यदि हम आँकड़ों पर नजर डालें तो आजादी के बाद हमारे देश की जनसंख्या लगभग चार गुनी बढ़ी है किन्तु जमीन की उपलब्धता सीमित ही है या कहें कि उतनी ही है फिर किस प्रकार से बढ़ती जनसंख्या की खाद्य एवं लकड़ी की आपूर्ति पूरी की जा सकती है। हमारी वर्तमान वन नीति 1988 के अनुसार हमारे कुल भू-भाग के 33 प्रतिशत क्षेत्र में वन होने चाहिए जबकि यह सीमा पहाड़ी क्षेत्रों के लिये 66 प्रतिशत है।
वर्तमान में हमारे जंगल का कुल क्षेत्रफल लगभग 24 प्रतिशत ही है जिसमें जंगल के बाहर उगाए जा रहे पेड़ों का क्षेत्रफल (ट्रीज आउट साइड फॉरेस्ट-टी.ओ.एफ.) भी शामिल हैं। अतः इस प्रकार हम अभी भी लगभग 9 प्रतिशत मैदानी क्षेत्रों में ही जंगल के मामले में पीछे हैं। जबकि वन नीति के अनुसार इसे 33 प्रतिशत तक पहुँचाना है।
अतः इस प्रकार वस्तु स्थिति को समझते हुए इस दिशा में कृषि-वानिकी ही ऐसा विकल्प है जिससे हम वनों का क्षेत्रफल वनों से बाहर बढ़ा सकते हैं। साथ ही वनों पर आधारित निर्भरता को भी कम किया जा सकता है अर्थात लकड़ी की माँग में हो रही वृद्धि को वनों के बाहर उगाए जा रहे पेड़ों से प्राप्त लकड़ी से पूरा किया जा सकता है, जिसको वर्तमान समय में काफी हद तक पूरा किया भी जा रहा है। साथ ही इससे वनों पर बढ़ रहे दबाव को भी कम किया जा रहा है। अतः समय की माँग के अनुसार वृक्षों (वनों) को अपने खेतों में उगाना (कृषि-वानिकी) ही एक उपयुक्त विकल्प है। साथ ही यह पद्धति वातावरण को सन्तुलित करने में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
कृषि-वानिकी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन (carbon sequestration) में भी है। ज्ञात हो कि पृथ्वी पर बढ़ती गर्मी का कारण हम ग्लोबल वार्मिंग कहते है, जिसमें कुछ ग्रीन हाउस गैसें मुख्य भूमिका निभाती हैं, जैसे-कार्बन डाइअॉक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस इत्यादि। ध्यान देने वाली बात है कि अधिकतर ग्रीनहाउस गैसों में ‘कार्बन’ मुख्य तत्व है जो कि इन ग्रीनहाउस गैसों को बनाने एवं इनकी मात्रा पर्यावरण में बढ़ाने में मुख्य भूमिका निभाता है। अतः पेड़ पौधे इस ‘कार्बन’ तत्व को सोख लेते हैं जिससे वातावरण में कार्बन की मात्रा सन्तुलित हो जाती है तथा ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा भी नहीं बढ़ पाती, इस विद्या को ‘कार्बन सिक्वेस्ट्रेशन’ कहते हैं।
विभिन्न प्रकार की मानवीय गतिविधियों जैसे-बढ़ता मशीनीकरण, बढ़ते वाहन, बढ़ते थर्मल पावर, कोयले की खदानों आदि द्वारा जो कार्बन पृथ्वी में निश्चित मात्रा से अधिक उत्सर्जित हो रहे हैं वृक्ष उस कार्बन को अपने भोजन के रूप में समाहित कर संरक्षित कर रहे हैं एवं पर्यावरण में कार्बन की मात्रा कम कर पर्यावरण को स्वच्छ कर रहे हैं। कृषि-वानिकी में यह निश्चित नहीं है कि कृषि के साथ जंगली वृक्ष ही लगाए जाए, कृषि-वानिकी में कृषि के साथ फलदार वृक्षों को भी भरपूर मात्रा में लगाया जाता है जैसे-गेहूँ के साथ आम अथवा अमरूद, आँवला, सेब इत्यादि। इसके अलावा कृषि-वानिकी में कुछ वानिकी पेड़ आधारित प्रचलित सम्मिश्रण भी हैं।
कृषि-वानिकी एक अत्यन्त ही पर्यावरण रक्षी विद्या ही नहीं अपितु वर्तमान समय की माँग है। जहाँ पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ फसलों एवं बहुवर्षीय पौधों को उगाकर खाद्य एवं लकड़ी की आपूर्ति विभिन्न प्रकार से पूरी की जा रही है। साथ ही कृषि-वानिकी एक टिकाऊ एवं सतत विकास वाली पद्धति है जिसमें फसल को अधिक गर्मी, अधिक सर्दी (पाला इत्यादि) व हवा के अत्यधिक कुप्रभाव (हवा के झोकों) से बचाया जाता है।
बहुवर्षीय वृक्षों से खेतों में भूक्षरण को भी कम किया जाता है तथा जल को संगृहीत एवं संरक्षित किया जाता है। कृषि-वानिकी भूमि की उर्वरा शक्ति को प्राकृतिक तौर पर बनाए रखती है जिससे मिट्टी में उपस्थित सूक्ष्म एवं अतिउपयोगी जीवाणुओं का संरक्षण एवं संवर्धन प्राकृतिक तौर पर किया जाता है। साथ ही कृषि-वानिकी एक प्राकृतिक व परम्परागत पद्धति है जिसमें मिश्रित ढंग से पेड़ों को फसलों के साथ उगाकर अत्यन्त लाभ एवं विकट पर्यावरणीय एवं बेमौसमी प्रभाव से भी बचाया जाता है। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुये कृषि-वानिकी एक टिकाऊ व कारगर पद्धति है।
श्री अरविन्द बिजल्वाण भारतीय वन प्रबन्ध संस्थान, नेहरू नगर, भोपाल 462003 (म.प्र.)
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