कृषि की अहमियत

भारतीय कृषक और कृषि आज दोनों ही संकट में हैं। खेती की बढ़ती लागत और प्राकृतिक संसाधनों पर बढ़ता दबाव स्थितियों को प्रतिकूल बना रहा है। इस पर किसानों की ऋणग्रस्तता और बढ़ती आत्महत्याएं भारतीय समाज के ऊपर स्थायी सूतक थोप रही हैं। हमारा भविष्य खेती किसानी में ही सुरक्षित है। यदि इस बात को अब भी नहीं समझा गया तो भविष्य को अंधकारमय होने से कोई नहीं रोक पाएगा। मानव सभ्यता के मूल में खेती होते हुए भी आज खेती संकट में है। विश्व की यह सबसे बड़ी शोकांतिका है, क्योंकि भारत में ही नहीं चीन और अमेरिका जैसे देशों में भी किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। सुविधाभोगी और फैशनपरस्त जिंदगी जी रहे शहरी लोग विकास के लिए इसे आवश्यक घटना मानकर भले ही अपने हाथ झटक लें, लेकिन इस पाप की भागीदारी से वे बच नहीं सकते। पंढरपुर (महाराष्ट्र) के पास अंकोली गांव में वैज्ञानिक अरुण देशपांडे ने तो व्यथित होकर अपने खेत के बाहर एक बोर्ड टांग रखा है। मेरे देश के 2 लाख 40 हजार किसान भाई आत्महत्या कर चुके हैं और इतने ही दिनों तक मैं सूतक में रहूंगा।

दाभोलकर सूर्य खेती प्रयोग परिवार के सदस्य अरुण देशपांडे के पास अकालग्रस्त सोलापुर जिले में स्वनिर्मित तालाब में आज आठ करोड़ लीटर जल उपलब्ध है और महाराष्ट्र शासन ने उनके खेत को कृषि पर्यटन क्षेत्र में शामिल किया है। सुनामी या भूकंप जैसी दैवीय घटनाओं से तबाही के लिए भले ही हम जिम्मेदार न हो, लेकिन हमारे किसानों की हारी जिंदगी को खुशहाल कर हम उन्हें वापिस लौटा सकते हैं। आज पूरा विश्व दो प्रमुख समस्याओं से घिरा हुआ है, एक अन्नसुरक्षा और दूसरी आतंकवाद। ये दोनों घटनाएं परोक्ष या अपरोक्ष रूप से एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अन्न, वस्त्र और मकान मानव के लिए आवश्यक हैं और ये तीनों चीजें खेती से मिलती हैं। लेकिन दुर्भाग्य से विकास का जो शहरी ढांचा हमने खड़ा किया है उसी के नीचे हमारा अन्नदाता दब गया है। खेती को पिछड़ा हुआ व्यवसाय मान लिया गया है और किसान को निरा गंवार, अनपढ़ और दकियानूसी करार दिया गया है।

आज पूरे विश्व में भारत को यदि महाशक्ति होने का हकदार माना जा रहा है तो वह टाटा, बिड़ला, अंबानी, मित्तल और आय.टी. के नूतन नवधनाढ्यों के कारण नहीं, बल्कि इसी शूद्र, गंवार अनपढ़ और दकियानूसी किसान जमात के कारण है। गांधी ने इस शक्ति को सही रूप में पहचाना था। इसलिए तिलक के पश्चात् स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई अहिंसक मार्ग से लड़ी जाएगी यह प्रस्ताव उन्होंने कांग्रेस की कार्यकारिणी सभा जब पारित करा लिया, तो उसके एक साल के अंदर कांग्रेस की सदस्यता 1 करोड़ हो गई थी, जिसमें 96 लाख किसान थे। गांधीजी का आग्रह था कि यदि हमें यह देश सचमुच प्रजातांत्रिक तरीके से चलाना है तो शासन में बैठे 75 प्रतिशत लोग किसान होने चाहिए।

खेती मात्र अन्न, वस्त्र और आवास निर्मित करने का ही साधन नहीं है, फसलों से जीवनावश्यक कुटीर उद्योग भी गांव में चलते थे और लोगों को रोजगार मिलता था। यही भारत का वैज्ञानिक कसौटी पर परखा और खरा उतरा पारंपरिक ज्ञान था। आजादी के बाद हमारे देश में कृषि शिक्षा और अनुसंधान का जो जाल बिछाया गया उसने इस पारंपरिक ज्ञान की विद्वता को नकारा और अपने स्नातकों और कृषि वैज्ञानिकों को गांवों से तोड़ा। अमेरिका में जिस तरह उद्योगों को चलाने के लिए खेती की जाती है, ठीक वही प्रयोग हमारे यहां प्रारंभ हुए। यह जमीनी सच्चाई है कि आजादी के बाद भीमकाय उद्योगों का जाल पूरे देश में फैलाकर और अपने खजाने का खरबों रुपया लगाकर भी हम गरीबों को जीने की मूलभूत चीजें मुहैया नहीं करा पा रहे हैं।

उपयोगी पारंपरिक फसलों की जगह किसानों से नकदी फसलें उगवाकर हम उनके हाथों में धन (मुद्रा-नोट) दे रहे हैं और उनकी दौलत (लकड़ी, चारा, जल, विविध फसलें, मवेशी और मजदूर) उनसे लूट रहे हैं। बेशक हमारे कई राजनेता किसान हैं, लेकिन वे धन लोभी एजेंसियों के हाथों व सत्ता का जो अनैतिक खेल खेल रहे हैं उससे देश को नुकसान पहुंच रहा है। आज भ्रमित वैश्विकरण में लिप्त इन एजेंसियों के खिलाफ पूरे विश्व के संवेदनशील नागरिक एकजुट हो रहे हैं और अपनी सरकारों को चुनौती दे रहे हैं। आज कई देशों में समुदाय आधारित खेती हो रही है। समुदाय अपनी आवश्यकता के अनुसार किसानों से खाद्यान्न पैदा करवा रहे हैं। किसान और उपभोक्ता एक हो रहे हैं और दुकानदारों को चुनौती दे रहे हैं।

भारत में हमारे पूर्वज अपनी आय का एक हिस्सा आवश्यक रूप से दान, धर्म और सामाजिक उन्नति के लिए रखा करते थे, लेकिन आज धर्म के नाम पर जिस तरह लोगों को छलावे में रखा जा रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। वैसे ही शिक्षा का जो व्यापार देश में चल रहा है उससे देश का भला नहीं होने वाला है। गांधीजी ने सौ साल पहले ही इसे भांप लिया था और इसलिए वे ग्रामीण शिक्षा से ग्रामीण मजबूती पर जोर देते रहते थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश के संवेदनशील नागरिकों को किसान कोष की स्थापना करना चाहिए और किसानों को सम्मानीय दौलत (धन नहीं) गांवों में मुहैया कराना चाहिए। यही देश के हित में है और यही ग्रामोन्मुखी विकास का सच्चा पूंजी निवेश भी होगा।

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