स्वतंत्रता के लगभग 53 वर्ष बाद गत 28 जुलाई 2002 को केंद्रीय कृषि मंत्री श्री नीतीश कुमार ने नई राष्ट्रीय कृषि नीति संसद के पटल पर रखी, इसकी मुख्य विशेषता यह है कि सरकार ने अगले दो दसकों के लिये कृषि क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत की विकास दर निर्धारित की है। 17 पृष्ठों की कृषि नीति में भूमि सुधार के माध्यम से गरीब किसानों को भूमि प्रदान करना, कृषि जोतों का समेकन, कृषि क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना, किसानों को फसल के लिये कवर प्रदान करना, किसानों के बीजों के लेन-देन के अधिकार को बनाये रखना जैसे लक्ष्यों को निर्धारित किया गया है। इसके अतिरिक्त मुख्य फसलों की न्यूनतम मूल्य नीति को जारी रखने का आश्वासन दिया गया है। इस नीति के तहत कृषि का सतत विकास रोजगार सृजन, ग्रामीण क्षेत्रों को स्वालंबी बनाना किसानों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने और पर्यावरण संरक्षित कृषि तकनीकि अपना अन्य मुख्य उद्देश्य है। नीति में कहा गया है कि अप्रयुक्त बंजर भूमि का कृषि और वनोरोपण के लिये प्रयोग बहु फसल और अंत: फसल के माध्यम से फसल गहनता बढ़ाने पर जोर दिया जायेगा। सरकार कृषि में जैव प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिये जोर देगी, इसके अंतर्गत देश में उपलब्ध विशाल जैव विविधता की सूची बनाने तथा उसे वर्गीकृत करने के लिये संबंद्ध कार्यक्रम बनाया जायेगा।
बौद्धिक संपदा समझौते के अंतर्गत भारत की जिम्मेदारियों के अनुसार विशेषकर निजी क्षेत्र में नई किस्मों के विकास और अनुसंधान को प्रोत्साहन देने के लिये पौध किस्मों को संरक्षण दिया जायेगा। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया है कि किसानों के वाणिज्य उद्देश्यों के संरक्षित किस्मों के ब्राण्डयुक्त बीजों को छोड़कर अपनी कृषि के द्वारा बनाये हुए बीजों के बचत, उपयोग, विनियम, लेन-देन एवं बिक्री के पारस्परिक अधिकार बने रहेंगे किंतु नई किस्मों के विकास के लिये मालिकाना किस्मों पर अनुसंधान करने संबंधी शोद्धार्थियों के हितों की सुरक्षा का ध्यान रखा जायेगा। सरकार का मानना है कि कृषि क्षेत्र में पूँजी निवेश की महती आवश्यकता है। इसलिये सार्वजनिक निवेश के अतिरिक्त कृषि अनुसंधान/मानव संसाधन विकास फसल प्रबंधन व विपणन जैसे क्षेत्रों में निजी निवेश को प्रोत्साहित किया जायेगा कृषि सुधार के अंतर्गत उत्तर पश्चिम राज्यों की तरह पूरे देश में कृषि जोतों का समेकन फिर किया जायेगा। निर्धारित सीमा से अधिक और परती भूमि को भूमिहीन किसानों बेरोजगार युवकों में प्रारंभिक पूँजी के साथ फिर से बाँटा जायेगा, साथ ही पट्टेदारों तथा फसल हिस्सेदारों के अधिकारों को मान्यता देने के लिये पट्टेदार सुधार किया जायेगा। कृषिनीति में इस बात की भी घोषणा की गयी है कि खाद्य एवं पोषण सुरक्षा के अंतर्गत एक राष्ट्रीय पशु प्रजनन नीति भी बनायी जायेगी जिससे अंडा, मांस, दूध एवं पशु उत्पादों की आपूर्ति बढ़ायी जा सके। इसके अतिरिक्त सरकार का प्रयास उच्च गुणवत्ता वाली तकनीकी बीज उर्वरक पौध संरक्षण रसायन जैव कृमिनाशी, कृषि मशीनरी एवं ऋण की उचित दरों पर समय से तथा पर्याप्त मात्रा में किसानों तक पहुँचाने की व्यवस्था की जायेगी। कृषि नीति में किसानों की जोखिम प्रबंध का भी ध्यान रखा गया है इसमें कहा गया है कि कृषि उत्पादकों के मूल्यों में बाजारी उतार-चढ़ाव सहित बुवाई से फसल कटाई तक किसानों को बीमा पॉलिसी पैकेज उपलब्ध कराने का प्रयास कराया जायेगा।
1. पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि उत्पादकता वृद्धि के सरकारी प्रयास :-
भारत में आर्थिक नियोजन 1 अप्रैल 1951 से प्रारंभ किया गया अब तक 8 पंचवर्षीय योजनाएँ 3 एक-एक वर्षीय योजनाएँ व तीन वर्ष का अंतराल तथा 9वीं योजना के भी चार वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस प्रकार नियोजन के पचास वर्ष पूरे हो चुके हैं। नवीं योजना का कार्यकाल 1997 से 2002 तक रहेगा। यद्यपि सभी योजनाओं के सामान्य उद्देश्य अधिकतम उत्पादन, अधिकतम रोजगार, आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय की प्राप्ति रहे हैं। लेकिन विभिन्न योजनाओं में परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार उद्देश्यों को परिभाषित और निर्धारित किया जाता रहा है। जिनका योजनानुसार कृषि से संबंधित विवरण निम्न प्रकार है।
सर्व प्रथम 1947-48 में ‘‘अधिक अन्य उपजाऊ’’ अभियान को पुनर्जीवित किया गया और अगले 5 वर्षों के लिये 40 लाख टन अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। 1951 में प्रारंभ होने वाली प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास को योजना की वरीयता में सर्वोपरि स्थान दिया गया है तथा अगली पंच वर्षीय योजनओं में कृषि क्षेत्र के विकासार्थ किया जाने वाला कुल विनियोग उत्तरोत्तर बढ़ता गया। कृषि क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के लिये किया जाने वाला उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ यह निवेश आत्म निर्भरता प्राप्त करने और पिछड़ेपन के निवारणार्थ एक सराहनीय प्रयास माना जा सकता है। 20वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध 50 वर्षों में भारतीय कृषि की संवृद्धि दर 0.25 प्रतिशत प्रति वर्ष रही है जिससे इन वर्षों में कृषि उत्पादन में कुल 12.6 प्रतिशत की ही वृद्धि हो सकी जबकि 1950-51, 1999-2000 की अवधि में कृषि उपज में औसतन 2.65 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से हुई है। अतीत की तुलना में यह वृद्धि दर काफी ऊँची है। क्योंकि योजनाकाल में जनसंख्या की औसत वृद्धि दर 2.1 प्रतिशत रही है। अत: कृषि उपज की वृद्धि दर जनसंख्या वृद्धि दर से अधिक रही है यह कृषि मोर्चे पर सफलता का सूचक है।
प्रथम पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1951 से 31 मार्च 1956) :-
भारत की यह प्रथम पंचवर्षीय यद्यपि 1 अप्रैल 1951 से मानी गयी परंतु इस योजना का अंतिम स्वरूप दिसम्बर 1952 में ही प्रकाशित किया गया इस योजना में कृषि संबंधित निम्न प्राथमिकतायें निर्धारित की गयी थी।
1. ग्रामीण श्रम शक्ति का पूर्ण उपयोग करने के लिये सामुदायिक विकास योजनाओं को लागू करना।
2. आधुनिक उपकरण उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक सिंचाई आदि का प्रयोग करके कृषि का स्थायी विकास करना।
3. खाद्यान्न संकट का सामना करना।
यह योजना कृषि प्रधान योजना थी जिसमें कृषि क्षेत्र के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी।
द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1956 से 31 मार्च 1961) :-
इस योजना की रूप रेखा प्रा. पीसी महालनोविस ने ऑपरेशन अनुसंधान पद्धति पर तैयारी की जो उनके एक विकास मॉडल पर आधारित थी। इस योजना का मौलिक उद्देश्य देश में औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज करना था जिससे देश में समाजवादी समाज की स्थापना करके आर्थिक विकास की गति को बढ़ाया जा सके। पं. नेहरू के शब्दों में हमारी द्वितीय पंचवर्षीय योजना का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण भारत का पुनर्निर्माण करना। भारत में औद्योगिक प्रगति की नींव रखना, कमजोर और अपेक्षाकृत अधिकारहीन वर्ग को उन्नत के समान अवसर प्रदान करना और देश के सभी क्षेत्रों का संतुलित विकास करना है इस योजना में कृषि एवं सिंचाई पर कुल व्यय का 20.9 प्रतिशत व्यय आवंटित किया गया।
तृतीय पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1961 से 31 मार्च 1966) :-
जानसैण्डी एवं प्रो. एस. चक्रवर्ती द्वारा निर्मित विकास मॉडल पर आधारित इस योजना का मुख्य उद्देश्य अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी एवं स्वयं स्फूर्ति अर्थव्यवस्था बनाना था इस योजना के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे :-
1. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
2. घरेलु उद्योगों तथा निर्यात की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कृषि उत्पादन को बढ़ाना।
3. रोजगार अवसरों का विस्तार करके देश की श्रम शक्ति का अधिकतम उपयोग करना।
4. आय की असमानताओं को कम करना।
तीन वार्षिक योजनाएँ (1966-67, 1967-68, 1968-69) :-
1962 एवं 1965 में युद्ध के कारण पूर्णत: असफल हुई तीसरी पंचवर्षीय योजना के बाद तीन वर्षों का योजनावकास रहा, इस अवधि में चौथी योजना की उपयुक्त पृष्ठभूमि बनाने के प्रयास किये गये। इन वार्षिक योजनाओं के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :-
1. युद्ध जनित आर्थिक समस्याओं का निराकरण करना।
2. खाद्यान्नों और औद्योगिक उत्पादन की दृष्टि से देश को आत्म निर्भर बनाना।
3. धन की विषमताओं को कम करना।
चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1969 से 31 मार्च 1974) :-
इस योजना के कुछ प्रमुख उद्देश्य निम्न रहे -
1. कृषि के औद्योगिक उत्पादन में आत्म निर्भरता प्राप्त करना।
2. कृषि उत्पादन में 5 प्रतिशत तथा औद्योगिक उत्पादन में 10 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि दर प्राप्त करना।
3. मूल्यों को नियंत्रित करके आर्थिक स्थिरता बनाये रखना।
4. रोजगार के अतिरिक्त अवसरों का सृजन करना।
5. कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ में बफर स्टाक का निर्माण करना।
6. समाज में आर्थिक समानता एवं न्याय की स्थापना करना।
7. योजना में कृषि को प्रधानता दी गयी तथा कृषि सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण पर कुल व्यय का 23.3 प्रतिशत व्यय निर्धारित किया गया।
8. हरितक्रांति का सूत्रपात इसी योजना से हुआ।
पंचम पंचवर्षीय योजना
(1 अप्रैल 1974 से 31 मार्च 1979 तक परंतु योजना 31 मार्च 1978 को समाप्त घोषित) :-
पांचवीं पंचवर्षीय योजना के दो मौलिक लक्ष्य थे ‘गरीबी उन्मूलन’ तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता/ इसके अतिरिक्त योजना के मुख्य बिंदु निम्न थे।
1. न्यूनतम आवश्यकता से राष्ट्रीय कार्यक्रम को लागू करना।
2. रोजगार अवसरों में वृद्धि करना।
3. कृषि एवं जनोपयोगी वस्तुओं को उत्पादित करने वाले उद्योगों को प्रोत्साहित करना।
4. अनावश्यक उपभोग पर कड़ा प्रतिबंध लगाना।
5. सामाजिक, आर्थिक, एवं क्षेत्रीय असमानताओं को कम करना।
6. एक न्यायपूर्ण कीमत मजदूरी आय नीति को बनाए रखना।
7. गरीब वर्ग को उचित मूल्य पर वस्तुएँ उपलब्ध कराना और वितरण व्यवस्था को प्रभावी बनाना।
8. कृषि उत्पादन में वार्षिक वृद्धि दर 4.2 प्रतिशत।
छठी पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1980 से 31 मार्च 1985)
जनता पार्टी की सरकार ने पांचवीं पंचवर्षीय योजना एक वर्ष पूर्व ही समाप्त घोषित करके 1 अप्रैल 1978 से 31 मार्च 1983 तक की छठी पंचवर्षीय योजना लागू की जो एक अनवरत योजना थी इस अनवरत योजना में प्रत्येक वर्ष अगले 5 वर्ष के लिये योजना बनाने का प्रावधान रखा गया। 1980 में फिर राजनैतिक परिवर्तन और श्रीमती इंदिरा गांधी की वापसी के बाद अनवरत योजना समाप्त कर दी गयी और नवीन छठी पंचवर्षीय योजना 1980 में लागू की गयी जिसकी अवधि 1980 से एक अप्रैल 1985 रखी गयी इस योजना के प्रमुख बिंदु निम्न प्रकार रहे :-
1. विकासदर में वृद्धि, संसाधनों का कुशलतम उपयोग एवं उत्पादिता में वृद्धि करना।
2. गरीबी एवं बेरोजगारी में कमी करना।
3. आर्थिक एवं तकनीकी आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिये आधुनिकीकरण को बढ़ावा।
4. न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर लोगों के जीवन स्तर में गुणात्मक सुधार करना।
5. सार्वजनिक और वितरण प्रणाली को गरीबों के अनुकूल बनाना।
6. निर्धनता और बेरोजगारी निवारण पर विशेष बल देते हुए गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया।
7. समन्वित ग्रामीण विकास कार्यक्रम तथा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम लागू किये गये।
8. कृषि क्षेत्र का निष्पादन संतोषजनक रहा। कुछ फसलों का उत्पादन लक्ष्य से अधिक हुआ।
सातवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1985 से 31 मार्च 1990) :-
इस योजना का प्रारूप राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा 8 नवंबर 1985 को स्वीकृत किया गया। इस योजना के प्रमुख रूप से 4 लक्ष्य रखे गये। तीव्र विकास, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता तथा सामाजिक न्याय। इस योजना के प्रमुख बिंदु निम्न रहे।
1. उत्पादन व रोजगार सृजन को वरीयता दी गयी।
2. खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का लक्ष्य रखा गया।
3. पारिस्थिकीय एवं पर्यावरर्णीय संरक्षण पर बल दिया गया।
4. सामाजिक न्याय सहित विकास की रणनीति पर बल दिया गया।
आठवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1992 से 31 मार्च 1997) :-
राजनैतिक अस्थिरता के कारण 8वीं योजना 1 अप्रैल 1990 से प्रारंभ न हो सकी इस योजना को राष्ट्रीय विकास परिषद ने 23 मई 1992 को स्वीकृति दी और इसे 1992-97 की अवधि के लिये लागू किया गया इस योजना के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं :-
1. शताब्दी के अंत तक पूर्ण रोजगार का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये रोजगार सृजन को प्राथमिकता।
2. संपूर्ण जनसंख्या को स्वच्छ पीने का पानी तथा स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध कराना।
3. खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता के साथ-साथ उत्पादन अतिरेक के लिये कृषि का तीव्र विकास और कृषि विविधीकरण करना।
4. सिंचाई सुविधाओं को विकसित करके कृषि के आधार को मजबूत बनाना।
5. मानव विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता।
6. कृषि विकास की औसत दर 3.9 प्रतिशत रही जो लक्ष्य से 0.4 प्रतिशत अधिक रही।
नौवीं पंचवर्षीय योजना (1 अप्रैल 1997 से 31 मार्च 2002) :-
नौवीं पंचवर्षीय योजना का प्रारंभिक प्रारूप तत्कालीन योजना आयोग के उपाध्यक्ष मधु दण्डवते ने 1 मार्च 1998 को जारी किया जिसे भाजपा सरकार ने संशोधित किया। संशोधित प्रारूप के प्रमुख बिंदु निम्नवत हैं।
1. पर्याप्त उत्पादक रोजगार पैदा करना और गरीबी उन्मूलन की दृष्टि से कृषि और ग्रामीण विकास को प्राथमिकता देना।
2. सभी के लिये भोजन, पोषण व सुरक्षा सुनिश्चित करना लेकिन समाज के कमजोर वर्ग पर विशेष ध्यान देना।
3. न्यायपूर्ण वितरण के साथ-साथ समानता के साथ विकास करना।
4. समाज को मूलभूत न्यूनतम सेवायें प्रदान करना।
5. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के प्रयासों को मजबूत करना।
6. खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना।
7. कार्य की दशाएँ सुधारना तथा श्रमिकों को कुल उत्पादन में न्यायोचित हिस्सा दिलाना।
8. सभी लोगों की भागीदारी से विकास प्रक्रिया की पर्यावरणीय क्षमता सुनिश्चित करना।
प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर नौवीं पंचवर्षीय योजना के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि कृषि और ग्रामीण विकास के लिये योजनाकाल में लगातार प्रयास किये गये, इसके लिये विज्ञान पोषित प्रविधियों और नवीन कार्यक्रमों का लगातार समावेश किया जा रहा है। कृषि और ग्रामीण विकास पर अभी हाल के वर्षों में अधिक ध्यान दिये जाने के कारण ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ी है। स्वतंत्रता के पश्चात विशेषकर नियोजन काल में कृषि क्षेत्र में पूँजी निर्माण में वृद्धि हुई है। कृषिगत उत्पादक परिसंपत्ति जैसे मशीनरी, भवन, भूमि, सुधार आदि की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य किये गये हैं। अब पम्पसेट, थ्रेसर, ट्रैक्टर तथा हार्वेस्टर का प्रयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, इनके आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि कृषि क्षेत्र में पूँजी निर्माण बढ़ा है। नियोजित विकास प्रयासों के परिणाम स्वरूप कृषि उत्पादन आवश्यकता की दृष्टि से अति कमी की दशाओं को पार करता हुआ अब पर्याप्तता की स्थिति में पहुँच चुका है। विभिन्न फसलों का उत्पादन बढ़ा है, फसल प्रणाली में संरचनात्मक परिवर्तन आया है। अब तक की विकास प्रक्रिया में हम अपनी 100 करोड़ से अधिक जनसंख्या के लिये खाद्यान्न पूर्ति करने के साथ-साथ निर्यात करने की स्थिति में हो गये हैं।
पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास पर व्यय :-
कृषि क्षेत्र के विकास के लिये बहु विधि प्रयास किये गये हैं, प्रथम योजना तो कृषि प्रधान योजना ही थी। प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के विकास हेतु लगातार बढ़ती धनराशि व्यय की गयी है। सारिणी क्रमांक 9.1 में प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि विकास के लिये होने वाले व्यय का विवरण दिया जा रहा है।
तालिका 9.1 पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि विकास पर व्यय (करोड़ रुपये) | ||||||
क्र. | योजनाकाल | कृषि एवं सामुदायिक विकास | सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण | योग | योजनागत परिव्यय | कृषि क्षेत्र का भाग प्रतिशत |
1. | प्रथम योजना | 291 | 310 | 601 | 1960 | 30.66 |
2. | द्वितीय योजना | 549 | 430 | 979 | 4672 | 20.95 |
3. | तृतीय योजना | 1089 | 664 | 1753 | 8577 | 20.44 |
4. | वार्षिक योजना | 1107 | 471 | 1578 | 6626 | 23.82 |
5. | चतुर्थ योजना | 2320 | 1354 | 3674 | 15779 | 23.28 |
6. | पाँचवीं योजना | 4565 | 3877 | 8742 | 39426 | 22.17 |
7. | छठी योजना | 13620 | 10930 | 24550 | 109292 | 22.46 |
8. | सातवीं योजना | 31509 | 16590 | 48099 | 218730 | 21.99 |
9. | आठवीं योजना | 56892 | 32525 | 89417 | 434100 | 20.60 |
10. | नौवीं योजना (निर्धारित) | 117148 | 55420 | 172568 | 859200 | 20.08 |
भारत में कृषि विकास-दो महत्त्वपूर्ण अवस्थायें :-
भारतीय नियोजन में कृषि विकास को आधारभूत दृष्टिकोण के रूप में स्वीकार किया गया है। खाद्यान्न संकट से जूझता देश नियोजन के आरंभिक चरण में निस्संदेह कृषि विकास को वरीयता दिये जाने की अपेक्षा कर रहा था। देश की तत्कालीन समस्या को ध्यान में रखकर ही पहली योजना जो आकार में बहुत छोटी थी में कृषि क्षेत्र के विकास को सर्वोच्च वरीयता दी गई। यह योजना वांछित उद्देश्यों को पूरा करने में सफल रही, खाद्यान्न उत्पादन लक्ष्य से अधिक रहा। लेकिन दूसरी और तीसरी योजना में प्राथमिकतायें भारी उद्योगों के विकास तथा आयात प्रतिस्थापन की ओर मोड़ दी गई। जिसके परिणामस्वरूप भारतीय कृषि इस सीमा तक पछिड़ गई कि तीसरी योजना के अंतिम वर्ष 1965-966 में देश में गंभीर खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया जिसके समाधान के लिये भारत को अमेरिका के पीएल-480 गेहूँ का आयात करना पड़ा। भारत में बढ़ते खाद्यान्न के इस आयात ने देश को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक रूप से कमजोर बनाया और अमेरिका में गेहूँ के इसी आयात को लेकर देश की नीतियों में हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया जिससे तीन वार्षिक योजनओं में कृषि को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान करते हुए कृषि उत्पादकता वृद्धि की नवीन रणनीति का सूत्रपात किया गया जिसे हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है। इस हरित क्रांति आंदोलन के उद्गम से भारतीय कृषि अपनी परंपरागत परिवर्तनों की दिशा में मुड़ गई तथा भारतीय कृषि में एक नये युग की शुरुआत हुई। नियोजन काल में भारतीय कृषि को दो भागों में बाँटा जा सकता है।
अ. 1950-51 से 1965-66 तक की अवधि :-
इस अवधि में भारतीय कृषि मुख्यत: परंपरागत पद्धति पर आधारित रही जिसके प्रमुख प्रयासों में सम्मिलित है -
1. संस्थागत सुधारों को वरीयता
2. सामुदायिक विकास कार्यक्रम (2 अक्टूबर 1952) द्वारा उपलब्ध स्थानीय संसाधनों एवं जनसहयोग से कृषि उत्पादकता बढ़ाने के प्रयास।
3. जिला सघन कृषि कार्यक्रम द्वारा विशेष फसलों में उत्पादन में वृद्धि का प्रयास।
4. कम उत्पादन क्षमता वाले परंपरागत बीजों का प्रयोग।
5. सिंचाई सुविधाओं के विकास का प्रयास।
6. सिंचाई की लघु एवं मध्यम परियोजनाओं का विस्तार।
7. भूमि संरक्षण।
8. कृषि उत्पादन के समर्थन मूल्यों द्वारा उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रोत्साहन।
9. कृषि शोध एवं भूमि परीक्षण बढ़ाना।
10. कृषि विपणन सुविधाओं का विस्तार।
11. कृषि वित्त एवं ऋण सुविधाओं का विस्तार।
12. प्रशिक्षण एवं कार्यशालाओं द्वारा किसानों को कृषि के लिये प्रेरणा।
भारत में कृषि विकास की प्रवृत्ति :-
वर्ष 1951 के बाद से भारतीय कृषि विकास की प्रवृत्तियों को निम्न शीर्षकों में रखा जा सकता है।
1. कृषि विकास दर :-
भारतीय कृषि विकास की दरों में काफी उतार चढ़ाव आते रहे हैं। वर्ष 1990-2000 में भारतीय कृषि की विकास दर 5.3 रहने का अनुमान है।
कृषि विकास दर को सारिणी क्रमांक 9.2 में प्रस्तुत किया गया है। | ||||||
वर्ष | 1994-95 | 1995-96 | 1996-97 | 1997-98 | 1998-99 | 1999-2000 |
विकास दर | +5.4% | +0.2% | +9.4% | -1.0% | +7.7% | +5.3% अनुमानित |
सारिणी 9.2 भारतीय कृषि विकास दर पर प्रकाश डाल रही है जिससे ज्ञात होता है कि कृषि की दृष्टि से 1996-97 वर्ष सर्वाधिक उपयुक्त रहा जिसमें कृषि विकासदर + 9.4 प्रतिशत प्राप्त की जा सकी है जबकि न्यूनतम -1.00 प्रतिशत वर्ष 1997-98 में रही। वर्ष 1994-95 तथा वर्ष 1999-2000 में विकासदर लगभग एक सामान रही है, वर्ष 1998-99 में भी विकासदर +7.7 प्रतिशत संतोषजनक कही जा सकती है। विभिन्न वर्षों में कृषि विकास दर में प्रयाप्त विचलन दिखाई पड़ता है।
2. कृषि विकास का विकास :-
भारत में कृषि क्षेत्र के विकास तथा क्षेत्रीय वृद्धि दर को दो समयावधियों में विभक्त किया जा सकता है।
1. हरित क्रांति से पूर्व की अवधि 1951-1965 तथा
2. हरित क्रांति से बाद की स्थिति 1965-1999 इन दोनों समयावधियों में कृषि के अंतर्गत क्षेत्रफल तथा उसकी वृद्धि दर में होने वाले परिवर्तन सारिणी 9.3 में प्रस्तुत है।
सारिणी 9.3 वर्ष 191 से प्रमुख फसलों के क्षेत्रफल में वृद्धि (लाख हेक्टेयर में) | ||||
सं. | फसलें | 1950-51 | 1964-65 | 1998-99 |
1. | खाद्यान्न फसलें | 973 | 1180 | 1254 |
| चावल | 308 | 360 | 446 |
| गेहूँ | 98 | 130 | 274 |
| मोटा अनाज | 390 | 440 | 257 |
| दालें | 200 | 240 | 238 |
2. | गैर खाद्यान्न फसलें | 230 | 330 | 576 |
| तिलहन | 107 | 150 | 267 |
| गन्ना | 17 | 26 | 41 |
| कपास | 59 | 84 | 93 |
| सभी फसलें | 1203 | 1510 | 1830 |
सभी फसलों में अन्य खाद्यान्न और गैर खाद्यान्न फसलें सम्मिलित हैं। |
सारिणी 9.3 से ज्ञात होता है कि हरिक्रांति से पूर्व की अवधि अर्थात 1951 से 1965 तक कृषि क्षेत्र में 25.52 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस अवधि में सभी फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल की वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी। हरित क्रांति के बाद के वर्षों में अर्थात 1965 से 1999 तक की अवधि में विभिन्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्र में वृद्धि हुई। खाद्यान्न फसलों के अंतर्गत क्षेत्रफल में 0.18 प्रतिशत तक तथा गैर खाद्य फसलों के क्षेत्रफल के अंतर्गत 2.19 प्रतिशत की वृद्धि देखी जा रही है, इस अवधि में चावल के क्षेत्रफल में 0.70 प्रतिशत प्रति वर्ष वृद्धि हुई जबकि गेहूँ के क्षेत्रफल में 3.26 प्रतिशत वृद्धि दर हुई है। इसका प्रमुख कारण गेहूँ की फसल के लिये अधिक उपज देने वाले बीजों के प्रयोग के कारण गेहूँ की उत्पादकता आशातीत बढ़ी जिससे कृषक गेहूँ को अधिक क्षेत्रफल में बोने के लिये प्रेरित हुए।
3. उत्पादकता में वृद्धि :-
वर्ष 1951 के बाद की अवधि में कृषि उपज की उत्पादकता में आशातीत वृद्धि हुई है, कृषि उपज की उत्पादकता से आशय प्रति हेक्टेयर उत्पादकता वृद्धि से है जिसे सारिणी 9.4 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी 9.4 प्रति हेक्टेयर कृषि उत्पादकता में वृद्धि (किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) | |||
सं. | फसल | 1951 | 1999 |
1. | चावल | 668 | 1928 |
2. | गेहूँ | 663 | 2583 |
3. | मक्का | 704 | 1755 |
4. | आलू | 7000 | 18000 |
5. | गन्ना | 33420 | 73000 |
6. | कपास | 88 | 223 |
7. | पटसन | 1043 | 1720 |
4. कृषि उत्पादन में वृद्धि :-
वर्ष 1951 के पश्चात योजना अवधि में भारतीय कृषि उत्पादन में आशातीत वृद्धि हुई जिसे सारिणी 9.5 में प्रस्तुत किया जा रहा है।
सारिणी 9.5 खाद्य तथा अखाद्य फसलों के उत्पादन की मात्रा | ||||||
पंचवर्षीय योजना
| अनाज | दाले | तिलहन | गन्ना | कपास (लाख गाठें) | जूट (लाख गाठें) |
1949-50 | 408 | 81 | 50 | 570 | 33 | 30 |
1951-56 प्रथम योजना | 538 | 110 | 61 | 980 | 37 | 42 |
1956-61 द्वितीय योजना | 693 | 127 | 68 | 1165 | 41 | 56 |
1961-66 तृतीय योजना | 624 | 99 | 74 | 1218 | 43 | 48 |
1966-69 वार्षिक योजना | 830 | 104 | 93 | 1300 | 44 | 59 |
1969-74 चतुर्थ योजना | 347 | 100 | 91 | 1400 | 48 | 64 |
1974-79 पंचम योजना | 1120 | 112 | 101 | 1520 | 65 | 79 |
1980-85 षष्टम योजना | 1340 | 122 | 131 | 1705 | 80 | 85 |
1985-90 सप्तम योजना | 1580 | 126 | 184 | 2403 | 91 | 98 |
1992-97 अष्टम योजना | 1844 | 146 | 250 | 2773 | 143 | 111 |
1997-98 | 1794 | 131 | 220 | 2763 | 111 | 111 |
1998-99 | 1882 | 148 | 252 | 2957 | 122 | 97 |
1999-2000 (अनुमानित) | 1856 | 135 | 216 | 3151 | 121 | 106 |
5. फसल प्रतिरूप में परिवर्तन :-
फसल से प्रतिरूप से आशय किसी समय विशेष पर विभिन्न फसलों के बीच कृषि भूमि के विभाजन से है। यदि किसी निश्चित समय में फसलों के क्षेत्र के अनुपात में सापेक्षित परिवर्तन होता है तो उसे फसल प्रतिरूप में परिवर्तन कहते हैं, भारतीय कृषि के फसल प्रतिरूप के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता खाद्य फसलों की प्रधानता है।
सारिणी 9.6 कृषिगत फसलों के अधीन क्षेत्र का सूचक अंक | ||||||
क्र. | फसल | 1950-51 | 1970-71 | 1980-81 | 1990-91 | 1996-97 |
1. | खाद्यान्न फसलें | 79.3 | 97.9 | 99.8 | 100.7 | 98.1 |
2. | गैर खाद्यान्न फसलें | 73.8 | 91.1 | 99.4 | 120.0 | 135.7 |
3. | सभी फसलें | 78.2 | 96.3 | 99.7 | 105.2 | 106.8 |
6. कृषि उत्पाद निर्यात :-
यह एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भारत कृषि पदार्थों का एक निर्यातक देश बन गया है जैसा कि सारिणी 9.7 से स्पष्ट हो रहा है।
सारिणी 9.7 भारतीय निर्यात में कृषि उत्पादों का स्थान (हजार करोड़ रुपये) | |||
वर्ष | देश का कुल निर्यात | कृषि उत्पादों का निर्यात | कुल निर्यातों में कृषि उत्पाद की भागेदारी |
1993-94 | 69.75 | 13.02 | 18.7 |
1994-95 | 82.67 | 13.71 | 16.6 |
1995-96 | 106.35 | 21.14 | 19.8 |
1996-97 | 118.81 | 24.24 | 20.4 |
1997-98 | 130.1 | 25.40 | 19.5 |
1998-99 | 141.6 | 26.20 | 18.5 |
1999-2000 (अप्रैल-नवंबर) | 104.6 | 15.11 | - |
2. पोषक स्तर में वृद्धि के उपाय :-
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की मानव विकास रिपोर्ट 1997 में पहली बार मानव गरीबी सूचकांक प्रस्तुत किया गया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की वर्ष 1999 की मानव विकास रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु है -
1. मानव गरीबी सूचकांक के आधार पर भारत का विश्व में 59वां स्थान है।
2. मानव विकास सूचकांक के आधार पर 174 राष्ट्रों की सूची में भारत का स्थान 132वां है।
3. लिंग आधारित विकास सूचकांक के आधार पर तैयार सूची में भारत 112वें स्थान पर स्थित है।
4. विश्व में 20 प्रतिशत सबसे धनी लोग कुल निजी उपभोग का 86 प्रतिशत भाग उपभोग करते हैं जबकि निर्धनतम 20 प्रतिशत लोगों को कुल उपभोग का केवल 1 प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है।
मानव विकास रिपोर्ट की उक्त सूचनाओं के आधार पर भारत करके आम नागरिकों के जीवन सतर के बार में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है जबकि स्वतंत्रता के बाद नियोजन काल में ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिये सरकार ने अनेक परियोजनाओं का शुभारंभ किया है। चौथी और पांचवीं पंचवर्षीय योजनाओं में गरीब एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिये अनेक रोजगार परक कार्यक्रम लागू किये गये। यद्यपि पिछले 50 वर्षों में भारत की जनसंख्या में सभी वर्गों के पोषण में सुधार हुआ है परंतु अभी भी अल्प पोषण की समस्या जिन वर्गों में बनी हुई है उनमें से प्रमुख रूप से एक तिहाई नवजात बच्चे जिनका भार 2.5 किग्राम से कम है तथा गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाएँ सम्मिलित हैं। राष्ट्रीय पोषण निरीक्षण बोर्ड के अनुसार 1975-80 में 31 प्रतिशत परिवारों में परिवार के सभी सदस्यों में ऊर्जा उपभोग पर्याप्त था। 19 प्रतिशत परिवारों में ऊर्जा उपभोग परिवार के सभी सदस्यों में अपर्याप्त था। यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि 25 प्रतिशत परिवारों में केवल बालिगों के लिये ऊर्जा उपभोग पर्याप्त था परंतु स्कूल पूर्व बच्चों में ऐसा नहीं था। पर्याप्त खाद्य पदार्थ जीवन की प्राथमिक आवश्यकता है, भारतीय औसत आहार इस दृष्टि से असंतुलित है कि भारत में अधिकांश पोषक तत्व खाद्यान्नों से प्राप्त किये जाते हैं कुल प्राप्त कैलोरी में दो तिहाई भाग खाद्यान्नों से प्राप्त किया जाता है। गुणात्मक दूष्टि से अपेक्षित स्तर का नहीं होता। खाद्य और कृषि संगठन के एक अनुमान वे देश जहाँ के आहार में खाद्यान्न जड़दार सब्जियों और चीनी की बहुतायत हो वहाँ पोषण संबंधी असंतुलन पाया जाता है।
भारत की पोषण समस्या के चार प्रमुख पहलू है :-
1. पोषण समस्या का परिमाणात्मक पहलू :-
इस समस्या का संबंध खाद्यान्नों की कुल मांग और कुल पूर्ति से है यद्यपि भारत में खाद्यान्नों के उत्पादन में स्वतंत्रता के बाद से लगभग चार गुना वृद्धि हुई है। परंतु जनसंख्या की तीव्र वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति खाद्यान्नों की उपलब्धता में कोई उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। 1951 में खाद्यान्नों तथा दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता 395 ग्राम थी जो 1999 में बढ़कर 467.4 ग्राम हो गई है।
2. पोषण समस्या का गुणात्मक पहलू :-
औसत भारतीय का आहार न केवल अपर्याप्त है बल्कि असंतुलित और पौष्टिक तत्वों से हीन है। डॉ. अमर्त्यसेन का कहना है कि भारत में ग्रामीण जनता का लगभग एक तिहाई भाग सदैव भूख व कुपोषण का शिकार रहता है, लोग भूख से मरते तो नहीं लेकिन वे भूखों अवश्य मरते हैं। भारत में खाद्यान्नों के पोषक तत्वों की कमी के लिये उत्तरदायी कारणों में से
1. रक्षात्मक खाद्यान्नों का कम उत्पादन।
2. धार्मिक भावना से मांसाहार का अभाव
3. निरक्षरता व अज्ञानता के कारण पोषक तत्वों की उपयोगिता पर ध्यान न देना।
4. निर्धनता के कारण पोषक तत्वों को क्रय न कर पाना।
स. पोषण समस्या का प्रशासनिक पहलू :-
खाद्यान्नों के प्रशासनिक पहलू का आशय है कि देश में जितना खाद्यान्न उपलब्ध है उसे उचित मूल्य व उपयुक्त समय पर जनता में वितरित कर दिया जाये। प्रशासनिक पहलू में निम्न कार्य सम्मिलित किये जाते हैं।
1. खाद्यान्नों की मांग और पूर्ति का सही अनुमान।
2. कमी वाले स्थानों पर उपयुक्त समय पर यथेष्ट खाद्यान्न भेजने का प्रबंध।
3. खाद्यान्नों का उचित मूल्य निर्धारित करना व उपयुक्त समय पर जनता में वितरित करना।
4. खाद्यान्नों का उचित भंडारण करना।
द. पोषण समस्या का आर्थिक पहलू :-
भारत में खाद्यान्नों के स्थान पर अब मुद्रा या क्रय शक्ति का अकाल पाया जाता है, प्रो. अमर्त्यसेन का कहना है कि भारत में प्राय: खाद्यान्नों में आत्म निर्भरता प्राप्त कर लेने की बात सुनने में आती है। खाद्यान्नों के संबंध में बाजार मांग व पूर्ति में संतुलन स्थापित होने से देश आत्म निर्भर तो हो सकता है फिर भी क्रय शक्ति की कमी से तथा कथित आत्म निर्भरता की स्थिति में काफी लोग भूख व कुपोषण के शिकार बने रहते हैं। अत: लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाकर पोषण समस्या के इस रूप का उचित हल निकाला जा सकता है।
योजनावधि में पोषण समस्या के समाधान के लिये सरकार ने जो प्रयत्न किये हैं उन्हें हम तीन शीर्षकों के अंतर्गत रख सकते हैं।
अ. खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की दिशा में उपाय :-
योजनाकाल में कृषि उत्पादन में वृद्धि के जो भी प्रयास किये गये उनमें से अधिकांश खाद्यान्न उत्पादन वृद्धि के प्रति केंद्रित रहे हैं। खाद्यान्न उत्पादन वृद्धि के लिये निम्न उपाय किये -
1. तकनीकी उपाय :
तकनीकी उपायों का महत्त्व 1966 के बाद से काफी बढ़ गया है। तकनीकी उपायों के अंतर्गत सिंचाई के सुविधाओं में विस्तार, सघन कृषि कार्यक्रम, बहुफसली कार्यक्रम अधिक उपज देने वाली किस्मों का उगाना रासायनिक उर्वरकों का अधिकाधिक प्रयोग तथा कृषि के यंत्रीकरण पर जोर दिया जा रहा है।
2. भूमि सुधार :
नियोजन के प्रारंभ से ही देश में भूमि सुधार कार्यक्रमों को महत्त्व दिया गया है। इसके अंतर्गत मध्यस्थों को समाप्त करने के लिये सभी राज्यों में कानून बनाये गये। लगान का नियमन हुआ। जोतों की उच्चतम सीमाबंदी की गई। उपविभाजित एवं अपखंडित जोतों के लिये चकबंदी की गई। सहकारी कृषि को प्रोत्साहित किया गया।
3. प्ररेक मूल्य नीति :
1 जनवरी 1965 को भारत सरकार ने खाद्यान्नों की कीमतों पर विचार करने के लिये झा समिति की सिफारिश पर कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की। कृषि मूल्य आयोग कृषकों को खाद्यान्नों के प्रेरक मूल्य देने के सुझाव देता है परंतु आयोग द्वारा निर्धारित खाद्यान्न वसूली की कीमतें प्राय: बहुत आकर्षक नहीं रही।
4. विशिष्ट संस्थानों की स्थापना :-
खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाने तथा कृषि का विकास करने के लिये सरकार ने अनेक संस्थानों की स्थापना की है जिनमें राष्ट्रीय बीज निगम, कृषि उद्योग निगम, कृषि मूल्य आयोग तथा भारतीय खाद्य निगम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
5. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा :
सरकार अब एक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली निर्माण की ओर अग्रसर है, इसके चार मुख्य आधार होंगे सिंचित तथा असिंचित क्षेत्रों में भी मुख्य फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में सुधार प्राकृतिक आपदाओं तथा कीड़े मकोड़े से फसल का संरक्षण, एक स्थायी अनाज भंडार का निर्माण तथा एक प्रभावी वितरण व्यवस्था का निर्माण।
ब. खाद्यान्नों के वितरण संबंधी उपाय :
खाद्यान्नों का उचित वितरण सुनिश्चित करने के लिये मार्च 1964 में भारत को खाद्य क्षेत्रों में विभक्त किया गया। प्रत्येक खाद्य क्षेत्र में अतिरेक और कमी वाले राज्य थे। खाद्यान्न व्यापार की अनुमति खाद्य क्षेत्रों के भीतर ही रखी गयी। अंतरक्षेत्रीय खाद्यान्न व्यापार के लिये निजी व्यापारियों पर रोक लगा दी गई थी परंतु प्रशासनिक कठिनाइयों के कारण इसे कुछ समय बाद ही निरसत करना पड़ा। खाद्यान्न नीति के संदर्भ में गेहूँ और चावल के व्यापार का राष्ट्रीयकरण एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। 1972-73 में गंभीर खाद्य संकट के कारण गेहूँ और चावल के थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण किया गया, ताकि खाद्यान्न आपूर्ति विशेषकर अभाव ग्रस्त्र क्षेत्रों में सुनिश्चित की जा सके, परंतु निजी थोक व्यापारियों के विरोध तथा क्रियान्वयन की असुविधा के कारण यह कार्यक्रम असफल रहा। फलत: सरकार ने 28 मार्च 1974 को इस कार्यक्रम को स्थगित कर दिया।
खाद्यन्न वितरण प्रणाली में सुधार के प्रयास का एक प्रमुख पक्ष सार्वजनिक वितरण प्रणाली को अधिक कारगर बनाने से संबंद्ध है। सरकार विभिन्न आधिक्य वाले क्षेत्रों से अथवा आयातित खाद्यान्न से बनाये गये बफर स्टॉक द्वारा उचित मूल्य की दुकानों से खाद्यान्न वितरण करती है। खाद्यान्नों के वितरण संबंधी उपायों को निम्न शीर्षकों में रखा जा सकता है।
1. सरकारी खरीद :-
सरकारी खरीद का अर्थ केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा खाद्यान्नों की खरीद से है। यह खरीद स्वेच्छा तथा वसूली दोनों प्रकार से होती है स्वेच्छा से खरीद उस समय की जाती है जबकि मूल्य या तो गिर रहे होते है या सामान्य होते हैं। ऐसा किसानों को निरुत्साहित न होने देने के लिये किया जाता है। लेकिन जब खाद्यान्नों की कीमत बढ़ती है तो सरकार को कृषक अपनी उपज निर्धारित मूल्य पर नहीं बेचना चाहता है ऐसी स्थिति में किसानों पर वसूली या लेवी लगा दी जाती है। फलत: कृषक को विवश होकर अपनी उपज की निर्धारित मात्रा सरकार को बेचनी पड़ती है।
2. खरीद मूल्यों का निर्धारण :-
समय-समय पर सरकार उन न्यूनतम मूल्यों की घोषणा करती है जिस पर वह कृषि पदार्थ खरीदने के लिये तैयार है यह मूल्य कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर सरकार तय करती है। गत वर्षों से यह मूल्य बढ़ते रहे हैं।
3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली :-
अर्थव्यवस्था के कमजोर वर्गों को खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के दुष्प्रभाव से बचाने के लिये ही विशेष रूप से सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विकास किया गया है।
4. खाद्यान्नों की जमाखोरी तथा मुनाफाखोरी के विरुद्ध किये गये प्रयास :-
सरकार ने उन व्यापारियों और उत्पादकों को जो लाभ कमाने की दृष्टि से खाद्यान्नों का बड़े पैमाने पर संग्रह करते हैं, सजा देने के लिये आवश्यक पदार्थ अधिनियम तथा भारतीय प्रतिरक्षा नियम के अंतर्गत सजा की व्यवस्था की है।
5. भारतीय खाद्य निगम की स्थापना :-
अशोक मेहता समिति ने 1957 में यह सुझाव दिया था कि भारत सरकार द्वारा एक खाद्यान्न स्थिरीकरण संगठन स्थापित किया जाय। अशोक मेहता समिति की दी गई रूपरेखा के आधार पर जनवरी 1965 में एक भारतीय खाद्य निगम की स्थापना 100 करोड़ रूपये की पूँजी लगाकर की गई। निगम का उद्देश्य ‘सबके लिये भोजन’ रखा गया जिसके कार्य निम्नलिखित है -
1. अन्न भंडार
2. खाद्यान्न वृद्धि में उत्पादन के लिये उचित प्रोत्साहन
3. भंडारण व्यवस्था
4. किसानों की कुशलता में वृद्धि के लिये तकनीकी प्रशिक्षण।
5. वैज्ञानिक रीतियों के प्रयोग को प्रोत्साहन
6. साहयक खाद्य पदार्थों (मांस, मछली, फल, साग, सब्जी आदि) का विकास।
7. थोक व फुटकर मंडियों की व्यवस्था।
8. आवश्यकता पड़ने पर परिवहन सुविधा।
9. खाद्यान्नों की खरीद संग्रह वितरण व विक्रय का कार्य।
10. बिस्कुट मिठाई आदि से संबंधित उद्योगों को प्रोत्साहन।
6. सार्वजनिक वितरण प्रणाली :-
भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक वितरण की वर्तमान प्रणाली को 1 जुलाई 1979 से लागू किया गया जिसकी प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं :-
1. प्रणाली का क्षेत्र और जनसंख्या :-
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की व्यवस्था पूरे देश में लागू है। प्रत्येक ऐसे गाँव या गाँव समूह में जिसकी जनसंख्या 2000 से अधिक है, एक उचित मूल्य की दुकान खोलने का प्रावधान है परंतु आदिवासी या पहाड़ी क्षेत्रों में 1000 की जनसंख्या पर ही यह दुकान खोली जा सकती है।
2. सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वस्तुएँ :-
इस प्रणाली में प्रमुख रूप से 7 वस्तुओं को शामिल किया गया है, चावल, गेहूँ, आयातित खाद्य तेल, मिट्टी का तेल, सॉफ्ट कोक, खाद्य नियंत्रित कपड़ा, परंतु राज्य सरकारें आवश्यकता पड़ने पर और वस्तुओं को शामिल कर सकती है।
3. नवीन सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना :-
1 जनवरी 1992 को प्रधानमंत्री ने 1752 पिछड़े तथा दूरस्थ क्षेत्रों में नवीकृत सार्वजनिक वितरण प्रणाली योजना प्रारंभ की। इन क्षेत्रों में राज्य सरकारें कुछ अतिरिक्त वस्तुयें जैसे चाय, साबुन, दाल, आयोडीन नमक का वितरण करेगी। इन क्षेत्रों में खाद्यान्नों की कीमत 50 रुपये प्रति कुंटल कम रखी गई है।
4. राशन या उचित मूल्य की दुकानें :-
31 मार्च 1999 को देश में 460 लाख राशन की दुकानें थी। इनमें से 28 प्रतिशत सहकारी समितियों द्वारा संचालित थी।
5. सहकारी उपभोक्ता बाजार :-
30 जून 1994 को शीर्षस्तर पर एक राष्ट्रीय उपभोक्ता, संघ राज्य स्तर पर 29 राज्य विपणन एवं उपभोक्ता संघ, जिलास्तर पर 756 केंद्रीय उपभोक्ता समितियाँ तथा आधार स्तर पर 26505 प्राथमिक उपभोक्ता सहकारी स्टोर कार्य कर रहे थे।
6. नियंत्रित कपड़ों की बिक्री की दुकानें :-
30 जून 1994 तक इन दुकानों की संख्या 66300 है।
7. सॉफ्ट कोक डिपो :-
सरकार ने उचित मूल्यों पर सॉफ्ट कोक उपलब्ध कराने के लिये सॉफ्ट कोक डिपो खोले हैं।
8. सुपर बाजार :-
सुपर बाजारों की स्थापना बड़े-बड़े नगरों में की गयी है। इन भंडारों में साधारण उपभोक्ता की सभी वस्तुएँ मिलती हैं। इस समय इनकी संख्या 150 के लगभग है। राशन की वस्तुओं का भी विक्रय होता है।
9. मिट्टी तेल की बिक्री :-
इस समय इन दुकानों की संख्या 2.5 लाख है।
10. लक्षित सार्वजनिक वितरण योजना :-
यह योजना 1 जून 1957 से पूरे देश में लागू की गयी है। इस योजना का उद्देश्य गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों को सस्ती दर पर गेहूँ व चावल उपलब्ध कराना है। इस योजना के अंतर्गत गेहूँ 2.50 रुपये तथा चावल 3.50 प्रति किलो की दर से दिया जा रहा है एक गरीब परिवार को प्रति माह 10 किलो अनाज दिया जाता है इस योजना से प्रतिवर्ष 32 करोड़ लोगों के लाभान्वित होने का अनुमान है।
स. खाद्यान्नों के उपभोग संबंधी नीति :-
भारत में खाद्यान्नों के उपभोग के दो पहलू हैं प्रथम खाने वाले व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि और द्वितीय अधिकांश लोगों के उपभोग का स्वरूप अनाजों व चावल के पक्ष में है।
1. जनसंख्या नीति :-
जनसंख्या नीति का उद्देश्य लोगों को उनके परिवारों के आकार को नियंत्रित करने के लिये सुविधायें प्रदान करना है। परिवार कल्याण कार्यक्रम जन्म दर को नियंत्रित करने का एक कारगर उपाय है।
2. पोषण नीति :-
पोषण नीति का उद्देश्य लोगों के अनाज के उपभोग को गैर अनाज खुराक में प्रतिस्थापित कना है। लेकिन इसके साथ यह भी आवश्यक है कि भोजन में पोषक तत्वों की आवश्यक मात्रा हो।
खाद्य एवं पोषण बोर्ड ने पोषक आहारों के क्रमिक विकास, संरक्षण और प्रभावकारी प्रयोग के लिये अनेक कार्यक्रम हाथ में लिये हैं इन कार्यक्रमों का उद्देश्य पोषक आहारों की आपूर्ति बढ़ाना, आहारों की पौष्टिकतायें बढ़ाना, कर्मचारियों और उपभोक्ताओं का शिक्षण प्रशिक्षण और समेकित खाद्य एवं पोषण प्रणाली का विकास का आयोजन करना है ताकि लोगों के पोषण में सुधार लाया जा सके। बोर्ड में चावल, दाल और मक्के की पिसाई के आधुनिकीकरण तथा अन्य खाद्यान्नों के परिस्करण, फल एवं साग सब्जी संरक्षण उद्योग, प्रोटीन आहार उद्योग, बेकरी उद्योग के संबर्द्धन की दिशा में भी कदम उठाये गये हैं।
द. अल्प पोषण दूर करने के सरकारी प्रयास :-
भारत सरकार ने अल्प पोषण की रोकथाम के लिये कई कार्यक्रम चलाये हैं। जिनमें से निम्न प्रमुख है।
1. प्रायोगिक पोषण प्रोजेक्ट :-
यह कार्यक्रम 1963 में चालू किया गया और इसका उद्देश्य गर्भवती व दूध पिलाती माताओं को सुरक्षित खाद्य के रूप में सब्जियाँ और फल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से इसको उत्पादन एवं उपभोग को बढ़ावा देना था।
2. विशेष पोषण प्रोग्राम :-
यह कार्यक्रम 1970 से प्रारंभ किया गया जिसका मुख्य उद्देश्य गर्भवती व शिशुपालक माताओं को 500 कैलोरी और 25 ग्राम प्रोटीन उपलब्ध कराना और बच्चों को 300 कैलोरी और 10 ग्राम प्रोटीन सप्ताह में 6 दिन उपलब्ध कराना था।
3. समन्वित बाल विकास योजनायें :-
यह कार्यक्रम 1975 में प्रारंभ किया गया और इसका उद्देश्य बच्चों गर्भवती अथवा शिशुपालक माताओं को खाद्य अनुपूरण उपलब्ध कराना था।
4. बालवाडी पोषाहार कार्यक्रम :-
बालवाडी पोषाहार कार्यक्रम 3-5 वर्ष की आयु के बच्चों को पूरक पोषाहार मनोरंजन सुविधायें और अनौपचारिक स्कूल पूर्व शिक्षा देने के लिये वर्ष 1970-71 में प्रारंभ किया गया था। देश के ग्रामीण और जनजातीय तथा शहरी बस्तियों में 5053 बालवाड़ियाँ है जिनमें 2.25 लाख बच्चे लाभान्वित हो रहे हैं। यह कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर के पाँच संगठनों द्वारा लागू किया जा रहा है जिन्हें सरकार वित्तीय सहायता देती है।
5. स्कूली बच्चों के मध्य भोजन कार्यक्रम :-
यह योजना 15 अगस्त 1995 से लागू की गई है। इस कार्यक्रम के अंतर्गत सरकार व स्थानीय निकायों द्वारा संचालित तथा सरकारी सहायता प्राप्त प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को दोपहर का भोजन नि:शुल्क उपलब्ध कराया जाता है। जब तक इन स्कूलों में भोजन पकाने की व्यवस्था नहीं हो जाती है तब तक प्रत्येक पात्र विद्यार्थी को तीन किलोग्राम प्रतिमाह अनाज दिया जाता रहेगा। इस कार्यक्रम के लाभार्थी विद्यार्थियों को कम से कम 80 प्रतिशत उपस्थिति दर्ज कराना अनिवार्य है।
य. खाद्य सुरक्षा हेतु किये गये प्रयास :-
खाद्य सुरक्षा प्रणाली को मजबूत करने हेतु सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं में कई उपाय किये हैं जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख है।
1. देश में खाद्यान्न उत्पादन को बढ़ाना।
2. न्यूनतम समर्थन कीमत व खाद्य पदार्थों की वसूली करना।
3. सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागू करना।
र. रोजगार सृजन तथा गरीबी निवारण के प्रयास -
इन प्रयासों को सारिणी 9.8 में प्रस्तुत किया जा रहा है
| कार्यक्रम/योजना संस्थान | प्रारंभ वर्ष | उद्देश्य/विवरण |
| प्रथम पंचवर्षीय योजना | 1951-56 |
|
1. | सामुदायिक विकास कार्यक्रम | (CDP) 1952 | समाज का सर्वांगीण विकास करना |
| द्वितीय पंचवर्षीय योजना | 1956-61 |
|
1. | सघन कृषि विकास कार्यक्रम | (IADP) 1960-61 | किसानों को ऋण, बीज, खाद और कृषि यंत्र आदि उपलब्ध कराना। |
| तृतीय पंचवर्षीय योजना | 1961-66 |
|
1. | गहन कृषि क्षेत्रीय कार्यक्रम | (IAAP) 1964-65 | विशिष्ट फसलों का विकास करना। |
2. | अधिक उपज देने वाली किस्मों का कार्यक्रम | 1966-67 | विभिन्न फसलों की नवीन प्रजाति को अपनाकर खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ाना |
3. | हरित क्रांति | 1966-67 | कृषि उत्पादन में वृद्धि। |
4. | बहुफसली कार्यक्रम | (MCP) 1966-67 | कृषि उत्पादन में वृद्धि। |
| चतुर्थ पंचवर्षीय योजना | 1969-74 |
|
1. | ग्रामीण विद्युतीकरण निगम | जुलाई 1969 | ग्रामीण क्षेत्रों में प्रकाश, कृषि एवं उद्योग हेतु विद्युतीकरण। |
2. | महाराष्ट्र की रोजगार गारण्टी योजना | 1966-67 1972-73 | ग्रामीण क्षेत्र के आर्थिक दृष्टि से निर्बल वर्गों की सहायता करना। |
3. | त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम | ARWSP 1972-73 | गाँवों में पीने का पानी उपलब्ध कराने हेतु। |
4. | सूखाग्रस्थ क्षेत्र विकास कार्यक्रम | DPAP 1973 | सूखाग्रस्त क्षेत्रों में पर्यावरण संतुलन, भूमि जल और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को विकसित करके सूखें से बचाव के उपाय करना। |
5. | ग्रामीण रोजगार के लिये क्रैशस्कीम | CRSE 1972-73 | ग्रामीण विकास हेतु। |
6. | सीमांत कृषिक एवं कृषि श्रमिक एजेंसी | MFAL | तकनीकी एवं वित्तीय सहायता हेतु। |
7. | लघु कृषक विकास एजेंसी | SFDA 1974-75 | तकनीकी एवं वित्तीय सहायता हेतु। |
| पंचम पंचवर्षीय योजना | 1974-79 |
|
1. | कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम | CADP 1974-75 | बड़ी और मध्यम परियोजनाओं का सिंचाई क्षमता का तेजी से बेहतर उपयोग सुनिश्चत करना। |
2. | बीस सूत्रीय कार्यक्रम | 1975 | गरीबी निवारण और रहन-सहन के स्तर को उच्च करना। |
3. | मरू भूमि विकास कार्यक्रम | DDP 1977-78 | मरूभूमि विस्तार प्रक्रिया नियंत्रण एवं पर्यावरण संतुलन बनाये रखने हेतु। |
4. | काम के बदले अनाज कार्यक्रम | 1977-78 | विकास प्रक्रियाओं के काम हेतु खाद्यान्न देना। |
5. | अंत्योदय योजना | 1977-78 | (राजस्थान में) गाँव के सबसे गरीब परिवारों को आर्थिक स्वावलंबी बनाना। |
| षष्ट पंचवर्षीय योजना | 1980-85 |
|
1. | ग्रामीण युवकों को स्वरोजगार प्रशिक्षण | TRYSEM 15 अगस्त 1979 | ग्रामीण युवकों को रोजगार प्रशिक्षण देना। |
2. | समन्वित ग्रामीण विकास योजना | 2 अक्टूबर 1980 | ग्रामीण निर्धन परिवारों को स्वरोजगार हेतु ऋण की व्यवस्था करना। |
3. | राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना | NREP 1980 | ग्रामीण गरीबों को लाभकारी रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना। |
4. | ग्रामीण क्षेत्रों में महिला एवं बाल विकास कार्यक्रम | DWCRA सित. 1982 | गरीबी रेखा के नीचे ग्रामीण महिलाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करना। |
5. | ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारण्टी कार्यक्रम | RLEGP 15 सित. 1983 | भूमि कृषकों व श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराने हेतु। |
6. | शिक्षित बेरोजगार युवकों को स्वरोजगार प्रदान करने की योजना | SEEUY 1983-84 | स्वरोजगार हेतु वित्तीय व तकनीकी सहायता प्रदान करना। |
7. | राष्ट्रीय ग्रामीण विकास कोष | NFRD फर. 1984 | दानकर्ता को कर में 100 प्रतिशत की छूट व ग्रामीण विकास के लिये दान प्राप्त करना। |
| सप्तम पंचवर्षीय योजना | 1985-90 |
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1. | इंदिरा आवास योजना | IAY 1985-86 | अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के ग्रामीणों को आवास उपलब्ध कराना। |
2. | व्यापक फसल बीमा योजना | CCIS 1 अप्रैल 1985 | विभिन्न कृषि फसलों का बीमा कराने हेतु। |
3. | लोक कार्यक्रम एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद | CAPART 1 सित. 1986 | ग्रामीण समृद्धि के लिये सहायता प्रदान करना। |
4. | ग्रामीण जलापूर्ति तथा शहरी निर्धनों हेतु स्वरोजगार कार्यक्रम | सित. 1986 | गाँवों में पेयजल व्यवस्था हेतु व स्वरोजगार हेतु वित्तीय एवं तकनीकी सहयोग। |
5. | सेवा क्षेत्र पद्धति | SAA फरवरी 1988 | ग्रामीण उधार की एक नई रणनीति। |
6. | जवाहर रोजगार योजना | JRY अप्रैल 1989 | ग्रामीण बेरोजगारों को रोजगार देने हेतु। |
7. | दस लाख कुआँ योजना | MWS 1988-89 | अनुसूचित जातियों, जन जातियों व सीमांत कृषकों के लिये नि:शुल्क खुले सिंचाई कुओं का निर्माण। |
8. | नेहरू रोजगार योजना | NRY अक्टू. 1989 | नगरीय क्षेत्रों में बेरोजगारों को रोजगार देने हेतु। |
9. | कृषि एवं ग्रामीण ऋण राहत योजना | ARDRS 1990 | ग्रामीण कारीगरों, बुनकरों आदि को 10000 रुपये तक के ऋण देना। |
10. | शहरी सूक्ष्म उद्यम स्कीम | SUME 1990 | शहरी निर्धन व्यक्तियों को लघु उद्यम के लिये सहायता करना। |
11. | शहरी सवेतन रोजगार योजना | SUWE 1990 | 1 लाख से 20 लाख की जनसंख्या वाली शहरी बस्तियों में आश्रम उन्नयन के माध्यम से रोजगार प्रदान करना। |
| अष्टम पंचवर्षीय योजना | 1992-97 |
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1. | ग्रामीण कारीगरों को सुधरे यंत्रों की आपूर्ति योजना | SITRA जुलाई 1992 | निर्धनता रेखा से नीचे वाले बुनकरों, दर्जियों कशीदकारों तथा बीड़ी बनाने वालों को अतिरिक्त ग्रामीण कारीगरों को आधुनिक औजारों की आपूर्ति। |
2. | रोजगार आश्वासन योजना | 2 अक्टू. 1993 | गाँवों में वर्ष में कम से कम 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराने हेतु। |
3. | सांसदों की स्थानीय विकास योजना | 23 दिस. 1993 | निर्वाचन स्थानीय क्षेत्रों में सांसद प्रतिवर्ष 1 करोड़ रुपये तक के विभिन्न कार्य संपन्न करायेंगे। |
4. | जिला ग्रामीण विकास एजेंसी | DRDA 1993 | ग्राम्य विकास हेतु वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना। |
5. | महिला समृद्धि योजना | MSY 2 अक्टूबर 1993 | ग्रामीण महिलाओं को डाकघर बचत बैंक खाते में जमा को प्रोत्साहित करना। |
6. | बालश्रम उन्मूलन योजना | 15 अगस्त 1994 | खतरनाक उद्योगों में लगे बाल श्रमिकों को इन कामों से हटाकर स्कूल भेजने एवं वही रोजगार संबंधी प्रशिक्षण देना। |
7. | प्रधानमंत्री का समन्वित शहरी निर्धनता निवारण कार्यक्रम | 18 नवम्बर 1995 | 50 हजार से 1 लाख तक जनसंख्या वाले 345 नगरों में निर्धनता निवारण हेतु तथा मूल नागरिक सुविधायें उपलब्ध कराने हेतु। |
8. | ग्रामीण क्षेत्रों में सामूहिक जीवन बीमा योजना | 1995-96 | ग्रामीण क्षेत्रों के व्यक्तिों को कम लागत पर जीवन बीमा की सुविधा उपलब्ध कराना। |
9. | राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम | 1995 | निर्धनता रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की सहायता। |
10. | गंगा कल्याण योजना | 1997-98 | भूमिगत रेखा से नीचे जीवन यापन की निकासी करने वालों को सहायता। |
11. | कस्तूरबा गांधी शिक्षा योजना | 15 अगस्त 1997 | नीची महिला साक्षरता दर वाले जिलों में बालिका विद्यालयों की स्थापना |
| नवम पंचवर्षीय योजना | 1997-02 |
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1. | स्वर्ण जयंती शहरी रोजगार योजना | 1 दिस. 1997 | शहरी क्षेत्रों में निर्धनता निवारण की योजना |
2. | अन्नपूर्णा योजना | 15 मार्च 1999 | वृद्ध नागरिकों को नि:शुल्क अनाज |
3. | भाग्य श्री बाल कल्याण पॉलिसी | 19 अक्टू. 1998 | बालिकाओं के उद्धार के लिये। |
4. | राजराजेश्वरी महिला कल्याण योजना | 19 अक्टू. 1998 | महिलाओं को बीमा सुरक्षा प्रदान करना। |
5. | जवाहर ग्राम समृद्धि योजना | 1 अप्रैल 1999 | ग्रामीण गरीबों का जीवन सुधारना और उन्हें लाभप्रद रोजगार उपलब्ध कराना। |
6. | प्रधानमंत्री ग्रामोदय योजना | 2000 | ग्रामीण क्षेत्रों में निर्धनता रेखा से नीचे रहने वालों के लिये आवास उपलब्ध कराना। |
3. भावी व्यूह रचना :-
तेजी से बदलती हुई जीवन शैली, तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या के एक बड़े भाग की कृषि पर निर्भरता, बदलता हुआ ग्रामीण परिवेश आदि तथ्य इस ओर संकेत करते हैं, कि यदि कृषि क्षेत्र पर पर्याप्त ध्यान न दिया गया तो आगामी वर्षों में बढ़ती हुई जनसंख्या की उदरपूर्ति कठिन हो जायेगी। कृषि क्षेत्र की उत्पादकता में वृद्धि हेतु कृषि व्यवसाय के लिये भावी रणनीति और अधिक सुदृढ़ बनायी जानी चाहिए। अध्ययन क्षेत्र के लिये नई व्यूह रचना के लिये निम्नांकित तथ्यों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
क. विस्तृत खेती की संभावनाएं :-
अध्यक्ष क्षेत्र में अभी भी कृषि क्षेत्र को विस्तृत करने की पर्याप्त संभावनायें हैं क्योंकि प्रतिवर्ष लगभग् 46218 हेक्टेयर भूमि वर्तमान परती के शीर्षक में अप्रयुक्त रहती है। अन्य परती भूमि के अंतर्गत लगभग 16482 हे. भूमि तथा कृषि योग्य बंजर भूमि का क्षेत्रफल लगभग 8436 हे. है। इन मदों में कृषि के लिये अप्रयुक्त भूमि 71136 हे. है जिसे कृषि क्षेत्र में पर्याप्त सुविधाओं के अभाव में प्रयोग नहीं किया जा रहा है। कृषि के लिये अप्रयुक्त भूमि शुद्ध बोये गये क्षेत्र की 32.03 प्रतिशत है। यदि कृषि क्षेत्र की सुविधाओं में वृद्धि की जाये तो इस परती भूमि पर विभिन्न फसलें उगाई जा सकती है और कृषि उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है।
ख. बड़ी मात्रा में कृषि आदान उपलब्ध कराना :-
हरित क्रांति या कृषि उपज की नई तकनीक कृषि भूमि पर पर्याप्त आदानों की मांग करती है जिसके लिये कृषि क्षेत्र में भारी पूँजी निवेश किया जाना चाहिए। सरकार कृषि क्षेत्र में पूँजी निवेश करने में पूर्णतया असफल रही है। जोतों का छोटा आकार कृषकों के लिये पर्याप्त उपज अतिरेक उत्पन्न करने में सफल नहीं रहा है जिससे उनकी आय का स्तर भी इतना ऊँचा नहीं उठा सका है कि वे कृषि क्षेत्र में पर्याप्त पूँजी निवेश कर सकें। इस संबंधी में सरकार की ग्रामीण साख नीति भी असफल रही है। जिसके कारण कृषि क्षेत्र पूँजी निवेश के अभाव से आज भी पीड़ित है। न तो कृषकों को पर्याप्त मात्रा में उत्तम बीज, रासायनिक उर्वरक, पौध संरक्षण रसायन तथा सिंचाई की सुविधाएँ प्राप्त हो सकी है और न ये सुविधायें समय पर उपलब्ध कराई जा सकी है। जिसके कारण आज भी कृषि क्षेत्र उपेक्षित है और कृषि उत्पादन निम्न बना हुआ है। यदि उपयुक्त मात्रा में तथा उपयुक्त समय पर कृषि आदानों की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके तो आज भी कृषि उत्पादन को और उच्च स्तर पर ले जाया जा सकता है।
ग. सामुदायिक विकास कार्यक्रम और प्रसार सेवाओं में वृद्धि :-
ग्रामीण विकास की समस्त जिम्मेदारी सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सौंप दी गई। सामुदायिक विकास का अभिप्राय है सामूहिक प्रयासों के जरिये सामूहिक उत्थान/सामुदायिक विकास के राष्ट्रीय कार्यक्रम को अमल में लाने के लिये सारे देश को 5026 विकासखंडों में बांट दिया गया था और प्रत्येक विकास खंड के लिये उपयुक्त उपरिढाँचे की व्यवस्था समुचित करने का प्रस्ताव था किंतु ऐसा संभव नहीं हो सका। कार्यक्रम की सफलता के लिये जिस मात्रा में संसाधनों की उपलब्धता की अपेक्षा थी वह संभव न हो सकी। इस कार्यक्रम को राष्ट्रीय स्तर पर लागू किया गया और यह विकास के साथ सामाजिक न्याय के उद्घोषित उद्देश्यों के अनुरूप था लेकिन इसके परिणाम बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं रहे। आवश्यकता इस बात की है कि जो भी कार्यक्रम निर्धारित किये जाये तथा उन कार्यक्रमों में जिस लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प लिया जाये उसे प्राप्त करने में गंभीर प्रयास किये जाने चाहिए। सभी ग्रामीण क्षेत्र के जीवन स्तर को ऊँचा उठाया जा सकता है।
घ. फसलों की अधिक तीव्रता :-
अध्ययन क्षेत्र में कृषि भूमि पर फसलों की तीव्रता तथा उनकी आवृत्ति पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। परंपरागत फसल चक्र में मोटे अनाजों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए जिन्हें भिन्न जलवायु की दशाओं में उगाई जा सकती है। फसल प्रतिरूप में परिवर्तन करके अल्पकालिक फसलों को वरीयता दी जानी चाहिए जिससे कृषक वर्ष में दो या दो से अधिक फसलें प्राप्त कर सकें और कृषि उत्पादकता में वृद्धि कर सकें।
य. न्यूनतम फसल कीमतों का निर्धारण :-
कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये न्यूनतम कीमतों की गारण्टी को विशेष महत्त्व दिया जाना चाहिए। यद्यपि इस संबंध में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की जा चुकी है। जिसने समय-समय पर सरकार को कृषि उपज मूल्य निर्धारण में महत्त्वपूर्ण सलाह दी है, परंतु यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सरकार यह जानते हुए भी कि कृषि क्षेत्र उद्योग क्षेत्र से भिन्न स्वभाव का है और कृषि क्षेत्र में कृषि उपज की लगभग संपूर्ण आपूर्ति थोड़े समय में ही हो जाती है, जिससे व्यापारियों द्वारा जान बूझकर बाजार मूल्य को नीचा रखा जाता है जिससे व्यापारी बिचौलिये की भूमिका में मोटा लाभ स्वयं हड़प कर जाता है, सरकार की घोषित मूल्य नीति का लाभ कृषकों तक सामान्यतया पहुँच ही नहीं पाता और यदि यह लाभ कृषक तक पहुँचता भी है तो अत्यल्प मात्रा में। सरकार को बाजार की इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही होगा, अन्यथा सरकार की कृषि मूल्य नीति कृषकों के हित में कम व्यापारियों का अधिक हित करती रहेगी।
कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ, शोध-प्रबंध 2002 (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) | |
1 | प्रस्तावना : कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ |
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7 | कृषकों का कृषि प्रारूप कृषि उत्पादकता एवं खाद्यान्न उपलब्धि की स्थिति |
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11 | कृषि उत्पादकता, पोषण स्तर एवं कुपोषण जनित बीमारियाँ : निष्कर्ष एवं सुझाव |
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