कृषि प्रधान देश में तंगहाल किसान

Scarce arable farmers in the country
Scarce arable farmers in the country
भारत जैसे कृषि प्रधान देश, जहां की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही आश्रित है। यदि किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिति भयानक हो सकती है। संभव है कि किसान रोज़ी रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रूख़ कर जाएं। ऐसे में हमें गंभीर खाद्यान्न संकट का भी सामना करना पड़ सकता है। केवल किसान कॉल सेंटर स्थापित करने और कृषि रोड मैप तैयार करने से समस्या का हल संभव नहीं है। जरूरत है इसकी महत्ता को कागज़ों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की। मौसम विभाग की भविष्यवाणी सच साबित होते हुए मानसून सही समय पर केरल में दस्तक दे चुका है। यदि अपने नियमित रफ्तार में रहा तो इस माह के अंत तक यह पूरे देश को सराबोर कर देगा। मानसून के सामान्य रहने पर जितनी खुशी एक आम आदमी को होती है उससे कहीं अधिक किसान को होती है। जिसका संपूर्ण कृषि जीवन मानसून की गति पर ही निर्भर होता है। पिछले कुछ वर्षों में मानसून के सामान्य और असामान्य होने के बावजूद देश में खाद्यान्न का रिकार्ड उत्पादन हुआ है। आलम यह है कि कुछ राज्यों के भंडार गृह में स्टॉक से अधिक अनाज जमा किए गए हैं। परिणामस्वरूप उन्हें खुले आसमान के नीचे रखने को मजबूर होना पड़ता है। जिससे कई बार मीडिया में अनाजों के सड़ जाने की खबरें आती रहती हैं। अनाज की बर्बादी का सबसे ज्यादा दुख किसानों को होता है जो पूरे वर्ष दिन रात मेहनत कर फसल तैयार करते हैं। लेकिन इस दौरान बीज की उपलब्धता से लेकर फसल कटाई और फिर उसे गोदाम तक पहुंचाने में उसे किन परिस्थितियों से गुज़रना होता है उसका अंदाजा वातानुकूलित कमरों में बैठकर देश की योजना तैयार करने वाले बाबुओं को नहीं होता है।

आर्थिक स्तर पर मज़बूती और बढ़ते औद्योगिकीकरण के बावजूद भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में ही माना जाता है। यही कारण है कि आज भी इसपर विशेष ध्यान दिया जाता है। केंद्र से लेकर सभी राज्य सरकारें प्रत्येक वर्ष बजट में कृषि पर प्रमुखता से फोकस करती रही हैं। समय-समय पर प्रभावी कृषि नीतियां भी लागू करने का प्रयास भी किया जाता रहा है। परिणामस्वरूप कभी खाद्यान्न संकट से गुज़रने वाला भारत आज इतना आत्मनिर्भर हो चुका है कि अब वह दूसरे देशों को भी इसका निर्यात करता है। इस उपलब्धि के बीच हम देश को कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाने वाले किसान को भूल जाते हैं जो आज भी आत्मनिर्भरता की बजाए गुरबत की जिंदगी गुजारता है। देश का पेट भरने वाला यह किसान स्वयं का पेट भरने के लिए ज़िंदगी भर संघर्ष करता रह जाता है और कभी-कभी इतना मजबूर हो जाता है कि उसके सामने आत्महत्या के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं रह जाता है। एक सर्वे के अनुसार देश में धनी किसानों की अपेक्षा मझौले या आर्थिक रूप से कमज़ोर किसानों की संख्या बहुत अधिक है जो पहले साहूकार और अब बैंकों से कर्ज लेकर कृषि कार्य कर रहे हैं। जिसे समय पर चुकता नहीं कर पाने की स्थिती में वह आत्महत्या कर लेते हैं। इनकी हालत यह है कि अगर बेटी की शादी हो जाये या एक कमरा बनवा लें तो उसके घर की अर्थव्यवस्था एक दशक पीछे चली जाती है। किसी क्षेत्र में अकाल तो कहीं बाढ़ की समस्या के कारण सबसे पहला नुकसान किसान का ही होता है। हालांकि सूखा, बाढ़ अथवा किसी अन्य प्राकृतिक आपदा की स्थिती के दौरान सरकार उनके कर्ज माफ कर देती है लेकिन यह फैसला लेते-लेते इतनी देर हो जाती है कि कुछ किसान परिवार के लिए यह खुशख़बरी बेमानी हो चुकी होती है।

देश का पेट भरने वाले किसानों की स्थिति बदहालदेश का पेट भरने वाले किसानों की स्थिति बदहालआज़ादी के 65 साल के बाद भी अन्य राज्यों की अपेक्षा बिहार के किसानों की समस्याओं में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। राज्य में कृषि रोड मैप भी तैयार किया गया लेकिन वह धरातल पर साकार नहीं हो पा रहा है। राज्य की अघोषित राजधानी के रूप में विख्यात मुज़फ्फरपुर के बसौली पंचायत के किसान रामसेवक राय को कृषि अब घाटे का सौदा नजर आने लगा है। उम्र के आखिरी पड़ाव में कदम रख चुके रामसेवक नहीं चाहते हैं कि नई पीढ़ी खेती किसानी का काम करे। पुछने पर समस्याओं का पिटारा खोलकर रख दिया। बताते हैं कि खेतों की जल्द जुताई के लिए ट्रैक्टर उपयुक्त है लेकिन जिसके पास इसकी सुविधा नहीं है उन्हें 60 रूपये प्रति घंटा की दर से ट्रैक्टर उधार लेनी पड़ती है जो छोटे स्तर के किसानों के लिए काफी महंगा साबित होता है। फिर बात आती है खाद और बीज की। जिसे पैक्स जैसे सरकारी संस्थान के माध्यम से कम दामों पर उपलब्ध करवाने का प्रावधान है। लेकिन यहां शायद ही कभी समय पर किसानों के लिए उपलब्ध कराये जाते हैं। देरी का असर बुआई और फिर फसल उत्पादन पर पड़ता है। जिससे बचने के लिए कई किसान बाज़ार से ही उंचे दामों पर खरीदने को मजबूर हो जाते हैं। फसल को कीटनाशकों से बचाने के लिए उपयोग किए जाने वाले रसायन के प्रयोग का भी बुरा प्रभाव पड़ता है। रामसेवक के अनुसार रसायन के उचित अनुपात में प्रयोग की जानकारी नहीं होने से भी भ्रम की स्थिति बनी रहती है। परिणामस्वरूप कभी फसल जल जाती है तो कभी आशा के विपरीत उत्पादन होता है। हालांकि सरकार की ओर से कृषि मेला और दूसरे माध्यमों से किसानों को जानकारी देने की योजना चल रही है लेकिन वह दूर दराज़ में रहने वाले किसानों तक नहीं पहुंच पाती है। वहीं दूसरी ओर अच्छी बारिश नहीं होने के कारण किसानों को सिंचाई के लिए भी पंप उधार लेने पड़ते हैं जो कभी-कभी उनकी बजट से बाहर हो जाता है। सबसे बड़ी समस्या बाज़ार की आती है। जब किसान अपनी मेहनत से तैयार फसल को बेचने जाता है। जहां अधिकारियों की लापरवाही और जागरूकता की कमी के कारण उसे सरकार द्वारा तय कीमत से भी कम पैसे मिलते हैं। ऐसे में खेती में उपजाया और खेती में लगाया जैसी स्थिति निरंतर बनी हुई है। देश का पेट भरने वाला किसान अपने बच्चों का पेट पालने के लिए कृषि के अलावा मवेशी पालन और कभी-कभी मजदूरी करने को विवश है।

भारत जैसे कृषि प्रधान देश, जहां की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर ही आश्रित है। यदि किसानों को खेती से लाभ दिलाने के लिए दीर्घकालिक उपायों पर गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो स्थिति भयानक हो सकती है। संभव है कि किसान रोज़ी रोटी के लिए अन्य क्षेत्रों की ओर रूख़ कर जाएं। ऐसे में हमें गंभीर खाद्यान्न संकट का भी सामना करना पड़ सकता है। केवल किसान कॉल सेंटर स्थापित करने और कृषि रोड मैप तैयार करने से समस्या का हल संभव नहीं है। जरूरत है इसकी महत्ता को कागज़ों से निकाल कर किसानों के बीच ले जाने की।

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