कृषि को उद्योग का दर्जा


कृषि को उद्योग मानकर वाणिज्यिक सिद्धान्तों से संचालित करने से तात्पर्य यह है कि उद्योग के समान कृषि की प्रत्येक प्रक्रिया को व्यवस्थित तरीके से किया जाए क्योंकि व्यावहारिक रूप में देखा गया है कि जिन्होंने कृषि को व्यावसायिक चुनौती मानते हुए जुताई, बुवाई, कटाई व विपणन को संचालित किया है वे सफल रहे हैं, निरन्तर उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि की है एवं आर्थिक रूप से समर्थ हुए हैं।

किसी भी अर्थव्यवस्था में यह पूर्णतया असम्भव है कि दीर्घकाल तक कृषि को छोड़ शेष उद्योग फलते-फूलते रहें। यदि ऐसा होता है तो वह एक पंगु अर्थव्यवस्था होगी। दीर्घकालीन आर्थिक विकास के लिये सभी उद्योगों की समन्वित उन्नति आवश्यक है जिसमें कृषि उद्योग सर्वाधिक योगदान देता है, हालाँकि हमने कृषि को उद्योगों की श्रेणी कसे पृथक कर दिया है। यही तथ्य विकास के रास्ते में प्रमुख रोड़ा है।

अर्थशास्त्रियों ने उद्योग को वह व्यावसायिक क्रिया बताया है जिसमें वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है। विस्तृत अर्थ में उद्योग के अन्तर्गत प्राकृतिक उद्योग, खनन उद्योग, निर्माण उद्योग व रचनात्मक उद्योग भी आ जाते हैं।

कालजेन्ज फ्लोरेन्स के अनुसार ‘‘उद्योग से आशय निर्माण से है तथा कृषि, खनिज एवं अधिकांश सेवाएँ इसके अन्तर्गत हैं।’’

इस प्रकार स्पष्ट है कि कृषि भी उद्योग का एक रूप है, किन्तु विडम्बना यह है कि इसे उद्योग नहीं माना जाता है। कृषि द्वारा जो उत्पाद प्राप्त होते हैं इन उत्पादों का उपयोग कर अन्य खाद्य वस्तुएँ निर्मित करने वाले व्यवसाय को तो उद्योग माना गया है, उदाहरणार्थ- गेहूँ का उत्पादन करना उद्योग की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है जबकि गेहूँ से अन्य खाद्य पदार्थ जैसे आटा, बिस्कुट इत्यादि बनाने वाले व्यवसाय को उद्योग की श्रेणी में शामिल किया गया है।

नियोजन के व्यय में कृषि क्षेत्र में विनियोग की मात्रा उद्योग क्षेत्र की अपेक्षा कम रही है। कृषि व सिंचाई पर पहली से छठी पंचवर्षीय योजनाओं में सार्वजनिक क्षेत्र के व्यय का लगभग 21 प्रतिशत व्यय किया गया जबकि उद्योग व खनिज पर लगभग 40 प्रतिशत व्यय किया गया। पहली योजना में नियोजन के संसाधनों का 37 प्रतिशत कृषि में आवंटित किया गया था। यह घटकर सातवीं योजना में 21.2 प्रतिशत रह गया। कृषि जिस पर इस देश की 75 प्रतिशत जनसंख्या की आजीविका निर्भर है, की प्रगति के लिये अधिकतम योजना-राशि की आवश्यकता है। कृषि को उद्योगों की श्रेणी में शामिल कर उन्नति के विशेष प्रयास आवश्यक हैं।

कृषि को उद्योग के समान स्वीकार करते हुए उत्पादन, मूल्य विपणन, वितरण और अन्य सम्बन्धित मुद्दों पर नीतिगत निर्णय लेकर, अमल करने के लिये स्पष्ट कृषि-नीति बनायी जानी चाहिए।

कृषि को उद्योग के रूप में विकसित करने के लिये जरूरी है कि कृषि क्रियाएँ पूर्णतः आर्थिक दृष्टिकोण से सम्पन्न की जाएँ। कृषि पर समाज की खाद्यान्न पूर्ति का अनावश्यक सामाजिक भार न डाला जाए। कृषि के साथ सौतेला व्यवहार न करते हुए उद्योगों के समान आर्थिक लाभ वाली नीति अपनाई जाए। उदाहरण के लिये फूलों की कृषि, उद्योग के रूप में की जा रही है जिसके अच्छे परिणाम सामने आये हैं।

जिले के कृषकों की निम्न आर्थिक दशा का प्रमुख कारण उनके द्वारा कृषि, वाणिज्यिक सिद्धान्तों के आधार पर न करना है। उनके लिये कृषि केवल दिनचर्या है। इस मनोवृत्ति का त्याग, आर्थिक सुधार हेतु अतिआवश्यक है।

कृषि को उद्योग मानकर वाणिज्यिक सिद्धान्तों से संचालित करने से तात्पर्य यह है कि उद्योग के समान कृषि की प्रत्येक प्रक्रिया को व्यवस्थित तरीके से किया जाए क्योंकि व्यावहारिक रूप में देखा गया है कि जिन्होंने कृषि को व्यावसायिक चुनौती मानते हुए जुताई, बुवाई, कटाई व विपणन को संचालित किया है वे सफल रहे हैं, निरन्तर उत्पादन व उत्पादकता में वृद्धि की है एवं आर्थिक रूप से समर्थ हुए हैं।

उद्योगों के समान ही कृषि उद्योग के भी लघु व वृहद रूप हो सकते हैं। लघु कृषि उद्योग व वृहद कृषि उद्योग को उद्योगों के समान व्यक्तिगत सहायता प्रदान कर विकसित किया जाए।

व्यक्तिगत कृषि को लघु कृषि उद्योगों की परिभाषा में शामिल किया जाए। लघु कृषि उद्योगों को लघु उद्योग क्षेत्र के समान सहायता उपलब्ध करायी जाए। लघु कृषि उद्योग की ऋण सम्बन्धी आवश्यकता को पूरा करने के लिये अन्य उद्योग इकाइयों की अपेक्षा प्राथमिकता दी जाए। समयबद्ध प्रक्रिया का पालन कड़ाई से किया जाए। लघु कृषि उद्योग की विभिन्न प्रक्रियाओं हेतु हर सम्भव सहायता प्रदान की जाए ताकि यह विकसित हो सके।

व्यक्तिगत कृषि को उद्योग के रूप में विकसित करने में कुछ बाधाएँ आती हैं जैसे- जोत का छोटा होना; बीज, खाद, कीटनाशक सम्बन्धी ज्ञान का अभाव; सिंचाई के संसाधन की कमी; आर्थिक बाधाएँ; कृषि उपज विपणन में कठिनाइयाँ इत्यादि। इन समस्याओं को दूर करने के लिये कृषि को वृहद कृषि उद्योग के रूप में अपनाना होगा। इसके लिये कम्पनी के स्वरूप, समूह गाँव योजना, सहकारी कृषि, साझेदारी कृषि इत्यादि को स्थापित किया जा सकता है।

वृहद कृषि उद्योग के रूप को अपनाने पर वृहद उद्योगों के समान प्रगति सम्भव है वृहद कृषि उद्योग में कृषि उपज के द्वारा विभिन्न खाद्य उत्पाद बनाना सम्भव होगा, जिसमें प्रथम स्तर पर कृषि उपज उत्पादन प्रक्रिया होगी, द्वितीय स्तर पर कृषि उपज से विभिन्न उत्पाद निर्मित किये जाएँगे एवं तृतीय स्तर पर निर्मित उत्पादों का विपणन किया जाएगा। उदाहरणार्थ वृहद उद्योगों में बड़ी मात्रा में चने का उत्पादन होगा, फिर दाल-मिल स्थापित कर दाल बनायी जाए एवं दाल का विक्रय किया जाए। दाल की अग्र प्रक्रिया के रूप में बेसन मिल स्थापित की जाए एवं इसका विपणन किया जाए।

वृहद कृषि उद्योग के लिये सरकार द्वारा हर सम्भव सहायता प्रदान की जाए जो प्रशासनिक; सहयोगात्मक; वित्तीय; रियायती दरों पर विद्युत, संचार सुविधाएँ, जल संसाधन उपलब्ध कराना; सड़कों का निर्माण; करों में रियायत व विपणन को प्राथमिकता इत्यादि के रूप में हो सकती है।

उद्योग का दर्जा देने से पूर्व कृषि में संरचनात्मक एवं संगठनात्मक परिवर्तन करना आवश्यक होगा। इसके लिये पृथक अधिनियम बनाकर लाइसेंसिंग, पंजीयन, नियमन, व नियंत्रण की व्यवस्था करनी होगी। व्यक्तिगत कृषि कुटीर उद्योग की श्रेणी में आएगी, जिसे सहायता देने के लिये खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड के समान कृषि कुटीर उद्योग बोर्ड का गठन किया जा सकता है जो विकास एवं विपणन में सहयोग कर सकता है। पूँजी प्रधान कृषि को उद्योगों के समान समस्त सुविधाएँ मिल सकेंगी।

संक्षेप में, कृषि की स्वभावगत विशेषताएँ काफी कुछ उद्योगों के समान हैं। इसी आधार पर कृषि को भी उद्योगों का दर्जा प्रदान कर प्राथमिकता के अनुसार विकास की ओर अग्रसर किया जाए, ताकि कृषि में संलग्न कृषक आर्थिक रूप से समर्थ हो सकें।

सहायक प्राध्यापक, श्री नीलकंठेश्वर शास. स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, खण्डवा (म.प्र.)

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