देश के विकास और प्रगति में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र का महत्त्वपूर्ण योगदान है। देश का आर्थिक व सामाजिक ढाँचा इसी पर टिका है। कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला है, यह न केवल देश की दो-तिहाई आबादी की रोजी-रोटी एवं आजीविका का प्रमुख साधन हैं, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और जीवन-शैली का आईना भी हैं।
देश में खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन, बागवानी, मुर्गी पालन, मछली पालन, वानिकी, रेशम कीट पालन, कुक्कुट पालन व बत्तख पालन आमदनी बढ़ाने का एक अहम हिस्सा बनता जा रहा है। देश की राष्ट्रीय आय का एक बड़ा हिस्सा कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों से प्राप्त होता है। देश के कुल निर्यात में 16 प्रतिशत हिस्सा कृषि से प्राप्त होता है। आज भी देश की लगभग आधी श्रमशक्ति कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में ही लगी हुई है। आर्थिक सर्वे में साल 2018-19 में देश की आर्थिक वृद्धि दर 7 से 7.5 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है।
कृषि सम्बन्धी आँकड़ों का अवलोकन करें तो कृषि विकास दर वर्ष 2016-17 में 4.9 प्रतिशत थी। वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों का देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 17.8 प्रतिशत योगदान है। किसी समय में आयात पर निर्भर रहने वाला भारत आज 27.568 करोड़ टन खाद्यान्नों का उत्पादन कर रहा है। भारत गेहूँ, धान, दलहन, गन्ना और कपास जैसी अनेक फसलों के चोटी के उत्पादकों में शामिल है। भारत इस समय दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सब्जी और फल उत्पादक देश बन गया है।
देश में 2.37 करोड़ हेक्टेयर में बागवानी फसलों की खेती की जाती है जिससे वर्ष 2016-17 में कुल 30.5 करोड़ टन बागवानी फसलों का उत्पादन हुआ है। भारत विश्व में मसालों का सबसे बड़ा उत्पादक व निर्यातक है। भारत की अर्थव्यवस्था में पशुपालन और डेयरी उद्योग का भी महत्वपूर्ण स्थान है। भारत 16.5 करोड़ टन के साथ विश्व दुग्ध उत्पादन में 19 प्रतिशत का योगदान देता है। कुक्कुट पालन में भारत विश्व में सातवें स्थान पर है। अण्डा उत्पादन में भारत का चीन और अमेरिका के बाद विश्व में तीसरा स्थान है। देश में 6 लाख टन माँस का कुक्कुट उद्योग उत्पादन करता है।
मुर्गी पालन बेरोजगारी घटाने के साथ देश की पौष्टिकता बढ़ाने का भी बेहतर विकल्प है। मौजूदा तौर पर भारत दुनिया का दूसरा बड़ा मछली उत्पादक देश है। वर्तमान स्थिति की बात करें तो मछली पालन की देश के सकल घरेलू उत्पादन में करीब एक प्रतिशत की हिस्सेदारी है। वर्ष 2015-16 में मछलियों का कुल उत्पादन 1.08 करोड़ टन था। भारत में खेती-किसानी आज भी जोखिम भरा व्यवसाय है जिसमें सालाना आमदनी मौसम पर निर्भर करती है। खेती में बढ़ती उत्पादन लागत व घटते मुनाफे के कारण युवाओं का झुकाव भी खेती की तरफ कम होता जा रहा है।
आज ग्रामीण क्षेत्रों से बड़े स्तर पर युवाओं का शहरों की ओर पलायन हो रहा है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि योग्य भूमि की कमी व कम आमदनी की वजह से रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। ऐसे में कृषि-आधारित व्यवसायों को रोजगार के विकल्प के रूप में अपनाया जा सकता है।
सरकारी प्रयास व योजनाएँ
किसानों की आय बढ़ाने व ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के लिये परम्परागत तकनीक के स्थान पर आधुनिक तकनीकों पर जोर दिया जा रहा है। अधिकांश सीमान्त और छोटे किसान पारम्परिक तरीके से खेती करते रहते हैं जिस कारण खेती की लागत निकाल पाना भी मुश्किल हो जाता है।
देश के विभिन्न भागों में पिछले कुछ समय से किसानों का कहना है कि खाद, उर्वरक, बीज, डीजल, बिजली और कीटनाशकों के महँगे होते जाने से खेती की लागत बढ़ती जा रही है साथ ही हमें उपज का सही मूल्य नहीं मिल रहा है। इस समस्या के समाधान हेतु बजट 2018-19 में सरकार ने किसानों को उत्पादन लागत का डेढ़ गुना कीमत देना तय किया है। इसके अलावा खेती को मजबूत करने व किसानों को उनकी उपज का बेहतर मूल्य दिलाने की दिशा में सरकार ने हाल ही में कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं व प्रौद्योगिकियों जैसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि, आई.सी.टी तकनीक, राष्ट्रीय कृषि बाजार, ई-खेती व किसान मोबाइल एप आदि की शुरुआत की है।
आज सरकार फसलों का उत्पादन बढ़ाने, खेती की लागत कम करने, फसल उत्पादन के बाद होने वाले नुकसान को कम करने और खेती से जुड़े बाजारों का सुधार करने पर जोर दे रही है किसानों के हित में आलू, प्याज और टमाटर की कीमतों में उतार-चढ़ाव की समस्या से बचने के लिये ‘अॉपरेशन ग्रीन’ नामक योजना शुरू की गई है। आज भारतीय किसानों के समक्ष सबसे गम्भीर समस्या उत्पादन का सही मूल्य न मिलना है। बिचौलियों और दलालों के कारण किसानों को अपने कृषि उत्पाद बहुत कम दामों में ही बेचने पड़ते हैं। चूँकि कई कृषि उत्पाद जैसे सब्जियाँ, फल-फूल, दूध और दुग्ध पदार्थ बहुत जल्दी खराब हो जाते हैं। इन्हें लम्बे समय तक संग्रह करके नहीं रखा जा सकता है। न ही किसानों के पास इन्हें संग्रह करने की सुविधा होती है।
राष्ट्रीय-स्तर पर छोटे और सीमान्त किसानों की संख्या 86 प्रतिशत से अधिक है। इनके लिये थोक मंडियों तक पहुँचना आसान नहीं है। मंडियाँ दूर होने की वजह से वे अपनी उपज आसपास के बिचौलियों व व्यापारियों के हाथों बेचने के लिये मजबूर होते हैं। ऐसे में सरकार ने स्थानीय मंडियों व ग्रामीण हाटों को विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया है।
हाल ही में पशुपालन एवं डेयरी विकास को बढ़ावा देने के लिये कई राज्यों में पशुपालन एवं डेयरी विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है। इसके अलावा कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों के विकास के लिये झारखण्ड एवं असम में पूसा संस्थान, नई दिल्ली की तर्ज पर भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थानों की स्थापना का कार्य प्रगति पर है। वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए केन्द्र सरकार मछली उत्पादन बढ़ाने के लिये जरूरी बुनियादी सुविधाएँ विकसित करने पर जोर दे रही है जिससे मछलियों के भण्डारण और विपणन में आसानी हो और मत्स्य पालन एक फायदे का सौदा साबित हो सके।
कृषि और इससे सम्बन्धित व्यवसायों की हालत में सुधार व इनको अपनाते समय निम्नलिखित मुख्य बातों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए ताकि इनसे भरपूर आय हो सके।
1. किसानों की आय में बढ़ोत्तरी हो।
2. कृषि जोखिम में कमी हो।
3. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़े।
4. कृषि क्षेत्र का निर्यात बढ़े।
5. ग्रामीण जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो।
6. इसके अलावा कृषि का बुनियादी ढाँचा विकसित हो।
उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुये ग्रामीणों किसानों व पशुपालकों की आय बढ़ाने के लिये देश में कृषि व्यवसायों के अनेक विकल्प हैं जिन्हें अपनाकर किसान भाई अपनी आय बढ़ाने के साथ-साथ अपना जीवन-स्तर भी ऊँचा कर सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों में दूसरे उद्योगों की भाँति कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में भी काफी सुधार हुआ है। प्रत्येक फसल हेतु नई-नई तकनीकियाँ एवं उन्नत प्रजातियाँ विकसित की गई हैं। परिणामस्वरूप किसानों की आय में वृद्धि हुई है। इन व्यवसायों हेतु पूँजी व्यवस्था करने व संसाधन जुटाने में सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं द्वारा अलग-अलग तरीके से सहायता दी जा रही है। इन व्यवसायों से बड़े उद्योगों की अपेक्षा प्रति इकाई पूँजी द्वारा अधिक लाभ तो कमाया ही जा सकता है। साथ ही, यह व्यवसाय रोजगारपरक भी होते हैं। कृषि एवं इससे सम्बन्धित निम्नलिखित व्यवसायों द्वारा किसानों की आय व ग्रामीण युवाओं के लिये रोजगार के अवसर बढ़ा सकते हैं जिनमें से कुछ का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है।
पशुपालन एवं डेयरी उद्योग
पशुपालन एवं डेयरी उद्योग भारतीय कृषि का अभिन्न अंग हैं। भूमिहीन श्रमिकों, छोटे किसानों व बेरोजगार ग्रामीण युवाओं के लिये पशुपालन एक अच्छा व्यवसाय है। भारतीय कृषि में खेती और पशु शक्ति के रिश्ते को अलग-अलग कर पाना अभी तक एक कल्पना मात्र ही थी। मगर आज के मशीनीकृत युग में इस कल्पना को भी एक जगह मिलने लगी है। अगर इसे रोजगार की दृष्टि से देखें तो खेती और पशुपालन एक-दूसरे के अनुपूरक व्यवसाय ही हैं जिसमें कृषि की लागत का एक हिस्सा तो पशुओं से प्राप्त हो जाता है तथा पशुओं का चारा आदि फसलों से मिल जाता है। इस प्रकार खेती की लागत बचने के साथ-साथ पशुओं से दूध भी प्राप्त हो जाता है जिस पर पूरा डेयरी उद्योग ही टिका हुआ है; जिसमें दूध के परिरक्षण व पैकिंग के अलावा इससे बनने वाले विभिन्न उत्पादों जैसे कि दूध का पाउडर, दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर आदि के निर्माण व विपणन में संलग्न छोटे स्तर की डेरियों से लेकर अनेक राज्यों के दुग्ध संघों एवं राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड जैसे संस्थानों द्वारा हजारों-लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त हो रहा है। पशुपालन के विस्तार से रोजगार बढ़ने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं।
पशुओं से प्राप्त दूध एवं पशु शक्ति के विभिन्न उपयोगों के अलावा उनके गोबर से प्राप्त गोबर गैस को भी हम विभिन्न कार्यों के लिये उपयोग कर सकते हैं। इसके अलावा पशुओं के बाल, उनके माँस चमड़े एवं हड्डी पर आधारित उद्योगों द्वारा रोजगार बढ़ाने की प्रबल सम्भावनाएँ हैं। दूध के प्रसंस्करण व परिरक्षरण से उसका मूल्य संवर्धन किया जा सकता है जिससे कम पूँजी लगाकर स्वरोजगार प्राप्त किया जा सकता है। पशुपालन व डेयरी उद्योग के बारे में तकनीकी जानकारी व अल्पकालीन प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय; राष्ट्रीय डेयरी अनुसन्धान संस्थान, करनाल; केन्द्रीय भैंस अनुसन्धान संस्थान, हिसार; राष्ट्रीय ऊँट अनुसन्धान केन्द्र, बीकानेर; राष्ट्रीय माँस अनुसन्धान केन्द्र, हैदराबाद तथा राष्ट्रीय पशु परियोजना निदेशालय, हैदराबाद व मेरठ से सम्पर्क किया जा सकता है।
मुर्गीपालन
चिकन, माँस व अण्डों की उपलब्धता के लिये व्यावसायिक-स्तर पर मुर्गी और बत्तख पालन को कुक्कुट पालन कहा जाता है। भारत में विश्व की सबसे बड़ी कुक्कुट आबादी है जिसमें अधिकांश कुक्कुट आबादी छोटे, सीमान्त और मध्यम वर्ग के किसानों के पास है। भूमिहीन किसानों के लिये मुर्गीपालन रोजी-रोटी का मुख्य आधार है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में कुक्कुट पालन से अनेक फायदे हैं जैसे किसानों की आय में बढ़ोत्तरी देश के निर्यात व जीडीपी में अधिक प्रगति तथा देश में पोषण व खाद्य सुरक्षा की सुनिश्चितता आदि।
कुक्कुट पालन का उद्देश्य पौष्टिक सुरक्षा में माँस व अण्डों का प्रबन्धन करना है। मुर्गीपालन बेरोजगारी घटाने के साथ देश में पौष्टिकता बढ़ाने का भी बेहतर विकल्प है चूँकि वर्तमान बाजार परिदृश्य में कुक्कुट उत्पाद उच्च जैविकीय मूल्य के प्राणी प्रोटीन के सबसे सस्ते उत्पाद हैं। लेकिन देश में अभी इनका सर्वथा अभाव प्रकट हो रहा है क्योंकि माँग के अनुपात में इनकी उपलब्धता बहुत कम है। निरन्तर बढ़ती आबादी, खाद्यान्न आदतों में परिवर्तन, औसत आय में वृद्धि, बढ़ती स्वास्थ्य सचेतता व तीव्र शहरीकरण कुक्कुट पालन के भविष्य को स्वर्णिम बना रहे हैं।
आज के आधुनिक युग में मांसाहारी वर्ग के साथ-साथ शाकाहारी वर्ग भी अण्डों का बेहिचक उपयोग करने लगा है जिससे मुर्गीपालन व्यवसाय के बढ़ने की सम्भावनाएँ प्रबल होती जा रही हैं। इसके अलावा चिकन प्रसंस्करण को व्यावसायिक स्वरूप देकर विदेशी मुद्रा भी अर्जित की जा सकती है। कृषि से प्राप्त उप-उत्पादों को मुर्गियों की खुराक के रूप में उपयोग करके इस व्यवसाय से रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। इस व्यवसाय की शुरुआत के लिये भूमिहीन ग्रामीण बेरोजगार बैंक से ऋण लेकर कम पूँजी से अपना व्यवसाय प्रारम्भ कर सकते हैं तथा अण्डों के साथ-साथ चिकन प्रसंस्करण करके भी स्वरोजगार प्राप्त कर सकते हैं। मुर्गीपालन के लिये स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय; मुर्गी परियोजना निदेशालय, हैदराबाद; केन्द्रीय पक्षी अनुसन्धान संस्थान इज्जतनगर, बरेली तथा भारतीय पशु चिकित्सा अनुसन्धान संस्थान इज्जतनगर से सम्पर्क किया जा सकता है।
सुअर पालन
कई विदेशी सुअर की अच्छी नस्लें जैसे यार्कशायर, बर्कशायर एवं हैम्पशायर का उपयोग एकीकृत खेती में कर अधिक लाभ कमाया जा सकता है। सुअर पालन के लिये जमीन की बहुत कम आवश्यकता होती है। साथ ही बहुत कम पूँजी में इस व्यवसाय की शुरुआत की जा सकती है। चूँकि एक मादा सुअर एक बार में 10 से 12 बच्चों तक को जन्म दे सकती है। इसलिये सुअर पालन व्यवसाय का विस्तार बहुत ही शीघ्र किया जा सकता है।
सुअरों के राशन हेतु बेकरी एवं होटलों आदि के बचे हुए तथा कुछ खराब खाद्य पदार्थों का उपयोग कर सकते हैं। अन्य पशुओं की अपेक्षा प्रति इकाई राशन से सुअरों का वजन भी सबसे अधिक बढ़ता है जिससे लागत के अनुपात में आय अधिक होती है। अतः यह एक लाभकारी व्यवसाय है जिसको अपनाकर किसान भाई अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। सुअर पालन के बारे में तकनीकी जानकारी व प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये राष्ट्रीय सुअर अनुसन्धान केन्द्र, रानी, गुवाहाटी से सम्पर्क किया जा सकता है।
मछली पालन
भारत में खारे जल की समुद्री मछलियों के अलावा ताजे पानी में भी मछली पालन किया जाता है। पश्चिम बंगाल, उड़ीसा आन्ध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु में पारम्परिक तरीके से छोटे-छोटे तालाबों में मछली पालन किया जाता है। मगर भूमि के एक छोटे से टुकड़े में तालाब बनाकर या तालाब को किराये पर लेकर भी व्यावसायिक ढंग से मछली पालन किया जा सकता है।मछली उद्योग से जुड़े अन्य कार्यों जैसे कि मछलियों का श्रेणीकरण एवं पैकिंग करना, उन्हे सुखाना एवं उनका पाउडर बनाना तथा बिक्री करने आदि से काफी लोगों को रोजगार प्राप्त हो सकता है।
मछली पालन में पूँजी की अपेक्षा श्रम का अधिक महत्त्व होता है। अतः इस उद्योग में लागत की तुलना में आमदनी अधिक होती है। मछली उद्योग के बारे में तकनीकी जानकारी व प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिये स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय; ताजे जल वाली मछलियों के केन्द्रीय अनुसन्धान संस्थान, भुवनेश्वर; केन्द्रीय अन्तर्स्थलीय मत्स्य अनुसन्धान संस्थान, बैरकपुर; केन्द्रीय मत्स्य शिक्षा अनुसन्धान संस्थान, मुम्बई तथा केन्द्रीय मत्स्य तकनीकी संस्थान, कोचीन से सम्पर्क किया जा सकता है।
भेड़-बकरी पालन
भूमिहीन बेरोजगारों के लिये भेड़ व बकरियों का पालन एक अच्छा व्यवसाय है। इस व्यवसाय को कम पूँजी से भी प्रारम्भ किया जा सकता है। इसलिये बकरियों को ‘गरीब की गाय’ कहा जाता है। बकरियों को चराने मात्र से ही उनका पेट भरा जा सकता है। गाय-भैसों से अलग, बकरी से जब चाहों तब दूध निकाल लो, इसी कारण इसे चलता-फिरता फ्रिज भी कहा जाता है। भेड़ तथा बकरियों के माँस पर किसी भी प्रकार का धार्मिक प्रतिबन्ध भी नहीं है। इसके अलावा भेड़ को ऊन उद्योग की रीढ़ की हड्डी माना जाता है।
माँस, ऊन तथा चमड़ा उद्योग के लिये कच्चे माल का स्रोत होने के कारण इस व्यवसाय के द्वारा रोजगार की प्रबल सम्भावनाएँ हैं। साथ ही वैज्ञानिक ढंग से इनका पालन करने से अच्छी आय प्राप्त की जा सकती है। भेड़-बकरी पालन के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिये केन्द्रीय भेड़ एवं ऊन अनुसन्धान संस्थान, अविकानगर, जयपुर तथा केन्द्रीय बकरी अनुसन्धान संस्थान मथुरा से सम्पर्क किया जा सका है।
मशरूम की खेती
हमारे स्वास्थ्य के लिये सन्तुलित भोजन में प्रोटीन का विशेष महत्त्व है। मशरूम इसका एक अच्छा स्रोत माना जाता है। मशरूम की खेती के लिये न तो ज्यादा जमीन की और न ही अधिक पूँजी की जरूरत होती है। मात्र छप्पर के शेड में भी मशरूम की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। पौष्टिकता की दृष्टि से मशरूम की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इस कारण मशरूम की खेती से रोजगार प्राप्त करके अच्छा लाभ कमाया जा सकता है। हालांकि इस व्यवसाय के लिये तकनीकी ज्ञान होना अति आवश्यक है जिससे कि खाद्य मशरूमों की पहचान के साथ-साथ उन्हें अवांछनीय मशरूमों व अन्य सूक्ष्म जीवों के सक्रमण से बचाया जा सके।
मशरूम की खेती के लिये स्पॉन बीज की जानकारी हेतु बागवानी भवन एन.एच.आर.डी.एफ 47 पंखा रोड़, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058 फोन 011-28522211 से सम्पर्क करें या स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय तथा राष्ट्रीय मशरूम केन्द्र चम्बाघाट, सोलन-173213 हिमाचल प्रदेश फोन 01792-230451, वेबसाइट, www.nrcmushroom.org से सम्पर्क किया जा सकता है।
बागवानी फसलों की खेती
बागवानी फसलों की खेती से रोजगार के अवसर बढ़े हैं। साथ ही लघु और सीमान्त किसानों की आय में वृद्धि हो रही है। सब्जियाँ अन्य फसलों की अपेक्षा प्रति इकाई क्षेत्र से कम समय में अधिक पैदावार देती है। साथ ही ये कम समय में तैयार हो जाती हैं। फलों में केला, नींबू व पपीता तथा फूलों सब्जियों एवं पान की खेती के लिये अपेक्षाकृत कम जमीन की आवश्यकता होती है। साथ ही जमीन की तुलना में रोजगार काफी लोगों को उपलब्ध हो जाता है। इसके अलावा, इन वस्तुओं की दैनिक एवं नियमित माँग अधिक होने के कारण इनकी खेती से लागत की तुलना में आमदनी अधिक होती है।
चूँकि फल, फूल व सब्जियों की खेती से प्राप्त होने वाले उत्पादों की तुड़ाई, कटाई, छंटाई श्रेणीकरण, पैकिंग से लेकर विपणन तक के अधिकतर कार्यों में मानव श्रम की आवश्यकता अधिक होती है। इसलिये इस क्षेत्र से ग्रामीणों को रोजगार मिलने की भी अधिक सम्भावना है। रोजगार मिलने के साथ-साथ फल फूलों व सब्जियों की छंटाई, श्रेणीकरण पैकिंग आदि से इन उत्पादों की गुणवत्ता को बढ़ाकर अधिकतम लाभ भी कमाया जा सकता है। बागवानी फसलों के बारे में किसी भी प्रकार की तकनीकी जानकारी भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान नई दिल्ली, भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान, बंगलुरु, भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी; राष्ट्रीय अनार अनुसन्धान केन्द्र सोलापुर; राष्ट्रीय अंगूर अनुसन्धान केन्द्र, नागपुर; राष्ट्रीय बागवानी बोर्ड, गुरुग्राम, हरियाणा से प्राप्त की जा सकती है।
कृषि उत्पादों का मूल्य संवर्धन
फसलों से प्राप्त उत्पादों के प्रसंस्करण व परिरक्षण से उनका मूल्य संवर्धन किया जा सकता है जैसे कि मूँगफली से भुने हुए नमकीन दानें, चिक्की,दूध व दही बनाना; सोयाबीन से दूध व दही बनाना; फलों से शर्बत, जैम, जेली व स्क्वैश बनाना, आलू व केले से चिप्स बनाना; गन्ने से गुड़ बनाना, गुड़ के शीरे व अंगूर से शराब व अल्कोहल बनाना विभिन्न तिलहनों से तेल निकालना, दलहनी उत्पादों से दालें बनाना, धान से चावल निकालना आदि। इसके अलावा दूध के परिरक्षण व पैकिंग के साथ-साथ इससे बनने वाले विभिन्न उत्पादों जैसे कि दूध का पाउडर, दही, छाछ, मक्खन, घी, पनीर आदि के द्वारा दूध का मूल्य संवर्धन किया जा सकता है।
फूलों से सुगन्धित इत्र बनाना, लाख से चूड़ियाँ तथा खिलौने बनाना, कपास के बीजों से रुई अलग करना व पटसन से रेशे निकालने के अलावा कृषि के विभिन्न उत्पादों से अचार एवं पापड़ बनाना आदि के द्वारा मूल्य संवर्धन किया जा सकता है इस प्रकार कम पूँजी लगाकर स्वरोजगार प्राप्त करने के साथ-साथ आय में भी इजाफा किया जा सकता है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग ज्यादातर श्रम आधारित होता है। इसे निर्यात का प्रमुख उद्योग बनाकर कामगारों के लिये रोजगार के काफी अवसर पैदा किये जा सकते हैं।
फसल उत्पादों के मूल्य संवर्धन हेतु जानकारी प्राप्त करने के लिये कटाई उपरान्त प्रौद्योगिकी संस्थान, लुधियाना; केन्द्रीय कृषि अभियंत्रण संस्थान, भोपाल; केन्द्रीय आलू अनुसन्धान संस्थान, शिमला; राष्ट्रीय मूँगफली अनुसन्धान केन्द्र जूनागढ़; भारतीय दलहन अनुसन्धान संस्थान, कानपुर; भारतीय गन्ना अनुसन्धान संस्थान, लखनऊ; राष्ट्रीय सोयाबीन अनुसन्धान केन्द्र, इन्दौर; केन्द्रीय चावल अनुसन्धान संस्थान, कटक; से सम्पर्क किया जा सकता है।
कृषि-आधारित कुटीर उद्योग-धन्धे
ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन व आय बढ़ाने में कुटीर उद्योगों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कृषि पर आधारित कुटीर उद्योगों द्वारा ग्रामीण युवकों को कम पूँजी से भी रोजगार मिल सकता है। कृषि पर आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों हेतु संसाधन जुटाने के लिये पूँजी व्यवस्था करने में ग्रामीण बैंकों के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की कृषि विकास शाखाओं एवं सहकारी समितियों का बहुत बड़ा योगदान होता है। इन संस्थानों के माध्यम से कृषि पर आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों को आरम्भ करने हेतु सरकार द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के तहत ग्रामीण बेरोजगारों को कम ब्याज दर तथा आसान किश्तों पर ऋण दिया जा रहा है।
कृषि पर आधारित कुटीर उद्योग-धन्धों में बाँस अरहर तथा कुछ अन्य फसलों एवं घासों के तनों एवं पत्तियों द्वारा डलियाँ, टोकरियाँ, चटाइयाँ, टोप व टोपियाँ तथा हस्तचालित पंखे बुनना, मूंज से रस्सी व मोढ़े बनाना, बेंत से कुर्सी व मेज बनाना आदि प्रमुख हैं। इनके अलावा रूई से रजाई-गद्दे व तकिये बनाने के अलावा सूत बनाकर हथकरघा निर्मित सूती कपड़ा बनाने, जूट एवं पटसन के रेशे से विभिन्न प्रकार के थैले टाट निवाड़ व गलीचों की बुनाई करने जैसे कुटीर उद्योगों को अपनाया जा सकता है।
लकड़ी का फर्नीचर बनाना, स्ट्रा बोर्ड, कार्ड बोर्ड व सॉफ्टबोर्ड बनाना तथा साबुन बनाना आदि कुछ अन्य कुटीर उद्योगों द्वारा भी आय व रोजगार के साधन बढ़ाये जा सकते हैं। कुटीर उद्योगों के बारे में जानकारी हेतु केन्द्रीय कपास तकनीकी अनुसन्धान संस्थान, मुम्बई तथा जूट एवं अन्य रेशों के लिये केन्द्रीय जूट अनुसन्धान संस्थान, बैरकपुर से सम्पर्क करें।
बीज उत्पादन एवं नर्सरी
फल, फूलों एवं सब्जियों के बीज प्रायः अत्यन्त छोटे होते हैं जो बिना उपचार के नहीं उगते हैं कुछ का तो सिर्फ वानस्पतिक वर्धन ही किया जा सकता है। इसलिये बाग-बगीचों एंव पुष्प वाटिकाओं में फल, फूलों एवं शोभाकारी पेड़-पौधों के साथ बागवानी की अन्य फसलों के लिये सामान्यतः बीजों की सीधी बुवाई न करके नर्सरी में पहले उनकी पौध तैयार करते हैं। इसके बाद उनका खेत में रोपण करते हैं।
जिन ग्रामीण बेरोजगारों के पास जमीन और पूँजी की कमी है, वे इस व्यवसाय को अपनाकर बहुत अच्छा लाभ कमाने के साथ-साथ अन्य लोगों को भी रोजगार उपलब्ध करवा सकते हैं। नर्सरी में पौध तैयारी करने के लिये कई तकनीकों का प्रयोग करना पड़ता है। अतः इस कार्य हेतु व्यक्ति का दक्ष एवं प्रशिक्षित होना जरूरी है। साथ ही पढ़े-लिखे युवा सब्जी बीज उत्पादन को एक व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी आमदनी भी बढ़ा सकते हैं। फल, फूलों एवं सब्जियों के बीज उत्पादन हेतु स्थानीय कृषि विश्वविद्यालय; भारतीय बागवानी अनुसन्धान संस्थान, बंगलुरु तथा भारतीय सब्जी अनुसन्धान संस्थान, वाराणसी से जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
मधुमक्खी पालन
मधुमक्खी पालन कृषि आधारित व्यवसाय है। शहद और इसके उत्पादों की बढ़ती माँग के कारण मधुमक्खी पालन एक लाभदायक और आकर्षक व्यवसाय बनता जा रहा है। मधुमक्खी पालन में कम समय कम लागत व कम पूँजी निवेश की जरूरत होती है। मधुमक्खी पालन फसलों के परागण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस तरह मधुमक्खी पालन फार्म पर फसलों की उत्पादकता बढ़ाने में भी सहायक है।
मधुमक्खी पालन के लिये सरकार की ओर से समय-समय पर अनेक योजनाएँ चलाई जाती हैं। इसमें मधुमक्खी पालन करने वालों को प्रशिक्षण के साथ-साथ ऋण की भी सुविधा मिलती है। मधुमक्खी पालन के बारे में अधिक जानकारी के लिये भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली के कीट विज्ञान सम्भाग 011-25842482 से या अपने गृह जिले के कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क किया जा सकता है।
औषधीय एवं सुगन्धीय पौधों की खेती
देश में आजकल दवाइयों के लिये औषधीय पौधों और फल-फूल इत्यादि की खेती कारोबार के लिये की जा रही है। लहसुन, प्याज, अदरक, करेला, पुदीना और चौलाई जैसी सब्जियाँ पौष्टिक होने के साथ-साथ औषधीय गुणों से भी भरपूर हैं। इनसे कई तरह की आयुर्वेदिक औषधि व खाद्य पदार्थ बनाकर किसान अपनी आमदनी बढ़ा सकते हैं। सुगन्धित पादपों के बारे में अधिक जानकारी के लिये राष्ट्रीय औषधीय एवं सुगन्धित पादप अनुसन्धान केन्द्र, बोरयावी आनन्द या अपने गृह जिले के कृषि विज्ञान केन्द्र से सम्पर्क किया जा सकता है।
उपरोक्त जानकारी के आधार पर कोई भी किसान यह निर्णय कर सकता है कि कृषि व इससे सम्बन्धित व्यवसायों में से अपनी परिस्थिति के अनुसार वह कौन से व्यवसाय को अपनाकर अपनी जीविका चलाने के साथ-साथ लाभ भी कमा सकता है। इसके अलावा सरकार द्वारा कौन-कौन सी सुविधाएँ व अनुदान उपलब्ध कराये जा रहे हैं, आदि जानकारियों का लाभ उठाकर किसान भाई स्वरोजगार की तरफ उन्मुख हो सकते हैं।
(लेखक जल प्रौद्योगिकी केन्द्र, भारतीय कृषि अनुसन्धान संस्थान, नई दिल्ली में कार्यरत हैं।)
ई-मेल: v.kumarnovod@yahoo.com
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