सरकार अब सिर्फ गेहूँ और धान की ही खरीद करती है। इस मामले में अन्य फसलें विशेष रूप से दलहन, तिलहन और कई और नकदी फसलें उपेक्षा का शिकार हैं। कृषि के लिए प्रभावी मूल्य नीति की विफलता महज उन सारी संस्थाओं की विफलता नहीं है, जिनके जिम्मे मूल्य स्थिरता को बनाए रखने का कार्य है, बल्कि यह सरकार की नीतियों की भी विफलता है जो कृषि उत्पादन के बदलते स्वरूप के साथ कदम मिलाने में अक्षम साबित हो रही हैं...सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मन्त्रालय के केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी नवीनतम आँकड़ों के अनुसार उपभोक्ता खाद्य मूल्य सूचकांक यानी सीएफपीआई पर आधारित महंगाई दर 6.79 फीसदी रही है। ग्रामीण क्षेत्रों के लिए यह दर 6.34 फीसदी आँकी गई है, जबकि शहरी क्षेत्रों के लिए यह 7.52 फीसदी रही है। तो वहीं थोक मूल्य मुद्रास्फीति यानी डब्ल्यूपीआई ऋणात्मक रही है जो कि शून्य से दो फीसदी कम है। डब्ल्यूपीआई का कम होना तो अच्छा प्रतीत होता है। यह गिरावट मौद्रिक और राजकोषीय प्रबन्धन के लिए अच्छी खबर हो सकती है, लेकिन यह कृषि व किसानों के लिए अच्छा संकेत नहीं है। ऐसे समय में जब किसानों की ज्यादातर फसलें बेमौसम बरसात की नजर हो गई हों, उस पर तुर्रा यह कि कृषि जिंसों की कीमतों में लगातार गिरावट देखी जा रही हो।
खाद्य मुद्रास्फीति में फल और सब्जी की मुद्रास्फीति का एक बड़ा हिस्सा होता है। अगर फल और सब्जी की मुद्रास्फीति की दर काफी ऊँची हो तो खाद्य मुद्रास्फीति ऊँची बनी रहेगी। सीएसओ के आँकड़ों के अनुसार, यह दर सोलह फीसदी पर बनी हुई है। यह तो सरकारी आँकड़े हैं। असलियत में खाद्य उत्पादों एवं फल और सब्जी की महंगाई की यह दर तो और भी ज्यादा होगी। खाने-पीने की वस्तुओं की बेकाबू महंगाई, यकीनन चिन्ता का कारण है। दूसरी ओर असमय बरसात से भी फल और सब्जी की पैदावार कम होगी, नतीजतन कीमतें और भी बढ़ सकती हैं। अब जबकि पेट्रोल उत्पादों की कीमतें, जो कई महीनों से कम हो रही थीं, फिर से बढ़ने लगी हैं, ऐसे में खाद्य मुद्रास्फीति और भी तेज रफ्तार के साथ बढ़ सकती है।
यह अजीब स्थिति है कि एक तरफ तो कृषि जिंसो की थोक मुद्रा स्फीति कम हो रही है, वहीं उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ रही है। मतलब यह कि एक तरफ तो खेती-किसानी अत्यन्त गैर-फायदेमन्द हो रही है, किसानों की कमर टूट रही है। दूसरी ओर, बढ़ती कीमतें आम उपभोक्ताओं की जेब काट रही हैं। लेकिन ज्यादा मार तो बेचारे उन करोड़ों सीमान्त जोत वाले किसानों पर पड़ती है, जो सिर्फ कृषि पर ही निर्भर रहते हैं, नकदी फसलों व खाद्यान्न की कम व अलाभकारी कीमतें उनको कहीं का नहीं छोड़तीं।
उच्च दर की खाद्य मुद्रास्फीति और उससे भी उच्चतम दर की फल और सब्जी मुद्रास्फीति चिन्ता का विषय है। अब सवाल उठता है कि यह कृषि मूल्य नीति की विफलता है या राजनीतिक विफलता। यकीनन यह दोनों विफलताएँ हैं कि मूल्य नीति तो विफल हुई ही है, साथ में राजनीतिक विफलता भी है। वह भी ऐसे समय में जब बड़े ही नियोजित तरीके से किसानों से उनकी जमीन कॉर्पोरेट को सौंपी जा रही हो। कृषि मूल्य नीति की विफलता एक राजनीतिक विफलता तो है ही, साथ में संस्थागत विफलता भी है। किसी भी संस्था की सफलता या विफलता इसको नियन्त्रित करने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति व वैचारिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है।
कीमत स्थिरीकरण तन्त्र को लगभग नाकाम कर दिया गया है। सरकार फल और सब्जियों सहित आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियन्त्रण नहीं करना चाहती। इससे खेतिहर मजदूरों-किसानों और आम उपभोक्ताओं की स्थिति बदतर होगी, मगर वहीं पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरेंगी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि काफी लम्बी अवधि से कीमतें निरन्तर ऊँचे स्तर पर बनी हुई हैं। नि:सन्देह इसको ऊँचा रखने में उत्पादक संघ, राजनेताओं, सट्टेबाजों और व्यापारियों का हाथ है। यह एक तरह से कृषि उपज विपणन समितियों की कमजोरी व विफलता है। यह स्थिति तब तक सुधारने वाली नहीं, जब तक इस संस्थागत कमी को दूर नहीं किया जाएगा और एपीएमसी व अन्य प्रणालियों को सुधारा नहीं जाएगा।
सरकार हर वर्ष कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसाओं, सम्बन्धित राज्य सरकारों और केन्द्रीय मन्त्रालयों-विभागों के विचारों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों के आधार पर बीस से ज्यादा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस प्रणाली से अभी तक सिर्फ चावल और गेहूँ की फसलों को ही कवर किया जा सका है।
1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए किया गया था।1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए किया गया था। इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, अधिप्राप्ति मूल्य व अन्य मूल्य उपकरणों का इस्तेमाल किया गया। कालान्तर में सीएसीपी और एमएसपी का हस्तक्षेप केवल चावल और गेहूँ के सरकारी खरीद तक महदूद हो कर रह गया। यह हस्तक्षेप भी इन दिनों दम तोड़ता नजर आता है। अन्तत: एमएसपी अब अधिप्राप्ति मूल्य तक ही सीमित हो गया है। सरकार अब सिर्फ गेहूँ और धान की ही खरीद करती है। इस मामले में अन्य फसलें विशेष रूप से दलहन, तिलहन और कई और नकदी फसलें उपेक्षा का शिकार हैं।
कृषि के लिए प्रभावी मूल्य नीति की विफलता महज उन सारी संस्थाओं की विफलता नहीं है, जिनके जिम्मे मूल्य स्थिरता को बनाए रखने का कार्य है, बल्कि यह सरकार की नीतियों की भी विफलता है जो कृषि उत्पादन के बदलते स्वरूप के साथ कदम मिलाने में अक्षम साबित हो रही हैं। भारतीय कृषि को अन्तरराष्ट्रीय बाजार व व्यापार के साथ सम्बद्ध करने से कृषि जिंसों पर न सिर्फ घरेलू माँग, आपूर्ति और विपणन बाधाओं का दबाव रहता है बल्कि अन्तरराष्ट्रीय कीमत में उतार-चढ़ाव का भी असर पड़ता है।
एक साल पहले चुनाव अभियानों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह स्वामीनाथन फॉर्मूले के आधार पर कृषि उपज को लाभकारी मूल्य प्रदान करेगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद न सिर्फ इसे वादे को पसे-पुश्त डाला गया बल्कि खाद्यान्नों की खरीद को भी कम कर दिया गया है। ऐसे समय में जब अन्तरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट से देश के बहुसंख्य किसानों की आजीविका पर बन आई हो। तो जरूरत इस बात की है कि एक प्रभावी संस्थागत तन्त्र विकसित किया जाए जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के लिए उचित मूल्य पर खाद्यान्न भी उपलब्ध कराए।
(लेखक जेएनयू, नई दिल्ली में अर्थशास्त्र के शोधार्थी हैं)
खाद्य मुद्रास्फीति में फल और सब्जी की मुद्रास्फीति का एक बड़ा हिस्सा होता है। अगर फल और सब्जी की मुद्रास्फीति की दर काफी ऊँची हो तो खाद्य मुद्रास्फीति ऊँची बनी रहेगी। सीएसओ के आँकड़ों के अनुसार, यह दर सोलह फीसदी पर बनी हुई है। यह तो सरकारी आँकड़े हैं। असलियत में खाद्य उत्पादों एवं फल और सब्जी की महंगाई की यह दर तो और भी ज्यादा होगी। खाने-पीने की वस्तुओं की बेकाबू महंगाई, यकीनन चिन्ता का कारण है। दूसरी ओर असमय बरसात से भी फल और सब्जी की पैदावार कम होगी, नतीजतन कीमतें और भी बढ़ सकती हैं। अब जबकि पेट्रोल उत्पादों की कीमतें, जो कई महीनों से कम हो रही थीं, फिर से बढ़ने लगी हैं, ऐसे में खाद्य मुद्रास्फीति और भी तेज रफ्तार के साथ बढ़ सकती है।
यह अजीब स्थिति है कि एक तरफ तो कृषि जिंसो की थोक मुद्रा स्फीति कम हो रही है, वहीं उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ रही है। मतलब यह कि एक तरफ तो खेती-किसानी अत्यन्त गैर-फायदेमन्द हो रही है, किसानों की कमर टूट रही है। दूसरी ओर, बढ़ती कीमतें आम उपभोक्ताओं की जेब काट रही हैं। लेकिन ज्यादा मार तो बेचारे उन करोड़ों सीमान्त जोत वाले किसानों पर पड़ती है, जो सिर्फ कृषि पर ही निर्भर रहते हैं, नकदी फसलों व खाद्यान्न की कम व अलाभकारी कीमतें उनको कहीं का नहीं छोड़तीं।
उच्च दर की खाद्य मुद्रास्फीति और उससे भी उच्चतम दर की फल और सब्जी मुद्रास्फीति चिन्ता का विषय है। अब सवाल उठता है कि यह कृषि मूल्य नीति की विफलता है या राजनीतिक विफलता। यकीनन यह दोनों विफलताएँ हैं कि मूल्य नीति तो विफल हुई ही है, साथ में राजनीतिक विफलता भी है। वह भी ऐसे समय में जब बड़े ही नियोजित तरीके से किसानों से उनकी जमीन कॉर्पोरेट को सौंपी जा रही हो। कृषि मूल्य नीति की विफलता एक राजनीतिक विफलता तो है ही, साथ में संस्थागत विफलता भी है। किसी भी संस्था की सफलता या विफलता इसको नियन्त्रित करने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति व वैचारिक प्रतिबद्धता पर निर्भर करती है।
कीमत स्थिरीकरण तन्त्र को लगभग नाकाम कर दिया गया है। सरकार फल और सब्जियों सहित आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियन्त्रण नहीं करना चाहती। इससे खेतिहर मजदूरों-किसानों और आम उपभोक्ताओं की स्थिति बदतर होगी, मगर वहीं पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरेंगी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि काफी लम्बी अवधि से कीमतें निरन्तर ऊँचे स्तर पर बनी हुई हैं। नि:सन्देह इसको ऊँचा रखने में उत्पादक संघ, राजनेताओं, सट्टेबाजों और व्यापारियों का हाथ है। यह एक तरह से कृषि उपज विपणन समितियों की कमजोरी व विफलता है। यह स्थिति तब तक सुधारने वाली नहीं, जब तक इस संस्थागत कमी को दूर नहीं किया जाएगा और एपीएमसी व अन्य प्रणालियों को सुधारा नहीं जाएगा।
सरकार हर वर्ष कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसाओं, सम्बन्धित राज्य सरकारों और केन्द्रीय मन्त्रालयों-विभागों के विचारों तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कारकों के आधार पर बीस से ज्यादा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इस प्रणाली से अभी तक सिर्फ चावल और गेहूँ की फसलों को ही कवर किया जा सका है।
1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए किया गया था।1965 में कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए किया गया था। इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य, अधिप्राप्ति मूल्य व अन्य मूल्य उपकरणों का इस्तेमाल किया गया। कालान्तर में सीएसीपी और एमएसपी का हस्तक्षेप केवल चावल और गेहूँ के सरकारी खरीद तक महदूद हो कर रह गया। यह हस्तक्षेप भी इन दिनों दम तोड़ता नजर आता है। अन्तत: एमएसपी अब अधिप्राप्ति मूल्य तक ही सीमित हो गया है। सरकार अब सिर्फ गेहूँ और धान की ही खरीद करती है। इस मामले में अन्य फसलें विशेष रूप से दलहन, तिलहन और कई और नकदी फसलें उपेक्षा का शिकार हैं।
कृषि के लिए प्रभावी मूल्य नीति की विफलता महज उन सारी संस्थाओं की विफलता नहीं है, जिनके जिम्मे मूल्य स्थिरता को बनाए रखने का कार्य है, बल्कि यह सरकार की नीतियों की भी विफलता है जो कृषि उत्पादन के बदलते स्वरूप के साथ कदम मिलाने में अक्षम साबित हो रही हैं। भारतीय कृषि को अन्तरराष्ट्रीय बाजार व व्यापार के साथ सम्बद्ध करने से कृषि जिंसों पर न सिर्फ घरेलू माँग, आपूर्ति और विपणन बाधाओं का दबाव रहता है बल्कि अन्तरराष्ट्रीय कीमत में उतार-चढ़ाव का भी असर पड़ता है।
एक साल पहले चुनाव अभियानों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राजग ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह स्वामीनाथन फॉर्मूले के आधार पर कृषि उपज को लाभकारी मूल्य प्रदान करेगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद न सिर्फ इसे वादे को पसे-पुश्त डाला गया बल्कि खाद्यान्नों की खरीद को भी कम कर दिया गया है। ऐसे समय में जब अन्तरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट से देश के बहुसंख्य किसानों की आजीविका पर बन आई हो। तो जरूरत इस बात की है कि एक प्रभावी संस्थागत तन्त्र विकसित किया जाए जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के लिए उचित मूल्य पर खाद्यान्न भी उपलब्ध कराए।
(लेखक जेएनयू, नई दिल्ली में अर्थशास्त्र के शोधार्थी हैं)
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