कृषि व्यापार नीति में बदलाव से ही खाद्य सुरक्षा को मिलेगी मजबूती


बेहतर होगा कि हम कृषि नीति और कृषि व्यापार नीति पर तेजी से काम करें जो घरेलू बाजार और इंटरनेशनल ट्रेड दोनों से जुड़े मुद्दों को हल करने के साथ ही देश में खाद्य उत्पादन को प्रोत्साहित करने वाली हो और किसानों की आय बढ़ाना इसका मूल मकसद होना चाहिए। बेहतर होगा कि हम अपनी व्यापार नीति को खाद्य सुरक्षा और घरेलू किसानों की आमदनी से जोड़कर तय करें।

कृषि व्यापार नीति में बदलाव से ही खाद्य सुरक्षा को मिलेगी मजबूतीतीन साल पहले 2013-14 में देश में अभी तक रिकॉर्ड खाद्य उत्पादन हुआ जो 26.50 करोड़ टन तक पहुँच गया था पिछले साल (2015-16) में यह 25.22 करोड़ टन पर अटक गया था क्योंकि खरीफ सीजन में देश के बड़े हिस्से में सूखे के हालात का उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ा था। चालू साल (2016-17) में जरूर खाद्यान्न उत्पादन बढ़ेगा क्योंकि मानसून बेहतर था। चालू साल के लिये खरीफ सीजन के पहले एडवांस एस्टीमेट के मुताबिक खाद्यान्न उत्पादन पिछले साल के 3.2 फीसदी की गिरावट के मुकाबले 8.9 फीसदी बढ़ेगा और यही वजह है कि इस साल कृषि विकास दर पिछले साल की 1.2 फीसदी के मुकाबले 4.1 फीसदी की दर से बढ़ेगी। लेकिन यह आँकड़े न तो खाद्य सुरक्षा की स्थिति को साफ करते हैं और न ही कृषि क्षेत्र की ट्रेड पॉलिसी से इनका कोई लेना-देना है। दोनों मुद्दे इन आँकड़ों से कहीं अलग और अहम हैं।

असल में खाद्य सुरक्षा के लिये ट्रेड पॉलिसी वाकई सबसे अहम है क्योंकि यह देश में कृषि उत्पादन और आयात पर निर्भरता दोनों को तय करती है। लेकिन अभी तक हम देश में इन दोनों के बीच कोई सीधा तालमेल नहीं देखते हैं क्योंकि दोनों एक-दूसरे से अलग तय होती रही हैं। सही मायने में कई विशेषज्ञों का कहना है कि हमारी एग्रीकल्चर ट्रेड पॉलिसी का मतलब है आयात नीति यानी हम आयात की जरूरत के हिसाब से पॉलिसी तय करते हैं या यूँ कहें कि अभी कृषि के लिये कोई व्यापार नीति है ही नहीं।

असल में इतना अधिक उत्पादन करने के बावजूद हम आयात पर निर्भर होते जा रहे हैं। इस समय हम जहाँ अपनी जरूरत का एक बड़ा हिस्सा खाद्य तेलों के रूप में आयात करते हैं वहीं दालों की भी करीब 25 फीसदी जरूरत हम आयात से पूरा करते हैं। इसके अलावा इस साल गेहूँ का भी करीब 50 लाख टन का आयात हम करेंगे और मक्का का भी आयात हो रहा है। यानी बात केवल खाद्य तेलों और दालों तक नहीं है बल्कि गेहूँ और मक्का के आयात की भी स्थिति पैदा हो गई जबकि इस साल देश के अधिकांश हिस्सों में मानसून बेहतर रहा था। आयात के आँकड़े यह बात साफ कर रहे हैं कि हमारी जरूरत घरेलू उत्पादन से पूरी नहीं हो रही है। यानी हम आयात पर निर्भर होते जा रहे हैं। देश में खाद्य उत्पादों की खपत हमारे उत्पादन से ज्यादा है और यह लगातार बनी हुई है। ऐसा नहीं है कि यह किसी एक साल की बात है बल्कि कई उत्पादों के मामले में हम हर साल आयात करते हैं। खाद्यान्न के अलावा फल और सब्जियों का भी आयात बढ़ता जा रहा है।

अब बड़ा सवाल है कि क्या यह देश की खाद्य सुरक्षा के लिये खतरा हो सकता है। इसका सीधा जवाब है कि अगर निर्यातक देशों की सरकारों ने अपनी नीति में कोई ऐसा बदलाव किया जो हमारे लिये प्रतिकूल है तो इसका जवाब ‘हाँ’ में होगा। असल में सरकारें माँग और आपूर्ति के हिसाब से देश की एग्रीकल्चर ट्रेड पॉलिसी के बारे में फैसले लेती हैं और इसमें कोई स्थायित्व ही नहीं है। मसलन देश में अगर उत्पादन कम होता है तो आयात शुल्क में कमी कर दी जाती है और देश से उस उत्पाद के निर्यात पर अंकुश के लिये न्यूनतम निर्यात मूल्य (एमईपी) लगा दिया जाता है। हालाँकि सरकारें दावा करती रही हैं कि देश में उत्पादन बढ़ाने के लिये फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में बढ़ोत्तरी की जाती है लेकिन कई फसलों के मामले में कई बार एमएसपी को फ्रीज किया जाता रहा है। वहीं इसमें डेढ़ से चार फीसदी तक की बढ़ोत्तरी की जाती है। ऐसे में जब रिटेल इनफ्लेशन पाँच से सात फीसदी के बीच हो तो एमएसपी में मामूली बढ़ोत्तरी कोई तर्क नहीं है। सही मायने में मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने के लिये एमएसपी को कम-बढ़ाया जाता है। यानी एक तरह से किसानों की आय को कम किया जाता है जो गरीबी को बढ़ावा देने की नीति की तरह है। दूसरी ओर, एमएसपी भी सभी किसानों को नहीं मिलती। कुछ राज्यों को छोड़कर अधिकांश में किसानों को अपनी फसल एमएसपी से नीचे दामों पर बेचनी पड़ती है। इसका नतीजा यह होता है कि किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिये उचित प्रोत्साहन नहीं मिलता है।

असल में केवल एमएसपी बढ़ाने से ही किसानों को प्रोत्साहन और खाद्य सुरक्षा को मजबूत नहीं किया जा सकता है। हम किसानों को आयात से संरक्षण नहीं दे पाते हैं। सरकारें कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क को लगातार कम करती रही हैं और कई उत्पादों के मामले में यह शून्य तक आता रहा है। अभी भी कई उत्पादों पर सीमा शुल्क शून्य है। इसका देश में उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

जहाँ तक व्यापार की बात है तो वह इंटरनेशनल कीमतों के आधार पर चलता है। एमएसपी बढ़ने से जहाँ घरेलू बाजार में कीमतें तो ज्यादा हो जाती हैं वहीं अन्तरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें घरेलू बाजार से कम रहती हैं। यही वह डायनेमिक्स है जो ट्रेडर के पक्ष में जाता है और वह घरेलू उत्पादकों की बजाय इंटरनेशनल बाजार से आयात में ज्यादा रुचि लेता है। यहाँ कोई स्थाई ट्रेड पॉलिसी नहीं होने से आयातक के लिये सस्ते आयात की राह आसान हो जाती है और यह दीर्घकालिक रूप से देश की खाद्य सुरक्षा के खिलाफ जाता है।

दूसरे, इसका फायदा निर्यातक देश भी उठाते हैं और वह हमारे आयात शुल्क में कटौती के कदम के बदले निर्यात शुल्क में बढ़ोत्तरी कर राजस्व कमाते हैं। देश में खाद्य तेलों पर आयात शुल्क करने के बाद मलेशिया द्वारा निर्यात पर शुल्क बढ़ाना इसका उदाहरण है। ऐसे हम शुल्क घटाने के बाद भी आयात को सस्ता नहीं कर पाते हैं। यह कदम कल दूसरे निर्यातक देश भी उठा सकते हैं।

ऐसे में बेहतर होगा कि हम अपनी व्यापार नीति को खाद्य सुरक्षा और घरेलू किसानों की आमदनी से जोड़कर तय करें। यहाँ चीन का उदाहरण बेहतर है वह जिन उत्पादों में ज्यादा जरूरतमंद है तो उनका कच्चा माल आयात करता है। मसलन वह सोयाबीन तेल नहीं बल्कि सोयाबीन सीड का आयात करता है और उसकी क्रशिंग वहीं होती है। लेकिन इस मामले में हम टेक्नोलॉजी की उधेड़बुन में फँस जाते हैं और सोयाबीन तेल आयात करते हैं जबकि उसमें भी अधिकांश जेनेटिकली मोडिफाइड सोयाबीन का तेल होता है। वहीं हम देश में फसलों के उत्पादन में टेक्नोलॉजी का उपयोग करने के लिये पॉलिसी ही नहीं बना पाए इसके चलते कई खाद्य फसलों का उत्पादन बढ़ने का रास्ता अटका हुआ है।

वहीं देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती लगातार खाद्य फसलों के उत्पादन में बढ़ोत्तरी की भी है। कृषि योग्य भूमि में लगातार कमी हो रही है क्योंकि इसका एक बड़ा हिस्सा कॉमर्शियल, हाउसिंग और इंडस्ट्रियल गतिविधियों के लिये जा रहा है। ऐसे में उत्पादकता को तेजी से बढ़ाना ही एक विकल्प है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के चलते खाद्य उत्पादों की माँग में इजाफा हो रहा है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा का मुद्दा और अधिक अहम हो जाता है और यह केवल गेहूँ, चावल, मक्का और दूसरे खाद्यान्नों तक ही सीमित नहीं बल्कि दालें, खाद्य तेल, दूध उत्पाद और फल व सब्जियाँ भी इसका अहम हिस्सा हैं। इनमें से कई उत्पादों को लेकर ट्रेड पॉलिसी के मामले में बहुत ही तदर्थ फैसले होते रहे हैं जो यह साबित करने के लिये काफी हैं कि हमारे पास कोई स्थाई व्यापार नीति नहीं है। बेहतर होगा कि हम कृषि नीति और कृषि व्यापार नीति पर तेजी से काम करें जो घरेलू बाजार और इंटरनेशनल ट्रेड दोनों से जुड़े मुद्दों को हल करने के साथ ही देश में खाद्य उत्पादन को प्रोत्साहित करने वाली हो और किसानों की आय बढ़ाना इसका मूल मकसद होना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं।), ई-मेल : harvirpanwar@gmail.com

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