कृषि प्रधान देश में उपेक्षित कृषक

भारत की तकरीबन 68 फीसदी आबादी गाँवों में निवास करती है और वह खेती में संलग्न है। कृषि ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई है। भारतीय कृषि का सारा दारोमदार कृषकों के कन्धों पर टिका हुआ है। इसके लिए कृषक सुबह से शाम तक खेतों में जीतोड़ मेहनत करता है। लेकिन विडम्बना देखिए कि हमारे देश में दूसरों का पेट भरने वाले अन्नदाता किसान को ही अपना पेट भरने के लिए दो जून की रोटी नसीब नहीं हो पाती है। प्रत्येक वर्ष 23 दिसम्बर को खेती एवं खेतिहारों से अत्यधिक लगाव रखने वाले पूर्व प्रधानमन्त्री चौधरी चरण सिंह की स्मृति में किसान दिवस मनाया जाता है। यह दिवस आज केवल औपचारिकता का प्रतीक बन गया है क्योंकि इस दिन किसानों के हित में सिर्फ बड़े-बड़े वादे किये जाते हैं लेकिन उन्हें कभी भी पूरा नहीं किया जाता। यह सार्वभौमिक सत्य है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है।

भारत की तकरीबन 68 फीसदी आबादी गाँवों में निवास करती है और वह खेती में संलग्न है। कृषि ही हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनी हुई है। भारतीय कृषि का सारा दारोमदार कृषकों के कन्धों पर टिका हुआ है। इसके लिए कृषक सुबह से शाम तक खेतों में जीतोड़ मेहनत करता है। लेकिन विडम्बना देखिए कि हमारे देश में दूसरों का पेट भरने वाले अन्नदाता किसान को ही अपना पेट भरने के लिए दो जून की रोटी नसीब नहीं हो पाती है।

तरक्की एवं विकास के तमाम दावों के बावजूद भी अगर किसान विपन्न हो और उसे कर्ज के बोझ व प्रकृति की मार के कारण आत्महत्या करनी पड़ रही हो तो कृषि की दुरावस्था का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

1990 के दशक से भारत में गरीबी और आर्थिक कमजोरी के कारण किसानों की आत्महत्या की रिपोर्टें प्रकाशित होना शुरू हुई थीं और यह अब तक थमी नहीं हैं। आर्थिक तंगी के चलते मुख्य रूप से महाराष्ट्र आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान, हरियाणा किसानों की आत्महत्या का केन्द्र बनते गए।

कृषि मंत्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकडों के मुताबिक, साल 2009 में 17,368, साल 2010 में 15,694, साल 2011 में 14,027, साल 2013 में 11,772 किसानों के आत्महत्या की सूचना मिली। इनमें से कृषि वजहों से साल 2009 में 2,577, 2010 में 2,359, 2011 में 2,449, 2012 में 918 और साल 2013 में 510 आत्महत्या के मामले सामने आए हैं।

दिन प्रतिदिन खेती घाटे का सौदा साबित होती जा रही है। आज किसान खेतों में अपने श्रम को छोड़कर जो पूँजी लगाता है वही निकल आए तो बड़ी बात होती है लाभ तो दूर की बात है। सिंचाई के साधनों की समस्या और बीजों एवं उर्वरकों के आसमान छूते दामों ने तो किसानों की कमर ही तोड़ कर रख दी है। यही सब कारण है भारत के लोग अब कृषि कार्य से मुँह मोड़ते जा रहे हैं।

आजादी के बाद से आज तक कृषि क्षेत्र सरकार द्वारा हमेशा ही उपेक्षित रही है। पंचवर्षीय योजनाओं में भी कृषि उपेक्षित रही। भारत में कृषि की कीमत पर औद्योगिक विकास को तरजीह दी गईं। लेकिन अब देश के नीति निर्माताओं को यह अच्छी तरह से समझना होगा कि औद्योगीकरण से देश का पेट नहीं भरने वाला है।

यह अकसर देखा गया है कि देश सबसे बड़ी पंचायत में पहुँचने वाले अधिकांश जनप्रतिनिधि अपने आपको कृषि व्यवसाय से जुड़ा हुआ दर्शाते हैं। लेकिन इसके बाद भी वे कृषि एवं कृषकों के सुधार हेतु कोई कदम नहीं उठाते।

लोकसभा व राज्यसभा के वर्तमान सदस्यों में आधे से ज्यादा लोगों के पास खेती है। कृषि से जुड़े लोगों के निरन्तर संसद में रहने के बावजूद न तो सिंचाई सुविधाओं का पर्याप्त विस्तार हुआ, न कृषि उपजों को उचित दाम मिला और न ही आधुनिक तकनीक से कृषि करने में किसान समर्थ हो पाया। कारण साफ है कि किसान होने के बावजूद सांसदों ने कृषि के बारे में सोचा ही नहीं।

किसानों के लिए आन्दोलन भी उभरे लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। शरद जोशी, महेन्द्र सिंह टिकैत ने किसानों के अधिकारों के लिए लम्बा संघर्ष किया। उनका आन्दोलन देश के कई राज्यों में भी फैला। शरद जोशी और टिकैत ने अपने-अपने राज्यों में किसानों को संगठित कर उन्हें पहली बार निर्णायक राजनीतिक शक्ति बनाया।

कालान्तर में जोशी और टिकैत के आन्दोलन राजनीति की भेंट चढ़ गए तथा कृषि क्षेत्र और किसान बदहाल ही रहा। किसान आत्महत्या के मामले नियंत्रित नहीं हो पा रहे हैं और उनकी कोई खैरखबर पूछने वाला भी नहीं है। आज अनेक कारणों से देश के किसानों को आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

प्राकृतिक आपदाओं की मार भी इन किसानों को झेलनी पड़ती है। कभी अत्यधिक बारिश तो कभी बारिश की कमी से फसलों को काफी नुकसान पहुँचता है, ऐसे में पूरे देश पर इसका असर पड़ता है। खेती चौपट होने से देश के नागरिकों को जहाँ महँगाई का सामना करना पड़ता है, वहीं किसानों को भी आर्थिक रूप से नुकसान उठाना पड़ता है। कुल मिलाकर यदि देश का किसान परेशान है तो देश के लोगों पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ता है।

प्राकृतिक आपदा आने पर किसानों की सबसे ज्यादा फजीहत होती है।किसानों को उतना मुआवजा नहीं मिल पाता है जितना कि उनका नुकसान होता है। कई बार संसद में भी किसानों की बातों को नहीं उठाया जाता है। ऐसे मौके पर किसानों की हमेशा से एक ही शिकायत रहती है कि जितना नुकसान होता है, उतना मुआवजा नहीं मिल पाता है। प्राकृतिक आपदा ही नहीं बल्कि ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनका निराकरण नहीं हो पाता है।

आज भी कई किसान ऐसे हैं जो पुराने ढर्रे पर ही खेती करते हैं, ऐसे में वे उतनी पैदावार नहीं ले पाते हैं, जितनी कि होनी चाहिए। पैसे के अभाव में आज भी कई किसान आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। उन्नत किस्म की खाद व बीज की किल्लत तो हमेशा ही बनी रहती है। बुवाई के बाद खेती के लिए जरूरी खाद भी किसानों को महँगे दामों में खरीदनी पड़ जाती है। जनप्रतिनिधि भी उनकी नहीं सुनते हैं और मजबूरन किसानों को महँगे दामों पर बीज, खाद की खरीदी करनी पड़ती है लेकिन फसल तैयार होने के बाद इसका मनमाफिक दाम उन्हें नहीं मिल पाता है।

गाँव का विकास होने से देश का विकास होगा मगर आज शहरों का विकास हो रहा है, जिससे देश की स्थिति बिगड़ रही है। सरकार के एजेण्डे में गाँव का विकास कहीं नहीं दिखता। आज भी देश के हजारों गाँवों की तस्वीर विकास के नाम पर सिर्फ धुँधली ही नजर आती है। सरकारों ने गाँवों को विकास का केन्द्र बनाया होता तो भारत की तस्वीर अलग ही होती।

बहरहाल यह अच्छी बात है कि इस बार लोकसभा के अधिकांश सदस्य खेती किसानी से जुड़े हुए हैं और उम्मीद की जाना चाहिए कि इसका लाभ देश के उन किसानों को जरूर मिलेगा जो किसी न किसी कारणवश खेती को लेकर परेशान रहते हैं। देश का किसान खुशहाल होगा तो देश भी खुशहाल होगा।

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