कृषि क्षेत्र पर सिंचाई की मार और भारत में भुखमरी

गन्ना
गन्ना

पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ ही खाद्यान्न उत्पादन में विश्व में दूसरे पायदान पर आने वाले भारत के लिये अपनी जनसंख्या का पेट भरना आज भी एक बड़ी चुनौती है। हाल ही में 119 देशों के लिये जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2018 (Global Hunger Index) में भारत 103 नम्बर पर रहा। इस मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश से भी पीछे है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स का निर्धारण किसी देश में कुपोषण की स्थिति के साथ ही पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में लम्बाई की तुलना में वजन कम होने, लम्बाई कम होने तथा शिशु मृत्यु दर के आधार पर किया जाता है। वास्तव में ये सभी मानक कुपोषण के सूचक हैं। इन मानकों के आधार पर भारत मात्र 31.1 अंक ही अर्जित कर पाया।

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (Food and Agriculture Organisation, FAO) द्वारा इसी वर्ष जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 195.9 मिलियन लोग कुपोषित हैं। यह संख्या देश की कुल जनसंख्या का 14.8 प्रतिशत है। यह तथ्य विचलित करने वाला है क्योंकि भारत ने खाद्यान्न उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि की है। वर्ष 2017 में कुल 281.7 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ जो देश की जनसंख्या के पोषण के लिये पर्याप्त था।

फिर सवाल उठता है कि देश में इतनी बड़ी संख्या में लोग दो जून की रोटी के लिये क्यों तरस रहे हैं? इस सवाल का कोई एक माकूल जवाब नहीं है। इस सवाल पर गम्भीरता से विचार करने पर जनसंख्या का बढ़ता दबाव, सिंचाई के प्रचलित साधनों में गिरावट के कारण कृषि योग्य परती भूमि में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन, गेहूँ और चावल जैसे अनाजों के उत्पादन में गिरावट, छोटी जोत वाले किसानों की आर्थिक स्थिति में गिरावट, कृषि विकास की दर में कमी, अनाजों की आसमान छूती कीमतें, प्रति व्यक्ति कम होती अनाज की उपलब्धता आदि जैसे कारण सामने आते हैं।

भारत में खाद्य सुरक्षा का मूल आधार अनाजों का उत्पादन है। लेकिन जनसंख्या वृद्धि की तुलना में इनके उत्पादन में गिरावट दर्ज की जा रही है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में 2000 के दशक में प्रतिवर्ष जनसंख्या वृद्धि की दर 1.7 प्रतिशत थी जबकि इसी दौरान मुख्य अनाजों के उत्पादन में औसतन 1.4 की दर से कमी दर्ज की जा रही थी। इससे साफ है कि बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये मुख्य अनाजों के उत्पादन की दर बढ़ानी होगी जो वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए एक मुश्किल टास्क है। इसकी एक बड़ी वजह है देश में सिंचाई के लिये घटती पानी की उपलब्धता।

केन्द्रीय कृषि मंत्रालय के आँकड़े के अनुसार वर्ष 2017 में भूजल द्वारा सिंचाई पर आश्रित इलाकों के 40 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि को परती छोड़ दिया गया। वजह थी सिंचाई के भूजल का उपलब्ध न होना। भूमि के परती छोड़े जाने का सीधा असर धान, दलहन, तिलहन सहित अन्य अनाजों के उत्पादन पर आया। वित्तीय वर्ष 2017-18 के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी इस रुझान को रेखांकित किया गया है। रिपोर्ट में यह साफ तौर पर कहा गया है कि पानी की कमी के कारण तमिलनाडु में रबी की फसल के लिये प्रयोग में लाये जाने वाले कुल कृषि क्षेत्र के 7 लाख हेक्टेयर जबकि खरीफ के 2.5 लाख हेक्टेयर में खेती नहीं हो सकी। इसके अलावा केरल में भी धान की खेती के अन्तर्गत आने वाले कुल क्षेत्र में काफी कमी आई है। राज्य में जहाँ 1970-71 में धान की खेती 8.75 लाख हेक्टेयर में होती थी वह 2015-16 में घटकर 1.7 लाख हेक्टेयर रह गई। देश के अन्य राज्यों में भी कमोबेश यही स्थिति है। नीति आयोग ने भी यह स्पष्ट तौर पर कहा है कि कृषि क्षेत्र में पानी की कमी का समाधान यदि समय रहते नहीं निकाला गया तो इसके गम्भीर परिणाम होंगे।

भारत में सिंचाई के प्रचलित साधनों पर यदि गौर किया जाये तो यहाँ की कुल कृषि भूमि (160 मिलियन हेक्टेयर) के दो तिहाई हिस्से की सिंचाई मानसून आधारित है। वहीं, 39 मिलियन हेक्टेयर पर भूजल और 22 मिलियन हेक्टेयर पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है। मानसून की अनिश्चितता का प्रभाव फसलों के उत्पादन पर बहुत गहरा पड़ता है। इसी अनिश्चितता का प्रभाव है कि हरित क्रान्ति की शुरुआत के बाद देश में भूजल आधारित सिंचाई व्यवस्था का तेजी से विकास हुआ। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में खूब बोरिंग खोदे गए। इतना ही नहीं हरित क्रान्ति के दौरान खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिये धान, गन्ना आदि जैसे पानी पोषित फसलों के उत्पादन को भी काफी बढ़ावा दिया गया। यही वजह है कि भारत के कई इलाकों के भूजल स्तर में तेजी से गिरावट दर्ज हुई।

केन्द्रीय भूजल बोर्ड (Central Groundwater Board) की रिपोर्ट के अनुसार देश के 16.2 प्रतिशत हिस्से ऐसे हैं जहाँ भूजल का अतिदोहन हुआ है। इन इलाकों में कर्नाटक के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रों के सूदूरवर्ती इलाके, आन्ध्र प्रदेश का रायलसीमा क्षेत्र, महाराष्ट्र का विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्र, पश्चिमी राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के इलाके शामिल हैं। देश के 14 प्रतिशत इलाकों में भूजल की स्थिति काफी नाजुक स्तर तक पहुँच गई है। इसमें उत्तर-पश्चिमी राज्य जैसे पंजाब, हरियाणा और दिल्ली आदि शामिल हैं। वहीं, देश के पूर्वी क्षेत्र में स्थिति थोड़ी बेहतर है।

इसी रिपोर्ट के अनुसार भारत की प्रतिवर्ष भूजल पुनर्भरण क्षमता 433 बिलियन क्यूबिक मीटर (Billion Cubic Meter, BCM) है जिसमें से 398 बीसीएम इस्तेमाल के लिये उपलब्ध होता है। देश में भूजल के दोहन की स्थिति इतनी बुरी है कि कुल इस्तेमाल के लिये उपलब्ध हिस्से के 65 प्रतिशत का उपयोग हर वर्ष कर लिया जाता है। कृषि क्षेत्र में भूजल के बढ़ते इस्तेमाल का पता नहर आधारित सिंचाई के गिरते प्रतिशत से भी लगाया जा सकता है। सरकारी आँकड़े के अनुसार 2011-12 तक इसका प्रतिशत 23.6 रह गया जो 1950-51 के दौरान लगभग 40 प्रतिशत था। वहीं, इसी काल में भूजल आधारित सिंचाई का प्रतिशत 28.7 प्रतिशत से बढ़कर 62.4 प्रतिशत हो गया।

सिंचाई के लिये भूजल के बढ़ते इस्तेमाल की एक मुख्य वजह हरित क्रान्ति के दौरान फसलों के उत्पादन के लिये गलत इलाकों का चयन भी था। उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र में गन्ना उत्पादन को बढ़ावा दिया गया जबकि वहाँ की मिट्टी इस फसल के उत्पादन के लिये उपयुक्त नहीं थी। इसका खामियाजा यह हुआ कि प्रदेश के मात्र 4 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर गन्ना उत्पादन के लिये उपलब्ध 70 प्रतिशत से ज्यादा पानी का इस्तेमाल कर लिया जाता है। वहीं, राज्य के लगभग 17 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर उत्पादित होने वाले दलहन की सिंचाई के लिये उपलब्ध पानी के मात्र 3.4 प्रतिशत हिस्से का ही इस्तेमाल किया जाता है। इस प्रकार की अविवेकपूर्ण कृषि को बढ़ावा देने का ही परिणाम है कि फसल के उत्पादन की दिनों-दिन बढ़ती लागत के कारण किसान कर्ज की जाल में फँस गए और भूजल दोहन को भी बढ़ावा मिला।

अर्ध शुष्क क्षेत्र पंजाब में धान की खेती को प्रमुखता दिया जाना भी भूजल के दोहन का मुख्य कारण है। हरित क्रान्ति की शुरुआत यानि 1960 के दशक में राज्य में धान की खेती के अन्तर्गत केवल 2,27000 हेक्टेयर कृषि क्षेत्र था जो वर्ष 2000 तक बढ़कर 26,12000 हेक्टेयर हो गया। इस दौरान राज्य में धान की खेती में 1050 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस वृद्धि का आधार भूजल का दोहन था। आँकड़े बताते हैं कि पंजाब की मौसमी दशाओं के अनुरूप वहाँ एक किलोग्राम चावल के उत्पादन पर 5,337 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 2605 लीटर। इसका मतलब है कि पश्चिम बंगाल की मौसमी दशाएँ चावल की खेती के लिये पंजाब की तुलना में ज्यादा उपयुक्त हैं। इतना ही नहीं यूनेस्को के इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर एजुकेशन द्वारा वर्ष 2011 में जारी किये गए एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रति टन धान के उत्पादन के लिये औसतन चीन और अमेरिका की तुलना में दोगुने से भी ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। इसी रिपोर्ट के अनुसार देश में कपास के उत्पादन के लिये चीन की तुलना में लगभग चार गुना पानी की आवश्यकता होती है।

यूनेस्को के इंस्टीट्यूट ऑफ वाटर एजुकेशन द्वारा जारी डाटा

फसल

भारत

चीन

अमरीका

धान

2800

1321

1275

गन्ना

159

117

103

गेहूँ

1654

690

849

कपास

8264

1419

2535

नोट:- प्रति टन पानी की खपत क्यूबिक मीटर में

राज्यों में कृषि भूमि के सिंचित क्षेत्र का प्रतिशत

 

 

राज्य

 सिंचित भूमि प्रतिशत में

पंजाब

98.70

हरियाणा  

88.90

उत्तर प्रदेश

76.10  

बिहार

67.40  

तमिलनाडु

63.50

आन्ध्र प्रदेश

62.50

मध्य प्रदेश

50.50

पश्चिम बंगाल

49.30  

गुजरात

46.00   

उत्तराखण्ड

44.00   

छत्तीसगढ़

29.70

ओड़िशा

29.00  

कर्नाटक

28.20

राजस्थान

27.70  

महाराष्ट्र

16.40

झारखंड  

7.00

असम

4.60

राष्ट्रीय औसत

49.80  

 

स्रोत: कृषि मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट

विश्व में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि का श्रेय हरित क्रान्ति के प्रणेता नार्मन बारलोग थे जबकि भारत में इसकी सफलता का श्रेय एम स्वामीनाथन को दिया जाता है। नार्मन बारलोग को उनके इस योगदान के लिये 1970 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया जबकि एम स्वामीनाथन को 1987 में वर्ल्ड फूड प्राइज से नवाजा गया। भारत में हरित क्रान्ति की इस अप्रत्याशित सफलता के कारण ही देश में अनाजों के आयात में कमी आई और भूख की मार से त्रस्त जनता का पेट भरना सम्भव हुआ। लेकिन उपज बढ़ाने के उद्देश्य से खादों और कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल से मिट्टी की उर्वरता में उत्तरोत्तर कमी होती गई जिसका असर देश में अनाजों के कुल उत्पादन पर भी पड़ा। इतना ही नहीं अधिक सिंचाई के कारण देश के कई हिस्सों में मिट्टी में लवणीयता बढ़ गई जिसकी वजह से जमीनें बंजर होने के कगार तक पहुँच गई हैं। पंजाब और हरियाणा के कृषि क्षेत्रों में ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं।

देश में जनसंख्या के बढ़ते दबाव का असर भी प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता पर पड़ा है। डायरेक्टरेट ऑफ इकोनॉमिक्स एंड स्टेटिस्टिक्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर एंड कोऑपरेशन द्वारा जारी आँकड़े बताते हैं कि 1950 के दशक की तुलना में 2010 के दशक में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलब्धता में मात्र 160.1 ग्राम की वृद्धि हुई थी। हालांकि, अपवादस्वरूप 1990 के दशक में 1950 के दशक की तुलना में इस सन्दर्भ में 186.2 ग्राम की वृद्धि दर्ज की गई थी। आँकड़े यह भी बताते हैं कि बीसवीं सदी की शुरुआत की तुलना में देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आई है। बीसवीं सदी की शुरुआत में यह जहाँ 200 किलोग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष थी वहीं इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में यह मात्र 158 किलोग्राम रह गई। इसकी एक बड़ी वजह है आर्थिक उदारीकरण के बाद अनाजों के उत्पादन की औसत वृद्धि दर में मामूली परिवर्तन आना और कृषि अन्तर्गत आने वाली भूमि के विकास में नकारात्मक वृद्धि का दर्ज किया जाना। आर्थिक उदारीकरण के पूर्व जहाँ अनाजों के उत्पादन की औसत वृद्धि दर प्रतिवर्ष जहाँ 2.6 प्रतिशत थी इसके बाद उसमें 0.05 प्रतिशत का ही मामूली परिवर्तन हो सका। वहीं, सिंचित कृषि भूमि क्षेत्र जो उदारीकरण के पूर्व 0.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा था उसमें इसके बाद प्रतिवर्ष -0.41 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट दर्ज की जाने लगी।

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत में गेहूँ, चावल, दलहन, तिलहन जैसे मूल अनाजों के 41 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से का उत्पादन दो एकड़ या उससे भी कम जोत वाले किसान करते हैं। इसकी एक बड़ी वजह है उनकी अपने परिवार को पूरे वर्ष के लिये खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की मानसिकता। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) में कृषि क्षेत्र के योगदान में गुणात्मक कमी दर्ज की गई। उदारीकरण के पूर्व जीडीपी में इस क्षेत्र का औसत योगदान 2.8 प्रतिशत था वह घटकर 1.98 प्रतिशत ही रह गया। वजह साफ है, सरकार का ध्यान कृषि विकास से हटकर सेवा क्षेत्र के साथ ही औद्योगिक विकास आदि पर केन्द्रित होना। इसके अलावा देश में मुद्रास्फीति की दर बढ़ने से अनाजों के दाम बढ़ते चले गए। और इसका प्रभाव खेती पर भी पड़ा। किसानों पर आर्थिक बोझ तो बढ़ा लेकिन मुनाफे में वृद्धि न के बराबर हुई। इससे छोटी जोत वाले किसान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए और कृषि क्षेत्र में घटती आर्थिक सुरक्षा के कारण वे खेती छोड़ शहरों में पलायन करने को मजबूर हो गए। इसका असर देश में अनाजों की उत्पादकता पर पड़ा।

देश में कृषि उत्पादन को अस्थिर करने का एक बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन भी है। भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है। लेकिन इसका प्रभाव देश की खाद्य सुरक्षा के सन्दर्भ में बहुत ज्यादा है। भारत के लगभग दो तिहाई कृषि क्षेत्र में सिंचाई का आधार मानसून है। यह जाहिर है कि मानसून से जुड़ी अनिश्चितता का प्रभाव कृषि पर बहुत ज्यादा पड़ता है। प्रशान्त महासागर में पेरू के समीप पैदा होने वाली गर्म जल धारा एल नीनो (el-nino) के प्रभाव में भारतीय महाद्वीप में दक्षिणी-पश्चिमी मानसून का प्रभाव कम हो जाता है। वहीं, ठंडी जल धारा ला-नीनो (la-nino) के प्रभाव में मानसून से होने वाली वर्षा सामान्य से ज्यादा होती है। भारत में एल-नीनो वर्ष में मानसून सिंचित कृषि क्षेत्रों में अकाल जैसी स्थिति आ जाती है जिससे फसलों का उत्पादन नकारात्मक रूप से प्रभावित होता है। आँकड़े बताते हैं देश में अकालों की बारम्बारत में काफी वृद्धि हुई है। वर्ष 1950 से 1989 तक कुल 10 अकाल पड़े थे जबकि 2000 के बाद से अब तक देश, पाँच अकालों की मार झेल चुका है। मौसम वैज्ञानिकों की माने तो नित हो रहे पर्यावरणीय ह्रास के प्रभाव के कारण भारत में 2020 से 2049 तक अकालों की बारम्बारत में और भी वृद्धि होगी। इसके अलावा अति बारिश और उससे पैदा होने वाली बाढ़ के कारण भी फसलों को काफी नुकसान पहुँचता है। अति बारिश के कारण मिट्टी के अपरदन को भी बढ़ावा मिलता है जिससे उसकी उर्वरा क्षमता प्रभावित होती है।

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत वर्ष 2022 तक विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो जाएगा। और वर्ष 2050 तक देश की जनसंख्या 1.7 बिलियन हो जाएगी। इतना ही नहीं देश की जनसंख्या में नकारात्मक वृद्धि दर 2100 के बाद ही दिखाई देगी। यह अनुमान लगाया गया है कि बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिये भारत को लगभग वर्तमान की तुलना में लगभग 100 मिलियन टन अतिरिक्त खाद्यान्न उत्पादन की जरूरत होगी। अतः भारत को बढ़ती खाद्य असुरक्षा से निपटने के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाने होंगे जिनमें कृषि भूमि की उत्पादन की क्षमता में वृद्धि, सिंचाई के साधनों का विकास, बरसात के पानी का उचित प्रबन्धन, फसलों का चयन पानी की उपलब्धता के साथ ही मौसमी दशाओं के अनुसार किया जाना, गाँवों में रहने वाली जनसंख्या की आर्थिक आय में वृद्धि, जन वितरण प्रणाली को भ्रष्टाचार मुक्त बनाना, खाद्यान्न की बर्बादी को रोकना आदि शामिल हैं।

कृषि भूमि की उत्पादन क्षमता को बढ़ाने के लिये उन्नत बीजों की खोज को बढ़ावा देना होगा जिसमें भारत अभी बहुत पीछे है। इसके साथ ही खेतों का आकार बढ़ाने के लिये भी सरकार को पहल करनी होगी जिससे उनमें खेती के लिये जरूरी उपकरणों का इस्तेमाल आसानी से किया जा सके। इसके लिये किसानों को सामूहिक रूप से कोआपरेटिव बनाकर खेती करने के लिये प्रेरित करने की आवश्यकता होगी।

उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार विश्व में उपलब्ध कुल स्वच्छ जल का मात्र 4 प्रतिशत ही भारत के खाते में आता है जबकि कृषि के अन्तर्गत आने वाली भूमि के मामले में यह विश्व में दूसरे स्थान पर है। साफ है कि भारत में जल संसाधनों पर बहुत ज्यादा दबाव है। देश में उपलब्ध स्वच्छ जल के लगभग 83 प्रतिशत हिस्से का इस्तेमाल कृषि के लिये होता है लेकिन अत्यधिक दबाव के कारण यह तेजी से घट रहा है। विश्व बैंक द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में औसत वर्षा की मात्रा 1170 मिली मीटर है लेकिन इस पानी के 25 प्रतिशत से भी कम हिस्से का इस्तेमाल हो पाता है जबकि 65 प्रतिशत हिस्सा समुद्र में जा मिलता है। अगर इस पानी को रोकने की समुचित व्यवस्था कर ली जाये तो पानी की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि देश में पानी के संचयित करने के साधन बढ़ाने होंगे। और इसके लिये एक ठोस जल प्रबन्धन की प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता होगी। इसी के अभाव में भारत में प्रति व्यक्ति पानी संचयित करने की क्षमता मात्र 200 क्यूबिक मीटर है जबकि विश्व स्तर 900 क्यूबिक मीटर है। इसके अलावा गिरते भूजल स्तर को नियंत्रित करने के लिये ड्रिप इरिगेशन को भी बढ़ावा देना समय की माँग है। लेकिन उपलब्ध आँकड़े के अनुसार सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद भी देश की कुल सिंचित भूमि में ड्रिप इरिगेशन का हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत है।

इतना ही नहीं किसी क्षेत्र विशेष में पानी की उपलब्धता और वहाँ की मौसमी दशाओं के अनुसार ही किसानों को फसलों के चयन के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। उदाहरणस्वरूप कर्नाटक, तमिलनाडु में भूजल आधारित कृषि क्षेत्रों के किसानों ने पानी की कमी को देखते हुए ऐसे फसलों का उत्पादन बन्द कर दिया जिनके लिये ज्यादा पानी की आवश्यकता होती है। वे उनकी जगह सब्जी, फूल, लोबिया, मूँगफली आदि की खेती को अपना रहे हैं। इसके अलावा बुन्देलखण्ड इलाके के किसान मिंट की खेती से तौबा कर रहे हैं। आँकड़े के अनुसार एक किलोग्राम मिंट के उत्पादन के लिये 1,75000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। इस क्षेत्र में पूर्व में मिंट का उत्पादन लगभग 10,000 हेक्टेयर में होता था जो अब कम होकर लगभग 1,000 हेक्टेयर रह गया है।

कृषि क्षेत्र के विकास के लिये इस पर आश्रित लोगों के अलावा गाँवों में बेरोजगार लोगों की आर्थिक विकास के लिये कदम उठाने होंगे। जैसाकि सभी जानते हैं कृषि और उससे जुड़े कार्य देश की लगभग 60 प्रतिशत जनता को रोजगार उपलब्ध कराते हैं। लेकिन देश में खासकर छोटी जोत वाले किसानों की गिरती स्थिति के कारण उनकी और उन पर आश्रित लोगों की आर्थिक दशा काफी गिरती जा रही है। यही वजह है कि लोग रोजगार की तलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं और गरीबी के कारण भूखमरी के शिकार हो रहे हैं। अतः साफ है कि सरकार को गाँवों से पलायन रोकने के लिये खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, दुग्ध उत्पादन जैसे कृषि से जुड़े उद्योग-धंधों को बढ़ावा देने की जरूरत है।

भारत में जन वितरण प्रणाली शुरुआत का मूल उद्देश्य देश में खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करना था। इस प्रणाली के तहत देश के शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी रेखा से नीचे अथवा इससे ऊपर रहने वाले लोगों को सरकारी दर पर खाद्य सामग्री उपलब्ध कराई जाती है। लेकिन इस प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण लाभुकों को इसका उचित लाभ नहीं मिल पाता है। इतना ही नहीं गरीबी रेखा से नीचे या इससे ऊपर के लोगों का सही मूल्यांकन न हो पाने के कारण भी इन श्रेणियों के अन्तर्गत आने वाले बहुत से परिवार जनवितरण प्रणाली का लाभ पाने से वंचित रह जाते हैं। इसके अलावा इस प्रणाली की सबसे बड़ी खामी लाभार्थियों के चयन की प्रक्रिया के निर्धारण की जिम्मेवारी राज्यों के हाथ में होना। इसका खामियाजा यह है कि हर राज्य में इस प्रणाली के अन्तर्गत लाभ पाने वाले लोगों की पात्रता का पैमाना भिन्न-भिन्न है। और इसके कारण बहुत से परिवार इस प्रणाली से बाहर हो जाते हैं। अतः इस व्यवस्था में पर्याप्त सुधार के लिये उचित कदम उठाए जाने की जरूरत है।

भारत में खाद्यान्न की कमी और लोगों के कुपोषण की एक बड़ी वजह अन्न की बर्बादी भी है। फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक विश्व में प्रतिवर्ष 1.3 बिलियन टन अनाज बर्बाद हो जाता है। इसी रिपोर्ट के अनुसार एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर वर्ष कुल अनाज के उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो जाता है। अन्न की इस बर्बादी का सिलसिला खेतों से ही शुरू हो जाता है। अनाजों के रख-रखाव की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण भी खूब बर्बादी होती है। इस सम्बन्ध में विशेषज्ञों की राय है कि भारत को अनाजों के रख-रखाव के लिये चीन का मॉडल अपनाना चाहिए। चीन में इसके लिए बड़े स्तर पर गोदाम का निर्माण कराया गया है जबकि भारत में इसकी बहुत कमी है। यहाँ अनाजों के रख-रखाव के लिये जिम्मेवार फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया के अन्तर्गत आने वाले गोदाम की स्थिति काफी दयनीय है। उचित रख-रखाव के अभाव में हर वर्ष लाखों टन अनाज सड़ जाते हैं।

एक नजर में

1. भारत विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के साथ ही खाद्यान्न उत्पादन में विश्व में दूसरे पायदान पर है

2. 119 देशों के लिये जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2018 में भारत 103 नम्बर पर रहा

3. फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा इसी वर्ष जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 195.9 मिलियन लोग कुपोषित हैं

4. वर्ष 2017 में कुल 281.7 मिलियन टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ

5. कृषि मंत्रालय के आँकड़े के अनुसार पानी की कमी के कारण वर्ष 2017 में भूजल द्वारा सिंचाई पर आश्रित इलाकों के 40 लाख हेक्टयर कृषि भूमि को परती छोड़ दिया गया

6. देश में कुल कृषि भूमि (160 मिलियन हेक्टेयर) के दो तिहाई हिस्से की सिंचाई मानसून आधारित है

7. 39 मिलियन हेक्टेयर पर भूजल और 22 मिलियन हेक्टेयर पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है

8. केन्द्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार देश के 16.2 प्रतिशत हिस्से ऐसे हैं जहाँ भूजल का अतिदोहन हुआ है

9. भारत की प्रतिवर्ष भूजल पुनर्भरण क्षमता 433 बिलियन क्यूबिक मीटर है जिसमें से 398 बीसीएम इस्तेमाल के लिये उपलब्ध होता है

10. कुल इस्तेमाल के लिये उपलब्ध जल के 65 प्रतिशत का उपयोग हर वर्ष कर लिया जाता है

11. महाराष्ट्र में मात्र 4 प्रतिशत कृषि क्षेत्र पर गन्ना उत्पादन के लिये उपलब्ध 70 प्रतिशत से ज्यादा पानी का इस्तेमाल कर लिया जाता है

12. पंजाब में एक किलोग्राम चावल के उत्पादन पर 5,337 लीटर पानी खर्च होता है जबकि पश्चिम बंगाल में केवल 2605 लीटर

13. 1950 के दशक की तुलना में 2010 के दशक में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन अनाज की उपलब्धता में मात्र 160.1 ग्राम की वृद्धि हुई

14. बीसवीं सदी की शुरुआत की तुलना में देश में प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आई यह 200 किलोग्राम प्रतिवर्ष से घटकर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में 158 किलोग्राम रह गई

15. सिंचित कृषि भूमि क्षेत्र जो उदारीकरण के पूर्व 0.2 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा था उसमें इसके बाद प्रतिवर्ष -0.41 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से गिरावट दर्ज की जाने लगी।

16. उदारीकरण के पूर्व कृषि क्षेत्र का जीडीपी में औसत योगदान 2.8 प्रतिशत था वह घटकर 1.98 प्रतिशत रह गया

17. भारत में गेहूँ, चावल, दलहन, तिलहन जैसे मूल अनाजों के 41 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से का उत्पादन दो एकड़ या उससे भी कम जोत वाले किसान करते हैं

18. 1950 से 1989 तक कुल 10 अकाल पड़े थे जबकि 2000 के बाद से अब तक देश, पाँच अकालों की मार झेल चुका है

19. मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार पर्यावरणीय ह्रास के कारण भारत में 2020 से 2049 तक अकालों की बारम्बारत में वृद्धि होगी

20. भारत 2022 तक विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो जाएगा और 2050 तक देश की जनसंख्या 1.7 बिलियन हो जाएगी

21. विश्व में उपलब्ध कुल स्वच्छ जल का मात्र 4 प्रतिशत भारत के खाते में आता है जबकि कृषि के अन्तर्गत आने वाली भूमि के मामले में यह दूसरे स्थान पर है

22. भारत में प्रतिव्यक्ति पानी संचयित करने की क्षमता मात्र 200 क्यूबिक मीटर है जबकि विश्व स्तर 900 क्यूबिक मीटर है

23. देश की कुल सिंचित भूमि में ड्रिप इरिगेशन का हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत है

24. विश्व में प्रतिवर्ष 1.3 बिलियन टन अनाज बर्बाद हो जाता है

25. भारत में हर वर्ष कुल अनाज के उत्पादन का 40 प्रतिशत हिस्सा नष्ट हो जाता है

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