किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र के फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन की संभावना के विषय में दो मत हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि फसलों के प्रतिरूप में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है जबकि कुछ विद्वान मानते हैं कि सुविचारित नीति के सहारे इसे बदला जा सकता है। वसु केडी ने यह मत व्यक्त किया है ‘‘परंपराबद्ध तथा ज्ञान के अत्यंत निम्न स्तर वाले देश के कृषक प्रयोग करने की उद्यत नहीं होते हैं, वे प्रत्येक बात को विरक्ति और भाग्यवाद की भावना से स्वीकार करते हैं, उनके लिये कृषि वाणिज्य, व्यापार की वस्तु न होकर जीवन की एक प्रणाली है एक ऐसे कृषि प्रधान समाज में जिसके सदस्य परंपराबद्ध और अशिक्षित हैं, फसल में परिवर्तन की अधिक संभावना नहीं रहती है।’’ अब इस मत को सही नहीं समझा जाता है जैसा कि पंजाब में फसल परिवर्तन से स्पष्ट है। अब यह बात अधिकांश विद्वानों द्वारा स्वीकार कर ली गई है कि भारत जैसे देश में भी फसल प्रतिरूप बदला जा सकता है और इसे बदलना चाहिए। फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने वाले बहुत से कारक होते हैं जैसे भौतिक एवं तकनीकी तत्व आर्थिक तत्व यहाँ तक कि राजनीतिक तत्व भी फसल प्रतिरूप को प्रभावित करते हैं। इनमें से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व आर्थिक तत्व होते हैं।
किसी प्रदेश का फसल प्रतिरूप उसकी भौतिक विशिष्टताओं अर्थात मिट्टी, जलवायु, वर्षा तथा मौसम आदि पर निर्भर करता है। उदाहरण स्वरूप एक ऐसे शुष्क क्षेत्र में जिसमें थोड़ी वर्षा होती है तथा मानसून अनिश्चित रहता है वहाँ पर ज्वार तथा बाजरा फसलों की प्रधानता होती है क्योंकि ये फसलें कम वर्षा में भी उगाई जा सकती हैं। फसल चक्र बहुत कुछ भौतिक कारणों से प्रभावित होता है किंतु तकनीकी उपायों से फसल चक्र बदला जा सकता है, तो भी कुछ परिस्थितियों में भौतिक बाधा निर्णायक होते हैं। उदाहरण के लिये पंजाब के संगरूर और लुधियाना जिलों में जलरोध के कारण चावल के उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि हुई है क्योंकि चावल की फसल अधिक पानी को सहन कर सकती है।
मिट्टी तथा जलवायु के अतिरिक्त किसी क्षेत्र की फसलों के प्रतिरूप पर सिंचाई सुविधाओं की उपलब्धता का भी प्रभाव पड़ता है। जहाँ पर पानी की सुविधाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं वहाँ पर दोहरी और तेहरी फसलें भी उगाई जा सकती हैं। जब भी किसी क्षेत्र को सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाती हैं उस क्षेत्र के कृषि का ढाँचा ही बदल जाता है, पुराने फसल चक्र के स्थान पर नया फसल चक्र निर्धारित होता है। यह संभव है कि पूँजी के अभाव में अच्छे एवं सुधरे हुए कृषि औजार, अधिक उपज देने वाले उन्नत किस्म के बीज और रासायनिक उर्वरकों के लिये वित्त न मिल पाने के कारण उचित प्रकार की फसल न उगाई गई हो, परंतु जैसे ही वे सुविधाएँ कृषकों को प्राप्त होती हैं, फसलों के ढाँचे में परिवर्तन हो जाता है।
(ब) आर्थिक तत्व :
किसी क्षेत्र अथवा प्रदेश की फसलों के प्रतिरूप को निर्धारित करने में आर्थिक कारण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वहन करते हैं। आर्थिक कारणों में निम्न तत्व महत्त्वपूर्ण हैं -
(1) कीमत और आय को अधिकतम करना :
अनेक व्यवहारिक अध्ययनों से फसलों की कीमत तथा उनके ढाँचे में परस्पर संबंध स्थापित होता है। डा. बंसल पीसी ने ‘कीमत समता अनुपात’ की गतियों और गन्ने की अखिल भारतीय क्षेत्रफल में परिवर्तन के बीच तथा पटसन एवं चावल के अधीन क्षेत्रफल और इन वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों के बीच घनिष्ट संबंध को प्रमाणित किया है। खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के अध्ययन से पता चलता है कि कीमतों में परिवर्तन का क्षेत्रफल के परिवर्तन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वर्गीज का मत है कि अधिकतम आय की प्ररेणा भी फसलों का ढाँचा बदलने पर भी अधिक प्रभाव डालती है क्योंकि कृषक उसी फसल को उगाना पसंद करेगा जिससे उसे अधिकतम आय प्राप्त होगी। किंतु डा. भाटिया का मत है कि ‘‘फसलों के प्रतिरूप को प्रभावित करने वाला मुख्य कारण प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ होता है।’’ स्पष्ट है कि किसी भी परिस्थितियों में फसल का चुनाव करने में किसान पर कीमत समता, आय का अधिकतम होना और प्रति एकड़ सापेक्ष लाभ का ही अधिक प्रभाव पड़ता है।
(2) खेत का आकार :
खेत के आकार तथा फसलों के ढाँचे की बीच भी संबंध रहता है। छोटे किसान बड़े किसानों के सापेक्ष व्यापारिक फसलों के लिये कम क्षेत्रफल का उपयोग करते हैं। इसका कारण है कि छोटे कृषक सर्व प्रथम अपनी आवश्यकता पूर्ति हेतु खाद्यान्न उत्पन्न करना चाहते हैं। परंतु हाल ही में देवरिया जिले के अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि लगभग सभी कृषक बड़े तथा छोटे कुछ नकद फसलें उगाने का प्रयास करते हैं। यह सत्य है कि निर्वाह की आवश्यकता के कारण छोटे कृषकों की फसलों का ढाँचा परंपरा से प्रभावित होता है किंतु उनकी मौद्रिक आय की सीमांत आवश्यकता किसी भी प्रकार बड़े कृषकों से अधिक नहीं हो सकती है। अर्थव्यवस्था की प्रगति के साथ छोटे कृषकों द्वारा अपनी आय अधिकतम करने में उद्देश्य से अपने सस्य प्रतिरूप में अत्यंत महत्त्वपूर्ण सीमांत परिवर्तन होने की संभावना रहती है।
(3) जोखिम के विरुद्ध बीमा :
फसल विफलता का जोखिम कम से कम करने की आवश्यकता का भी फसलों के ढाँचे पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरणत: अनेक क्षेत्रों में ज्वार बाजरे आदि मोटे अनाज की खेती के लगातार होने के कारण मुख्यत: वर्षा की अनिश्चता से बचने का प्रयत्न है।
(4) आदानों की उपलब्धता :
सस्य प्रतिरूप, उन्नतशील बीज, रासायनिक उर्वरक, जल संग्रहण, विपणन और परिवर्तन आदि आदानों पर भी निर्भर रहता है। मूंगफली के बीच की उपलब्धता के कारण मध्य प्रदेश के अनेक कृषकों को मूंगफली की खेती अधिक विस्तृत क्षेत्रफल में करने की प्रेरणा प्राप्त हुई। कृषकों द्वारा रूई की फसल के मुकाबले मूंगफली को श्रेष्ठ समझने का एक कारण यह भी है कि रूई की फसल विलंब से तैयार होती है जबकि मूंगफली की फसल शीघ्र पक कर तैयार हो जाती है।
(5) भू-धारण :
फसल बटाई प्रणाली के अंतर्गत भू-स्वामी को फसलों के चुनाव का प्रमुख अधिकार होता है, परिणाम स्वरूप आय को अधिक करने वाला फसलों का ढाँचा अपनाया जाता है।
(स) राजनैतिक तत्व :
कार वैधानिक और प्रशासनिक उपायों से फसलों के ढाँचे के निर्धारण पर प्रभाव डाल सकते हैं। कृषकों को कृषिगत आदान और ज्ञान उपलब्ध कराने में सहायक प्रदान कर सकती है। सरकार कुछ फसलों के लिये विशेष सुविधाएँ उपलब्ध करा सकती है। यद्यपि खाद्य, सस्य अधिनियम, भू उपयोग अधिनियम, धान, कपास, तिलहन आदि की सघन खेती की भोजनाएँ उत्पादन शुल्क तथा निर्यात शुल्क आदि के प्रयोग से कल्पित दिशा में फसलों के ढाँचे को प्रभावित किया जा सकता है तथापि संभव है कि उक्त समस्त उपायों का संपूर्ण फसलों के ढाँचे पर कुछ प्रभाव ऐसा न पड़े जो राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप हो।
1. कृषकों का कृषि प्रारूप :
जनपद प्रतापगढ़ में तीन फसलें खरीफ, रबी तथा जायद फसलें क्रमश: वर्षा, शरद एवं ग्रीष्म ऋतु में बोई जाती हैं। इनमें से खरीफ तथा रबी की फसलों की प्रधानता है जो कुछ कृषि क्षेत्र के लगभग 96 प्रतिशत भाग को अधिकृत किए हुए हैं। सर्वेक्षण के आधार पर 300 कृषक परिवारों के कृषि प्रारूप के संबंध में सूचनाएँ एकत्रित की गई हैं। इन कृषकों को पाँच श्रेणियों में विभाजित किया जाता है। सीमांत कृषक की श्रेणी में 0.5 हेक्टेयर से अधिक परंतु 1 हेक्टेयर से कम कृषि योग्य भूमि है उन्हें लघु कृषकों की श्रेणी में, जबकि 2 से 4 हेक्टेयर के मध्य कृषि भू-स्वामियों को मध्य श्रेणी में तथा 4 हेक्टेयर से अधिक जोत सीमा वाले कृषक परिवार बड़े कृषक की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता है। सर्वेक्षण में सूचनाओं की अवधि 1 जुलाई 1999 से 30 जून 2000 तक है।
सारिणी 6.1 कृषक परिवारों की श्रेणियों | |||||
जोत का आकार | कृषकों की श्रेणी | कृषकों की संख्या | प्रतिशत | क्षेत्रफल (हेक्टेयर में) | प्रतिशत |
0.5 हेक्टेयर से कम | सीमांत | 122 | 40-67 | 44-68 | 17-23 |
0.5 से 1 हेक्टेयर | लघु | 107 | 35-67 | 82-68 | 31-88 |
1 से 2 हेक्टेयर | लघु मध्यम | 52 | 17-33 | 63-96 | 24-66 |
2 से 4 हेक्टेयर | मध्यम | 16 | 5-33 | 37-76 | 14-56 |
4 हेक्टेयर से अधिक | बड़े | 3 | 1-00 | 30-24 | 11-66 |
योग |
| 300 | 100-00 | 259-32 | 100-00 |
सारिणी 6.2 फसल गहनता | |||
कृषकों की श्रेणी | शुद्ध कृषि क्षेत्र (हेक्टेयर) | सकल कृषि क्षेत्र (हेक्टेयर) | फसल गहनता |
सीमांत कृषक | 44.68 | 70.93 | 158.75 |
लघु कृषक | 82.68 | 133.30 | 161.22 |
लघु मध्यम कृषक | 63.96 | 102.88 | 160.86 |
मध्यम कृषक | 37.76 | 61.35 | 162.48 |
बड़े कृषक | 30.24 | 44.69 | 147.78 |
कुल | 259.32 | 413.15 | 159.32 |
स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण |
सारिणी 6.2 कृषक परिवारों की फसलों की गहनता का चित्र प्रस्तुत कर रही है। फसल गहनता सर्वाधिक 162.48 प्रतिशत मध्यम कृषक श्रेणी में पाई गई जबकि न्यूनतम फसल गहनता 147.78 प्रतिशत बड़े आकार के कृषक परिवारों में प्राप्त हुई जो सर्वोच्च फसल गहनता से लगभग 15 प्रतिशत कम है। किसी क्षेत्र की फसल गहनता उस क्षेत्र के कृषि स्वरूप की ओर संकेत करता है साथ ही कृषि के लिये आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता का भी आभास कराता है। उच्च फसल गहनता का अर्थ है कि वह क्षेत्र बहुफसली है। न्यून फसल गहनता का अर्थ है उस क्षेत्र में एक से अधिक फसलों का क्षेत्र भी सीमित है। कृषि की गहनता पर ही फसल गहनता निर्भर करती है जिसके द्वारा ही उप क्षेत्र की आर्थिक स्थिति का निर्धारण होता है। उच्च फसल गहनता उच्च आर्थिक स्तर, निम्न फसल गहनता निम्न आर्थिक स्तर। इस दृष्टि से देखा जाय तो अध्ययन क्षेत्र की फसल गहनता 159.32 प्रतिशत है जिसका अर्थ है कि कृषकों द्वारा केवल 59.32 प्रतिशत क्षेत्र पर ही एक से अधिक फसलें उगाई जा रही हैं।
सारिणी 6.3 जातिगत आधार पर कृषकों का वर्गीकरण | ||||||
कृषकों का जाति वर्ग | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | योग |
1. उच्च जाति | 24 | 25 | 11 | 04 | 01 | 65 |
2. पिछड़ी जाति | 36 | 34 | 16 | 08 | 01 | 95 |
3. अनुसूचित जाति | 53 | 39 | 20 | 01 | - | 113 |
4. मुस्लिम | 09 | 09 | 05 | 03 | 03 | 27 |
योग | 122 | 107 | 52 | 16 | 16 | 300 |
स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण |
सारिणी 6.3 कृषकों के जातिगत वर्गीकरण को प्रस्तुत कर रही है जिसमें उच्च जाति के 65 कृषक प्राप्त हुए इनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जातियाँ सम्मिलित हैं, 95 कृषक परिवार पिछड़ी जातियों से संबंधित है जिनमें यादव, काछी, पाल, कुर्मी, लोधी, सविता, तथा कुम्हार जातियाँ प्रमुख हैं। अनुसूचित जाति के 113 कृषक परिवारों में चमार, कोइरी, धोबी, आरख तथा पटवा जातियों की प्रधानता पाई गई। मुस्लिम कृषक परिवारों की संख्या 27 प्राप्त हुई, परंतु मुस्लिम धर्मानुयाई कृषकों को एक ही वर्ग में रखा गया है। कृषकों की जाति भी कृषि प्रणाली को प्रभावित करती है। सामान्यत: अनुसूचित जाति तथा पिछड़ी जाति के कृषक परिवारों को पारिवारिक श्रम सरलता से उपलब्ध हो जाने के कारण फसल प्रतिरूप को प्रभावित करता है जबकि उच्च जाति के कृषिकय परिवारों को श्रम दुर्लभ होने के कारण फसल चक्र श्रम प्रधान नहीं रहते हैं।
सारिणी 6.4 पारिवारिक आकार | ||||||||||||
परिवार का आकार | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | योग | ||||||
कृषक परिवार | सदस्य संख्या | कृषक परिवार | सदस्य संख्या | कृषक परिवार | सदस्य संख्या | कृषक परिवार | सदस्य संख्या | कृषक परिवार | सदस्य संख्या | कृषक परिवार | सदस्य संख्या | |
4 से कम | 28 | 84 | 24 | 63 | 12 | 33 | 4 | 13 | - | - | 68 | 193 |
5 से 6 तक | 41 | 226 | 29 | 158 | 15 | 83 | 2 | 12 | 01 | 06 | 88 | 485 |
7 से 8 तक | 27 | 211 | 20 | 152 | 07 | 52 | 4 | 31 | - | - | 58 | 446 |
9 से 10 तक | 22 | 209 | 28 | 268 | 08 | 76 | 3 | 28 | 10 | 10 | 62 | 591 |
10 से अधिक | 04 | 48 | 06 | 75 | 10 | 132 | 3 | 35 | 10 | 13 | 24 | 303 |
योग | 122 | 778 | 107 | 716 | 52 | 376 | 16 | 119 | 03 | 29 | 300 | 2018 |
औसत | - | 6.38 | - | 6.69 | - | 7.23 | - | 7.43 | - | 9.67 | - | 6.73 |
स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण |
सारिणी 6.4 कृषकों के औसत परिवार के आकार का चित्र प्रस्तुत कर रही है जिसमें बड़े कृषक परिवारों का औसत आकार सर्वाधिक प्राप्त हुआ है, इस वर्ग के परिवारों का औसत आकार 9.67 सदस्य प्रति परिवार पाया गया जबकि न्यूनतम आकार 6.38 सदस्य प्रति परिवार सीमांत कृषकों का पाया गया। समंको को विश्लेषण करने पर यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि जैसे-जैसे जोत का आकार बढ़ता जाता है परिवार का आकार भी बढ़ता जाता है जैसे लघु कृषकों के परिवार का औसत आकार 6.69 सदस्य प्रति परिवार, लघु मध्यम कृषक परिवार 7.23 सदस्य प्रति परिवार तथा मध्यम कृषक 7.43 सदस्य प्रति परिवार औसत आकार दर्शा रहे हैं जबकि संपूर्ण कृषक परिवारों का औसत आकार 6.73 सदस्य प्राप्त किया गया। परिवार का आकार भी कृषि प्रणाली को प्रभावित करता है क्योंकि परिवार का आकार जितना बड़ा होगा कृषि पर भार भी उतना ही अधिक होगा, न्यून सदस्य संख्या वाले कृषक परिवार अधिक कुशलता से कृषि कार्य संपन्न कर सकते हैं।
सारिणी 6.5 भूमि उपयोग (हेक्टेयर में) | |||||||
क्र. | कृषि क्षेत्र | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | योग |
1 | शुद्ध कृषि क्षेत्र | 44.68 | 82.68 | 63.96 | 37.24 | 30.24 | 259.32 |
2 | एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र | 26.25 | 50.62 | 38.59 | 23.59 | 14.45 | 153.83 |
3 | सकल बोया गया क्षेत्र | 70.93 | 133.30 | 102.88 | 61.35 | 44.69 | 413.15 |
4 | शुद्ध सिंचित क्षेत्र | 35.07 | 62.32 | 47.65 | 29.15 | 23.01 | 197.22 |
5 | सकल सिंचित क्षेत्र | 66.25 | 120.77 | 91.77 | 56.69 | 40.98 | 376.46 |
6 | खरीफ का क्षेत्र | 36.60 | 68.00 | 51.34 | 29.75 | 22.66 | 208.35 |
7 | रबी का क्षेत्र | 33.03 | 62.49 | 49.42 | 29.93 | 20.74 | 195.61 |
8 | जायद का क्षेत्र | 1.30 | 2.81 | 2.12 | 1.67 | 1.29 | 9.19 |
तालिका 6.6 विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल (हेक्टेयर में) | ||||||||||||
फसलें | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | योग | ||||||
क्षेत्र | प्रतिशत | क्षेत्र | प्रतिशत | क्षेत्र | प्रतिशत | क्षेत्र | प्रतिशत | क्षेत्र | प्रतिशत | क्षेत्र | प्रतिशत | |
1. धान | 24-84 | 35-0235 | 48-05 | 36-05 | 39-78 | 36-67 | 21-79 | 35-52 | 18-21 | 40-74 | 152-67 | 36-95 |
2. गेहूँ | 28-82 | 40-64 | 53-21 | 39-92 | 40-43 | 39-30 | 23-77 | 38-74 | 17-39 | 38-92 | 163-62 | 39-60 |
3. जौ | -24 | -84 | -75 | -56 | -42 | -41 | -40 | -66 | -27 | -61 | 2-08 | -50 |
4. ज्वार | 2-73 | 3-85 | 3-91 | 2-93 | 2-39 | 2-32 | 1-15 | 1-87 | -54 | 1-21 | 10-72 | 2-56 |
5. बाजरा | 2-23 | 3-14 | 6-06 | 4-54 | 2-60 | 2-52 | 1-81 | 2-95 | -75 | 1-68 | 13-45 | 3-26 |
6. मक्का | -08 | -12 | -47 | 0-35 | -43 | -42 | -29 | -48 | -18 | -40 | 1-45 | -35 |
7. अरहर | 3-39 | 4-78 | 5-09 | 3-82 | 2-51 | 2-44 | 2-35 | 3-83 | 1-31 | 2-94 | 14-65 | 3-55 |
8. चना | 1-70 | 2-40 | 2-88 | 2-16 | 3-14 | 3-05 | 1-79 | 2-92 | -77 | 1-72 | 10-28 | 2-49 |
9. मटर | -16 | -22 | -41 | -31 | -41 | -40 | -21 | -35 | -28 | -62 | 1-47 | -36 |
10. उड़द/मूंग | 3-33 | 4-69 | 4-42 | 3-32 | 3-63 | 3-52 | 2-36 | 3-84 | 1-67 | 3-74 | 15-41 | 3-73 |
11. तिलहन | -34 | -48 | 2-17 | 1-63 | 2-23 | 2-17 | 2-29 | 3-73 | -74 | 1-66 | 7-77 | 1-88 |
12. आलू | 1-37 | 1-93 | 2-20 | 1-65 | 1-93 | 1-88 | 1-09 | 1-77 | -97 | 2-16 | 4-56 | 1-83 |
13. गन्ना | -40 | -56 | -87 | -65 | -86 | -84 | -38 | -62 | -32 | -71 | 2-83 | -68 |
14. अन्य | 1-30 | 1-83 | 2-81 | 2-11 | 2-12 | 2-05 | 1-67 | 2-72 | 1-29 | 2-89 | 9-19 | 2-23 |
योग | 70-93 | 100-00 | 133-30 | 100-00 | 102-88 | 100-00 | 61-35 | 100-00 | 44-69 | 100-00 | 413-15 | 100-00 |
स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण |
सारिणी क्रमांक 6.6 विभिन्न कृषक वर्ग द्वारा विभिन्न फसलों के लिये उपयोग की जाने वाली कृषि भूमि का चित्र प्रदर्शित कर रही है। सारिणी से ज्ञात होता है कि सभी वर्गों के कृषकों के भूमि उपयोग में धान व गेहूँ फसलों की ही प्रधानता है जो सकल कृषि क्षेत्र के 75 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल पर बोई जा रही हैं, अन्य फसलों का उक्त दो फसलों की अपेक्षा अत्यंत निम्न क्षेत्रफल है। खरीफ की फसल में धान की भागेदारी सीमांत कृषकों में 67 प्रतिशत से अधिक लघु कृषकों में 70 प्रतिशत से अधिक, लघु मध्यम कृषकों में 77.48 प्रतिशत, मध्यम कृषक 73.24 प्रतिशत तथा बड़े कृषकों की 80 प्रतिशत से अधिक है। धान तथा गेहूँ फसलों की प्रधानता के कारण किसी अन्य नकदी फसल की संभावनाएं लगभग शून्य ही है, अन्य नकदी फसलों के अभाव में कृषक धान की ही फसल से नकदी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं। खरीफ मौसम में धान के अतिरिक्त ज्वार बाजरा तथा मक्का फसलें केवल अपनी उपस्थिति ही दर्शा रही है जिनका क्षेत्रफल अत्यंत न्यून होने के कारण सकल कृषि क्षेत्र में 3 प्रतिशत से भी कम भागेदारी कर रही है, इस मौसम में केवल उर्द/मूंग तथा अरहर ही 3 प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी कर रही हैं। लघु कृषकों में बाजरा की भागेदारी 4 प्रतिशत से अधिक है। जबकि अरहर की फसल बाजरे की फसल का अनुकरण करने का प्रयास करती प्रतीत हो रही है।
रबी मौसम में गेहूँ फसल की प्रधानता है जो औसत रूप में इस मौसम के 83 प्रतिशत से भी अधिक क्षेत्र में उगाई जा रही है। विभिन्न वर्गों के कृषकों के अनुसार देखें तो सीमांत कृषकों की हिस्सेदारी रबी मौसम के शुद्ध भू क्षेत्र में सीमांत कृषक 87.25 प्रतिशत, लघु कृषक 85.15 प्रतिशत, लघु मध्यम कृषक 81.80 प्रतिशत, मध्यम कृषक 79.42 प्रतिशत तथा बड़े कृषक 76.47 प्रतिशत की भागेदारी कर रहे हैं, यह तथ्य भी उभर कर आया है कि जैसे-जैसे जोत का आकर बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे गेहूँ फसल की भागेदारी घटती जा रही है जिसका अर्थ है कि जोत का आकार बढ़ने के साथ ही कृषक अन्य फसलों को बोना अच्छा समझते हैं, यद्यपि रबी मौसम की अन्य फसलों चना, मटर तथा तिलहन की स्थिति न्यूनाधिक उपस्थिति दर्ज कराने वाली ही हैं। दलहनी फसलों में चना का सर्वाधिक भागेदारी लघु मध्यम कृषकों की 3.05 प्रतिशत है, केवल रबी मौसम में यह प्रतिशत 6.35 है, अन्य सभी वर्ग इस फसल के लिये 3 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी कर रहे हैं। तिलहन फसल के संदर्भ में 3.73 प्रतिशत भागेदारी मध्यम कृषकों की है, अन्य वर्गों के कृषकों की भागेदारी 3 प्रतिशत से कम है जबकि तिलहन की फसल न केवल भोजन में चिकनाई की आवश्यकता को पूरा करती है बल्कि यह फसल एक नकदी फसल के रूप में कम लागत पर तैयार हो जाती है, परंतु गेहूँ की फसल की प्रधानता अन्य फसलों के महत्व को घटा रही है। आलू तथा गन्ने की फसल केवल घरेलू आवश्यकताओं को ही दृष्टिगत रखकर उगाई जाती है।
जायद फसलों में उड़द/मूंग के अतिरिक्त सब्जियों को ही प्रधानता है कुछ कृषक ककड़ी, खरबूजा तथा तरबूज भी उगाते हैं परंतु इन फसलों के उगाने का उद्देश्य व्यावसायिक न होकर स्व उपभोग है, इसलिये अत्यंत सीमित क्षेत्र पर ही ये फसलें उगाई जाती हैं। सब्जियाँ तीनों मौसमों में उगाई जाती हैं। खरीफ के मौसम में जहाँ लौकी, तरोई तथा भिण्डी की प्रधानता रहती है वहीं रबी के मौसम में टमाटर, बैगन तथा बंदगोभी की प्रधानता रहती है। जायत के मौसम में कद्दू, लौकी तथा करेला प्रमुख रूप से उगाए जाते हैं।
तालिका 6.7 कृषि भूमि पर जनसंख्या का भार | |||||||
क्रं. | प्रति व्यक्ति | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | समग्र |
1 | शुद्ध कृषि क्षेत्र | 0-05743 | 0-11547 | 0-17011 | 0-31731 | 1-04276 | 0-12850 |
2 | एक से अधिक बार बोया गया क्षेत्र | 0-03374 | 0-07070 | 0-10351 | 0-19824 | 0-49827 | 0-07623 |
3 | सकल बोया गया क्षेत्र | 0-09117 | 0-18617 | 0-27362 | 0-51555 | 1-54103 | 0-20473 |
4 | शुद्ध सिंचित क्षेत्र | 0-04508 | 0-08707 | 0-12673 | 0-24496 | 0-79345 | 0-09773 |
5 | सकल सिंचित क्षेत्र | 0-08515 | 0-16867 | 0-24407 | 0-47639 | 1-41310 | 0-18655 |
6 | खरीफ | 0-04704 | 0-09497 | 0-13654 | 0-25000 | 0-78138 | 1-10325 |
7 | रबी क्षेत्र | 0-04246 | 0-08728 | 0-13144 | 0-25151 | 0-71517 | 0-09693 |
8 | जायद क्षेत्र | 0-00167 | 0-00392 | 0-00564 | 0-01403 | 0-04448 | 0-00455 |
जोत के आकार के आधार पर देखें तो ज्ञात होता है कि बड़े कृषकों के पास शुद्ध कृषि क्षेत्र प्रतिव्यक्ति 1.04276 हेक्टेयर है जबकि सीमांत कृषकों के पास केवल 0.05743 हेक्टेयर ही कृषि भूमि उपलब्ध है, सकल बोये गये क्षेत्र की तुलना करने पर ज्ञात होता है कि बड़े कृषकों के पास 1.54103 हेक्टेयर प्रति व्यक्ति कृषि क्षेत्र है जबकि सीमांत कृषकों के पास मात्र 0.08515 हेक्टेयर क्षेत्र ही है। यह कृषि क्षेत्र में असमानता आर्थिक असमानता का कारण बनती है जो सीमांत तथा लघु कृषक परिवारों में कुपोषण या अल्प पोषण के लिये उत्तरदायी है।
2. कृषकों के कृषि उत्पादन का स्तर -
योजनाकाल में आर्थिक पुनर्निमाण की प्रक्रिया से कृषि क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति के साथ-साथ विभिन्न फसलों के उत्पादन में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। फसल प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तन आया है जिससे रबी, खरीफ के अतिरिक्त अल्पावधिकारी अन्य फसलें भी उत्पन्न की जाने लगी हैं। फसल संरचना में भी गुणात्मक सुधार हुआ है। श्रेष्ठ अनाजों यथा गेहूँ और चावल की फसलों के अंतर्गत क्षेत्र बढ़े हैं। कृषि विकास प्रयासों से कृषि अर्थव्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगे हैं। कृषि को अब मात्र जीवन निर्वाह का साधन न मानकर इसमें व्यावसायिक गतिविधि की प्रतिष्ठा की गई। अब कृषक कृषि से लाभ प्राप्त करने के लिये नवीन तकनीकों के प्रयोग के प्रति तत्पर होने लगे हैं, जहाँ कहीं नवीन तकनीक उपलब्ध है कृषक उसके महत्त्व को स्वीकार करने लगे हैं। श्रेयष्कर कृषि विधियों तथा श्रेयष्कर जीवनयापन की आकांक्षा न केवल उत्पादन की नवीन तकनीक का प्रयोग करने वाले एक छोटे से धनी वर्ग तक सीमित है, बल्कि उन लाखों कृषकों में फैल गई हैं जिन्होंने इसे अभी तक अपनाया नहीं है और जिनके लिये उच्च जीवन स्तर अभी तक सपना मात्र है। कृषकों का यह दृष्टिकोण निश्चय ही कृषि विकास में सहायक है। हरित क्रांति के कारण अब कृषक अच्छे अनाजों और व्यापारिक फसलों के उत्पादन के प्रति अग्रसर हुए हैं, छोटे कृषकों का झुकाव सब्जियों की फसलों के प्रति बढ़ा है।
इन उपलब्धियों के कुछ नकारात्मक आयाम भी हैं नियोजन काल में क्षेत्रीय और अंतवर्गीय भिन्नताएँ बढ़ी हैं। कृषि अर्थव्यवस्था के कतिपय क्षेत्रों को ही भारी विनियोग और विकास प्रयासों का लाभ मिला है। खेतिहार समाज में लघु और अतिलघु तथा भूमिहीन श्रमिकों को कृषि क्षेत्र के लिये जाने वाले विनियोग और प्रौद्योगिकी का लाभ अत्यंत कम लाभ मिला है जमीन वालों को और विशेषकर अधिक जमीन वालों को। यह भी शंका की जाने लगी है कि हम अधिक उत्पादन प्राप्त करने की धुन में भूमि की समस्त उर्वराशक्ति का विदोहन कर ले रहे हैं, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के प्रयोग से मिट्टी के गुणधर्म में ह्रास हो रहा है। मिट्टी की ऊपरी परत कड़ी और उसकी जलधारण क्षमता घट रही है जिससे कई बार सिंचाई होने से भूमि पर क्षारीयता बढ़ रही है। भूमि और जल दोनों ही प्रदूषित हो रहे हैं ग्रामीण पर्यावरण भी दूषित हो रहा है जिससे मनुष्यों और पशुओं पर रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशक दवाओं के हानिकारक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगे हैं। सम्यक भूमि और जल प्रबंध की कमी के कारण भूमि की ऊपरी सतह क्षतिग्रस्त हो रही है।
सारिणी 6.8 विभिन्न फसलों का उत्पादन (प्रति हेक्टेयर क्विंटल में) | |||
फसलें | उत्पादन | जनपद का उत्पादन | जनपदीय स्तर से अधिक/कम |
1. धान | 21.06 | 20.67 | + 0.39 |
2. गेहूँ | 20.99 | 20.94 | + 0.05 |
3. जौ | 12.54 | 12.74 | + 0.20 |
4. ज्वार | 10.49 | 10.38 | + 0.11 |
5. बाजरा | 11.02 | 10.96 | + 0.06 |
6. मक्का | 15.59 | 15.88 | - 0.29 |
7. अरहर | 10.81 | 10.66 | + 0.15 |
8. चना | 12.43 | 12.14 | + 0.29 |
9. मटर | 13.17 | 13.08 | + 0.09 |
10. उड़द/मूंग | 6.92 | 6.70 | + 0.22 |
11. तिलहन | 8.64 | 8.56 | + 0.08 |
12. आलू | 195.85 | 188.82 | + 7.03 |
13. गन्ना | 517.12 | 496.74 | + 20.38 |
सारिणी 6.9 विभिन्न वर्गानुसार औसत उत्पादन (प्रति हेक्टेयर किलोग्राम में) | |||||||||||
फसलें | जनपदों का उत्पादन | सीमांत | लघु | लघु मध्यम | मध्यम | बड़े | |||||
उत्पादन | जनपद से कम/अधिक उत्पाद | उत्पादन | जनपद से कम/अधिक उत्पाद | उत्पादन | जनपद से कम/अधिक उत्पाद | उत्पादन | जनपद से कम/अधिक उत्पाद | उत्पादन | जनपद से कम/अधिक उत्पाद | ||
1. धान | 2067 | 2098 | +31 | 2122 | +55 | 2126 | +59 | 2074 | +07 | 2070 | +03 |
2. गेहूँ | 2094 | 2092 | -02 | 2086 | -08 | 2142 | +48 | 2096 | +02 | 2066 | -28 |
3. जौ | 1274 | 1272 | -02 | 1252 | -22 | 1227 | -47 | 1280 | +06 | 1252 | -22 |
4. ज्वार | 1038 | 1054 | +16 | 1055 | +17 | 1046 | +08 | 1022 | -16 | 1048 | +10 |
5. बाजरा | 1096 | 1116 | +20 | 1092 | -04 | 1102 | +06 | 1108 | +12 | 1130 | +34 |
6. मक्का | 1588 | 1566 | -22 | 1528 | -60 | 1552 | -36 | 1604 | +16 | 1582 | -06 |
7. अरहर | 1066 | 1086 | +20 | 1084 | +22 | 1064 | -02 | 1082 | +16 | 1086 | +20 |
8. चना | 1214 | 1236 | +22 | 1230 | +26 | 1256 | +42 | 1240 | +26 | 1256 | +42 |
9. मटर | 1308 | 1344 | +36 | 1326 | +18 | 1328 | +20 | 1299 | -09 | 1286 | -22 |
10. उड़द/मूंग | 670 | 698 | +38 | 666 | -04 | 680 | +10 | 702 | +32 | 758 | +88 |
11. तिलहन | 856 | 872 | +16 | 844 | -12 | 864 | +08 | 874 | +18 | 886 | +30 |
12. आलू | 18882 | 18572 | +310 | 19585 | +703 | 19836 | +954 | 20033 | +1151 | 20012 | +1130 |
13. गन्ना | 49674 | 54438 | -434 | 52246 | +2572 | 49962 | +288 | 52056 | +2382 | 51148 | +1474 |
3. प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता
किसी क्षेत्र में खाद्यान्नों की मांग को प्रभावित करने वाले तत्व उस क्षेत्र की जनसंख्या तथा क्षेत्रवासियों द्वारा प्रतिव्यक्ति उपयोग की मात्रा होते हैं। क्षेत्र में खाद्यान्नों की पूर्ति खाद्यान्नों का उत्पादन एवं उनके समुचित वितरण की मात्रा पर निर्भर करती है। अधिकांश जोत का आकार छोटा होने के कारण कृषक अपनी उपज का एक भाग स्व उपभोग के लिये अपने पास रखने के लिये बाध्य हो जाता है, एक अनुमान के अनुसार खाद्यान्न के कुल उत्पादन का 60 से 70 प्रतिशत भाग कृषक द्वारा स्व उपभोग बीज पशुओं के चारे के लिये अपने पास रख लिया है परिणाम स्वरूप बिक्री योग्य कृषि उत्पादन के अतिरिक्त की मात्रा कम रह जाती है। सर्वेक्षण किए गये कृषकों में खाद्यान्नों के उत्पादन तथा प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता को सारिणी क्रमांक 6.10 में दर्शाया गया है।
सारिणी 6.10 सीमांत कृषकों में खाद्यान्न उत्पादन तथा प्रतिव्यक्ति उपयोग की मात्रा | ||||||
फसल | कुल उत्पादन (क्विं) | क्षय प्रतिशत | शुद्ध उत्पादन (क्विं) | खाने योग्य भाग प्रतिशत | उपभोग योग्य मात्रा (क्विं) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में) |
1. धान | 512014 | 10 | 469.03 | 60 | 281.42 | 99.03 |
2. गेहूँ | 602.91 | 10 | 542.62 | 95 | 515.49 | 181.41 |
3. जौ | 3.05 | 10 | 2.75 | 90 | 2.4 | 0.87 |
4. ज्वार | 28.77 | 10 | 25.89 | 90 | 23.30 | 8.20 |
5. बाजरा | 24.89 | 10 | 22.40 | 90 | 20.16 | 7.09 |
6. मक्का | 1.25 | 10 | 1.15 | 90 | 1.04 | 0.37 |
7. अरहर | 36.81 | 10 | 33.13 | 65 | 21.53 | 7.58 |
8. चना | 21.01 | 10 | 18.91 | 65 | 12.29 | 4.32 |
9. मटर | 2.15 | 10 | 1.94 | 70 | 1.36 | 0.48 |
10. उड़द/मूंग | 23.24 | 10 | 20.92 | 70 | 14.64 | 5.15 |
11. तिलहन | 2.96 | 2 | 2.45 | 35 | 0.86 | 0.30 |
12. आलू | 217.75 | 10 | 195.98 | 13 | 25.48 | 8.97 |
13. गन्ना | 254.44 | 25 | 190.83 | - | 190.83 | 67.15 |
स्रोत - व्यक्तिगत सर्वेक्षण |
सारिणी क्रमांक 6.10 सीमांत कृषकों में खाद्य उपलब्धता की स्थिति का चित्रण कर रही है। जिससे ज्ञात होता है कि सीमांत कृषकों में खाद्यान्नों की प्रति व्यक्ति प्रतिदिन उपलब्धता 323.51 ग्राम है जिसमें दालों का योगदान 17.53 ग्राम है। दोनों ही दृष्टियों से सीमांत कृषक खाद्य सामग्री का अभाव अनुभव कर रहे हैं। जहाँ तक अन्न का सवाल है गेहूँ की उपलब्धता मात्र 181.41 ग्राम प्रतिदिन है जबकि चावल की उपलब्धता केवल 99.03 ग्राम है, ज्वार बाजरा क्रमश: 8.20 ग्राम तथा 7.09 ग्राम है जौ और मक्का तो केवल उपस्थिति ही दर्शा पा रही है न्यूनाधिक यही स्थिति दलहनों की है। सामान्य उपभोग में केवल उड़द/मूंग, अरहर तथा चना की दाल ही प्रयोग की जाती है जिसमें अरहर प्राथमिकता क्रम में सर्वोपरि रहती है, परंतु प्रति व्यक्ति केवल 7.58 ग्राम इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि यह वर्ग दलहन के उपयोग के लिये आत्म निर्भर नहीं है, दलहन की आवश्यकता की पूर्ति यह वर्ग आयात करने पूर्ण करता है। चिकनाई के लिये इस वर्ग की लाही प्रमुख फसल है परंतु तेल का प्रतिव्यक्ति औसत एक ग्राम भी न होकर मात्र 0.30 ग्राम ही जिसका अर्थ है कि चिकनाई की भी आपूर्ति अत्यंत से कम करके की जा रही है। खाड़सारी तथा आलू के उपयोग के लिये यह वर्ग आत्म निर्भर प्रतीत होता है।
सारिणी 6.11 लघु कृषकों की खाद्यान्न उपलब्धता | ||||||
फसल | कुल उत्पादन (क्विं) | क्षय प्रतिशत | शुद्ध उत्पादन (क्विं) | खाने योग्य भाग प्रतिशत | उपभोग योग्य मात्रा (क्विं) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में) |
1. धान | 1019.62 | 10 | 919.66 | 60 | 550.60 | 210.54 |
2. गेहूँ | 1109.96 | 10 | 998.96 | 95 | 949.01 | 362.88 |
3. जौ | 9.39 | 10 | 8.45 | 90 | 7.61 | 2.91 |
4. ज्वार | 41.25 | 10 | 37.13 | 90 | 32.42 | 12.78 |
5. बाजरा | 66.18 | 10 | 59.56 | 90 | 58.60 | 20.50 |
6. मक्का | 7.18 | 10 | 6.46 | 90 | 5.81 | 2.22 |
7. अरहर | 55.18 | 10 | 49.66 | 65 | 32.28 | 12.34 |
8. चना | 35.43 | 10 | 31.88 | 65 | 20.72 | 7.92 |
9. मटर | 5.44 | 10 | 4.90 | 70 | 3.48 | 1.31 |
10. उड़द/मूंग | 29.44 | 10 | 26.50 | 70 | 18.55 | 7.09 |
11. तिलहन | 18.31 | 2 | 17.94 | 35 | 6.28 | 2.40 |
12. आलू | 454.54 | 10 | 409.09 | 13 | 53.18 | 20.33 |
13. गन्ना | 430.87 | 25 | 323.15 | - | 323.15 | 123.57 |
सारिणी 6.12 लघु मध्यम कृषकों में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता | ||||||
फसल | कुल उत्पादन (क्विं) | क्षय प्रतिशत | शुद्ध उत्पादन (क्विं) | खाने योग्य भाग प्रतिशत | उपभोग योग्य मात्रा (क्विं) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में) |
1. धान | 845.72 | 10 | 761.16 | 60 | 456.70 | 332.55 |
2. गेहूँ | 866.01 | 10 | 779.41 | 95 | 740.44 | 539.15 |
3. जौ | 5.15 | 10 | 4.64 | 90 | 4.18 | 3.04 |
4. ज्वार | 25.00 | 10 | 22.50 | 90 | 20.25 | 14.75 |
5. बाजरा | 28.65 | 10 | 25.79 | 90 | 23.21 | 16.90 |
6. मक्का | 6.67 | 10 | 6.00 | 90 | 5.40 | 3.93 |
7. अरहर | 26.71 | 10 | 24.04 | 65 | 15.63 | 11.38 |
8. चना | 39.44 | 10 | 35.50 | 65 | 23.08 | 16.81 |
9. मटर | 5.44 | 10 | 4.90 | 70 | 3.43 | 2.50 |
10. उड़द/मूंग | 24.68 | 10 | 22.21 | 70 | 15.55 | 11.32 |
11. तिलहन | 19.27 | 2 | 18.88 | 35 | 6.61 | 4.84 |
12. आलू | 429.67 | 10 | 386.70 | 13 | 50.27 | 36.60 |
13. गन्ना | 382.83 | 25 | 287.12 | - | 287.12 | 209.07 |
सारिणी क्रमांक 6.13 मध्यम कृषकों का प्रतिव्यक्ति उत्पादन | ||||||
फसल | कुल उत्पादन (क्विं) | क्षय प्रतिशत | शुद्ध उत्पादन (क्विं) | खाने योग्य भाग प्रतिशत | उपभोग योग्य मात्रा (क्विं) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में) |
1. धान | 451.92 | 10 | 406.73 | 60 | 2440.4 | 561.47 |
2. गेहूँ | 498.22 | 10 | 448.40 | 95 | 425.98 | 980.06 |
3. जौ | 5.12 | 10 | 4.61 | 90 | 4.15 | 9.55 |
4. ज्वार | 11.75 | 10 | 10.58 | 90 | 9.52 | 21.90 |
5. बाजरा | 20.05 | 10 | 18.05 | 90 | 16.25 | 37.39 |
6. मक्का | 4.65 | 10 | 4.19 | 90 | 3.77 | 8.76 |
7. अरहर | 25.43 | 10 | 22.89 | 65 | 14.88 | 34.23 |
8. चना | 22.20 | 10 | 19.98 | 65 | 12.99 | 29.89 |
9. मटर | 2.73 | 10 | 2.46 | 70 | 1.72 | 3.96 |
10. उड़द/मूंग | 16.57 | 10 | 14.91 | 70 | 10.44 | 24.02 |
11. तिलहन | 20.01 | 2 | 19.61 | 35 | 6.86 | 15.78 |
12. आलू | 197.81 | 10 | 178.03 | 13 | 23.14 | 53.24 |
13. गन्ना | 218.36 | 25 | 163.77 | - | 163.77 | 376.79 |
सारिणी 6.14 बड़े कृषकों का प्रति व्यक्ति उत्पादन | ||||||
फसल | कुल उत्पादन (क्विं) | क्षय प्रतिशत | शुद्ध उत्पादन (क्विं) | खाने योग्य भाग प्रतिशत | उपभोग योग्य मात्रा (क्विं) | प्रति व्यक्ति प्रतिदिन मात्रा (ग्राम में) |
1. धान | 376.95 | 10 | 339.26 | 60 | 203.56 | 1921.78 |
2. गेहूँ | 357.83 | 10 | 322.05 | 95 | 305.95 | 2888.43 |
3. जौ | 3.38 | 10 | 3.04 | 90 | 2.74 | 25.87 |
4. ज्वार | 5.66 | 10 | 5.09 | 90 | 4.58 | 43.05 |
5. बाजरा | 8.48 | 10 | 7.63 | 90 | 6.87 | 64.86 |
6. मक्का | 2.85 | 10 | 2.57 | 90 | 2.31 | 21.81 |
7. अरहर | 14.2 | 10 | 12.81 | 65 | 8.33 | 78.64 |
8. चना | 9.67 | 10 | 8.70 | 65 | 5.66 | 53.43 |
9. मटर | 3.60 | 10 | 3.24 | 70 | 2.27 | 21.43 |
10. उड़द/मूंग | 12.66 | 10 | 11.39 | 70 | 4.97 | 75.24 |
11. तिलहन | 6.56 | 2 | 6.43 | 35 | 2.25 | 21.24 |
12. आलू | 163.67 | 10 | 147.30 | 13 | 19.15 | 180.789 |
13. गन्ना | 194.12 | 25 | 145.59 | - | 145.59 | 1374.50 |
सारिणी 6.15 विभिन्न वर्गो की तुलनात्मक उपलब्धता (ग्रामों में) | ||||||
फसल | सीमांत कृषक | लघु कृषक | लघु मध्यम कृषक | मध्यम कृषक | बड़े कृषक | समग्र औसत |
1. धान | 99.03 | 210.54 | 352.55 | 561.47 | 1921.78 | 235.57 |
2. गेहूँ | 181.41 | 3621.88 | 539.15 | 980.06 | 2888.43 | 398.45 |
3. जौ | 0.87 | 2.91 | 3.04 | 9.55 | 25.87 | 2.87 |
4. ज्वार | 8.21 | 12.78 | 14.75 | 21.90 | 43.05 | 12.36 |
5. बाजरा | 74.09 | 20.50 | 16.90 | 37.39 | 64.86 | 16.29 |
6. मक्का | 0.37 | 2.22 | 3.93 | 8.76 | 21.81 | 2.48 |
7. अरहर | 74.58 | 12.34 | 11.38 | 34.23 | 78.64 | 12.57 |
8. चना | 4.32 | 7.92 | 16.81 | 29.89 | 53.43 | 10.14 |
9. मटर | 0.48 | 1.31 | 2.50 | 3.96 | 21.43 | 1.65 |
10. उड़द/मूंग | 5.15 | 7.09 | 11.32 | 24.02 | 75.24 | 9.11 |
11. तिलहन | 030 | 2.40 | 4.81 | 15.78 | 21.24 | 3.12 |
12. आलू | 8.97 | 20.33 | 36.60 | 53.24 | 180.79 | 23.23 |
13. गन्ना | 67.15 | 123.57 | 209.07 | 376.79 | 1374.50 | 150.66 |
1. वसु केडी (1946) स्टडीज ऑफ प्रोटीन, फैट एंड मिनरल मेटावोलिज्म इन इंडिया, नई दिल्ली
2. बसंल पीसी (1958) ‘‘इंडियन फूड रिसर्चेज एंड पापुलेशन’’ बोरा एंड कंपनी बंबई
3. वर्गीज एनी एंड डीन (1962) ‘माल न्यूट्रीशन एंड फूड हैविट्स’ तनी स्टाक पब्लिकेशन लंदन
4. भाटिया बीएम (1970) ‘इंडियन फूड प्रोब्लेम्क एंड पालिसी’ प्रिंस इंडिपेंडेंस, बांबे।
कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ |
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7 | कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति |
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11 | कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव |
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