कृषि वानिकी क्या है?
कृषि वानिकी का अर्थ है ‘एक ही भूमि पर कृषि फसल एवं वृक्ष प्रजातियों को विधिपूर्वक रोपित कर दोनों प्रकार की उपज लेकर आय बढ़ाना।’ कृषि वानिकी के अन्तर्गत काष्ठीय बहुवर्षीय प्रजातियाँ एक ही भूमि पर कृषि फसलों के साथ उगाई जाती है। यह पद्धति आर्थिक रुप से लाभप्रद, सामाजिक रुप से स्वीकार्य तथा समस्त भूमि सुधारक प्रक्रियाओं का समेकित नाम है।
2. कृषि वानिकी क्यों ?
हमारे प्रदेश की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है। प्राकृतिक आपदा-यथा बाढ़ व सूखा से फसल नष्ट होने पर कृषकों को आर्थिक क्षति पहुँचती है तथा उनकी अर्थ व्यवस्था की रीढ़ टूट जाती है। उत्पादन अधिक होने पर मूल्य न्यून हो जाने से कृषक को लागत भी प्राप्त नहीं होती है। कृषि के साथ वृक्ष रोपित करने से उपयुक्त समय व बाजार मूल्य प्राप्त होने पर काटने व बेचने की सुविधा है। इसके साथ ही फसल के साथ रोपित वृक्ष प्राकृतिक आपदा को झेलते हुए कृषक के लिए निवेश व ‘बीमा’ जैसे लाभकारी सिद्ध होते हुए कृषक की आवश्यकता-यथा शादी जैसे पारिवारिक उत्सवों- पर धन उपलब्ध करवाते हैं। कृषि वानिकी को अपनाकर कृषक खेती में विविधता लाकर अनाज के साथ ही जलौनी लकड़ी, कृषि औजारों की लकड़ी, पशुओं के लिए चारा आदि निवास के समीप खेतों से प्राप्त कर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ ही अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर सकते हैं। ईंधन के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले गोबर को जलाने से बचा कर खाद के रूप में प्रयुक्त किये जाने से कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ ही रासायनिक ऊर्वरक में व्यय होने वाली धनराशि की बचत कर सकते हैं। संक्षेप में कृषि वानिकी अपनाने के निम्न कारण हैं:
(i) उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग कर अधिकतम व बहुविध उत्पाद प्राप्त करने हेतु।
(ii) कृषि उत्पादन बढ़ाने व आर्थिक उन्नति के साथ रोजगार के प्रत्यक्ष व परोक्ष अवसर प्रदान करने में सहायता करने हेतु।
(iii) वर्तमान में कृषि कार्य के अयोग्य भूमि के सुधार व उसकी उत्पादकता में वृद्धि हेतु।
(iv) बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए चारा, ईंधन, इमारती लकड़ी व कुटीर एवं लघु उद्योगों हेतु कच्चे माल की कमी के निवारण हेतु।
(v) उत्पादन में विविधता एवं प्राकृतिक आपदाओं व अन्न के अधिक उत्पादन के कारण विक्रय मूल्य में कमी से सुरक्षा हेतु।
(vi) उपलब्ध प्राकृतिक वनों पर जैविक दबाव कम करने हेतु।
(vii) प्रति इकाई भूमि से अधिक पैदावार प्राप्त करने व भूमि की उत्पादकता में वृद्धि हेतु।
(viii) वृक्षावरण में वृद्धि कर भूमि एवं जल संरक्षण व पर्यावरण संतुलन स्थापित करने हेतु।
(ix) ग्रामीण आंचल में उद्यमियों को प्रोत्साहन तथा वन आधारित लघु व कुटीर उद्योग की अर्थव्यवस्था को सशक्त करने हेतु।
3. कृषि वानिकी कैसे ?
कृषि वानिकी के विभिन्न प्रकार
कृषि वानिकी के अन्तर्गत खेत के चारों तरफ मेड़ो पर दो या तीन पंक्तियों में अथवा खेतों के अन्दर पंक्तियों में एक निश्चित दूरी में फसलों के साथ वृक्षों को रोपित किया जाता है। इस पद्धति मेंरोपित वृक्षों के मध्य दूरी इस प्रकार रखी जाती है कि उनके मध्य में कृषि फसलों को रोपित किया जा सके तथा कृषि कार्य हेतु उनके मध्य से ट्रैक्टर आदि चलाये जा सके।
कृषि वानिकी पद्धति को उपलब्ध स्थल एवं स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के अनुसार विभिन्न स्वरूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है।
1. कृषि वानिकी पद्धति 2. कृषि बागवानी पद्धति 3. कृषि बागवानी वानिकी पद्धति 4. पुष्प बागवानी, कृषि एवं वानिकी पद्धति 5. सब्जी वानिकी पद्धति 6. मत्स्य पालन वानिकी पद्धति 7. गृहवाटिका पद्धति 8. चारागाह वानिकी पद्धति 9. जड़ी-बूटी कृषि वानिकी पद्धति-हर्बल गार्डेन।
कृषि के साथ रोपित वृक्षो में निम्नलिखित विशेषतायें होनी चाहिए।
(1) शीघ्र बढने वाला:
कृषि वानिकी के अन्तर्गत ऐसे वृक्षों को उगाना चाहिये जो बहुत तेज बढ़ने वाली हों, जिससे कृषक अपने लाभ हेतु कम समय में ही उपज प्राप्त कर सके।
(2) सीधा तना:
कृषि वानिकी में रोपण हेतु सीधे तने, कम शाखाओं, विरल छत्र व शाख तराशी सहने वाली वृक्ष प्रजातियों को चयन में प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(3) गहरी जड़े:
कृषि वानिकी में लम्बी जड़ों वाले वृक्षों को उगाना बहुत लाभदायक होता है। ये जड़े भूमि में जाकर नीचे से पोषक पदार्थ ऊपर लाती हैं जो कृषि की फसलों को फायदा पहुँचाता है। वृक्षों की मूसलाजड़ों की बढ़त इस प्रकार हो कि जल व खनिज लवणों के अवशोषण व फसलों की आवश्यकता के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके।
(4) द्विदलीय वाले बीज वृक्ष:
कृषि वानिकी के अन्तर्गत द्विदलीय बीज वाले वृक्ष उगाना अधिक लाभदायक है, क्योंकि ऐसे वृक्ष भूमि में नाइट्रोजन जमा करते हैं, जो कि कृषि की फसलों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है।
4. कृषि वानिकी हेतु कुछ उपयोगी प्रजातियाँ
1. यूकेलिप्टस, पाॅपलर, सु-बबूल, शीशम, बांस, आंवला, सागौन, जेट्रोफा आदि।
शहरी वानिकीशहरी वानिकी उन लोगों से सम्बन्धित होती है जो शहरों, कस्बों तथा शहरी क्षेत्रों में रहते हैं। इसके द्वारा शहरों में वन जैसा वातावरण प्राकृतिक रूप से पैदा किया जाता है। शहर निवासी अपनेदिन-प्रतिदिन के कामों में ऊब जाते हैं तथा ठंडी व साफ हवा के लिये ऐसे प्राकृतिक वास की शरण में जाते हैं।
वृक्षों में प्रदूषण कम करने की असाधारण क्षमता है। वृक्ष ऑक्सीजन उत्सर्जन, कार्बन डाईऑक्साइड, सल्फर-डाई ऑक्साइड व अन्य प्रदूषित गैसों व कणों का अवशोषण, तथा जल एवं मृदा संरक्षण कर मानव को लाभान्वित करते हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रति व्यक्ति सांस लेने हेतु 1.752 टन ऑक्सीजन की प्रतिवर्ष आवश्यकता होती है। लखनऊ शहर में निवासियों को प्रतिवर्ष 35,04,000 टन की आवश्यकता है जबकि वर्तमान में वृक्षों से प्रतिवर्ष 2,10,240 टन ऑक्सीजन उपलब्ध हो पा रही है। प्रतिवर्ष एक वृक्ष लगभग 1.6 टन ऑक्सीजन पैदा करता है। अतः वर्तमान में आवश्यक है कि सांस लेने हेतु आवश्यक ऑक्सीजन की पूर्ति हेतु प्रत्येक व्यक्ति कम से कम दो पौध रोपित कर उसकी सुरक्षा करें।
इस हेतु शहर में पटरी वृक्षारोपण के साथ-साथ पार्कों में वृक्षारोपण किया जाना अत्यंत आवश्यक है। फैलावदार तथा ऊँचाई वाले वृक्ष, प्रदूषित गैसों व अवशोषकों को अधिक से अधिक शोषित करते हैं। पार्कों में बाॅटलब्रुश, सीता अशोक, मौलश्री, सिल्वर ओक व कदम्ब के वृक्षों का रोपण तथा पटरी रोपण हेतु बरगद, पीपल, आम, बेल, शीशम, महुआ, इमली, जामुन, बेल आदि का रोपण लाभप्रद होगा। अतः आवश्यक आॅक्सीजन प्राप्त करने हेतु प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम दो पौधे रोपित करना चाहिए।
शहरी वन, लोगों को बहुत प्रकार के लाभ देते हैं। इन लाभों को चार मुख्य भागो में बाँटा जा सकता है- जलवायु को शुद्ध करना, वातावरणीय यान्त्रिक उपयोग, प्रशिक्षण सम्बन्धी उपयोग एवं सौन्दर्यवर्धन।
शहरी वन में रोपित की जाने वाली पौध उपयुक्त ऊँचाई वाला, स्वस्थ तथा सीधे तने वाला होना चाहिये। नागरिकों के वनों के प्रति जागरुक व संवेदनशील हो जाने के कारण आज के समय में शहरी वन का महत्व अत्यधिक बढ़ गया है।
मनोरंजन वानिकी:
ग्राम तथा नगर निवासियों के मनोरंजन के लिये पुष्प प्रधान वृक्षों तथा पौधों को लगाने हेतु किये गये वानिकी के प्रयोग को मनोरंजन वानिकी/सौन्दर्यात्मक वानिकी कहते हैं।
पटरी वृक्षारोपण
सार्वजनिक मार्गों, नहरों तथा रेल पटरियों के दोनों ओर तीव्र गति से बढ़ने वाली प्रजातियों के रेखीय पट्टियों के रूप में बनाये गए रोपवनों को पटरी वृक्षारोपण कहते हैं।
पटरी वृक्षारोपण के कई लाभ हैं:
सौन्दर्य प्रदान करना, सड़क के किनारों की स्थिरता बनाए रखना, छाया प्रदान करना, शरण पट्टियों का काम देना, वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी, शोर कम करना, क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाना एवं पर्यावरण में सुधार लाना।
पटरी वृक्षारोपण निम्न प्रकार के होते हैं:
पथ वृक्षारोपण:
विभिन्न प्रकार की सड़कों में अलग-अलग चौड़ाई की भूमि उपलब्ध होती है:
(क) राष्ट्रीय मार्ग, राज्य मार्ग-सड़क के मध्य से 110 फीट तक।
(ख) प्रान्तीय व अन्य प्रकार के मार्ग-सड़क के मध्य से 45 फीट तक।
(ग) ग्रामीण क्षेत्रों में सम्पर्क मार्ग-केवल सड़कों की पटरी।
भूमि की उपलब्धता के आधार पर पथ वृक्षारोपण दो प्रकार का होगा:
(क) बहुपंक्ति पथ वृक्षारोपण: राष्ट्रीय तथा राज्य मार्गों पर
(ख) एक पंक्ति पथ वृक्षारोपण: अन्य मार्गों एवं सम्पर्क मार्गों पर।
नहर किनारे वृक्षारोपण:
नहर की पट्टी पर बहुउद्देशीय वृक्षारोपण उगाये जाते हैं जिनमें फलदार, छायादार, ईंधन प्रजातियाँ, लघु प्रकाष्ठ तथा चारा प्रजातियाँ लगाई जाती हैं, अन्तिम पंक्ति को छोड़कर सभी पंक्तियों में 3 मीटर × 3 मीटर के अन्तराल पर भूमि की उपयुक्तता के अनुसार पौधे लगाये जायेंगे।
रेल लाइन के किनारे वृक्षारोपण:
रेल लाइनों के किनारे प्रथम लाइन रेलवे ट्रैक के मध्य से न्यूनतम 6 मीटर की दूरी पर लगाई जायेगी। जहाँ पर मिट्टी पटान के ऊपर रेल लाइन गई हो वहाँ प्रथम लाइन इम्बैंकमैंट के रो से हटकर लगाई जाए। अन्तिम लाइन को छोड़कर सभी लाइन में पौधों का अन्तराल 3 मी. रखा जाए तथा लाइन से लाइन की दूरी 3 मी. रखी जाय। अन्तिम लाइन में पौधों का अन्तराल 1.5 मी. होगा। प्रथम पंक्ति में सबसे कम ऊँचाई वाली प्रजाति जैसे नींबू, करौंदा, अमरूद, बोगनबेलिया, कनेर, बाॅटलब्रश लगाई जाती है।
द्वितीय तथा तृतीय पंक्ति:
केसिया सियामिया, अकेसिया आरीकुलीफार्मिस, बेर, सुबबूल, बबूल आदि।
अन्य पंक्तियाँशीशम, सिरस, अर्जुन, कंजी, आँवला, बेल।
अन्तिम पंक्ति - यूकेलिप्टस
वन सुरक्षा
जैविक एवं अजैविक कारक
परिचय:
वन रक्षण उतना ही आवश्यक है जितना कि मनुष्य का वनों से सम्बन्ध। प्राचीनकाल में वन रक्षण की दो विधियाँ प्रचलित थीं: प्रथम वृक्षों और वनों में ईश्वर व देवताओं का वास बताकर, द्वितीय दण्ड का प्रावधान करके। मनु ने भी वृक्षों को क्षति पहुँचाने वालों को उनकी उपयोगिता के अनुसार दण्ड देने का नियम बनाया था। इसी प्रकार कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में वृक्षों और वनों की रक्षा के लिए अनेक प्रावधानों का उल्लेख किया है।
वनों की क्षति के मुख्य कारक:
वनों को मुख्यतः निम्नलिखित कारकों से अत्यधिक क्षति होती है:
जैविक कारक:
1. मनुष्य के द्वारा होने वाली क्षतियाँ: मनुष्य के द्वारा निम्नलिखित क्षतियाँ जानबूझकर या अनजाने में की जाती है:
1. निर्वनीकरण 2. अवैध पातन 3. दावाग्नि 4. अतिक्रमण 5. शाख तराशी
2. पशुओं द्वारा होने वाली क्षतियाँ: पशुओं द्वारा निम्नलिखित क्षतियाँ की जाती हैं:
1. पल्लव चारण कर 2. चराई कर 3. बिजौलों को दबाकर 4. खुरों द्वारा भूमि अपरदन कर
3. कीटों द्वारा होने वाली क्षतियाँ: हानिकारक कीटोंद्वारा निम्नलिखित क्षतियाँ होती है।
1. पत्तियाँ खाकर 2. तना खाकर 3. तनों में छेद कर
4. जलवायु कारकों से होने वाली क्षतियाँ: निम्नांकितविपरीत जलवायु कारकों से वनों को क्षति पहुँचती है:
1. अत्यधिक तापमान से क्षति 2. अति न्यून तापमान सेक्षति 3. हिमपात से क्षति 4. अत्यधिक वर्षा से क्षति 5.आँधी से क्षति
पर्वों पर पौधा रोपण
मानव जीवन के अस्तित्व की रक्षा के लिए वृक्ष व वन आवश्यक हैं। वृक्ष प्राणवायु (ऑक्सीजन) के प्राकृतिक उद्योग हैं। हम जल व भोजन के अभाव में कुछ दिन जीवित रह सकते हैं किन्तु वायु के अभाव में कुछ क्षण भी जीवित रहना सम्भव नहीं है। जीवन में वनों व वृक्षों के सार्वकालिक व सार्वदेशिक महत्व के कारण ही प्रत्येक धर्म में वृक्षारोपण व वनों के संरक्षण के उपदेश दिए गए हैं।
मानव सभ्यता का विकास वनों की गोद में हुआ है। प्राचीनकाल से ही सभ्यता के विकास में वनों एवं वृक्षों का विशेष महत्व रहा है। हिन्दू धर्म में धार्मिक कर्मकाण्डों एवं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वृक्षों एवं वनस्पति को अभिन्न अंग बताया गया है। हिन्दू धर्म में बरगद, पीपल, आम, नीम, तुलसी, बेर, कुश इत्यादि की पूजा होती आई है तथा धार्मिक कर्मकाण्डों में इनका उपयोग होता आया है। विभिन्न पुराणों में भी वृक्ष लगाने व उससे प्राप्त होने वाले पुण्य का उल्लेख किया गया है।
महाशिवरात्रि में शिव मन्दिरों में बेल पत्रों का अर्पण, गृह प्रवेश में आम के पत्तों की माला (तोरण), धार्मिक अनुष्ठानों में सुपारी का प्रयोग हिन्दू धर्म के अभिन्न अंग हैं। राजस्थान में विश्नोई समाज खेजरी वृक्षों व कृष्ण मृग संरक्षण से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। हिन्दू धर्म में श्रावणी पर्व (रक्षा बन्धन) पौधारोपण का विशिष्ट पर्व है।
इस्लाम धर्म में भी वृक्षों का महत्व बताते हुए विभिन्न वृक्षों का उल्लेख आता है। हजरत मोहम्मद साहब ने कहा था कि ‘आज से मक्के की धरती पर न तो किसी इंसान का खून होगा और न ही किसी जानवर का शिकार किया जायेगा और किसी हरे-भरे दरख्त को भी नहीं काटा जायेगा।’ पवित्र कुरान मजीद में कई पेड़-पौधों का वर्णन आता है जिसमें खजूर, जैतून, अंगूर, अनार, अंजीर, बेरी, पीलू, मेंहदी, बबूल, तुलसी आदि प्रमुख हैं।
सिख धर्म में भी वृक्षों का अत्यधिक महत्व है। वृक्ष के अंग-प्रत्यंग को देवता रूप में देखा गया है। सिख धर्म में गुरु कार्य (सेवा, संगत, लंगर) में उपयोग आने वाले धर्म स्थल व सरोवरों के निकट विविध प्रकार से उपयोगी वृक्षों के रोपण की परम्परा रही है। स्वयं गुरु साहिब वृक्षों की छाया में बैठकर सेवाकार्यों की देख-रेख करते, दीवान लगा उपदेश देते, भजन कीर्तन गायन का आनन्द लेते थे। सिख धर्म में वृक्ष और उपवन (बाग) बड़ी श्रद्धा से देखे जाते हैं। इन वृक्षों के दर्शन से अपने गुरु व धर्म के प्रति श्रद्धा में वृद्धि होती है। आम धारणा है कि गुरु के नाम पर रोपित वृक्ष व बाग अधिक हरे-भरे व लोकमंगल करने वाले होते हैं। सिख गुरुओं से सम्बन्धित नानकमत्ता का पीपल वृक्ष, रीठा साहब का रीठा वृक्ष, टाली साहब (शीशम वृक्ष), हरमिन्दर साहब के बेर वृक्ष, पूज्य हो गये हैं। पारिजात वृक्ष का उल्लेख गुरुग्रन्थ साहिब में भी किया गया है।
प्राचीन ईसाई धार्मिक ग्रन्थों में ईश्वर, परमेश्वर एवं स्वर्ग की जो कल्पना की गई है उसमें वृक्षों व वाटिकाओं (वृक्ष और उपवन) को अत्यधिक महत्व दिया गया है। विभिन्न प्रजातियों के आवश्यकतानुसार उपयोग एवं लाभ के बारे में भी बताया गया है। बाइबिल के प्रारम्भ में वर्णन है कि परमेश्वर के द्वारा पैदा किए गये वृक्ष, झाड़ियाँ और घास, फल तथा बीज प्रदान करते हैं ये मानव समुदाय के लिए शुभ हैं। अंजीर, अनार, पाॅपलर, चिली, खजूर, अंगूर, मेंहदी, बेर, नरकट, घृतकुमारी, काला शहतूत, टेमेरिक्स आदि बाइबिल में उल्लिखित प्रमुख वृक्ष प्रजातियाँ हैं।
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध के जीवन की सभी महत्त्वपूर्ण घटनायें वृक्षों की छाया में घटीं। उनका जन्म साल वन में एक वृक्ष की छाया में, प्रथम समाधि जामुन वृक्ष की छाया में एवम बोधि प्राप्ति व महानिर्वाण पीपल वृक्ष की छाया में हुआ। पीपल, साल, बरगद, जामुन आदि बुद्ध से जुड़े प्रमुख वृक्ष हैं। जैन गुरुओं के केवल्य दिवस पर उनका केवली वृक्ष लगाना जैन गुरुओं को श्रेष्ठतम श्रद्धांजलि है।
भारत में सभी धर्मों में विपत्तियों से रक्षा हेतु रक्षा सूत्र बाँधने की परम्परा है। हिन्दू, सिख, बौद्ध धर्म में इसे पर्व का रूप देकर प्रत्येक वर्ष रक्षा बन्धन के रूप में मनाते हैं। इस्लाम मतावलम्बी भी बुरी आत्माओं से सुरक्षा हेतु ताबीज बाँधते हैं। ईसाई धर्म में इसे सेक्रेड थ्रेड के रूप में माना जाता है। जनसंख्या वृद्धि के परिणामस्वरूप वनों पर बढ़ते जैविक दबाव से वनों की रक्षा करने हेतु वृक्षों को रक्षा सूत्र में बाँधकर उनकी रक्षा का संकल्प लेना आवश्यक है।
वनों व वृक्षों के धार्मिक व पर्यावरणीय महत्व को देखते हुए प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि पौधारोपण को संस्कार के रूप लेते हुए प्रत्येक शुभ अवसर, राष्ट्रीय वानिकी व धार्मिक पर्वों पर पौधारोपण करने के साथ ही रोपित पौध का संरक्षण अनिवार्य रूप से करें। रक्षाबन्धन में वृक्षों को रक्षा सूत्र बाँधकर वृक्षों की रक्षा का संकल्प लेना, होलिका दहन हेतु हरे वृक्षों को न काटना, दीवाली, होली, ईद, बकरीद, बारावफात, गुडफ्राईडे, क्रिसमस, बुद्ध जयन्ती, बैशाखी, गुरुनानक जयन्ती आदि पर्वों पर प्रत्येक व्यक्ति द्वारा कम से कम दो पौध रोपण करने से पर्वों व शुभ अवसरों की याद अक्षुण्ण रहने के साथ ही हरित आवरण में वृद्धि भी होगी।
रोपित वृक्षों की सिंचाई: पौधारोपण के पश्चात प्रथम दो वर्षों में पौधों की मृत्यु का प्रमुख कारण पौध को पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिलना है, अतः पौधारोपण के पश्चात सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य इन रोपित पौधों को सिंचित करना होता है। ग्रीष्म ऋतु में सिंचाई का एक अतिरिक्त लाभ यह भी होता है कि इससे पौधों की बढ़त अप्रत्याशित रूप से बहुत तेज हो जाती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार पेड़ पौधों का सिंचन करना देवता व पितरों को जल पिलाने जैसा कृत्य है।
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