


किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र के फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन की संभावना के विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि सुविचारित नीति के सहारे इसे बदला जा सकता है। वसु केडी ने यह मत व्यक्त किया है ‘‘परंपराबद्ध तथा ज्ञान के अत्यंत निम्न स्तर वाले देश के कृषक प्रयोग करने की उद्यत नहीं होते हैं, वे प्रत्येक बात को विरक्ति और भाग्यवाद की भावना से स्वीकार करते हैं, उनके लिये कृषि वाणिज्य, व्यापार की वस्तु न होकर जीवन की एक प्रणाली है एक ऐसे कृषि प्रधान समाज में जिसके सदस्य परंपराबद्ध और अशिक्षित हैं, फसल में परिवर्तन की अधिक संभावना नहीं रहती है।’’ अब इस मत को सही नहीं समझा जाता है जैसा कि पंजाब में फसल परिवर्तन से स्पष्ट है। अब यह बात अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार कर ली गई है कि भारत जैसे देश में भी फसल प्रतिरूप बदला जा सकता है और इसे बदलना चाहिए। फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने वाले बहुत से कारक होते हैं जैसे भौतिक एवं तकनीकी तत्व आर्थिक तत्व यहाँ तक कि राजनीतिक तत्व भी फसल प्रतिरूप को प्रभावित करते हैं। इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व आर्थिक तत्व होते हैं।

(अ) भौतिक एवं तकनीकी तत्व :
किसी प्रदेश का फसल प्रतिरूप उसकी भौतिक विशिष्टताओं अर्थात मिट्टी, जलवायु, वर्षा तथा मौसम आदि पर निर्भर करता है। उदाहरण स्वरूप एक ऐसे शुष्क क्षेत्र में जिसमें थोड़ी वर्षा होती है तथा मानसून अनिश्चित रहता है वहाँ पर ज्वार तथा बाजरा फसलों की प्रधानता होती है क्योंकि ये फसलें कम वर्षा में भी उगाई जा सकती हैं। फसल चक्र बहुत कुछ भौतिक कारणों से प्रभावित होता है किंतु तकनीकी उपायों से फसल चक्र बदला जा सकता है, तो भी कुछ परिस्थितियों में भौतिक बाधा निर्णायक होते हैं। उदाहरण के लिये पंजाब के संगरूर और लुधियाना जिलों में जलरोध के कारण चावल के उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि हुई है क्योंकि चावल की फसल अधिक पानी को सहन कर सकती है।

मिट्टी तथा जलवायु के अतिरिक्त किसी क्षेत्र की फसलों के प्रतिरूप पर सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता का भी प्रभाव पड़ता है। जहाँ पर पानी की सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं वहाँ पर दोहरी और तेहरी फसलें भी उगाई जा सकती हैं। जब भी किसी क्षेत्र को सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं उस क्षेत्र के कृषि का ढाँचा ही बदल जाता है, पुराने फसल चक्र के स्थान पर नया फसल चक्र निर्धारित होता है। यह संभव है कि पूँजी के अभाव में अच्छे एवं सुधरे हुए कृषि औजार, अधिक उपज देने वाले उन्नत किस्म के बीज और रासायनिक उर्वरकों के लिये वित्त न मिल पाने के कारण उचित प्रकार की फसल न उगाई गई हो, परंतु जैसे ही वे सुविधाएँ कृषकों को प्राप्त होती हैं, फसलों के ढाँचे में परिवर्तन हो जाता है।

(ब) आर्थिक तत्व :


किसी क्षेत्र अथवा प्रदेश की फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने में आर्थिक कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करते हैं। आर्थिक कारणों में निम्न तत्व महत्त्वपूर्ण हैं -

(1) कीमत और आय को अधिकतम करना :
अनेक व्यवहारिक अध्ययनों से फसलों की कीमत तथा उनके ढाँचे में परस्पर संबंध स्थापित होता है। डा. बंसल पीसी ने ‘कीमत समता अनुपात’ की गतियों और गन्ने की अखिल भारतीय क्षेत्रफल में परिवर्तन के बीच तथा पटसन एवं चावल के अधीन क्षेत्रफल और इन वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों के बीच घनिष्ट संबंध को प्रमाणित किया है। खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के अध्ययन से पता चलता है कि कीमतों में परिवर्तन का क्षेत्रफल के परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वर्गीज का मत है कि अधिकतम आय की प्ररेणा भी फसलों का ढाँचा बदलने पर भी अधिक प्रभाव डालती है क्योंकि कृषक उसी फसल को उगाना पसंद करेगा जिससे उसे अधिकतम आय प्राप्त होगी। किंतु डा. भाटिया का मत है कि ‘‘फसलों के प्रतिरूप को प्रभावित करने वाला मुख्य कारण प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ होता है।’’ स्पष्ट है कि किसी भी परिस्थितियों में फसल का चुनाव करने में किसान पर कीमत समता, आय का अधिकतम होना और प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ का ही अधिक प्रभाव पड़ता है।

(2) खेत का आकार :
खेत के आकार तथा फसलों के ढाँचे की बीच भी संबंध रहता है। छोटे किसान बड़े किसानों के सापेक्ष व्यापारिक फसलों के लिये कम क्षेत्रफल का उपयोग करते हैं। इसका कारण है कि छोटे कृषक सर्व प्रथम अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु खाद्यान्न उत्पन्न करना चाहते हैं। परंतु हाल ही में देवरिया जिले के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि लगभग सभी कृषक बड़े तथा छोटे कुछ नकद फसलें उगाने का प्रयास करते हैं। यह सत्य है कि निर्वाह की आवश्यकता के कारण छोटे कृषकों की फसलों का ढाँचा परंपरा से प्रभावित होता है किंतु उनकी मौद्रिक आय की सीमांत आवश्यकता किसी भी प्रकार बड़े कृषकों से अधिक नहीं हो सकती है। अर्थव्यवस्था की प्रगति के साथ छोटे कृषकों द्वारा अपनी आय अधिकतम करने में उद्देश्य से अपने सस्य प्रतिरूप में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सीमांत परिवर्तन होने की संभावना रहती है।

(3) जोखिम के विरुद्ध बीमा :
फसल विफलता का जोखिम कम से कम करने की आवश्यकता का भी फसलों के ढाँचे पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरणत: अनेक क्षेत्रों में ज्वार बाजरे आदि मोटे अनाज की खेती के लगातार होने के कारण मुख्यत: वर्षा की अनिश्चता से बचने का प्रयत्न है।

(4) आदानों की उपलब्धता :
सस्य प्रतिरूप, उन्नतशील बीज, रासायनिक उर्वरक, जल संग्रहण, विपणन और परिवर्तन आदि आदानों पर भी निर्भर रहता है। मूंगफली के बीच की उपलब्धता के कारण मध्य प्रदेश के अनेक कृषकों को मूंगफली की खेती अधिक विस्तृत क्षेत्रफल में करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। कृषकों द्वारा रूई की फसल के मुकाबले मूंगफली को श्रेष्ठ समझने का एक कारण यह भी है कि रूई की फसल विलंब से तैयार होती है जबकि मूंगफली की फसल शीघ्र पक कर तैयार हो जाती है।

(5) भू-धारण :
फसल बटाई प्रणाली के अंतर्गत भू-स्वामी को फसलों के चुनाव का प्रमुख अधिकार होता है, परिणाम स्वरूप आय को अधिक करने वाला फसलों का ढाँचा अपनाया जाता है।

(स) राजनैतिक तत्व :


कार वैधानिक और प्रशासनिक उपायों से फसलों के ढाँचे के निर्धारण पर प्रभाव डाल सकते हैं। कृषकों को कृषिगत आदान और ज्ञान उपलब्ध कराने में सहायक प्रदान कर सकती है। सरकार कुछ फसलों के लिये विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करा सकती है। यद्यपि खाद्य, सस्य अधिनियम, भू उपयोग अधिनियम, धान, कपास, तिलहन आदि की सघन खेती की भोजनाएँ उत्पादन शुल्क तथा निर्यात शुल्क आदि के प्रयोग से कल्पित दिशा में फसलों के ढाँचे को प्रभावित किया जा सकता है तथापि संभव है कि उक्त समस्त उपायों का संपूर्ण फसलों के ढाँचे पर कुछ प्रभाव ऐसा न पड़े जो राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप हो।

1. कृषकों का कृषि प्रारूप :
जनपद प्रतापगढ़ में तीन फसलें खरीफ, रबी तथा जायद फसलें क्रमश: वर्षा, शरद एवं ग्रीष्म ऋतु में बोई जाती हैं। इनमें से खरीफ तथा रबी की फसलों की प्रधानता है जो कुछ कृषि क्षेत्र के लगभग 96 प्रतिशत भाग को अधिकृत किए हुए हैं। सर्वेक्षण के आधार पर 300 कृषक परिवारों के कृषि प्रारूप के संबंध में सूचनाएँ एकत्रित की गई हैं। इन कृषकों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। सीमांत कृषक की श्रेणी में 0.5 हेक्टेयर से अधिक परंतु 1 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य भूमि है उन्हें लघु कृषकों की श्रेणी में, जबकि 2 से 4 हेक्टेयर के मध्य कृषि भू-स्वामियों को मध्य श्रेणी में तथा 4 हेक्टेयर से अधिक जोत सीमा वाले कृषक परिवार बड़े कृषक की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है। सर्वेक्षण में सूचनाओं की अवधि 1 जुलाई 1999 से 30 जून 2000 तक है।

 

सारिणी 6.1

कृषक परिवारों की श्रेणियों

जोत का आकार

कृषकों की श्रेणी

कृषकों की संख्या

प्रतिशत

क्षेत्रफल (हेक्टेयर में)

प्रतिशत

0.5 हेक्टेयर से कम

सीमांत

122

40-67

44-68

17-23

0.5 से 1 हेक्टेयर

लघु

107

35-67

82-68

31-88

1 से 2 हेक्टेयर

लघु मध्यम

52

17-33

63-96

24-66

2 से 4 हेक्टेयर

मध्यम

16

5-33

37-76

14-56

4 हेक्टेयर से अधिक

बड़े

3

1-00

30-24

11-66

योग

 

300

100-00

259-32

100-00

 

 
सारिणी 6.1 अध्ययन क्षेत्र में सर्वेक्षित कृषकों की संख्या, श्रेणी तथा अधिकृत कृषि क्षेत्र पर प्रकाश डाल रही है। कुल 300 कृषक परिवारों में 122 सीमांत कृषक, 107 लघु कृषक प्राप्त हुए हैं। इन दोनों वर्गों के पास क्रमश: 44.68 हेक्टेयर तथा 82.68 हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध है। इन परिवारों का कुल कृषक परिवारों में 76 प्रतिशत से अधिक प्रतिनिधित्व है जबकि कुल कृषि योग्य भूमि का केवल 49 प्रतिशत क्षेत्रफल ही इन दो वर्गों के पास उपलब्ध है। लघु मध्यम कृषकों की संख्या 52 प्राप्त हुई जिनके पास 63.96 हेक्टेयर कृषि भूमि पाई गई जो कुल कृषि क्षेत्र का 24.66 प्रतिशत है। 16 कृषक मध्यम आकार के 37.76 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर कृषि कार्य करते हुए पाये गये। न्यूनतम प्रतिनिधित्व बड़े कृषकों का पाया गया जिनकी संख्या केवल 03 है परंतु इनके पास कुल कृषि भूमि का 11.66 प्रतिशत क्षेत्रफल पाया गया। कूल कृषक परिवारों में सर्वाधिक प्रतिनिधित्व सीमांत कृषकों का पाया गया है जो इस तथ्य की ओर संकेत कर रहा है कि स्वतंत्रता के पश्चात अनेक भूमि सुधार योजनाओं और कानूनों के उपरांत भी अध्ययन क्षेत्र में सीमांत एवं लघु कृषक परिवारों की प्रधानता है, परंतु जोत का आकार कम होने के कारण फसलों का प्रतिरूप तथा फसलोंत्पादन भी प्रभावित होता है। जोत का आकार छोटा होने के कारण नवीन कृषि तकनीक का प्रयोग अत्यंत सीमित मात्रा में हो पाया है साथ ही पूँजी निर्माण की संभावनाएं भी अत्यंत सीमित हो जाती है जिससे कृषकों को अपनी फसल का अपेक्षित उत्पादन प्राप्त नहीं हो पाता है।

 

सारिणी 6.2

फसल गहनता

कृषकों की श्रेणी

शुद्ध कृषि क्षेत्र (हेक्टेयर)

सकल कृषि क्षेत्र (हेक्टेयर)

फसल गहनता

सीमांत कृषक

44.68

70.93

158.75

लघु कृषक

82.68

133.30

161.22

लघु मध्यम कृषक

63.96

102.88

160.86

मध्यम कृषक

37.76

61.35

162.48

बड़े कृषक

30.24

44.69

147.78

कुल

259.32

413.15

159.32

स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण

 

सारिणी 6.2 कृषक परिवारों की फसलों की गहनता का चित्र प्रस्तुत कर रही है। फसल गहनता सर्वाधिक 162.48 प्रतिशत मध्यम कृषक श्रेणी में पाई गई जबकि न्यूनतम फसल गहनता 147.78 प्रतिशत बड़े आकार के कृषक परिवारों में प्राप्त हुई जो सर्वोच्च फसल गहनता से लगभग 15 प्रतिशत कम है। किसी क्षेत्र की फसल गहनता उस क्षेत्र के कृषि स्वरूप की ओर संकेत करता है साथ ही कृषि के लिये आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता का भी आभास कराता है। उच्च फसल गहनता का अर्थ है कि वह क्षेत्र बहुफसली है। न्यून फसल गहनता का अर्थ है उस क्षेत्र में एक से अधिक फसलों का क्षेत्र भी सीमित है। कृषि की गहनता पर ही फसल गहनता निर्भर करती है जिसके द्वारा ही उप क्षेत्र की आर्थिक स्थिति का निर्धारण होता है। उच्च फसल गहनता उच्च आर्थिक स्तर, निम्न फसल गहनता निम्न आर्थिक स्तर। इस दृष्टि से देखा जाय तो अध्ययन क्षेत्र की फसल गहनता 159.32 प्रतिशत है जिसका अर्थ है कि कृषकों द्वारा केवल 59.32 प्रतिशत क्षेत्र पर ही एक से अधिक फसलें उगाई जा रही हैं।


 

सारिणी 6.3

जातिगत आधार पर कृषकों का वर्गीकरण

कृषकों का जाति वर्ग

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

योग

1. उच्च जाति

24

25

11

04

01

65

2. पिछड़ी जाति

36

34

16

08

01

95

3. अनुसूचित जाति

53

39

20

01

-

113

4. मुस्लिम

09

09

05

03

03

27

योग

122

107

52

16

16

300

स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण

 

सारिणी 6.3 कृषकों के जातिगत वर्गीकरण को प्रस्तुत कर रही है जिसमें उच्च जाति के 65 कृषक प्राप्त हुए इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियाँ सम्मिलित हैं, 95 कृषक परिवार पिछड़ी जातियों से संबंधित है जिनमें यादव, काछी, पाल, कुर्मी, लोधी, सविता, तथा कुम्हार जातियाँ प्रमुख हैं। अनुसूचित जाति के 113 कृषक परिवारों में चमार, कोइरी, धोबी, आरख तथा पटवा जातियों की प्रधानता पाई गई। मुस्लिम कृषक परिवारों की संख्या 27 प्राप्त हुई, परंतु मुस्लिम धर्मानुयाई कृषकों को एक ही वर्ग में रखा गया है। कृषकों की जाति भी कृषि प्रणाली को प्रभावित करती है। सामान्यत: अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जाति के कृषक परिवारों को पारिवारिक श्रम सरलता से उपलब्ध हो जाने के कारण फसल प्रतिरूप को प्रभावित करता है जबकि उच्च जाति के कृषिकय परिवारों को श्रम दुर्लभ होने के कारण फसल चक्र श्रम प्रधान नहीं रहते हैं।

 

सारिणी 6.4

पारिवारिक आकार

परिवार का आकार

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

योग

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

कृषक परिवार

सदस्य संख्या

4 से कम

28

84

24

63

12

33

4

13

-

-

68

193

5 से 6 तक

41

226

29

158

15

83

2

12

01

06

88

485

7 से 8 तक

27

211

20

152

07

52

4

31

-

-

58

446

9 से 10 तक

22

209

28

268

08

76

3

28

10

10

62

591

10 से अधिक

04

48

06

75

10

132

3

35

10

13

24

303

योग

122

778

107

716

52

376

16

119

03

29

300

2018

औसत

-

6.38

-

6.69

-

7.23

-

7.43

-

9.67

-

6.73

स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण

 

सारिणी 6.4 कृषकों के औसत परिवार के आकार का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिसमें बड़े कृषक परिवारों का औसत आकार सर्वाधिक प्राप्त हुआ है, इस वर्ग के परिवारों का औसत आकार 9.67 सदस्य प्रति परिवार पाया गया जबकि न्यूनतम आकार 6.38 सदस्य प्रति परिवार सीमांत कृषकों का पाया गया। समंको को विश्लेषण करने पर यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि जैसे-जैसे जोत का आकार बढ़ता जाता है परिवार का आकार भी बढ़ता जाता है जैसे लघु कृषकों के परिवार का औसत आकार 6.69 सदस्य प्रति परिवार, लघु मध्यम कृषक परिवार 7.23 सदस्य प्रति परिवार तथा मध्यम कृषक 7.43 सदस्य प्रति परिवार औसत आकार दर्शा रहे हैं जबकि संपूर्ण कृषक परिवारों का औसत आकार 6.73 सदस्य प्राप्त किया गया। परिवार का आकार भी कृषि प्रणाली को प्रभावित करता है क्योंकि परिवार का आकार जितना बड़ा होगा कृषि पर भार भी उतना ही अधिक होगा, न्यून सदस्य संख्या वाले कृषक परिवार अधिक कुशलता से कृषि कार्य संपन्न कर सकते हैं।

 

सारिणी 6.5

भूमि उपयोग (हेक्टेयर में)

क्र.

कृषि क्षेत्र

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

योग

1

शुद्ध कृषि क्षेत्र

44.68

82.68

63.96

37.24

30.24

259.32

2

एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र

26.25

50.62

38.59

23.59

14.45

153.83

3

सकल बोया गया क्षेत्र

70.93

133.30

102.88

61.35

44.69

413.15

4

शुद्ध सिंचित क्षेत्र

35.07

62.32

47.65

29.15

23.01

197.22

5

सकल सिंचित क्षेत्र

66.25

120.77

91.77

56.69

40.98

376.46

6

खरीफ का क्षेत्र

36.60

68.00

51.34

29.75

22.66

208.35

7

रबी का क्षेत्र

33.03

62.49

49.42

29.93

20.74

195.61

8

जायद का क्षेत्र

1.30

2.81

2.12

1.67

1.29

9.19

 

 
सारिणी 6.5 सर्वेक्षण किए गये कृषकों के भूमि उपयोग को दर्शा रही है जिससे ज्ञात होता है कि सभी वर्गों के कृषकों के पास कुल 259.32 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र है जिसमें से 153.83 हेक्टेयर क्षेत्र पर एक से अधिक बार फसलोत्पादन लिया जा रहा है, इस प्रकार सकल बोये गये क्षेत्र 413.15 हेक्टेयर पर एक या एक से अधिक बार फसलें उगाई जा रही हैं। सिंचन सुविधाओं की स्वल्पता के कारण केवल 59.32 प्रतिशत क्षेत्र की दोहरी फसल के अंतर्गत प्रयोग में लाया जा रहा है। विभिन्न वर्गों के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि सिंचन सुविधाएँ सर्वाधिक सीमांत कृषकों को प्राप्त है जो अपनी शुद्ध कृषि भूमि के 78.49 प्रतिशत क्षेत्र को जलापूर्ति कर पाते हैं, दूसरा स्थान बड़े कृषकों का है जिनकी 76.09 प्रतिशत शुद्ध भूमि सिंचित है न्यूनतम 74.50 प्रतिशत लघु मध्यम कृषकों का है। सकल सिंचित क्षेत्र की दृष्टि से भी सीमांत कृषक 93.4 प्रतिशत सिंचन सुविधाएँ जुटा कर प्रथम स्थान पर है परंतु द्वितीय स्थान पर मध्यम कृषक यह लाभ प्राप्त कर रहे हैं। लघु मध्यम कृषकों की स्थिति इस दृष्टि से भी न्यूनतम स्थान पर है। सिंचन सुविधाओं के अभाव के कारण लगभग सभी वर्गों के कृषि व्यवसाय में खरीफ फसलों का क्षेत्र रबी फसल की अपेक्षा अधिक है, साथ ही जायद फसलों के अंतर्गत अत्यंत निम्न क्षेत्र प्रयोग में लाया जा रहा है। यदि सिंचन सुविधाओं का विस्तार आवश्यकतानुसार हो सके तो कृषि भूमि का और अधिक अच्छा उपयोग करने की संभावना हो जायेगी।

 

तालिका 6.6

विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल (हेक्टेयर में)

फसलें

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

योग

क्षेत्र

प्रतिशत

क्षेत्र

प्रतिशत

क्षेत्र

प्रतिशत

क्षेत्र

प्रतिशत

क्षेत्र

प्रतिशत

क्षेत्र

प्रतिशत

1. धान

24-84

35-0235

48-05

36-05

39-78

36-67

21-79

35-52

18-21

40-74

152-67

36-95

2. गेहूँ

28-82

40-64

53-21

39-92

40-43

39-30

23-77

38-74

17-39

38-92

163-62

39-60

3. जौ

-24

-84

-75

-56

-42

-41

-40

-66

-27

-61

2-08

-50

4. ज्वार

2-73

3-85

3-91

2-93

2-39

2-32

1-15

1-87

-54

1-21

10-72

2-56

5. बाजरा

2-23

3-14

6-06

4-54

2-60

2-52

1-81

2-95

-75

1-68

13-45

3-26

6. मक्का

-08

-12

-47

0-35

-43

-42

-29

-48

-18

-40

1-45

-35

7. अरहर

3-39

4-78

5-09

3-82

2-51

2-44

2-35

3-83

1-31

2-94

14-65

3-55

8. चना

1-70

2-40

2-88

2-16

3-14

3-05

1-79

2-92

-77

1-72

10-28

2-49

9. मटर

-16

-22

-41

-31

-41

-40

-21

-35

-28

-62

1-47

-36

10. उड़द/मूंग

3-33

4-69

4-42

3-32

3-63

3-52

2-36

3-84

1-67

3-74

15-41

3-73

11. तिलहन

-34

-48

2-17

1-63

2-23

2-17

2-29

3-73

-74

1-66

7-77

1-88

12. आलू

1-37

1-93

2-20

1-65

1-93

1-88

1-09

1-77

-97

2-16

4-56

1-83

13. गन्ना

-40

-56

-87

-65

-86

-84

-38

-62

-32

-71

2-83

-68

14. अन्य

1-30

1-83

2-81

2-11

2-12

2-05

1-67

2-72

1-29

2-89

9-19

2-23

योग

70-93

100-00

133-30

100-00

102-88

100-00

61-35

100-00

44-69

100-00

413-15

100-00

स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण

 

सारिणी क्रमांक 6.6 विभिन्न कृषक वर्ग द्वारा विभिन्न फसलों के लिये उपयोग की जाने वाली कृषि भूमि का चित्र प्रदर्शित कर रही है। सारिणी से ज्ञात होता है कि सभी वर्गों के कृषकों के भूमि उपयोग में धान व गेहूँ फसलों की ही प्रधानता है जो सकल कृषि क्षेत्र के 75 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल पर बोई जा रही हैं, अन्य फसलों का उक्त दो फसलों की अपेक्षा अत्यंत निम्न क्षेत्रफल है। खरीफ की फसल में धान की भागेदारी सीमांत कृषकों में 67 प्रतिशत से अधिक लघु कृषकों में 70 प्रतिशत से अधिक, लघु मध्यम कृषकों में 77.48 प्रतिशत, मध्यम कृषक 73.24 प्रतिशत तथा बड़े कृषकों की 80 प्रतिशत से अधिक है। धान तथा गेहूँ फसलों की प्रधानता के कारण किसी अन्य नकदी फसल की संभावनाएं लगभग शून्य ही है, अन्य नकदी फसलों के अभाव में कृषक धान की ही फसल से नकदी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। खरीफ मौसम में धान के अतिरिक्त ज्वार बाजरा तथा मक्का फसलें केवल अपनी उपस्थिति ही दर्शा रही है जिनका क्षेत्रफल अत्यंत न्यून होने के कारण सकल कृषि क्षेत्र में 3 प्रतिशत से भी कम भागेदारी कर रही है, इस मौसम में केवल उर्द/मूंग तथा अरहर ही 3 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी कर रही हैं। लघु कृषकों में बाजरा की भागेदारी 4 प्रतिशत से अधिक है। जबकि अरहर की फसल बाजरे की फसल का अनुकरण करने का प्रयास करती प्रतीत हो रही है।

रबी मौसम में गेहूँ फसल की प्रधानता है जो औसत रूप में इस मौसम के 83 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्र में उगाई जा रही है। विभिन्न वर्गों के कृषकों के अनुसार देखें तो सीमांत कृषकों की हिस्सेदारी रबी मौसम के शुद्ध भू क्षेत्र में सीमांत कृषक 87.25 प्रतिशत, लघु कृषक 85.15 प्रतिशत, लघु मध्यम कृषक 81.80 प्रतिशत, मध्यम कृषक 79.42 प्रतिशत तथा बड़े कृषक 76.47 प्रतिशत की भागेदारी कर रहे हैं, यह तथ्य भी उभर कर आया है कि जैसे-जैसे जोत का आकर बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे गेहूँ फसल की भागेदारी घटती जा रही है जिसका अर्थ है कि जोत का आकार बढ़ने के साथ ही कृषक अन्य फसलों को बोना अच्छा समझते हैं, यद्यपि रबी मौसम की अन्य फसलों चना, मटर तथा तिलहन की स्थिति न्यूनाधिक उपस्थिति दर्ज कराने वाली ही हैं। दलहनी फसलों में चना का सर्वाधिक भागेदारी लघु मध्यम कृषकों की 3.05 प्रतिशत है, केवल रबी मौसम में यह प्रतिशत 6.35 है, अन्य सभी वर्ग इस फसल के लिये 3 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी कर रहे हैं। तिलहन फसल के संदर्भ में 3.73 प्रतिशत भागेदारी मध्यम कृषकों की है, अन्य वर्गों के कृषकों की भागेदारी 3 प्रतिशत से कम है जबकि तिलहन की फसल न केवल भोजन में चिकनाई की आवश्यकता को पूरा करती है बल्कि यह फसल एक नकदी फसल के रूप में कम लागत पर तैयार हो जाती है, परंतु गेहूँ की फसल की प्रधानता अन्य फसलों के महत्व को घटा रही है। आलू तथा गन्ने की फसल केवल घरेलू आवश्यकताओं को ही दृष्टिगत रखकर उगाई जाती है।

जायद फसलों में उड़द/मूंग के अतिरिक्त सब्जियों को ही प्रधानता है कुछ कृषक ककड़ी, खरबूजा तथा तरबूज भी उगाते हैं परंतु इन फसलों के उगाने का उद्देश्य व्यावसायिक न होकर स्व उपभोग है, इसलिये अत्यंत सीमित क्षेत्र पर ही ये फसलें उगाई जाती हैं। सब्जियाँ तीनों मौसमों में उगाई जाती हैं। खरीफ के मौसम में जहाँ लौकी, तरोई तथा भिण्डी की प्रधानता रहती है वहीं रबी के मौसम में टमाटर, बैगन तथा बंदगोभी की प्रधानता रहती है। जायत के मौसम में कद्दू, लौकी तथा करेला प्रमुख रूप से उगाए जाते हैं।

 

तालिका 6.7

कृषि भूमि पर जनसंख्या का भार

क्रं.

प्रति व्यक्ति

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

समग्र

1

शुद्ध कृषि क्षेत्र

0-05743

0-11547

0-17011

0-31731

1-04276

0-12850

2

एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र

0-03374

0-07070

0-10351

0-19824

0-49827

0-07623

3

सकल बोया गया क्षेत्र

0-09117

0-18617

0-27362

0-51555

1-54103

0-20473

4

शुद्ध सिंचित क्षेत्र

0-04508

0-08707

0-12673

0-24496

0-79345

0-09773

5

सकल सिंचित क्षेत्र

0-08515

0-16867

0-24407

0-47639

1-41310

0-18655

6

खरीफ

0-04704

0-09497

0-13654

0-25000

0-78138

1-10325

7

रबी क्षेत्र

0-04246

0-08728

0-13144

0-25151

0-71517

0-09693

8

जायद क्षेत्र

0-00167

0-00392

0-00564

0-01403

0-04448

0-00455

 

 
सारिणी क्रमांक 6.7 विभिन्न कृषक वर्गों का प्रतिव्यक्ति उपलब्ध कृषि क्षेत्र का विवरण प्रस्तुत कर रही है, जिसमें प्रति व्यक्ति औसत रूप से उपलब्ध शुद्ध कृषि भूमि 0.12850 हेक्टेयर है जबकि इस भूमि का केवल 0.10325 हेक्टेयर भाग ही खरीफ फसलों के लिये प्रयोग में लाया जा रहा है जबकि रबी मौसम में इससे भी कम 0.09693 हेक्टेयर ही प्रमुख हो रहा है और जायद मौसम में तो केवल प्रति व्यक्ति 0.00455 हेक्टेयर में ही फसलें उगाई जा रही हैं। एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र 0.06723 हेक्टेयर ही है जो इस तथ्य का ज्ञान करा रहा है कि इस फसली क्षेत्र 50 प्रतिशत से कुछ अधिक है। स्पष्ट है कि प्रतिव्यक्ति जीवनयापन के लिये 0.20473 हेक्टेयर क्षेत्रफल ही उपलब्ध है।

जोत के आकार के आधार पर देखें तो ज्ञात होता है कि बड़े कृषकों के पास शुद्ध कृषि क्षेत्र प्रतिव्यक्ति 1.04276 हेक्टेयर है जबकि सीमांत कृषकों के पास केवल 0.05743 हेक्टेयर ही कृषि भूमि उपलब्ध है, सकल बोये गये क्षेत्र की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि बड़े कृषकों के पास 1.54103 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र है जबकि सीमांत कृषकों के पास मात्र 0.08515 हेक्टेयर क्षेत्र ही है। यह कृषि क्षेत्र में असमानता आर्थिक असमानता का कारण बनती है जो सीमांत तथा लघु कृषक परिवारों में कुपोषण या अल्प पोषण के लिये उत्तरदायी है।

2. कृषकों के कृषि उत्पादन का स्तर -
योजनाकाल में आर्थिक पुनर्निमाण की प्रक्रिया से कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति के साथ-साथ विभिन्न फसलों के उत्पादन में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। फसल प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तन आया है जिससे रबी, खरीफ के अतिरिक्त अल्पावधिकारी अन्य फसलें भी उत्पन्न की जाने लगी हैं। फसल संरचना में भी गुणात्मक सुधार हुआ है। श्रेष्ठ अनाजों यथा गेहूँ और चावल की फसलों के अंतर्गत क्षेत्र बढ़े हैं। कृषि विकास प्रयासों से कृषि अर्थव्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे हैं। कृषि को अब मात्र जीवन निर्वाह का साधन न मानकर इसमें व्यावसायिक गतिविधि की प्रतिष्ठा की गई। अब कृषक कृषि से लाभ प्राप्त करने के लिये नवीन तकनीकों के प्रयोग के प्रति तत्पर होने लगे हैं, जहाँ कहीं नवीन तकनीक उपलब्ध है कृषक उसके महत्त्व को स्वीकार करने लगे हैं। श्रेयष्कर कृषि विधियों तथा श्रेयष्कर जीवनयापन की आकांक्षा न केवल उत्पादन की नवीन तकनीक का प्रयोग करने वाले एक छोटे से धनी वर्ग तक सीमित है, बल्कि उन लाखों कृषकों में फैल गई हैं जिन्होंने इसे अभी तक अपनाया नहीं है और जिनके लिये उच्च जीवन स्तर अभी तक सपना मात्र है। कृषकों का यह दृष्टिकोण निश्चय ही कृषि विकास में सहायक है। हरित क्रांति के कारण अब कृषक अच्छे अनाजों और व्यापारिक फसलों के उत्पादन के प्रति अग्रसर हुए हैं, छोटे कृषकों का झुकाव सब्जियों की फसलों के प्रति बढ़ा है।

इन उपलब्धियों के कुछ नकारात्मक आयाम भी हैं नियोजन काल में क्षेत्रीय और अंतवर्गीय भिन्नताएँ बढ़ी हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के कतिपय क्षेत्रों को ही भारी विनियोग और विकास प्रयासों का लाभ मिला है। खेतिहार समाज में लघु और अतिलघु तथा भूमिहीन श्रमिकों को कृषि क्षेत्र के लिये जाने वाले विनियोग और प्रौद्योगिकी का लाभ अत्यंत कम लाभ मिला है जमीन वालों को और विशेषकर अधिक जमीन वालों को। यह भी शंका की जाने लगी है कि हम अधिक उत्पादन प्राप्त करने की धुन में भूमि की समस्त उर्वराशक्ति का विदोहन कर ले रहे हैं, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी के गुणधर्म में ह्रास हो रहा है। मिट्टी की ऊपरी परत कड़ी और उसकी जलधारण क्षमता घट रही है जिससे कई बार सिंचाई होने से भूमि पर क्षारीयता बढ़ रही है। भूमि और जल दोनों ही प्रदूषित हो रहे हैं ग्रामीण पर्यावरण भी दूषित हो रहा है जिससे मनुष्यों और पशुओं पर रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाओं के हानिकारक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे हैं। सम्यक भूमि और जल प्रबंध की कमी के कारण भूमि की ऊपरी सतह क्षतिग्रस्त हो रही है।

 

सारिणी 6.8

विभिन्न फसलों का उत्पादन (प्रति हेक्टेयर क्विंटल में)

फसलें

उत्पादन

जनपद का उत्पादन

जनपदीय स्तर से अधिक/कम

1. धान

21.06

20.67

+ 0.39

2. गेहूँ

20.99

20.94

+ 0.05

3. जौ

12.54

12.74

+ 0.20

4. ज्वार

10.49

10.38

+ 0.11

5. बाजरा

11.02

10.96

+ 0.06

6. मक्का

15.59

15.88

- 0.29

7. अरहर

10.81

10.66

+ 0.15

8. चना

12.43

12.14

+ 0.29

9. मटर

13.17

13.08

+ 0.09

10. उड़द/मूंग

6.92

6.70

+ 0.22

11. तिलहन

8.64

8.56

+ 0.08

12. आलू

195.85

188.82

+ 7.03

13. गन्ना

517.12

496.74

+ 20.38

 

 
सारिणी क्रमांक 6.8 विभिन्न फसलों के औसत उत्पादन को दर्शा रही है। जनपदीय उत्पादन स्तर से तुलना करने पर केवल मक्का को छोड़कर अन्य सभी फसलों की उत्पादकता अधिक है जिसमें खाद्यान्न फसलों में धान 39 किलोग्राम, जौ 20 किग्रा, ज्वार 11 किग्रा, बाजरा 6 किग्रा तथा गेहूँ 5 किग्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अधिक उत्पादन हो रहा है जबकि दलहनी फसलों में चना, 29 किग्रा, उड़द/मूंग 22 किग्रा, अरहर 15 किग्रा तथा मटर के 9 किग्रा की दर से अधिक उत्पादित हो रही है। तिलहनी फसल लाही का उत्पादन केवल 8 किग्रा अधिक है, आलू तथा गन्ना का औसत उत्पादन क्रमश: 7.03 क्विंटल, 20.38 क्विंटल अधिक है।

 

सारिणी 6.9

विभिन्न वर्गानुसार औसत उत्पादन (प्रति हेक्टेयर किलोग्राम में)

फसलें

जनपदों का उत्पादन

सीमांत

लघु

लघु मध्यम

मध्यम

बड़े

उत्पादन

जनपद से कम/अधिक उत्पाद

उत्पादन

जनपद से कम/अधिक उत्पाद

उत्पादन

जनपद से कम/अधिक उत्पाद

उत्पादन

जनपद से कम/अधिक उत्पाद

उत्पादन

जनपद से कम/अधिक उत्पाद

1. धान

2067

2098

+31

2122

+55

2126

+59

2074

+07

2070

+03

2. गेहूँ

2094

2092

-02

2086

-08

2142

+48

2096

+02

2066

-28

3. जौ

1274

1272

-02

1252

-22

1227

-47

1280

+06

1252

-22

4. ज्वार

1038

1054

+16

1055

+17

1046

+08

1022

-16

1048

+10

5. बाजरा

1096

1116

+20

1092

-04

1102

+06

1108

+12

1130

+34

6. मक्का

1588

1566

-22

1528

-60

1552

-36

1604

+16

1582

-06

7. अरहर

1066

1086

+20

1084

+22

1064

-02

1082

+16

1086

+20

8. चना

1214

1236

+22

1230

+26

1256

+42

1240

+26

1256

+42

9. मटर

1308

1344

+36

1326

+18

1328

+20

1299

-09

1286

-22

10. उड़द/मूंग

670

698

+38

666

-04

680

+10

702

+32

758

+88

11. तिलहन

856

872

+16

844

-12

864

+08

874

+18

886

+30

12. आलू

18882

18572

+310

19585

+703

19836

+954

20033

+1151

20012

+1130

13. गन्ना

49674

54438

-434

52246

+2572

49962

+288

52056

+2382

51148

+1474

 

 
सारिणी क्रमांक 6.9 विभिन्न वर्गों कृषकों की औसत उत्पादकता का प्रदर्शन कर रही है जिसमें ज्ञात होता है कि सीमांत कृषकों की औसत उत्पादकता जनपदीय स्तर से गेहूँ में 2 किग्रा, जौ में 2 किग्रा, मक्का 22 किग्रा तथा आलू में 310 किग्रा कम है जबकि मटर में 36 किग्रा, उड़द/मूंग में 28 किग्रा, अरहर में 20 किग्रा, चना 22 किग्रा तथा तिलहन में 16 किग्रा अधिक है, गन्ना केवल स्व उपभोग हेतु उत्पन्न किया जाता है, ये 434 किग्रा अधिक उत्पादन प्राप्त किया गया चूँकि इस वर्ग के पास भूमि अत्यंत सीमित मात्रा में होने का लाभ भी प्राप्त होता है प्रथम तो पारिवारिक श्रम के कारण प्रति श्रमिक उत्पादकता अधिक हो जाती है साथ ही निरीक्षण व्यय भी कम हो जाता है, छोटे-छोटे खेतों के कारण खेत की तैयारी भी भली प्रकार हो जाती है। लघु कृषक धान की औसत उत्पादकता में 56 किग्रा, ज्वार में 17 किग्रा, अरहर में 23 किग्रा, चना में 26 किग्रा, मटर में 18 किग्रा, आलू में 703 किग्रा जबकि गन्ना में 2572 किग्रा अधिक उत्पादन करके जनपदीय स्तर से अग्रणी है जबकि मक्का में 60 किग्रा तथा तिलहन में 12 किग्रा से पिछड़ रहे हैं, मक्का चूँकि विभिन्न वर्गों द्वारा अत्यंत सीमित क्षेत्र में केवल घरेलू उपयोग हेतु उत्पन्न की जाती है इसलिये मक्का का उत्पादन विभिन्न वर्गों में अधिक उतार चढ़ाव दर्शाता है। लघु मध्यम कृषकों के औसत उत्पादन पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता है कि धान तथा गेहूँ के औसत उत्पादन में यह वर्ग क्रमश: 59 किग्रा तथा 48 कि.ग्रा. अधिक उत्पादन करके सभी वर्गों में अग्रणी प्रदर्शन कर रहा है, चने के भी औसत उत्पादन मं, 42 कि.ग्रा. अतिरेक उत्पादित करके ध्यानाकर्षित करा रहा है। मक्का तथा जौ के औसत उत्पादन में यह वर्ग भी क्रमश: 36 तथा 47 किग्रा से पिछड़ रहा है, आलू तथा गन्ना के उत्पादन में यह वर्ग अग्रणी प्रदर्शन कर रहा है। मध्यम कृषकों की औसत उत्पादकता पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि यह वर्ग उर्द/मूंग में 32 किग्रा, चना में 26 किग्रा, मक्का व अरहर में 16-16 किग्रा, तिलहन में 18 किग्रा जबकि आलू और गन्ना में क्रमश: 1151 किग्रा तथा 2382 किग्रा का अंतर रखकर जनपदीय औसत उत्पादन से अधिकता बनाए हुए है, जबकि ज्वार में 16 किग्रा तथा मटर में केवल 09 किग्रा से पिछड़ रहा है, अन्य फसलों में भी औसत उत्पादन की दृष्टि से इस वर्ग का प्रदर्शन अतिरेक वाला दिखाई पड़ रहा है। बड़े कृषकों का प्रदर्शन उनकी साधन संपन्नता से देखते हुए अच्छा नहीं कहा जा सकता है। यह वर्ग जहाँ उरद/मूंग के उत्पादन में 88 किग्रा, चना 42 किग्रा, बाजरा 34 किग्रा, तिलहन 30 किग्रा तथा अरहर में 20 किग्रा अतिरेक उत्पादित कर रहा है वहीं गेहूँ 28 किग्रा जौ 22 किग्रा तथा मटर के उत्पादन में 22 किग्रा की हानि प्रदर्शित कर रही है। आलू तथा गन्ना के उत्पादन में क्रमश: 1130 किग्रा तथा 1474 किग्रा का अतिरेक उत्पादित करके इन फसलों के प्रति विशेष रूचि प्रदर्शित कर रहा है। यह वर्ग के आकार के आधार पर संपन्न वर्गों में है, परंतु उत्पत्ति के साधनों जिसमें श्रम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है का अधिकांश भाग किराए पर रखने के कारण प्रति इकाई लागत अधिक हो जाती है, इस दृष्टि से केवल गेहूँ की फसल को छोड़कर अन्य फसलों के उत्पादन में इस वर्ग का प्रदर्शन औसत दर्जे का रहा है।

3. प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता
किसी क्षेत्र में खाद्यान्नों की मांग को प्रभावित करने वाले तत्व उस क्षेत्र की जनसंख्या तथा क्षेत्रवासियों द्वारा प्रतिव्यक्ति उपयोग की मात्रा होते हैं। क्षेत्र में खाद्यान्नों की पूर्ति खाद्यान्नों का उत्पादन एवं उनके समुचित वितरण की मात्रा पर निर्भर करती है। अधिकांश जोत का आकार छोटा होने के कारण कृषक अपनी उपज का एक भाग स्व उपभोग के लिये अपने पास रखने के लिये बाध्य हो जाता है, एक अनुमान के अनुसार खाद्यान्न के कुल उत्पादन का 60 से 70 प्रतिशत भाग कृषक द्वारा स्व उपभोग बीज पशुओं के चारे के लिये अपने पास रख लिया है परिणाम स्वरूप बिक्री योग्य कृषि उत्पादन के अतिरिक्त की मात्रा कम रह जाती है। सर्वेक्षण किए गये कृषकों में खाद्यान्नों के उत्पादन तथा प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता को सारिणी क्रमांक 6.10 में दर्शाया गया है।

 

सारिणी 6.10

सीमांत कृषकों में खाद्यान्न उत्पादन तथा प्रतिव्यक्ति उपयोग की मात्रा

फसल

कुल उत्पादन (क्विं)

क्षय प्रतिशत

शुद्ध उत्पादन (क्विं)

खाने योग्य भाग प्रतिशत

उपभोग योग्य मात्रा (क्विं)

प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में)

1. धान

512014

10

469.03

60

281.42

99.03

2. गेहूँ

602.91

10

542.62

95

515.49

181.41

3. जौ

3.05

10

2.75

90

2.4

0.87

4. ज्वार

28.77

10

25.89

90

23.30

8.20

5. बाजरा

24.89

10

22.40

90

20.16

7.09

6. मक्का

1.25

10

1.15

90

1.04

0.37

7. अरहर

36.81

10

33.13

65

21.53

7.58

8. चना

21.01

10

18.91

65

12.29

4.32

9. मटर

2.15

10

1.94

70

1.36

0.48

10. उड़द/मूंग

23.24

10

20.92

70

14.64

5.15

11. तिलहन

2.96

2

2.45

35

0.86

0.30

12. आलू

217.75

10

195.98

13

25.48

8.97

13. गन्ना

254.44

25

190.83

-

190.83

67.15

स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण

 

सारिणी क्रमांक 6.10 सीमांत कृषकों में खाद्य उपलब्धता की स्थिति का चित्रण कर रही है। जिससे ज्ञात होता है कि सीमांत कृषकों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता 323.51 ग्राम है जिसमें दालों का योगदान 17.53 ग्राम है। दोनों ही दृष्टियों से सीमांत कृषक खाद्य सामग्री का अभाव अनुभव कर रहे हैं। जहाँ तक अन्न का सवाल है गेहूँ की उपलब्धता मात्र 181.41 ग्राम प्रतिदिन है जबकि चावल की उपलब्धता केवल 99.03 ग्राम है, ज्वार बाजरा क्रमश: 8.20 ग्राम तथा 7.09 ग्राम है जौ और मक्का तो केवल उपस्थिति ही दर्शा पा रही है न्यूनाधिक यही स्थिति दलहनों की है। सामान्य उपभोग में केवल उड़द/मूंग, अरहर तथा चना की दाल ही प्रयोग की जाती है जिसमें अरहर प्राथमिकता क्रम में सर्वोपरि रहती है, परंतु प्रति व्यक्ति केवल 7.58 ग्राम इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि यह वर्ग दलहन के उपयोग के लिये आत्म निर्भर नहीं है, दलहन की आवश्यकता की पूर्ति यह वर्ग आयात करने पूर्ण करता है। चिकनाई के लिये इस वर्ग की लाही प्रमुख फसल है परंतु तेल का प्रतिव्यक्ति औसत एक ग्राम भी न होकर मात्र 0.30 ग्राम ही जिसका अर्थ है कि चिकनाई की भी आपूर्ति अत्यंत से कम करके की जा रही है। खाड़सारी तथा आलू के उपयोग के लिये यह वर्ग आत्म निर्भर प्रतीत होता है।

 

सारिणी 6.11

लघु कृषकों की खाद्यान्न उपलब्धता

फसल

कुल उत्पादन (क्विं)

क्षय प्रतिशत

शुद्ध उत्पादन (क्विं)

खाने योग्य भाग प्रतिशत

उपभोग योग्य मात्रा (क्विं)

प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में)

1. धान

1019.62

10

919.66

60

550.60

210.54

2. गेहूँ

1109.96

10

998.96

95

949.01

362.88

3. जौ

9.39

10

8.45

90

7.61

2.91

4. ज्वार

41.25

10

37.13

90

32.42

12.78

5. बाजरा

66.18

10

59.56

90

58.60

20.50

6. मक्का

7.18

10

6.46

90

5.81

2.22

7. अरहर

55.18

10

49.66

65

32.28

12.34

8. चना

35.43

10

31.88

65

20.72

7.92

9. मटर

5.44

10

4.90

70

3.48

1.31

10. उड़द/मूंग

29.44

10

26.50

70

18.55

7.09

11. तिलहन

18.31

2

17.94

35

6.28

2.40

12. आलू

454.54

10

409.09

13

53.18

20.33

13. गन्ना

430.87

25

323.15

-

323.15

123.57

 

 
सारिणी क्रमांक 6.11 लघु कृषकों में व्यक्ति प्रतिदिन खाद्य उपलब्धता का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिससे ज्ञात होता है कि लघु कृषकों को चावल की उपलब्धता 210.54 ग्राम तथा गेहूँ की उपलब्धता 362.88 ग्राम है। मोटे अनाजों की उपलब्धता मात्र 35.50 ग्राम प्रतिव्यक्ति है जिसमें बाजरा की भागेदारी 50 प्रतिशत से अधिक है। दलहन की प्रतिदिन केवल 28.66 ग्राम की मात्रा यह दर्शा रही है कि इस क्षेत्र में दलहन का उत्पादन अत्यंत न्यून है, दैनिक उपभोग के लिये भी महत्त्वपूर्ण दालों की पूर्ति नहीं कर पा रहा है, अन्य फसलों में केवल आलू ही औसत उपयोग के लिये प्राप्त होता है जबकि खंडसारी का प्रतिव्यक्ति केवल 20.33 ग्राम मात्रा ही उपलब्ध है। इसी प्रकार चिकनाई की मात्रा भी 2.40 ग्राम अत्यंत न्यून है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि वर्ग अपनी खाद्यान्न आवश्यकता को अपने उत्पादन से पूर्ण नहीं कर पा रहा है, अपनी खाद्यान्न आवश्यकता की आपूर्ति कृषि के अतिरिक्त आय द्वारा अन्यत्र से पूर्ण कर रहा है।

 

सारिणी 6.12

लघु मध्यम कृषकों में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता

फसल

कुल उत्पादन (क्विं)

क्षय प्रतिशत

शुद्ध उत्पादन (क्विं)

खाने योग्य भाग प्रतिशत

उपभोग योग्य मात्रा (क्विं)

प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में)

1. धान

845.72

10

761.16

60

456.70

332.55

2. गेहूँ

866.01

10

779.41

95

740.44

539.15

3. जौ

5.15

10

4.64

90

4.18

3.04

4. ज्वार

25.00

10

22.50

90

20.25

14.75

5. बाजरा

28.65

10

25.79

90

23.21

16.90

6. मक्का

6.67

10

6.00

90

5.40

3.93

7. अरहर

26.71

10

24.04

65

15.63

11.38

8. चना

39.44

10

35.50

65

23.08

16.81

9. मटर

5.44

10

4.90

70

3.43

2.50

10. उड़द/मूंग

24.68

10

22.21

70

15.55

11.32

11. तिलहन

19.27

2

18.88

35

6.61

4.84

12. आलू

429.67

10

386.70

13

50.27

36.60

13. गन्ना

382.83

25

287.12

-

287.12

209.07

 

 
सारिणी क्रमांक 6.12 लघु मध्यम कृषकों में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता का विवरण प्रस्तुत कर रही है जिसमें चावल 332.55 ग्राम तथा गेहूँ 539.15 ग्राम की दर से उत्पादित कर रहे हैं। मोटे अनाजों में बाजरा 16.90 ग्राम उत्पन्न हो रहा है जबकि ज्वार 14.75 ग्राम तथा मक्का और जौ कमोबेश एक समान का स्तर व्यक्त कर रहे हैं। अनाज के उत्पादन में यह वर्ग आत्मनिर्भर प्रतीत हो रहा है, परंतु दलहनी फसलों का उत्पादन प्रतिव्यक्ति के आधार पर कम है। दालें औसत रूप में 42.01 ग्राम उत्पन्न हो रहा है, इसमें अरहर तथा उड़द/मूंग लगभग एक जबकि चना 16.81 ग्राम उत्पन्न हो रहा है, मटर केवल 2.50 ग्राम की दर से केवल उपस्थित है। चिकनाई के लिये यह वर्ग भी आत्मनिर्भर नहीं है क्योंकि यह वर्ग भी मात्र 4.81 ग्राम प्रतिव्यक्ति उत्पन्न कर रहा है जो औसत से अत्यंत निम्न स्तर का है। खांडसारी तथा आलू के संदर्भ में यह वर्ग आत्मनिर्भर प्रतीत हो रहा है, आलू की मात्रा तो औसत से अधिक उत्पन्न करके नकदीकरण भी कर रहा है।

 

सारिणी क्रमांक 6.13

मध्यम कृषकों का प्रतिव्यक्ति उत्पादन

फसल

कुल उत्पादन (क्विं)

क्षय प्रतिशत

शुद्ध उत्पादन (क्विं)

खाने योग्य भाग प्रतिशत

उपभोग योग्य मात्रा (क्विं)

प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में)

1. धान

451.92

10

406.73

60

2440.4

561.47

2. गेहूँ

498.22

10

448.40

95

425.98

980.06

3. जौ

5.12

10

4.61

90

4.15

9.55

4. ज्वार

11.75

10

10.58

90

9.52

21.90

5. बाजरा

20.05

10

18.05

90

16.25

37.39

6. मक्का

4.65

10

4.19

90

3.77

8.76

7. अरहर

25.43

10

22.89

65

14.88

34.23

8. चना

22.20

10

19.98

65

12.99

29.89

9. मटर

2.73

10

2.46

70

1.72

3.96

10. उड़द/मूंग

16.57

10

14.91

70

10.44

24.02

11. तिलहन

20.01

2

19.61

35

6.86

15.78

12. आलू

197.81

10

178.03

13

23.14

53.24

13. गन्ना

218.36

25

163.77

-

163.77

376.79

 

 
सारिणी क्रमांक 6.13 मध्यम कृषकों के उत्पादन आकार का विवरण प्रदर्शित कर रही है जिसमें यह वर्ग चावल तथा गेहूँ का अतिरेक उत्पादन करके क्रमश: 561.47 ग्राम तथा 980.06 ग्राम की उपलब्धता दर्शाता है। मोटे अनाजों में यह वर्ग भी बाजरा 37.39 ग्राम, ज्वार 21.90 ग्राम जौ 9.55 ग्राम तथा मक्का 8.76 उत्पन्न कर रहा है। मोटे अनाजों का उत्पादन मौसमी उपभोग के लिये पर्याप्त नहीं है। दलहनी फसलों में 92.10 ग्राम दालों का उत्पादन करके यह वर्ग आत्मनिर्भर प्रतीत हो रहा है, परंतु सामान्य उपभोग में केवल अरहर की फसल ही आती है जिसका प्रति व्यक्ति उत्पादन मात्र 34.23 ग्राम है जो औसत से कम है। उड़द/मूंग का उपयोग यदाकदा ही किया जाता है। तिलहन उत्पादन में भी यह वर्ग आत्मनिर्भर है क्योंकि इस फसल से इस वर्ग को 15.78 ग्राम चिकनाई प्राप्त हो जाती है जो औसत से अधिक है। आलू 376.79 ग्राम प्रति व्यक्ति उत्पन्न करके इस फसल में अतिरेक उत्पादन प्राप्त कर रहा है। जबकि खांडसारी में भी 53.24 ग्राम उत्पादन औसत से अधिक है।

 

सारिणी 6.14

बड़े कृषकों का प्रति व्यक्ति उत्पादन

फसल

कुल उत्पादन (क्विं)

क्षय प्रतिशत

शुद्ध उत्पादन (क्विं)

खाने योग्य भाग प्रतिशत

उपभोग योग्य मात्रा (क्विं)

प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में)

1. धान

376.95

10

339.26

60

203.56

1921.78

2. गेहूँ

357.83

10

322.05

95

305.95

2888.43

3. जौ

3.38

10

3.04

90

2.74

25.87

4. ज्वार

5.66

10

5.09

90

4.58

43.05

5. बाजरा

8.48

10

7.63

90

6.87

64.86

6. मक्का

2.85

10

2.57

90

2.31

21.81

7. अरहर

14.2

10

12.81

65

8.33

78.64

8. चना

9.67

10

8.70

65

5.66

53.43

9. मटर

3.60

10

3.24

70

2.27

21.43

10. उड़द/मूंग

12.66

10

11.39

70

4.97

75.24

11. तिलहन

6.56

2

6.43

35

2.25

21.24

12. आलू

163.67

10

147.30

13

19.15

180.789

13. गन्ना

194.12

25

145.59

-

145.59

1374.50

 

 
सारिणी क्रमांक 6.14 बड़े कृषकों द्वारा प्रति व्यक्ति उत्पादन का विवरण प्रस्तुत कर रही है जिससे ज्ञात होता है कि यह वर्ग न केवल खाद्यान्न उत्पादन में आत्म निर्भर है बल्कि दलहन तथ तिलहन, खांडसारी तथा आलू के उत्पादन में अतिरेक उत्पादन कर रहा है। यह वर्ग जहाँ अनाज के उत्पादन में चावल 1921.78 ग्राम, गेहूँ 2888.43 ग्राम उत्पादन करके उपज अतिरेक का प्रदर्शन कर रहा है मोटे अनाजों में बाजरा 64.86 ग्राम, ज्वार 43.05 ग्राम मक्का 21.81 ग्राम तथा जौ 25.87 ग्राम उत्पन्न करके अनाजों में बाजरा 64.86 ग्राम, ज्वार 43.05 ग्राम मक्का 21.81 ग्राम तथा जौ 25.87 ग्राम उत्पन्न करके पर्याप्तता का संकेत कर रहा है, वहीं दलहनी फसलों में अरहर 78.64 ग्राम, चना 53.43 ग्राम, उड़द/मूंग 75.24 ग्राम तथा मटर 21.43 ग्राम उत्पादन करके आत्मनिर्भरता की स्थिति दर्शा रहा है। सभी फसलों में उपज अतिरेक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारक इस वर्ग के पास कृषि क्षेत्र की अधिकता है तथा परिवार की सदस्य संख्या के अनुपात के प्रतिव्यक्ति भूमि की उपलब्धता अधिक है जिनसे इस वर्ग का कृषक न केवल स्व उपभोग के लिये पर्याप्त खाद्यान्न उत्पादित कर रहा है बल्कि उपज अतिरेक का विपणन करके अन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति के नकदीकरण भी प्राप्त कर रहा है।

 

सारिणी 6.15

विभिन्न वर्गो की तुलनात्मक उपलब्धता (ग्रामों में)

फसल

सीमांत कृषक

लघु कृषक

लघु मध्यम कृषक

मध्यम कृषक

बड़े कृषक

समग्र औसत

1. धान

99.03

210.54

352.55

561.47

1921.78

235.57

2. गेहूँ

181.41

3621.88

539.15

980.06

2888.43

398.45

3. जौ

0.87

2.91

3.04

9.55

25.87

2.87

4. ज्वार

8.21

12.78

14.75

21.90

43.05

12.36

5. बाजरा

74.09

20.50

16.90

37.39

64.86

16.29

6. मक्का

0.37

2.22

3.93

8.76

21.81

2.48

7. अरहर

74.58

12.34

11.38

34.23

78.64

12.57

8. चना

4.32

7.92

16.81

29.89

53.43

10.14

9. मटर

0.48

1.31

2.50

3.96

21.43

1.65

10. उड़द/मूंग

5.15

7.09

11.32

24.02

75.24

9.11

11. तिलहन

030

2.40

4.81

15.78

21.24

3.12

12. आलू

8.97

20.33

36.60

53.24

180.79

23.23

13. गन्ना

67.15

123.57

209.07

376.79

1374.50

150.66

 

 
सारिणी क्रमांक 6.15 विभिन्न कृषक वर्गों में तुलनात्मक खाद्यान्न उपलब्धता का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिससे यह तथ्य स्पष्ट हो रहा है कि जैसे-जैसे जोत का आकार बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में भी वृद्धि हो रही है और यह वृद्धि कमोबेश सभी फसलों में दृष्टिगोचर हो रही है, परंतु औसत रूप पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि जहाँ प्रतिव्यक्ति चावल की उपलब्धता 235.57 ग्राम है वही पर गेहूँ की उपलब्धि 398.45 ग्राम है ये दोनों खाद्यान्न विभिन्न वर्गों की औसत आवश्यकता को पूरा करते हैं। मोटे अनाजों की शुद्ध उपलब्धता अत्यंत न्यून है जिसका अर्थ है कि सभी वर्गों में मोटे अनाजों के उत्पादन के प्रति उदासीनता दिखाई पड़ रही है। यह तथ्य पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि सभी वर्गों में क्षेत्रफल की दृष्टि से भी धान और गेहूँ फसलों की प्रधानता है, मोटे अनाज तो नाम मात्र के क्षेत्रफल पर ही उत्पन्न किया जा रहा है। दालों के संबंध में यह स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है कि दलहन की फसलों का क्षेत्रफल न केवल कम है बल्कि प्रति व्यक्ति उपलब्धता भी अत्यंत कम है क्योंकि औसत मात्रा की दृष्टि से अरहर मात्र 12.57 ग्राम ही प्राप्त हो पा रही है जो औसत आवश्यकता से अत्यंत न्यून कही जा सकती है क्योंकि दालों के उपयोग में अरहर ही प्रमुख स्थान रखती है अन्य दलहन तो यदाकदा ही उपभोग किए जाते हैं। चना तथा उड़द/मूंग क्रमश: 10.14 ग्राम और 9.11 ग्राम के स्तर पर स्थिर है जबकि मटर केवल नाम मात्र को ही उपस्थित है। तिलहन की मात्रा अत्यंत कम अर्थात 31.12 ग्राम इस तथ्य का संकेत करती है कि क्षेत्र में चिकनाई की उपलब्धता की औसत से अत्यंत कम है, केवल गुड़/खांडसारी तथा आलू की औसत मात्रा अवश्य संतोषजनक कही जा सकती है, परंतु ये दोनों खाद्य भी उपज अतिरेक की स्थिति में नहीं है, गुड़ तो औसत आवश्यकता से कुछ कम ही है। इस प्रकार खाद्य पदार्थों के संदर्भ में सर्वेक्षित कृषकों में केवल चावल तथा गेहूँ के विषय में आत्मनिर्भरता देखने को प्राप्त हो रही है अन्य खाद्य पदार्थ के संबंध में स्वल्पता की स्थिति बनी हुई है।

1. वसु केडी (1946) स्टडीज ऑफ प्रोटीन, फैट एंड मिनरल मेटावोलिज्म इन इंडिया, नई दिल्ली
2. बसंल पीसी (1958) ‘‘इंडियन फूड रिसर्चेज एंड पापुलेशन’’ बोरा एंड कंपनी बंबई
3. वर्गीज एनी एंड डीन (1962) ‘माल न्यूट्रीशन एंड फूड हैविट्स’ तनी स्टाक पब्लिकेशन लंदन
4. भाटिया बीएम (1970) ‘इंडियन फूड प्रोब्लेम्क एंड पालिसी’ प्रिंस इंडिपेंडेंस, बांबे।

 

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ

2

अध्ययन क्षेत्र की वर्तमान स्थिति

3

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

4

सामान्य भूमि उपयोग एवं कृषि भूमि उपयोग

5

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

6

कृषि उत्पादकता एवं जनसंख्या संतुलन

7

कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति

8

भोजन के पोषक तत्व एवं पोषक स्तर

9

कृषक परिवारों के स्वास्थ्य का स्तर

10

कृषि उत्पादकता में वृद्धि के उपाय

11

कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव

 

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