'भूमि' एवं 'जल' प्रकृति द्वारा मनुष्य को दी गई दो अनमोल सम्पदायें है जिनका कृषि हेतु उपयोग मनुष्य प्राचीनकाल से करता आया है। परन्तु वर्तमान में इनका उपयोग इतनी लापरवाही से हो रहा है कि इनका संतुलन ही बिगड़ गया है तथा भविष्य में इनके संरक्षण के बिना मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा।
हमारे देश की आर्थिक उन्नति में कृषि का बहुमूल्य योगदान है। देश में लगभग 70 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि वर्षा पर निर्भर है। उत्तराखण्ड में तो लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है तथा लगभग 90 प्रतिशत् कृषि योग्य भूमि वर्षा पर निर्भर है। वर्षा पर निर्भर खेती में हमेशा अनिश्चितता बनी रहती है क्योंकि वर्षा की तीव्रता तथा मात्रा पर मनुष्य का कोई वश नहीं चलता है। इसलिए इस प्रकार की खेती में वर्षा ऋतु के आगमन से पूर्व ही कुछ व्यवस्थाएं करनी पड़ेगी जिससे वर्षा से होने वाले भूक्षरण को कम करके वर्षा जल का अधिकतम उपयोग खेती में किया जा सके। उत्तराखण्ड के कृषकों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए ऐसी विधियों का उपयोग करना आवश्यक होगा जो कम खर्चीली तथा आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद हों। पर्वतीय भौगोलिक परिस्थिति के कारण किसानों के खेत छोटे-छोटे तथा कई स्थानों पर बॅटे हुए हैं जिसके कारण भूमि एवं जल संरक्षण के उपाय पूरी तरह सफल नहीं हो पाते है। पर्वतीय खेती का वर्षा पर निर्भर होने के कारण यह भी खतरा बना रहता है कि वर्षा की तीव्रता के कारण भूक्षरण तथा भूमि कटान जैसी समस्यायें न पैदा हो जायें। अतः इनके बचाव हेतु भूमि संरक्षण की तकनीकी विधियॉं अपनानी होंगी। इसलिए वर्षा पर आधारित खेती के लिए तकनीकी रूप से भूमि संरक्षण तथा जल संरक्षण की विभिन्न विधियों का सुनियोजित उपयोग करना अत्यावश्यक होगा, जिनका विवरण निम्नवत् है।
उत्तराखण्ड में वर्षा का वितरण मुख्यतः मानसून के समय होता है, तथा मध्य मार्च से मध्य जून तक शुष्क मौसम रहता है। यहॉ वर्षा का वार्षिक औसत 1200 मि0मी0 से 3000 मि0मी0 तक है। गत वर्षो में पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा का वितरण काफी बदल चुका है। चूँकि पर्वतीय क्षेत्रों में भूक्षरण का कारण भी जल ही है, अतः जल संरक्षण की विधियॉं अपनाने से भूमि संरक्षण भी स्वतः ही हो जाता है। स्रोतों के संरक्षण की तकनीकों जैसे नमी संरक्षण, अपवाह जल का पुनःचक्रण आदि का उपयोग अत्यावश्यक है।
नमी संरक्षण
नमी का अर्थ है भूमि द्वारा सोखी गई जल की मात्रा, जो भूमि में ही निहित रहती है। खेत में ही वर्षा की अधिकतम मात्रा को संरक्षित करने के साथ खेत से नमी के वाष्पीकरण को कम करना नमी संरक्षण कहलाता है। नमी संरक्षण के मुख्य कार्य निम्नवत है-
वर्षा की प्रत्येक बूँद को खेत के ढाल के विपरीत दिशा में कृषि कार्य द्वारा संरक्षित किया जा सकता है ताकि वर्षा को खेत के ढाल के लम्बवत बनी नालियों व मेढ़ के बीच एकत्र करके जमीन में सोखा जा सके।
कार्बनिक व अकार्बनिक पलवार के रूप में फसल-अवशेष, सूखी घास, प्लास्टिक आदि को खेत की सतह पर बिछाने से खेत से नमी के वाष्पीकरण में कमी के साथ-साथ वर्षा को अधिकाधिक मात्रा में खेत में समावेश किया जा सकता है। पलवार के उपयोग से मृदा का तापमान तथा सूक्ष्म-वातावरण भी नियंत्रित किया जा सकता है जो फसलोत्पादन हेतु आवश्यक है।
जल संरक्षण का अर्थ है वर्षा के पानी का संचय करना ताकि इससे आवश्यकतानुसार सिंचाई की जा सके। पर्वतीय क्षेत्रों में वर्षा जल को विभिन्न रूपों में देखा जा सकता है जैसे भूमि की सतह पर बहता वर्षा जल (अपवाह), मकानों की छत से गिरता वर्षा जल तथा प्राकृतिक स्रोतों से बहता पानी। वर्षा पर आधारित खेती को अधिक सफल बनाने के लिए वर्षा की एक-एक बूँद का उपयोग अत्यावश्यक है चाहे वह नमी के रूप में भूमि में निहित रहे या वर्षा जल को किसी उचित स्थान पर संचित करके किया जाये जिससे आवश्यकता पड़ने पर सिंचाई की जा सके। यहॉ पर केवल जल-संचय या सम्भरण का उल्लेख किया जा रहा है।
जल-संचयन (सम्भरण)
पर्वतीय क्षेत्रों में छोटे-छोटे तथा अलग-अलग स्थित खेतों के लिए किसी एक स्थान से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है। अतः जगह-जगह पर छोटे-छोटे जलाशय (टैंक) बनाना ही आवश्यक होगा ताकि गुरूत्व बल के द्वारा सिंचाई की जा सके। टैंक के आकार का निर्धारण किसी स्थान विशेष पर फसलों में सिंचाई की आवश्यकता तथा उपलब्ध जल स्रोत की क्षमता पर निर्भर करेगा। किसान की फसलों की जल आवश्यकता का निर्धारण फसल के प्रकार तथा उसके लिए सिंचाई की मात्रा व संख्या पर निर्भर करता है। अर्थात स्थान विशेष के लिए सिंचाई की आवश्यकता का आंकलन किया जा सकता है। अब उस स्थान पर उपलब्ध खेतों के ऊपरी भाग पर उपलब्ध जल स्रोत की क्षमता का मापन या अनुमान लगाना होगा ताकि संचित की जाने वाली मात्रा का ज्ञान हो सके। इसके लिए वर्षा के सतही अपवाह या छत से बहते पानी के संचय हेतु वर्षा के समय अनुमानित अपवाह की मात्रा में जो भी कम होगा, वही जलाशय की क्षमता होगी। इसके बाद जलाशय के आकार का निर्धारण खेतों के ऊपरी भाग पर लगभग सममतल स्थान की उपलब्धता पर निर्भर होता है। जैसे चित्र में दर्शाया गया है
सामान्यतः आयताकार या वर्गाकार रूप में गड्ढ़ा खोदना पडेगा, जिसकी दीवारों का ढाल लगभग 450 कोण या 1:1 ढाल पर होनी चाहिए क्योंकि इस ढाल पर मिट्टी के कण स्वतः रूक जाते हैं अर्थात जलाशय का आकार आयताकार या वर्गाकार आधार वाले पिरामिड को काटकर उल्टा रखने जैसा होगा। गड्ढ़ा खोदने से पहले गड्ढें की लम्बाई व चौड़ाई का आंकलन करना होगा। गड्ढ़े की गहराई 1 से 1.5 मी0 तक ही सीमित रखते है। इसके पच्च्चात् खोदी गयी मिट्टी में भूसा या चीड़ की सूखी पत्तियों को काटकर कीचड़ बनाकर गड्ढे में सब तरफ लगभग 4 इंच मोटी परत लगा देते है। फिर 0.25 मि0मी0 मोटी काली पाँलिथीन चादर को गड्ढ़े के आकार के अनुसार काटकर बिछा देते हैं। पाँलिथीन के किनारों को गड्ढ़े के किनारों पर ठीक प्रकार मोड़कर बिछा देते हैं। इसके इसके पश्चात् पाँलिथीन के ऊपर भी कीचड़ की लगभग 6 इंच मोटी पर्त चारों ओर लगा देते हैं जिससे पाँलिथीन को धूप न लग सके। यदि वर्षा का पानी सतही अपवाह के रूप में एकत्र किया जाता है तो मुख्य गड्ढ़े से पहले एक छोटा गड्ढ़ा भी बना देते है जिससे अपवाह के साथ आयी मिट्टी या कूड़ा-करकट मुख्य गड्ढ़े में न जाने पाये। सिंचाई हेतु पानी की निकासी लगभग एक इंच व्यास के पाइप से साइफन विधि द्वारा की जानी चाहिए जिससे पानी निकलते समय टैंक सुरक्षित रहे।
पॉलिथीन युक्त टैंक की बनावट
टैंक की बनावट, सुरक्षा तथा रखरखाव की दृष्टि से निम्नलिखित सावधानियों को ध्यान में रखना चाहिए।
टैंक की क्षमता की आंकलन जल की आवश्यकता तथा उपलब्धता के आधार पर ठीक प्रकार होना चाहिए।
पाँलिथीन की मोटाई 0.25 मि0मी0 से कम न हो तथा उसमें कोई छेद न हो।
पाँलिथीन के ऊपर -नीचे कीचड़ का लेप ठीक प्रकार होना चाहिए।
पाँलिथीन को कभी भी धूप में खुला न छोड़ें, क्योंकि धूप के कारण पाँलिथीन फटकर टूट जाती हैं। गड्ढ़े में जानवर या मनुष्य को नहीं जाने देना चाहिए।
पानी निकासी हेतु केवल पाइप का उपयोग करें, जिससे साइफन विधि से निचले खेतों में गुरूत्व बल से सिंचाई की जा सके।
/articles/karsai-bhauumai-para-jala-sanrakasana