कृषि क्षेत्र की उपलब्धियाँ और चुनौतियाँ

मंगल टरबाइन
मंगल टरबाइन

सरकार ने निर्णय लिया है कि वह उत्पादन लागत की कम-से-कम डेढ़ गुनी कीमत पर खरीफ की सभी गैर-घोषित फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य उपलब्ध कराएगी। केवल घोषणा करना पर्याप्त नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि फसलों को घोषित एमएसपी पर खरीदा भी जाना चाहिए, ताकि किसानों को लाभ पहुँच सके। इसके लिये जरूरी है कि यदि कृषि उत्पादों का मूल्य एमएसपी से कम है तब सरकार को स्वयं खरीदारी करनी चाहिए अथवा इस तरह की कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए, जिसके जरिए किसानों को एमएसपी उपलब्ध कराया जा सके।

कृषि भारत के आर्थिक विकास का इंजन है और इससे सर्वाधिक लोगों को रोजगार मिलता है। सरकार कृषि विकास को उच्च प्राथमिकता देने, किसानों की आय में वृद्धि और ग्रामीण इलाकों के विकास के लिये प्रतिबद्ध है। साथ ही, किसानों को खेती में लगने वाली लागत पर पचास फीसदी लाभ मिले, ऐसा निश्चित करने हेतु गम्भीर प्रयास कर रही है।

सरकार को किसानों के प्रति अपनी जवाबदेही का एहसास है इसलिये सरकार की नीतियों के केन्द्र में कृषि विकास को उच्च प्राथमिकता देते हुए किसानों की आय में वृद्धि और ग्रामीण क्षेत्रों का विकास है। सरकार द्वारा किसानों के हित को ध्यान में रखते हुए कृषि क्षेत्र में अधिक बजटीय आवंटन किया गया है। सरकार द्वारा 2014-19 में कृषि क्षेत्र को कुल 2,11,694 करोड़ रुपए आवंटित किये गए जो वर्ष 2009-14 के मुकाबले 74.5 फीसदी अधिक हैं। किसानों के बजट में यह वृद्धि एक क्रान्तिकारी कदम है।

प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की योजना तैयार करने का निर्देश दिया गया है। साथ ही, चालू वित्तवर्ष में विभिन्न कृषि जिंसों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) किसानों को उनकी लागत पर डेढ़ गुना करने की घोषणा की गई है। ऐसा करके सरकार ने किसानों से किये गए सबसे महत्त्वपूर्ण वादे को पूरा करने का प्रयास किया है।

पिछले चार सालों में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार, परम्परागत कृषि विकास योजना सहित अनेक किसान हितैषी योजनाओं की शुरुआत की गई है। किसानों के प्रति प्रतिबद्धता और तमाम अच्छी सरकारी योजनाओं एवं कार्यक्रमों के बावजूद क्रियान्वयन के स्तर पर राज्य सरकारों का अपेक्षित सहयोग न मिल पाने एवं सरकारी-तंत्र में कमियों के चलते किसानों के जीवनस्तर में अभी तक कोई बड़ा बदलाव नहीं हो पाया है। सरकार इस बिगड़े सिस्टम को दुरुस्त करने की लगातार कोशिश कर रही है। पूरी व्यवस्था के ओवरहालिंग की जरूरत है।

मैं व्यवस्थागत खामियों को लेकर यहाँ अपना एक अनुभव साझा करना चाहता हूँ। योजना बनाते वक्त यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि योजना स्थानीय जरूरत के हिसाब से बने तथा उसके क्रियान्वयन में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित हो। सरकार के लिये ‘हर खेत तक पानी’ पहुँचाना बड़ी चुनौती है। लेकिन स्थानीय-स्तर पर इस चुनौती से जूझने की कोशिश भी हो रही है। ऐसे ही कोशिश करते हुए बुन्देलखण्ड के एक किसान मंगल सिंह ने एक टरबाइन का आविष्कार किया।

मंगल टरबाइन गाँव में ही बनी ऐसी मशीन है जो बहती जलधारा से चलती है। आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में जहाँ किसान नदी-नालों से डीजल या बिजली पम्पों के जरिए सिंचाई करते हैं, वहाँ वे मंगल टरबाइन द्वारा बिना डीजल इंजन, बिना बिजली मोटर से सिंचाई करते हैं। पाइप द्वारा पानी को कहीं भी ले जा सकते हैं। इससे पीने के लिये पानी भी पम्प कर सकते हैं। इसमें लगे गियर बॉक्सों की शाफ्ट के दूसरे सिरे पर पुली लगाकर कुट्टी मशीन, आटा चक्की, गन्ना पिराई सहित कई अन्य कार्य भी किये जा सकते हैं या फिर जेनरेटर जोड़कर बिजली भी बना सकते हैं।

मंगल टरबाइन के प्रयोग से एक ओर डीजल व बिजली की बचत होती है तो दूसरी ओर प्रदूषण विशेषकर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम होगा। सिंचाई पर होने वाले खर्चे की दृष्टि से देखें तो जहाँ सरकार एक वर्ग किलोमीटर भूमि को सिंचित करने के लिये 5 से 6 करोड़ रुपए खर्च करती है। वहीं, मंगल टरबाइन द्वारा सिंचाई का खर्च मात्र छह लाख रुपए के लगभग आएगा।

देश-विदेश के अनेक जाने-माने तकनीकी विशेषज्ञों एवं अधिकारियों ने भी जाकर मंगल टरबाइन का अध्ययन किया है और इस अविष्कार की प्रशंसा करते हुए इसकी व्यापक सम्भावनाओं की ओर ध्यान दिलाया है। इतने उच्च एवं व्यापक-स्तर पर मंगल टरबाइन की उपयोगिता स्वीकार होने, लिमका बुक में नाम दर्ज होने तथा पुरस्कार व पेटेंट प्राप्त होने के बाद भी सरकारी तंत्र की खामियों के चलते इसके आविष्कारक प्रतिभाशाली मंगल सिंह दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। ऐसे किसानों को प्रोत्साहित करना सरकार की प्राथमिकता में है। किन्तु सिस्टम की खामियों की वजह से सरकार की तमाम बेहतरीन योजनाएँ जमीन पर नहीं पहुँच पा रही हैं, जिनसे किसानों की किस्मत सुधर सकती है।

कर्ज में डूबा किसान आज अपनी फसल सरकार द्वारा घोषित एमएसपी से भी नीचे बेचने को मजबूर है। खेती लगातार घाटे का सौदा बनते जाने से देश भर के किसान संगठनों द्वारा राष्ट्रीय किसान आयोग (स्वामीनाथन आयोग) की सिफारिशों को लागू करने और कर्ज माफी की माँग भी उठ रही है।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन वाली सरकार 26 मई, 2018 को चार साल पूरे कर चुकी है। सरकार द्वारा किये गए कामकाज का मूल्यांकन करने से पहले हमें विगत सत्तर सालों पर एक नजर डालनी होगी। तभी हम समझ पाएँगे कि चार सालों में कृषि क्षेत्र में कितना अच्छा काम हुआ है। आजादी के सत्तर सालों में कृषि क्षेत्र परिवर्तनों के कई दौर से गुजरा है, उस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

देश की आजादी के बाद पहला दौर 1947 से 1968 तक का है जिसमें बुआई क्षेत्र का विस्तार, सिंचाई के संसाधनों में वृद्धि और भूमि सुधार कानूनों की मुख्य भूमिका रही। दूसरा काल 1968 से 1980 तक का है, जिसमें अधिक उत्पादन वाली बौनी किस्मों, उर्वरकों, कीटनाशकों एवं नवीन तकनीक का प्रयोग हुआ, जिसे हरितक्रान्ति के प्रादुर्भाव का काल कहा जाता है। तीसरा कालखण्ड वर्ष 1981 से 1991 तक का है, जिस दौरान कृषि उत्पादों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति, सुनिश्चित सरकारी खरीद और भण्डारण एवं वितरण की राष्ट्रव्यापी व्यवस्था हुई।

चौथा काल वर्ष 1991-1998 तक का है, जिसे उदारीकरण, औद्योगीकरण और विश्व व्यापार संगठन की स्थापना का दौर कहा जाता है। पाँचवाँ काल वर्ष 1999 से 2014 तक का रहा। परम्परागत जैविक खेती को बढ़ावा देने, ग्रामीण आधारभूत ढाँचा मसलन, सड़क, बिजली, शिक्षा, चिकित्सा आदि के विकास तथा कृषि क्षेत्र में आई विसंगतियों को दूर करने के लिये नवम्बर 2004 में प्रोफेसर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया गया। आयोग ने अपनी पाँचवीं एवं अन्तिम रिपोर्ट 4 अक्टूबर, 2006 को केन्द्र सरकार को सौंप दी।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कृषि क्षेत्र में आशातीत वृद्धि हुई है, इस तथ्य से कोई भी इनकार नहीं कर सकता है। क्योंकि वर्ष 1951 में जहाँ खाद्यान्न उत्पादन 5.10 करोड़ टन था वहीं आज बढ़कर 27.249 करोड़ टन तक पहुँच गया है। खाद्यान्न के साथ फल-सब्जी, दूध और मछली के उत्पादन में भी रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हम अधिक उत्पादन और खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब हुए हैं। लेकिन, इस भारी सफलता के बावजूद अपनाई गई कृषि पद्धति से अनेक ऐसे समस्याएँ भी पैदा हुई जिसने कृषि और किसानों को संकट में ला खड़ा किया है।

कृषि पद्धति के अलावा कृषि पारिस्थितिकी और नीतियाँ भी किसान के अनुरूप नहीं रहीं, जैसे बढ़ती आबादी की वजह से किसान की जोत का आकार एक हेक्टेयर से कम हो गया है। पहले के मुकाबले कृषि भूमि पर आश्रित जनसंख्या का भार भी ढाई गुना से अधिक हो गया है।

मंगल टरबाइननीतियों के स्तर पर देखें तो सापेक्ष मूल्यों का रुख किसानों के अहित में रहा है। कृषि उत्पादों के मूल्य दूसरे उत्पादों के मूल्य के मुकाबले 82 से 88 फीसदी के बीच रहे हैं। इस अहितकारी मूल्य प्रणाली के कारण अर्थव्यवस्था के अन्य वर्गों की अपेक्षा किसानों को औसतन 15 प्रतिशत प्रतिवर्ष घाटा उठना पड़ रहा है। इसका सीधा परिणाम यह हुआ कि लगभग हर सात वर्ष में कृषि कार्य में लगे प्रत्येक व्यक्ति की औसत आय, अन्य व्यवसायों में लगे व्यक्तियों के मुकाबले आधी होती चली गई।

कृषि क्षेत्र की सभी विसंगतियों की चिन्ता और अविलम्ब समाधान करना लम्बे समय से अपेक्षित है जिनमें राष्ट्रीय किसान आयोग 1976 की व्यापक रिपोर्ट एवं राष्ट्रीय किसान आयोग (स्वामीनाथन आयोग) 2004 द्वारा 4 अक्टूबर, 2006 को सौंपी अन्तिम रिपोर्ट को लागू करना भी शामिल है जिसमें उन्होंने किसानों के संकट और आत्महत्याओं के कारणों पर खासतौर से फोकस करते हुए उनके लिये राष्ट्रीय नीति बनाने की सिफारिश केन्द्र सरकार से की थी। लेकिन दुर्भाग्यवश वर्ष 2014 तक इन सिफारिशों को ठोस नीतियों में बदले जाने और उनके क्रियान्वयन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की ठोस पहल नहीं हो सकी।

आजादी के सत्तर वर्षों बाद यह पहला अवसर है जब सरकार का फोकस उत्पादन की जगह किसानों की आमदनी बढ़ाने पर है। नतीजन कृषि पद्धति और कृषि परिस्थितियों में सुधार की सिफारिशों को ठोस नीतियों में बदलकर धरातल पर उतारने का सार्थक प्रयास किया गया।

वर्तमान सरकार ने कृषि और किसानों के लिये कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। कृषि राज्यों का विषय होने के कारण केन्द्र की योजनाओं का अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग परिणाम मिला है। कई राज्यों में योजनाओं के सकारात्मक परिणाम मिले हैं जिनका लाभ किसानों को मिला है। लेकिन कई राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण नतीजे उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहे हैं।

गौरतलब है कि कृषि उपज के भाव, कृषि कर्ज, व्यापार जैसे महत्त्वपूर्ण नीति सम्बन्धी निर्णय केन्द्र सरकार करती है। इसी तरह पौध संरक्षा, जैव-विविधता, खाद्य कानून, कृषक अधिकार कानून गाँवों में आधारभूत ढाँचे और मंडियों तथा कृषि मद के लिये धनराशि प्राप्त करने में भी केन्द्र सरकार की मुख्य भूमिका है। लेकिन भारतीय संविधान में कृषि राज्यों का विषय होने के कारण तमाम कानूनों और योजनाओं के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है।

दरअसल हमारे संविधान में कामकाज को तीन भागों में बाँटा गया है। पहला वे हैं जो केन्द्र की सूची में हैं जिन पर कायदे-कानून का अधिकार केेवल केन्द्र सरकार को है। दूसरा, वे जो समवर्ती सूची में हैं जिन पर केन्द्र और राज्य दोनों को कानून बनाने का अधिकार है। अलबत्ता मतभेद की स्थिति में केन्द्रीय कानून सर्वोपरि होता है। तीसरा, वे विषय हैं जो राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में हैं और कृषि इसी सूची में है।

आज बड़ा सवाल ये है कि क्या इन 70 सालों में राज्य खेती-किसानों की जरूरत पूरी कर पाये हैं? क्या वैश्वीकरण के कारण कृषि के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को देखते हुए केन्द्र सरकार की भूमिका को बढ़ाना जरूरी है? शायद इन सभी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय किसान आयोग ने अपनी अन्तिम रिपोर्ट में कृषि को समवर्ती सूची में रखने की सिफारिश की है। आज किसानों की विकराल होती समस्याओं को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने की जरूरत है तथा योजना बनाने की सम्पूर्ण प्रक्रिया पर पुनः विचार कर बदलाव की आवश्यकता है।

प्रधानमंत्री किसानों की आय दोगुनी करने सम्बन्धी परिकल्पना को वर्ष 2022 तक साकार करने के लिये दृढ़ सकल्प हैं। इस महत्त्वपूर्ण उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये कृषि मंत्रालय के अधीन सभी तीन विभागों के तहत संचालित विभिन्न स्कीमों, कार्यक्रमों और मिशनों को एक नई दिशा प्रदान की गई है और एक अन्तर-मंत्रालयी समिति का गठना भी किया गया है। इस समिति में व्यापार, उद्योग, वैज्ञानिकों, नीति-निर्धारकों और अर्थशास्त्रियों सहित प्रगतिशील किसानों को भागीदारी दी गई है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि ‘मैं वर्ष 2022 तक, जब भारत अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मनाए, किसानों की आय को दोगुना करना चाहता हूँ। मैंने इसे एक चुनौती के रूप में लिया है, पर यह केवल एक चुनौती नहीं है। एक अच्छी रणनीति, सुनियोजित कार्यक्रम, पर्याप्त संसाधनों एवं कार्यान्वयन में सुशासन के माध्यम से इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।’

सरकार ने निर्णय लिया है कि वह उत्पादन लागत की कम-से-कम डेढ़ गुनी कीमत पर खरीफ की सभी गैर-घोषित फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य उपलब्ध कराएगी। केवल घोषणा करना पर्याप्त नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि फसलों को घोषित एमएसपी पर खरीदा भी जाना चाहिए, ताकि किसानों को लाभ पहुँच सके। इसके लिये जरूरी है कि यदि कृषि उत्पादों का मूल्य एमएसपी से कम है तब सरकार को स्वयं खरीदारी करनी चाहिए अथवा इस तरह की कार्ययोजना बनाई जानी चाहिए, जिसके जरिए किसानों को एमएसपी उपलब्ध कराया जा सके। नीति आयोग केन्द्र और राज्य सरकारों के परामर्श से एक ऐसे कार्यतंत्र की व्यवस्था करेगा, जिससे किसानों को उनके उत्पादों का पर्याप्त मूल्य प्राप्त हो सके।

किसानों की सी-2 फार्मूले से एमएसपी तय करने की बात को ध्यान में रखते हुए, गृहमंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में एक मंत्रीसमूह का गठन किया गया है, जो जल्द ही इस विषय पर अपनी राय व्यक्त करेगा। दरअसल कृषि और किसानों के लिये ये फैसला मूल का पत्थर साबित होगा। किसानों को प्राकृतिक आपदा और दूसरे नुकसानों से संरक्षण देेने के लिये प्रधानमंत्री ने पुरानी योजना में कई बदलाव करते हुए इसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के नाम से शुरू किया है।

इस योजना में प्रीमियम घटाया गया है और क्लेम के भुगतान की प्रक्रिया को आसान बनाया गया है। इसी क्रम में इस वर्ष 2018-19 में प्रधानमंत्री फसल बीमा के अन्तर्गत 44.59 प्रतिशत वृद्धि कर इस योजना के बजट को 9000.75 करोड़ से बढ़ाकर 13014.15 करोड़ रुपए कर दिया गया है। प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बेहतर करने के लिये नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट पर गौर करना होगा।

कैग ने फसल बीमा योजनाओं के अमल में वित्तीय संस्थाओं द्वारा की गई अनियमिताओं एवं कमियों की ओर ध्यान दिलाते हुए बताया है कि तमाम किसान बैंकों की अनदेखी के चलते बीमा के अपने दावों को खो देते हैं। फसल बीमा योजनाओं को लागू करने वाली एजेंसियों ने बीमा को लेकर बैंकों द्वारा भेजे गए प्रस्तावों में कमियों के चलते भी किसानों के दावों को खारिज किया है।

ऐसे उदाहरण सामने आये हैं कि मुआवजे के दावों की रकम को बैंकों ने लाभार्थी के खाते में जमा नहीं किया। इसीलिये कैग ने सरकार से कहा है कि इन तमाम निजी बीमा कम्पनियों का लेखा-जोखा सार्वजनिक तौर पर किया जाना चाहिए क्योंकि उन्हें जनता के करों से एकत्रित पैसों से भारी मात्रा में फंड दिये जाते हैं। फसल बीमे का मुआवजा तय करने में क्रॉप कटिंग एवं टीआरएस (टाइमली रिकॉर्डिंग स्कीम) जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों को और अधिक समयबद्धता और गम्भीरता के साथ सम्पादित कराए जाने की आवश्यकता है क्योंकि यह कार्य कृषि की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

क्रॉप कटिंग के नमूनों के परिणाम से नुकसान का पता लगाया जाता है तथा मुख्य फसलों के उत्पादन व उत्पादकता की वास्तविक स्थिति का आकलन किया जाता है। लेकिन कर्मचारियों की शिथिलता के कारण इस महती कार्य में चूक हो जाती है।

प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई ‘हर खेत को पानी’ के तहत सिंचाई के संसाधनों में बढ़ोत्तरी हुई है और सिंचाई के तहत आने वाली जमीन में इजाफा हुआ है। माइक्रो इरिगेशन में भी काम तेजी से हो रहा है। इसे लिये खास बजट का भी प्रावधान किया गया है। अभी तक लगभग 10.48 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड वितरित किये जा चुके हैं।

करोड़ों कार्ड बनने के बाद कितने किसान इसके अनुसार न्यूट्रीएंट उपयोग कर रहे हैं अभी इसका कोई आँकड़ा उपलब्ध नहीं है। लेकिन नीमलेपित यूरिया का 100 फीसदी लक्ष्य पूरा हो गया है। इससे जहाँ यूरिया की कमी से परेशान किसान को फायदा हुआ है। वहीं यूरिया का इंडस्ट्री को डायवर्जन बन्द हुआ है और सरकार की सब्सिडी बची है। प्रधानमंत्री सतत कृषि प्रबन्धन द्वारा हर स्तर पर उत्पादन और उत्पादकता बनाए रखते हुए, रसायनों और उर्वरकों पर निर्भरता कम करते हुए देशी पारम्परिक तकनीकों को बढ़ावा दे रहे हैं। अभिलेखों यानी लैंड रिकॉर्ड्स को डिजिटल करने के लिये भी कार्यक्रम शुरू किये गए हैं और कई राज्यों में यह काम काफी आगे बढ़ गया है।

तेलगांना में तो रिकॉर्ड डिजिटल करने के बाद अब उनकों आधार नम्बर से जोड़ने का भी काम शुरु हो चुका है। ग्रामीण विद्युतीकरण के क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव हुआ है। साथ ही पिछले चार सालों के दौरान देश के गाँवों में साढ़े पाँच लाख किलोमीटर से ज्यादा सड़कों का निर्माण हुआ है जिससे किसानों की बाजार तक कनेक्टिविटी का बेहतर ढाँचा तैयार हुआ है। जाहिर है कि मंडी और बाजार तक किसानों की आसान पहुँच उन्हें उनकी फसलों का अधिक लाभ भी दिलाएगी।

चार सालों में खेती-किसानी से जुड़ी योजनाएँ सरकार द्वारा की गई अच्छी शुरुआत कही जा सकती है। अपने 4 साल के कार्यकाल में कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने, किसानों की आय आय बढ़ाने और उन्हें खेती हेतु प्रोत्साहित करने हेतु संरक्षण एवं सुरक्षा देने के लिये कई महत्त्वपूर्ण नीतिगत फैसले लिये गए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि योजनाओं के क्रियान्वयन के दौरान बहुत-सी व्यावहारिक समस्याएँ सामने आएँगी, हमेशा इनमें सुधार की गुंजाईश बनी रहेगी, जो समय-समय पर होने भी चाहिए।

वर्तमान समय में किसानों की हालत अच्छी नहीं और उनके लिये अभी बहुत कुछ किया जाना है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान सरकार में किसानों के लिये कुछ करने का जज्बा दिखाई देता है। सरकार ने किसानों के हितों में न केवल बेहतरीन और ठोस योजनाओं का निर्माण किया है, बल्कि उन्हें जमीन पर सार्थक रूप से उतारने का प्रयास भी किया है। इसके सुखद नतीजे आने वाले दिनों में जरूर दिखेंगे।

(लेखक कृषि एवं किसान मामलों के विशेषज्ञ तथा दूरदर्शन किसान चैनल के संस्थापक सलाहकार रहे हैं।)

ई-मेलः nnareshsirohi@gmail.com

 

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