कृषक जीवन संघर्ष और आत्महत्या


किसानों की आत्महत्या के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला कर्ज और दूसरा प्राकृतिक आपदाएँ तथा फसल नुकसान। कर्ज की व्याख्या सरकारी अमला अपने तरीके से करता रहा है। दरअसल, किसानों द्वारा लिये जाने वाले कर्ज का बड़ा हिस्सा गैर-सरकारी है, जो सरकारी तंत्र की आड़ में विकराल रूप धारण कर चुका है। इस पूरे प्रकरण को विदर्भ के संदर्भ में देखा जाए तो स्थिति साफ हो जाएगी।

पिछले लगभग बीस वर्षों से भारत में किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारी अमले के संज्ञान में होने के बावजूद आत्महत्याओं का सिलसिला घटा नहीं है। आंकड़ों को सरकारी बाबुओं द्वारा छोटा-बड़ा किया जाता रहा है, लेकिन अभी भी किसानों की मूल समस्या, जो आत्महत्या का मुख्य कारण बनती रही है, किसी स्थायी निदान की ओर बढ़ती नजर नहीं आ रही। सवाल है कि आखिर, वे कौन से कारण हैं, जिनका निदान नहीं हो सकता या जो अभी तक किसानों की एक बड़ी आबादी को इसमें धकेल चुके हैं? क्या सरकारी स्तर पर इसकी जवाबदेही बनती है, या नहीं? और यदि बनती है, तो उसका क्या स्वरूप है तथा इस ओर अभी तक किस तरह के प्रयास हुए हैं?

आत्महत्या के प्रमुख क्षेत्र और स्थिति


दरअसल, सबसे पहले किसानों की आत्महत्या की खबरें 1997-98 में विदर्भ से आईं, जो महाराष्ट्र का एक हिस्सा है। उसके बाद बुंदेलखंड, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से। हालाँकि 97 से अब तक किसानों के लिये सरकार द्वारा कई योजनाएँ भी बनाई गई, जिनमें कर्जमाफी, सिंचाई, फसल बीमा और मूल्य निर्धारण आदि शामिल थे। इन सबके बावजूद जमीनी सच्चाई यही है कि अभी भी किसानों की आत्महत्या पूरी तरह रुकी नहीं है। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पहली बार 1997 में आत्महत्याओं को रिकॉर्ड में दर्ज किया गया, जिसके अनुसार 1997-98 में छह हजार से अधिक किसानों ने आत्महत्या की। 2006 से 2008 के बीच पूर्व की तुलना में पचास प्रतिशत से भी ज्यादा की वृद्धि इन घटनाओं में हुई। 2012 से आंकड़ों के स्वरूप में कुछ गणितीय बदलाव कर दिया गया है, लेकिन किसानों की आत्महत्या न तो कम हुई और न ही बंद हुई। इन आत्महत्याओं के रिकॉर्ड के संदर्भ में सरकार के अपने स्रोत हैं, जो किसी वर्ष संख्या बढ़ा देते हैं, तो किसी वर्ष घटा देते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आज विदर्भ का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है, जहाँ आत्महत्या करने वाले किसानों के अनाथ बच्चों की चीत्कार न गूंजती हो।

एक चिंताजनक बात यह देखने में आई है कि आज से बीस साल पहले जिन किसानों ने आत्महत्या की, उनकी भावी पीढ़ी भी उसी राह पर जाने को मजबूर है। किसान व्यवस्था के हाथों मजबूर होकर आत्महत्या करने को अभिशप्त हैं, जबकि हमारा समाज आज एक भी ऐसा ठोस कदम बता पाने की स्थिति में नहीं है, जो इस पीढ़ी के लिये किया हो। दूसरों का भरण करने वाले आज जिस तरह से दुनिया छोड़ रहे हैं, वह किसी भी सभ्य और विकसित समाज के लिये कलंक से कम नहीं है। यह भी विचारणीय है कि जिन किसानों ने आत्महत्या कर ली, उनके बच्चों और विधवाओं के लिये सरकारी स्तर पर अभी तक कोई भी ऐसा प्रयास नहीं किया गया जिससे उनका भरण-पोषण हो सके। यह नैतिक पतन, अमानवीयता और संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

प्रमुख कारण : सरकारी कर्ज या निजी कर्ज


किसानों की आत्महत्या के पीछे दो प्रमुख कारण हैं। पहला कर्ज और दूसरा प्राकृतिक आपदाएँ तथा फसल नुकसान। कर्ज की व्याख्या सरकारी अमला अपने तरीके से करता रहा है। दरअसल, किसानों द्वारा लिये जाने वाले कर्ज का बड़ा हिस्सा गैर-सरकारी है, जो सरकारी तंत्र की आड़ में विकराल रूप धारण कर चुका है। इस पूरे प्रकरण को विदर्भ के संदर्भ में देखा जाए तो स्थिति साफ हो जाएगी। विदर्भ के किसानों की आत्महत्या का प्रमुख कारण कृषि उपज से होने वाली कमी, प्राकृतिक आपदाएँ, खराब बीज और उर्वरक की उपलब्धता है। साथ ही किसान जिस कर्ज को अच्छी फसल की उम्मीद में लेता है लेकिन नुकसान होने पर ब्याज के नाम पर निरंतर चुकाने के लिये अभिशप्त हो जाता है, जबकि मूलधन यथावत बना रहता है। दरअसल, विदर्भ में निजी तौर पर दिया जाने वाला ऐसा कर्ज बड़े व्यवसाय के रूप में प्रशासन की नाक के नीचे चोरी-छुपे खूब फल-फूल रहा है। इसमें एक बार फँसने पर बाहर निकलना कठिन होता है। लिहाजा, एक बड़ा वर्ग किसानी छोड़ रहा है। उसके बजाय वह शहरी मजदूरी को अच्छा समझता है, जो कहीं से भी उचित नहीं है। आने वाले समय के लिये यह एक नये संकट की आहट है।

कुछ दिन पहले एक किसान ने तीस हजार रुपये का कर्ज न चुका पाने के कारण आत्महत्या कर ली। सवाल उठा कि इतनी सी रकम के लिये कोई आत्महत्या क्यों करेगा। लेकिन जब उसकी पड़ताल हुई तो पता चला कि उसने तीन साल पहले कपास की फसल बर्बाद होने पर जो कर्ज लिया था, बाद में खेती से होने वाली आमदनी से उसका ब्याज चुकाता रहा लेकिन मूलधन जहाँ का तहाँ बना रहा। बराबर ब्याज चुकाते रहने से परिवार का भरण-पोषण मुश्किल हो गया। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन उसके लिये जो बात सबसे अधिक परेशान करने वाली रही, वह यह थी कि ब्याज की एक किस्त न दे पाने की वजह से सेठ पैसा माँगने घर आ गया और पूरे गाँव के सामने उसकी पत्नी और बच्चों को भला-बुरा कहने लगा। किसान को इसका पता चला तो उसने खेत पर ही आत्महत्या कर ली। आम नागरिक के लिये यह बहुत बड़ी बात नहीं होगी लेकिन किसान समाज के लिये इससे बड़ी बात नहीं हो सकती। सारी लड़ाई मर्यादा की रक्षा की है। इसे समझने की जरूरत है कि जिस देश का किसान मर्यादाविहीन हो जाएगा तो वह देश मर्यादित कैसे हो सकता है।

दूसरा एक बड़ा कारण विदेशी कंपनियों के बेतहाशा शोषण का भी है। समान्यत: देशी बीज और खाद के स्वरूप को कुछ देशी और कुछ विदेशी कंपनियों ने खत्म कर दिया। अब किसानों के सामने यह एक बड़ी समस्या है कि उन्हें हर साल नये बीज खरीदने होते हैं, जिसमें एक बड़ी रकम की आवश्यकता होती है, और कर्ज का किस्सा असल में यहीं से शुरू होता है। दूसरा बड़ा कारण है जमाखोरी का, जिसमें किसानों के उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिलता और कई बार तो उतना भी नहीं मिलता जितनी उनकी लागत होती है। उदाहरण के लिये प्याज को देखा जा सकता है। अनेक ऐसे किसान हैं, जिन्होंने प्याज 2 रुपये किलो की दर से बेचा जो आज 60 रुपये की दर से मिल रही है। सरकार की ओर से इसकी व्यवस्था नहीं होगी तो किसान मरेगा ही। आर्थिक संरक्षण के नाम पर किसानों के लिये किसी आयोग की सिफारिश नहीं की जाती। ऐसे में क्या उन्हें पैदावार का उचित मूल्य नहीं मिलना चाहिए? इस सवाल का जवाब कौन देगा? सरकार या किसान? सच यह है कि सरकार ने किसानों के लिये अब तक जो कुछ किया है, उसकी तुलना में अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।

यदि कृषि क्षेत्र उपेक्षित होगा और किसान आत्महत्या करते रहेंगे तो शेष आधुनिकता और विकास का कम से कम उनके लिये कोई अर्थ नहीं होगा जिनका जीवन कृषि पर आधारित है। उन्हीं का क्यों, हम सभी का क्यों नहीं। कौन है जिसका जीवन कृषि आधारित नहीं है। यह चिंता सिर्फ किसानों की नहीं है, बल्कि हम सभी की है। किसान नहीं रहेंगे तो हम नहीं रहेंगे। इस बात को अपने दिल-दिमाग में बैठाना होगा। किसानों पर एहसान करने की कतई जरूरत नहीं है। अपने जीवन के लिये उन्हें बचाने की जरूरत है। जिस तरह से हमें स्वस्थ रहने के लिये पर्यावरण की जरूरत है, उसी तरह जिंदा रहने के लिये किसान की भी जरूरत है। किसान खुशहाल हों और कृषि संस्कृति को बल मिले, तभी विकास की असल अर्थवत्ता सिद्ध होगी।

लेखक टिप्पणीकार, विदर्भ के जमीनी हालात से वाकिफ हैं।

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