जलवायु
अरावली पर्वतमाला द्वारा दो स्पष्ट भागों में विभक्त होने से राजस्थान की जलवायु काफी प्रभावित है। यों पूरे प्रदेश में तेज गर्मी वाली परिस्थितियां है, लेकिन अरावली के पश्चिमी क्षेत्र की परिस्थितियां बहुत ही प्रतिकूल मानी जाती है। यहां अति उच्च तापमान, अत्यधिक सूखे की लंबी अवधि, तेज आंधियां और कम आर्द्रता होती है। अरावली के पूर्व की ओर वाले क्षेत्रों में जलवायु थोड़ी कम विकट है। लेकिन यहां भी वर्षा और तापमान में काफी भिन्नता है।
वर्षा
राज्य की औसत वार्षिक वर्षा में काफी अंतर है। एक तरफ जैसलमेर में 164 मि.मी. है तो झालावाड़ में 1004 मि.मी. वर्षा होती है। राज्य की औसत वार्षिक वर्षा 573 मि.मी. है। आइसो हाइट्स की सामान्य प्रवृत्ति उत्तर-पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर है।
राज्य में औसत वार्षिक वर्षा उत्तर-पश्चिमी जैसलमेर में 100 मि.मी. से कम (राज्य में न्यूनतम), गंगानगर, बीकानेर और बाड़मेर के क्षेत्रों में 200-300 मि.मी. नागौर, जोधपुर, चुरु और जालोर के क्षेत्रों में 300-400 मि.मी. सीकर, झुन्झुनू के क्षेत्रों में तथा अरावली की पश्चिमी सीमाओं की किनारों वाली क्षेत्रों में 400 मि.मी. और अजमेर में 550 मि.मी. से झालावाड़ में 1020 मि.मी. तक चला जाता है। झालावाड़ अरावली के पूर्व दिशा में अवस्थित है। मैदानी क्षेत्रों में बांसवाड़ा (920 मि.मी.) और झालावाड़ (950 मि.मी.) जिलों में सबसे अधिक वर्षा होती है।
पूरे राज्य में कुल वार्षिक वर्षा भी काफी अस्थिर है। यह राज्य के पश्चिमी आधे भाग में सबसे अधिक अस्थिर है। बराबर सूखे का आना तथा कम दाब वाली परिस्थितियां बनने के कारण किसी-किसी वर्ष में अत्यधिक वर्षा और बाढ़ की परिस्थितियां भी बन जाती हैं।
दक्षिणी-पश्चिमी मानसून राज्य के पूर्वी क्षेत्र में जून के अंतिम सप्ताह में प्रवेश कर सितंबर के मध्य तक विदा हो जाता है। पूर्व मानसूनी वर्षा जून के मध्य से आरंभ होती है तथा पश्च मानसूनी वर्षा कभी-कभी अक्टूबर में भी होती है। शीतकाल में भी जब कम दाबीय तंत्र राजस्थान के क्षेत्रों से गुजरता है, तब भी कभी-कभी कुछ वर्षा हो जाती है। अधिकांश क्षेत्रों में उच्चतम सामान्य मासिक वर्षा जुलाई और अगस्त में होती है। विभिन्न स्थानों में इसी अवधि में भी कुल वर्षा वाले दिनों में काफी अंतर हैं, उदाहरण के लिए जैसलमेर में 10 दिन हैं वर्षा के तो झालावाड़ में 40 और आबूपर्वत में 48 तक होते हैं। शेष समयावधि में वर्षा जैसलमेर में 21 मि. मी. से जयपुर में 72 मि.मी. तक ढाई से छः वर्षा दिनों में वितरित होती है।
अनेक बार सूखे कि स्थितियाँ एक विपदा अथवा भीषण अकाल का रूप लेती हैं और राज्य को इससे निपटने हेतु कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। लाखों लोग जल की भारी किल्लत और अकाल से प्रभावित होते हैं। राज्य सरकार को इन परिस्थितियों में दो प्रकार का भारी आर्थिक बोझ सहना पड़ता है (i) अकाल राहत हेतु आर्थिक मदद और (ii) भू-राजस्व को स्थगित करना इससे भू-राजस्व की आय में भारी कमी हो जाती है। लोग पड़ोसी राज्यों में धंधों की तलाश में पलायन कर जाते हैं। पशुओं को भी चारे-पानी के तलाश में गांव से बाहर अन्य दूरस्थ राज्यों में ले जाना पड़ता है या उनके भरोसे छोड़ देना पड़ता है। अकाल में बड़े पैमाने पर पशुधन की हानि होती है। पूरे प्रदेश का आर्थिक संतुलन बिगड़ जाता है। आकाल से उत्पन्न आर्थिक परेशानियों के कारण राज्य के खजाने पर भारी बोझ पड़ता है। चाहे जैसे भी, विपदाओं के मानवीय पक्षों की दृष्टि में आर्थिक सोच को अभिभूत करना होता है।
राजस्थान : जिलेवार मासिक औसत वर्षा
जिला | जनवरी | फरवरी | मार्च | अप्रैल | मई | जून | जुलाई | अगस्त | सितंबर | अक्टूबर | नवंबर | दिसंबर | वार्षिक |
पश्चिमी राजस्थान |
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बाड़मेर | 0.28 | 0.36 | 0.25 | 0.16 | 0.66 | 1.94 | 8.73 | 11.31 | 3.37 | 0.36 | 0.06 | 0.11 | 27.59 |
बीकानेर | 0.36 | 0.62 | 0.41 | 0.43 | 0.99 | 2.49 | 7.49 | 9.12 | 3.08 | 0.55 | 0.09 | 0.33 | 25.96 |
चुरु | 0.86 | 0.66 | 0.53 | 0.42 | 0.99 | 3.48 | 10.10 | 9.52 | 4.94 | 0.52 | 0.12 | 0.41 | 32.55 |
गंगानगर | 0.97 | 0.98 | 0.68 | 0.53 | 0.55 | 2.74 | 7.74 | 7.31 | 3.14 | 0.32 | 0.03 | 0.38 | 25.37 |
जालोर | 0.29 | 0.45 | 0.19 | 0.16 | 0.55 | 3.95 | 15.17 | 15.52 | 5.03 | 0.62 | 0.08 | 0.15 | 42.16 |
जैसलमेर | 0.16 | 0.37 | 0.13 | 0.12 | 0.27 | 0.84 | 4.80 | 6.09 | 1.14 | 0.08 | 0.05 | 0.04 | 14.09 |
जोधपुर | 0.39 | 0.53 | 0.37 | 0.28 | 0.93 | 3.09 | 9.75 | 11.93 | 4.49 | 0.48 | 0.11 | 0.18 | 32.53 |
नागौर | 0.57 | 0.55 | 0.50 | 0.35 | 1.18 | 3.52 | 12.88 | 12.66 | 5.08 | 0.56 | 0.11 | 0.38 | 38.34 |
पाली | 0.35 | 0.47 | 0.21 | 0.20 | 1.09 | 4.16 | 14.48 | 18.24 | 7.09 | 0.65 | 0.15 | 0.13 | 47.22 |
पूर्वी राजस्थान |
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अजमेर | 0.51 | 0.56 | 0.44 | 0.30 | 1.07 | 4.99 | 16.20 | 16.35 | 7.30 | 1.01 | 0.28 | 0.41 | 49.42 |
अलवर | 1.25 | 1.09 | 0.92 | 0.57 | 1.26 | 4.90 | 17.99 | 12.77 | 10.37 | 1.29 | 0.24 | 0.33 | 57.77 |
बांसवाड़ा | 0.32 | 0.19 | 0.14 | 0.08 | 0.42 | 10.97 | 32.22 | 29.35 | 16.13 | 1.76 | 0.57 | 0.62 | 92.24 |
बूंदी | 0.54 | 0.34 | 0.32 | 0.25 | 0.72 | 6.76 | 28.10 | 27.35 | 10.62 | 0.78 | 0.21 | 0.09 | 76.41 |
भरतपुर | 1.26 | 1.00
| 0.74 | 0.54 | 1.00 | 5.11 | 20.48 | 20.85 | 12.10 | 1.81 | 0.30 | .0.42 | 65.78 |
भीलवाड़ा | 0.51 | 0.22 | 0.36 | 0.28 | 0.68 | 5.93 | 25.67 | 25.30 | 9.56 | 0.62 | 0.19 | 0.59 | 69.90 |
चित्तौड़गढ़ | 0.60 | 0.23 | 0.23 | 0.15 | 0.55 | 8.55 | 29.49 | 30.91 | 12.50 | 0.99 | 0.63 | 0.58 | 85.27 |
डूंगरपुर | 0.21 | 0.19 | 0.13 | 0.11 | 0.72 | 9.89 | 28.67 | 23.32 | 11.30 | 1.10 | 0.43 | 0.38 | 76.17 |
जयपुर और दौसा | 1.12 | 0.90 | 0.59 | 0.36 | 0.99 | 5.13 | 18.21 | 18.07 | 8.50 | 0.99 | 0.19 | 0.10 | 55.64 |
झालावाड़ | 1.05 | 0.54 | 0.35 | 0.33 | 0.92 | 10.09 | 33.45 | 30.01 | 15.17 | 1.35 | 1.29 | 0.57 | 95.16 |
झुंझुनू | 1.11 | 0.94 | 0.83 | 0.54 | 1.35 | 4.84 | 14.13 | 12.57 | 6.58 | 0.85 | 0.19 | 0.52 | 44.59 |
कोटा और बारा | 1.01 | 0.54 | 0.34 | 0..31 | 0.84 | 8.34 | 31.96 | 28.59 | 13.48 | 1.46 | 0.84 | 0.57 | 88.28 |
सीकर | 1.22 | 0.78 | 0.73 | 0.50 | 1.22 | 4.65 | 15.08 | 14.23 | 6.37 | 0.59 | 0.21 | 0.51 | 46.09 |
सिरोही | 0.42 | 0.52 | 0.17 | 0.25 | 1.20 | 5.77 | 23.81 | 22.63 | 7.63 | 0.92 | 0.30 | 0.22 | 63.84 |
सवाई माधोपुर | 1.04 | 0.63 | 0.59 | 0.38 | 0.80 | 5.75 | 23.39 | 23.60 | 10.35 | 1.19 | 0.27 | 0.50 | 68.49 |
टोंक | 0.80 | 0.47 | 0.36 | 0.33 | 0.77 | 5.75 | 21.23 | 20.75 | 9.44 | 0.81 | 0.21 | 0.44 | 61.36 |
उदयपुर और राजसमंद | 0.80 | 0.32 | 0.29 | 0.17 | 0.92 | 6.80 | 22.89 | 20.49 | 10.79 | 1.00 | 0.45 | 0.20 | 65.03 |
जिलेवार वर्षा वाले दिनों की संख्या
जिला | जनवरी | फरवरी | मार्च | अप्रैल | मई | जून | जुलाई | अगस्त | सितंबर | अक्टूबर | नवंबर | दिसंबर | वार्षिक |
पश्चिमी राजस्थान |
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बाड़मेर | 0.20 | 0.30 | 0.20 | 0.10 | 0.50 | 1.10 | 4.00 | 4.40 | 1.60 | 0.10 | 0.10 | 0.10 | 12.70 |
बीकानेर | 0.40 | 0.70 | 0.50 | 0.50 | 0.90 | 1.90 | 4.44 | 4.60 | 1.80 | 0.30 | 0.00 | 0.30 | 16.30 |
चुरु | 0.80 | 0.70 | 0.60 | 0.40 | 1.00 | 2.30 | 5.30 | 5.00 | 2.50 | 0.30 | 0.10 | 0.40 | 19.40 |
गंगानगर | 1.10 | 0.90 | 0.70 | 0.50 | 0.60 | 1.70 | 4.20 | 3.70 | 1.60 | 0.30 | 0.00 | 0.40 | 15.70 |
जालोर | 0.20 | 0.40 | 0.20 | 0.10 | 0.40 | 1.70 | 6.30 | 6.40 | 2.50 | 0.30 | 0.10 | 0.10 | 18.70 |
जैसलमेर | 0.10 | 0.20 | 0.10 | 0.10 | 0.20 | 0.40 | 2.10 | 2.10 | 0.50 | 0.00 | 0.00 | 0.00 | 5.80 |
जोधपुर | 0.30 | 0.50 | 0.30 | 0.30 | 0.90 | 1.80 | 5.10 | 5.50 | 2.30 | 0.30 | 0.10 | 0.20 | 17.60 |
नागौर | 0.60 | 0.60 | 0.50 | 0.30 | 1.10 | 2.40 | 6.30 | 6.30 | 2.80 | 0.40 | 0.10 | 0.30 | 21.70 |
पाली | 0.30 | 0.50 | 0.20 | 0.20 | 0.90 | 2.40 | 6.70 | 6.80 | 3.10 | 0.50 | 0.10 | 0.10 | 21.80 |
पूर्वी राजस्थान |
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अजमेर | 0.50 | 0.60 | 0.50 | 0.30 | 1.00 | 2.80 | 7.80 | 7.80 | 3.50 | 0.60 | 0.20 | 0.30 | 25.90 |
अलवर | 1.10 | 1.00 | 0.80 | 0.60 | 1.10 | 2.90 | 8.40 | 8.30 | 4.40 | 0.60 | 0.20 | 0.22 | 29.90 |
बांसवाड़ा | 0.40 | 0.20 | 0.10 | 0.10 | 0.30 | 4.40 | 13.60 | 12.20 | 6.30 | 0.80 | 0.40 | 0.50 | 38.90 |
बूंदी | 0.60 | 0.50 | 0.40 | 0.30 | 0.70 | 4.00 | 11.80 | 10.90 | 5.30 | 0.50 | 0.20 | 0.10 | 35.40 |
भरतपुर | 1.10 | 0.90 | 0.70 | 0.50 | 1.10 | 3.30 | 9.90 | 10.00 | 5.40 | 0.70 | 0.20 | 0.20 | 34.40 |
भीलवाड़ा | 0.50 | 0.30 | 0.40 | 0.30 | 0.60 | 3.20 | 11.00 | 10.30 | 4.20 | 0.40 | 0.10 | 0.60 | 31.60 |
चित्तौड़गढ़ | 0.50 | 0.30 | 0.20 | 0.20 | 0.50 | 3.90 | 11.40 | 10.50 | 5.10 | 0.50 | 0.30 | 0.30 | 33.60 |
डूंगरपुर | 0.30 | 0.10 | 0.10 | 0.10 | 0.60 | 4.30 | 12.40 | 10.70 | 5.10 | 0.60 | 0.30 | 0.20 | 34.70 |
जयपुर और दौसा | 1.00 | 1.00 | 0.70 | 0.40 | 1.10 | 3.40 | 9.50 | 9.50 | 4.50 | 0.60 | 0.20 | 0.10 | 32.40 |
झालावाड़ | 1.00 | 0.50 | 0.40 | 0.30 | 0.90 | 5.50 | 12.80 | 11.50 | 6.80 | 0.90 | 0.80 | 0.50 | 41.90 |
झुंझुनू | 1.10 | 1.00 | 0.90 | 0.60 | 1.50 | 3.10 | 7.20 | 6.90 | 3.40 | 0.60 | 0.20 | 0.50 | 27.00 |
कोटा और बारा | 1.00 | 0.60 | 0.40 | 0.30 | 0.80 | 4.50 | 12.70 | 11.60 | 6.30 | 0.90 | 0.60 | 0.50 | 40.20 |
सीकर | 1.20 | 0.90 | 0.80 | 0.60 | 1.30 | 2.90 | 8.40 | 8.50 | 3.90 | 0.50 | 0.30 | 0.50 | 29.80 |
सिरोही | 0.50 | 0.50 | 0.20 | 0.20 | 0.80 | 2.90 | 9.90 | 9.20 | 3.60 | 0.70 | 0.20 | 0.20 | 28.90 |
सवाई माधोपुर | 1.00 | 0.80 | 0.50 | 0.40 | 0.80 | 3.40 | 10.70 | 10.70 | 5.00 | 0.60 | 0.20 | 0.60 | 34.70 |
टोंक | 0.90 | 0.60 | 0.50 | 0.40 | 0.80 | 3.30 | 10.40 | 10.40 | 4.60 | 0.60 | 0.20 | 0.30 | 33.00 |
उदयपुर और राजसमंद | .0.80 | 0.30 | 0.30 | 0.10 | 0.80 | 3.30 | 10.30 | 8.90 | 4.90 | 0.70 | 0.30 | 0.20 | 30.50 |
सारणी 3.2 स्रोत : राजस्थान के संसाधनों की एटलस
राजस्थान में अकाल एवं वर्षा की कमी की अवस्थाओं के कारण हानि
कृषि वर्ष | प्रभावित जिलों की संख्या | प्रभावित गाँवों की संख्या | प्रभावित आबादी (करोड़ों में) | निलंबित भू-राजस्व (करोड़ों में) |
81-82 | 26 | 23246 | 2.0 | 6.5 |
82-83 | 26 | 22606 | 1.7 | 5.2 |
83-84 | - | - | - | - |
84-85 | 21 | 10276 | 0.92 | 2.4 |
85-86 | 26 | 26859 | 2.2 | 5.6 |
86-87 | 27 | 31936 | 2.5 | 7.0 |
87-88 | 27 | 36252 | 3.2 | 7.5 |
88-89 | 17 | 4497 | 0.44 | 1.3 |
89-90 | 25 | 14024 | 1.2 | 2.6 |
90-91 | - | - | - | - |
91-92 | 30 | 30041 | 2.9 | 3.3 |
92-93 | 12 | 4376 | 0.35 | 0.3 |
93-94 | 25 | 22586 | 2.5 | 4.9 |
94-95 | - | - | - | - |
95-96 | 29 | 25486 | 2.7 | 2.1 |
96-97 | 21 | 5905 | 0.55 | 0.3 |
97-98 | 24 | 4633 | 0.15 | 0.03 |
98-99 | 20 | 20069 | 2.2 | 1.7 |
99-2000 | 26 | 23406 | 2.6 | 2.3 |
2000-2001 | 31 | 30583 | 3.3 | - |
सारणी 3.3 स्रोतः इकोनोमिक रिव्यू, 1999-2000, राजस्थान सरकार
सारणी 3.2 में जिलेवार वार्षिक औसत वर्षा और कुल वर्षा वाले दिन बताए गए हैं। अन्य सारणी में राजस्थान में अकाल और वर्षा की कमी के कारण होने वाले नुकसान समझाए गए हैं। यह सारणी राज्य की कमजोर हो चुकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ओर ध्यान खींचती है। पिछले 20 वर्षों में सूखे और अकाल ने राज्य की माली हालत को तहस-नहस कर दिया है। सन् 1980 से सन् 2001 तक राज्य के केवल 3 वर्षों के अलावा सूखे और अकाल के आघातों को लगातार सहा है। इससे सकल घरेलू उत्पाद बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इनसे संबद्ध राज्य की समग्र अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव रहा है (सारणी 3.3)।
तापमान
राज्य के पश्चिमी हिस्से में मुख्य रूप से बीकानेर, फलोदी जैसलमेर और बाड़मेर में दिन का अकधितम तापमान गर्मी के महीनों में 40 डिग्री से 45 डिग्री से. तक जाता है। न्यूनतम तापमान रात में विशेष रूप से कम हो जाता है और 29 डिग्री से. से भी कम रहता है। अरावली के पूर्वी क्षेत्रों में भी दिन का तापमान लगभग इसी प्रकार का रहता है, लेकिन रात्रि तापमान 26 डिग्री से. के आसपास हो जाता है। उदयपुर एवं आबू पर्वत में अधिकतम तापमान 24.2 डिग्री से. और 19.3 डिग्री से. और न्यूनतम तापमान 9.3 डिग्री से. और 7.8 डिग्री से. क्रमानुसार रहता है। जुलाई में मानसून के आगमन के साथ ही तापमान में विशेष रूप से कमी हो जाती है। यह जनवरी तक धीरे-धीरे कम होता है और पूरे वर्ष का सबसे कम दैनिक उच्चतम और न्यूनतम तापमान अंकित होता है। इस माह में आबूपर्वत पर सबसे कम दैनिक उच्चतम तापमान 19.03 डिग्री से. और झालावाड़ में सबसे अधिक 25.1 डिग्री से. नापा जाता है। दैनिक न्यूनतम तापमान जनवरी माह के समय सबसे कम गंगानगर में (4 डिग्री से.), बीकानेर (2 डिग्री से.) और सीकर में (0 डिग्री से.) रहता है।
वायु वेग
अधिकांश दिनों में सामान्यतया संपूर्ण राजस्थान में वायु का वेग औसतन 1 से 9 कि.मी. प्रति घंटा है। यह सबसे कम नवंबर में होता है, जो बाद में धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। लेकिन अप्रैल माह के आसपास वेग और अधिक बढ़ने लगता है। यह जून में सबसे अधिक हो जाता है। राजस्थान में औसत मासिक उच्चतम वायु वेग जैसलमेर और जोधपुर में मापा गया है। यह औसत 20-61 कि.मी. प्रति घंटा है। ग्रीष्म काल में हवा विशेष रूप से शुष्क होती है और पश्चिम से पूर्व की ओर बहने के कारण गर्म भी। पश्चिमी राजस्थान में धूल भरी आंधियां आना सामान्य बात है।
वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन
जिन क्षेत्रों का कुल वार्षिक वाष्पन कुल वार्षिक वर्षण से अधिक होता है, उन्हें शुष्क माना जाता है। हमारे देश के कुल शुष्क क्षेत्र का लगभग 61 प्रतिशत क्षेत्र (20 लाख वर्ग कि.मी.) पश्चिमी राजस्थान में है। यह भाग राजस्थान के 12 जिलों (बाड़मेर, जैसलमेर, बीकानेर, चुरु, श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़, जालोर, झुनझुनू, जोधपुर, नागोर, पाली और सीकर) में फैला हुआ है। जयपुर, दौसा, टोंक अजमेर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करोली, भीलवाड़ा, राजसमंद, चितौड़गढ़, उदयपुर, सिरोही जिले अर्धशुष्क क्षेत्रों में आते हैं। लेकिन डूंगरपुर, बांसवाड़ा, झालावाड़, कोटा, बूंदी, बारों, सवाई माधोपुर जिले आर्द्रक्षेत्र हैं।
वार्षिक सम्भाव्य वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन अरावली के पश्चिम में जैसलमेर में सबसे अधिक (2063.2 मि.मी.) और सबसे कम श्रीगंगानगर (1662.2 मि.मी.) है। अरावली के पूर्व में यह 1381.2 मि.मी. (उदयपुर) से 1745.2 मि.मी (जयपुर) है।
सापेक्षित आर्द्रता
राजस्थान में औसत सापेक्षित आर्द्रता 60% से 65% है, जो पश्चिम में 50% से कम और पूर्वी राजस्थान में 70% से ऊपर है।
मौसमी संकट
पूर्वी राजस्थान में पश्चिमी राजस्थान की अपेक्षा तेज गर्जन व तेज हवाओं के साथ वर्षा का होना सामान्य है। यह अधिकांशतः मई से सितंबर के मध्य और विशेष रूप से जून और जुलाई में होती है। इस तरह के तूफान जयपुर और झालावाड़ जिलों में लगभग 40-45 दिन, अजमेर और कोटा जिलों में 30-35 दिन, जोधपुर जिले में 25 दिन और बीकानेर तथा बाड़मेर जिलों में 10 दिन आते हैं।
राजस्थान में तेज गर्जन व हवाओं के साथ वर्षा की अपेक्षा धूलभरी आंधियों या अंधड़ ज्यादा बदनाम है। औसतन श्रीगंगानगर में 27, बीकानेर में 18, जोधपुर में 8, जयपुर में 6, कोटा में 5 और झालावाड़ में 3 अंधड़ प्रति वर्ष आने की आशंका रहती है। ये अंधड़, अर्धशुष्क अथवा आर्द्र क्षेत्रों की तुलना में राजस्थान के पश्चिमी शुष्क प्रदेशों में अधिक आते हैं। उत्तर पश्चिमी जिलों में जून में तथा दक्षिणी पूर्वी जिलों में मई में सबसे अधिक अधड़ आते हैं। उत्तर-पश्चिम राजस्थान में ये सितंबर तक चलते हैं।
ओला वृष्टि राजस्थान में प्रायः कम ही होती है। जयपुर में इनकी आवृत्ति 2 साल में लगभग 3 बार है। मरु क्षेत्र में प्रायः ओला वृष्टि नहीं होती। श्रीगंगानगर में 10 साल में एक बार तथा बीकानेर बाड़मेर और अजमेर में 3 साल में एक बार ओला वृष्टि हो सकती है। सतही कोहरा शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में अपेक्षाकृत अधिक होता है, जो प्रायः दिसंबर से फरवरी के मध्य होता है। झालावाड़ और कोटा में जनवरी में कुछ दिन के अलावा अन्य क्षेत्रों में कोहरा नहीं घिरता।
राजस्थान के कृषि जलवायवीय क्षेत्र
किसी क्षेत्र में विद्यमान जलवायवीय दशाएं उस क्षेत्र में कृषि की गतिविधियों को प्रभावित करती हैं। इसी से तय होता है कि उस क्षेत्र में कौन सी फसलें ली जा सकती हैं। जलवायवीय दशाओं में तापमान, वर्षा, आर्द्रता, वायु का वेग और सूर्य के प्रकाश की अवधि फसल प्रारूप को प्रभावित करने वाले प्रमुख घटक हैं। जलवायवीय दशाओं और कृषिगत उत्पादनों के आधार पर राजस्थान को 10 कृषि जलवायवीय क्षेत्रों में बांटा गया है। इनमें अपनी विशिष्टताएं हैं।
I-अ शुष्क पश्चिमी मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र के अंतर्गत जोधपुर और बाड़मेर जिले आते हैं। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 4.7 मि.हे.। अधिकांश क्षेत्र में रेतीली मिट्टी और रेत के टीबे हैं। जोधपुर में औसत तापमान जून में अधिकतम 40 डिग्री से. और जनवरी में न्यूनतम 8 डिग्री से. के बीच रहता है। औसत वार्षिक वर्षा पश्चिम में 100 मि.मी. व पूर्व लगभग 300 मि.मी. के बीच है। इस क्षेत्र में बाजरा, मोठ और ग्वार मुख्य फसलें हैं। जिन क्षेत्रों में सिंचाई हेतु भूजल की उपलब्धता है, रबी में गेहूं, रेपसीड और सरसों की खेती भी होती है।
I-ब सिंचित उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र
इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 2.1 मि. हे. है। इस क्षेत्र में श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले सम्मिलित हैं। घग्घर इस क्षेत्र की प्रमुख नदी है, जिसके बाढ़कृत मैदानों में जलोढ़ मृदा का विस्तार है। कई स्थानों पर इसके साथ रेती मिल जाती है। इस क्षेत्र में वर्षा लगभग 100-350 मि.मी. के बीच होती है। दिन का औसत अधिकतम तापमान जनवरी में 20.5 डिग्री से. से जून में 42.1 डिग्री से. तथा औसत न्यूनतम तापमान जनवरी में 4.7 डिग्री से. से जून में 28 डिग्री से. के बीच रहता है। नहरी सिंचाई के आगमन के साथ ही कई प्रकार की फसलें - गेहूं, चना, सरसों, कपास, और गन्ना भी पैदा होने लगा है।
I-स अतिशुष्क आंशिक रूप में सिंचित पश्चिमी मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र में बीकानेर, जैसलमेर जिले और चुरु जिले का कुछ भाग सम्मिलित है। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 7.70 मि.हे. है। जलवायवीय दशाएं लगभग I-अ और I-ब के क्षेत्रों के समान ही हैं। खरीफ में मुख्यतया बाजरा, मोठ और ग्वार बोई जाती हैं। सिंचित क्षेत्रों में गेहूं और सरसों की खेती होती है।
II-अ अंतःप्रवाही क्षेत्र का अंतर्वर्ती मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र में सीकर, झुंझुनु, नागौर और चुरु जिले का पूर्वी भाग सम्मिलित है। कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3.69 मि.हे. है। इस क्षेत्र में बलुई दोमट से मृत्तिका (क्ले) दोमट मृदाएं हैं और मृदा की कम गहराई तथा पथरीली सह के कारण खेती सीमित है। निचान वाले क्षेत्रों में लाल मरु मृदाएं और ऊसर मिलता है। इस क्षेत्र की औसत वार्षिक वर्षा 300-500 मि.मी. है। औसत न्यूनतम तापमान जनवरी में 5.3 डिग्री से. से जून में 27.5 डिग्री से. के बीच रहता है। वर्षा की अनिश्चितता अथवा अस्थिरता के कारण क्षेत्र के बहुत बड़े भाग में बाजरा, मोठ और ग्वार की खेती होती है। मूंगफली के अंतर्गत भी बहुत बड़ा हिस्सा है। रबी में सिंचित गेहूं और जौ महत्वपूर्ण फसलें हैं।
II-ब लूनी बेसिन का अंतर्वर्ती मैदानी भाग
यह कृषि जलवायवीय क्षेत्र अरावली पर्वतमाला और पश्चिमी शुष्क मैदानी क्षेत्र के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में जालौर और पाली जिले तथा सिरोही जिले की रेवदर व शिवगंज तहसीलें, जोधपुर जिले की बिलाड़ा और भोपालगढ़ तहसीलें सम्मिलित हैं। इसका भौगोलिक क्षेत्रफल 3.0 मि.हे. है। जोधपुर, जालौर और पाली जिलों में लाल मरु मृदाएं मिलती हैं। पाली और सिरोही में सिरोजेम मृदा मिलती है। लगभग 27% फसली क्षेत्र नहरों और कुओं से सिंचित होता है। वार्षिक वर्षा 300-500 मि.मी. है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें बाजरा, खरीफ दालें, तिल, मक्का, गेहूं जौ व सरसों है। यह क्षेत्र लूनी नदी की बाढ़ से प्रभावित रहता है। लूनी और इसकी सहायक नदियों वाले क्षेत्र में भूमिगत जल का स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा है। सिंचाई सुविधाओं के विस्तार के साथ ही क्षेत्र में कपास और सरसों के अंतर्गत क्षेत्र की वृद्धि हुई है।
III-अ अर्द्ध-शुष्क पूर्वी मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र में अजमेर, टोंक, दौसा और जयपुर जिले सम्मिलित हैं। इसका भौगोलिक क्षेत्र लगभग 2.96 मि.है. है। अजमेर और जयपुर जिलों के पश्चिमी भाग में सिरोजेम मृदा है। पश्चिमी और उत्तरी पूर्वी जयपुर और अजमेर के क्षेत्रों में जलोढ़ मृदाओं में अरावली पर्वत श्रेणियों से बहकर आए पदार्थों के कारण बदलाव हुआ है। दक्षिणी भाग में पुरानी जलोढ़ और अजमेर की पहाड़ियों के पश्च भाग में लिथोसोल मृदाएं पाई जाती है। क्षेत्र की औसत वार्षिक वर्षा 500-600 मि.मी. है। औसत अधिकतम तापमान जनवरी में 22 डिग्री से. और मई में 40.6 डिग्री से. रहता है। न्यूनतम तापमान जनवरी में 8.3 डिग्री से. और जून में 27.3 डिग्री से. होता है। इस जलवायुवीय क्षेत्र की मुख्य फसलें बाजरा, ज्वार, ग्वार, लोबिया, मूंग, मूंगफली, गेहूं, जौ, चना सरसों हैं। अजमेर जिले के कुछ भाग में मक्का व कपास भी पैदा होता है।
III-ब बाढ़ सम्भाव्य पूर्वी मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र में अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करोली जिले तथा सवाई माधोपुर जिले की बामनवास, गंगापुर और बोनली तहसीलें सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र का क्षेत्रफल लगभग 2.37 मि.हे. है। क्षेत्र में प्रायः जलोढ़ मृदाएं हैं। ये बराबर आने वाली बाढ़ और जलमग्नता से प्रभावित हैं। औसत वार्षिक वर्षा 500-600 मि.मी. है। बाजरा, ज्वार, मक्का, गन्ना, तिल, खरीफ दालें, गेहूं, जौ, चना व सरसों इस क्षेत्र की प्रमुख फसलें हैं।
IV-अ उप-आर्द्र दक्षिणी मैदानी और अरावली पर्वतीय क्षेत्र
इस क्षेत्र का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 3.36 मि.हे. है। इसमें भीलवाड़ा, राजसमंद, उदयपुर (धरियावद सलूम्बर और सराड़ा तहसीलों के अतिरिक्त), चितौड़गढ़ (छोटी सादड़ी, बड़ी सादड़ी प्रतापगढ़ व अरनोद तहसीलों के अलावा) और सिरोही जिले की आबूरोड तथा पिंडवाड़ा तहसील सम्मिलित हैं। इस क्षेत्र की औसत वार्षिक वर्षा 500-700 मि.मी. है। उदयपुर में औसत अधिकतम तापमान जनवरी में 24.2डिग्री से. मई में 38.6 डिग्री से. के बीच रहता है। इसी भांति औसत न्यूनतम तापमान जनवरी में 7.8 डिग्री से. व जून में 25.3 डिग्री से. रहता है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें-मक्का, ज्वार, मूंगफली, कपास, उड़द, चना, सरसों, जौ और गेहूं है। खरीफ में मक्का व रबी गेहूं व जौ प्रधान फसलें हैं।
IV-ब आर्द्र दक्षिणी मैदानी क्षेत्र
इस क्षेत्र में डूंगरपुर, बांसवाड़ा, उदयपुर जिले की धरियावद, सलूम्बर व सराड़ा तहसीलें, चित्तौड़गढ़ जिले की चोटी सादड़ी, बड़ी सादड़ी, प्रतापगढ़ और अरनोद तहसीलें आती हैं। क्षेत्र का भौगोलिक क्षेत्रफल लगभग 1.72 मि.हे. है। अधिकांश क्षेत्रों में लाल मध्यम गठन वाली और अच्छे जल निकास वाली मृदाएं हैं। पहाड़ी ढलानों में कम गहरी तथा घाटी क्षेत्र में गहरी मृदाएं हैं। खरीफ में मक्का, गन्ना, तिल, धान, कपास, मूंगफली, खरीफ दालें तथा रबी में गेहूं, चना, मूंगफली मुख्य रूप से बोई जाती हैं।
V आर्द्र दक्षिणी-पूर्वी मैदानी क्षेत्र
इस जलवायवीय क्षेत्र में झालावाड़, कोटा, बारां, बंदी पूर्वी चित्तौड़गढ़ और पश्चिमी सवाईमाधोपुर जिले आते हैं, जिसका क्षेत्रफल लगभग 2.70 मि.हे. है। इस क्षेत्र में साधारणतया मृत्तिका दोमट से मृत्तिका (काली मृदाएं हैं। कुछ छोटे-छोटे क्षेत्रों में भूमि ऊसर है तथा भूजल भी खारा है। इस क्षेत्र की औसत वर्षा 650-1000 मि. मी. है। कोटा में औसतन अधिकतम तापमान जनवरी में 24.5 डिग्री से. से मई में 42.5 डिग्री से. के बीच मापा जाता है। इसी प्रकार, औसत न्यूनतम तापमान जनवरी में 10.5 डिग्री से. से मई में 29.7 डिग्री से. के बीच रहता है। इस क्षेत्र की मुख्य फसलें ज्वार, मक्का, कपास, धान, गन्ना, गेहूं और चना है।
सतही जल संग्रहण: महत्व एवं तकनीकियां
राजस्थान में निःसंदेह जल एक सर्वाधिक दुष्प्राप्य अथवा विरल संसाधन है। देश के विभिन्न प्रांतों तथा विशेष रूप से राजस्थान में जल की कमी का होना एक सतत समस्या है। शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में वर्षा बहुत अस्थिर और अपर्याप्त होती है। इसके बारे में पहले से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ऋतु में और ऋतुओं के मध्य, दोनों ही स्थितियों में जल की कमी तथा आधिक्यता में काफी भिन्नता हो सकती है। जब औसत से काफी कम वर्षा हो, जिसे ‘सूखा वर्ष’ कहते हैं, उस वर्ष में भी अतिवृष्टि और बाढ़जनित वर्षा वाली अवधि आ सकती है। इसी तरह अधिक वर्षा वाली ऋतु में भी लंबी अवधि वाले सूखे के दौर भी आ जाते हैं।
जल प्राप्ति तथा उसके उपयोग हेतु आधुनिक तकनीकियां मुख्य रूप से उत्खनित कुओं और नलकूपों के माध्यम से नदियों तथा भूजल के दोहन से संबंधित हैं। भूजल को अपने नियंत्रण में करना अधिक सामान्य और सरल है, वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की 85% आपूर्ति का स्रोत भूजल ही है। इसी के साथ, नलकूपों के निर्माण और जल उठाने की विधियों में प्रौद्योगिकी विकास ने मुख्यतया सिंचाई (85%) और उद्योग तथा घरेलू प्रयोजननार्थ (15%) अत्यधिक दोहन का रास्ता खोल दिया है। इस प्रकार तेजी से भूजल को अधिकता से निकलते रहने के कारण हो रही कमी की पर्याप्त क्षति पूर्ति, जलदायी स्तरों के पुनः पूरण से नहीं हो रही है। एक तरफ भूजल संसाधनों की कमी और दूसरी ओर उसके अपर्याप्त और धीमी पुनःपूरण होने के बीच के असंतुलन के कारण जलदायी स्तरों में तेजी से कमी हो रही है। परिणाम सामने है : जल स्तर में गिरावट होती जा रही है।
भू-जलीय जलदायी स्तरों के इस प्रकार के अत्यधिक दोहन के साथ ही एक स्वाभाविक समस्या भी उजागर हुई है। इसमें अनेक रसायन, जैसे फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट और अन्य घुलनशील लवण में बढ़ने लगे हैं। पानी में इनकी मात्रा वैज्ञानिकों द्वारा अनुमोदित मात्रा से कहीं अधिक है। ये प्रत्यक्ष रूप में अनेक बीमारियों को जन्म देते हैं। अत्यधिक फ्लोराइड और आर्सेनिक युक्त भूजल का पेयजल संसाधन के रूप में उपयोग करने से पंगुता और नई लाइलाज बीमारियां फ्लोरोसिस तथा आर्सेनिकल त्वचा रोग हो जाते हैं।
इन दशाओं में सूखे के दुष्प्रभावों को कम करने, कृषि उत्पादन को स्थिरता प्रदान करने तथा क्षेत्रीय जल संसाधनों का विकास करने हेतु वर्षा के जल का संरक्षण अथवा संग्रहण में ही बुद्धिमता होगी। यह सीमित संसाधनों के साथ भी संभव है। अगले अध्यायों में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
सतही जल संरक्षण की विधियां
वर्षा-जल के संग्रहण हेतु कई विधियां हैं। ये इसकी उपलब्धता के प्रकार, उपलब्ध जल की मात्रा, संग्रहण का अभिप्राय और क्षेत्र की आवश्यकताओं पर निर्भर करती हैं। सामान्यतया सतही जल संग्रहण पद्धति तीन बुनियादी सिद्धांतों पर आधारित होती है :
(i) उपलब्ध जल का स्रोत : इसमें वे विधियां सम्मिलित हैं, जो वर्षा के जल को उसी स्थान पर शोषित कर मृदा परिच्छेदिका में संचित जल की मात्रा में वृद्धि कर सके। जहां कुछ मात्रा में ही सतही अपवाह होता हो, वहां साधारणतया इन्हें अल्पकालीन वर्षा जल संग्रहण अथवा स्वस्थानी जल संरक्षण उपायों के नाम से जाना जाता है। समोच्च खेती की पद्धतियां, पट्टीदार खेती की पद्धतियां, समोच्च मेड़बंदी, समोच्च कुंडे अथवा नालियां, स्टैगर्ड नालियां, सूक्ष्म जल ग्रहण क्षेत्र रोपणी और जलप्लावन विधियां जैसे खड़िन, कुछ स्वस्थानी जल संरक्षण अथवा वर्षा जल संग्रहण विधियां हैं। चौबीस घंटे की समयावधि में संभावित दस वर्षीय आवृत्ति पर एक बार प्राप्त होने वाली अधिकतम वर्षा के जल को संग्रहित करने के अभिप्राय से इन विधियों को लागू किया जाता है।
(ii) आकांक्षित संचय अवधि और (iii) संचित जल के उपयोग का उद्देश्य : जिनमें सतही अपवाह को किसी प्रकार की जल संग्रहण संरचना में एकत्रित किया जाता है। बाद में अथवा संचित जगह से कुछ दूरी पर इस जल का उपयोग किया जाता है। ये दीर्घकालीन वर्षा जल संग्रहण विधियां अथवा संरचनाएं भूजल के संचयन में वृद्धि, जल स्तर में गिरावट को कम और भूजल की गुणवत्ता में सुधार करती हैं।
इन विधियों को इस तह श्रेणीबद्ध किया गया है:
1. संचित जल का उद्देश्य - समाज के पेयजल की तरह पशुओं के पीने के लिए, जीवन रक्षक/अनुपूरक अथवा पूर्ण सिंचाई, या भूजल के पुनःपूरण हेतु।
2. संचित जल की मात्रा और प्रकार - थोड़ी मात्रा, घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु, जिसमें मनुष्यों और जानवरों की पेयजल आपूर्ति भी सम्मालित है; सतह के नीचे बने टांके या पक्की बावड़ियां या सतही सामुदायिक तालाब/नाड़ियां, टैंक आदि; अधिक मात्रा में सिंचाई हेतु-प्रायः बड़े तालाबों/जलाशयों/बांधों में।
3. जल ग्रहण क्षेत्र अपनी प्राकृतिक अवस्था में ही उपचारित किया गया है अथवा अपवाह वृद्धि हेतु कुछ बदलाव किए गए हैं। संचय पद्धतियां प्रायः प्राकृतिक अथवा वर्तमान स्थितियों में किसी न किसी रूप में बदलाव करती हैं, अतः कुछ अभिकल्पना करना आवश्यक होता है। किसी पद्धति की अभिकल्पना हेतु इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए:
आवश्यकतानुसार जल की मात्रा, जिसकी गणना उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों या पशुओं की संख्या और उनकी दैनिक आवश्यकताएं, या क्षेत्रफल और फसलों की मांग के आधार पर कर सकते हैं।
वर्षा, इसकी आवृत्ति, संभावना और गति जो सतही अवस्थाओं के साथ संगठित होने पर अपवाह का निर्धारण करेगी।
संचित जल का वाष्पन, रिसाव अथवा चू जाने से होने वाला ह्रास। (एफ.ए.ओ. सॉयल्स बुलेटिन - 57 पेज : 101)
जल संग्रहण और अपवाह पुनर्चक्र के स्पष्ट घटक हैं, जैसे बहुतायत में होने वाली वर्षा के जल का एकत्रीकरण, संग्रहित जल का प्रभावी संचय और उसका इष्टतम उपयोग।
दीर्घकालीन जल संग्रहण संरचनाओं की अभिकल्पना जल ग्रहण क्षेत्र की अधिकतम अपवाह की दर और वार्षिक अपवाह की संभावित मात्रा के आधार पर की जाती है। इसका उत्तरगामी प्रभावी उपयोग हेतु संचय किया जा सकता है।
विधियों का चयन
शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में व्याप्त कृषि जलवायवीय अवस्थाएं जल संग्रहण विधियों अथवा पद्धतियों के चयन को कठिन बनाती है, क्योंकि साल दर साल उद्देश्यों में बदलाव हो सकता है।
संसार के संपूर्ण शुष्क और अर्धशुष्क क्षेत्रों में काफी भिन्न प्रकार की स्थानीय पद्धतियां अथवा तकनीकियां उपलब्ध हैं। लेकिन अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये एक निश्चित अवस्थाओं से अन्य प्रकार की अवस्थाओं में प्रायः हमेशा स्थानांतरित नहीं हो पाती है। चयनित पद्धति का स्थानीय सामाजिक और आर्थिक तथा अन्य परिस्थितियों के साथ सामंजस्य होना चाहिए। साथ ही यह भी महत्वपूर्ण है कि चयनित तकनीकियां स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हों।
आगामी अध्यायों में उपलब्ध विधियां, उनका तकनीकी विवरण और अभिकल्पना संबंधित पहलुओं की विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई है। संभावित विधियां बृहद तथा व्यवस्थित ढंग से उल्लिखित हैं। क्षेत्र विशेष हेतु उपयुक्त विधियों और संरचनाओं का चयन और उनकी अभिकल्पना की जा सकती है।
'जल संग्रहण एवं प्रबंध' पुस्तक से साभार
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