कृषि और औषधि क्षेत्र में गोबर व गोमूत्र का आर्थिक महत्त्व

भारत में आज भी ‘गोबर’ को शुद्ध मानते हुए धार्मिक अनुष्ठानों एवं पूजा-अर्चना में उसका उपयोग किया जाता है। साथ ही औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण शुद्धिकरण के लिये ‘गोमूत्र’ का भी प्रयोग अधिकांश प्राचीन भारतीय घरों में किया जाता था। आधुनिक बनने व दिखने की दौड़ में इन परम्पराओं के वैज्ञानिक पक्ष की अनदेखी कर दी गई है। लेखक के विचार में इन दोनों के इस्तेमाल की सरल प्रचलित प्रौद्योगिकियों का पूरा लाभ उठाया जाए तो ये देश के आर्थिक विकास में पर्याप्त योगदान देने में सक्षम सिद्ध हो सकती हैं। गाय को भारत में ‘माता’ का स्थान प्राप्त है। भारत के कई प्राचीन ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर पढ़ने को मिलता है कि ‘गोबर में लक्ष्मीजी का वास होता है’। यह कथन मात्र ‘शास्त्र’ वचन नहीं है यह एक वैज्ञानिक सत्य है।

इस यथार्थ के महत्त्व को समझते हुए भारतीय वैज्ञानिकों ने 1953-54 में विकसित प्रथम बायोगैस संयन्त्र का नामकरण ‘ग्राम लक्ष्मी’ रखा था, जिसे अन्तरराष्ट्रीय ख्याति भी मिली थी।

वास्तविकता यह है कि भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के रचनाकार स्वयं में महान दूरदर्शी वैज्ञानिक थे। अपने ज्ञान के आधार पर उन्होंने सामान्य व साधारण नियम-कानून एक धार्मिक क्रिया के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत किये ताकि मानव समाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके वैज्ञानिक ज्ञान व अनुभवों का लाभ उठते हुए प्राकृतिक पर्यावरण को बिना हानि पहुँचाए एक स्वस्थ जीवन बिता सके।

भारत में आज भी गोबर को शुद्ध मानते हुए धार्मिक अनुष्ठानों व पूजा-अर्चना के समय उसका उपयोग किया जाता है जैसे पूजास्थल लीपने, दीप स्थापन, पंचामृत बनाने आदि के लिये। इसके अलावा सभी भारतीय ग्रामीण घरों को नियमित रूप में गोबर से लीपने की प्रथा आज भी सर्वत्र विद्यमान है।

कुछ दशक पूर्व तक प्रायः सभी भारतीय घरों में ‘गोमूत्र’ सम्भाल कर रखने की परम्परा थी जिसका उपयोग औषधीय गुणों से युक्त होने के कारण शुद्धिकरण (अर्थात रोगाणुनाशी क्षमता) के लिये किया जाता था- रजस्वला स्त्री की छूत से बचने के लिये, जो निरोधा (क्वारनटीन) नियम का पालन करते हुए घर के एक विशिष्ट भाग में उस दौरान अलग रहती थीं; नवजात शिशु की माता को पिलाने के लिये आदि।

आधुनिक बनने व दिखने की दौड़ में इन परम्पराओं के पीछे छिपे वैज्ञानिक पक्ष से अनभिज्ञ होने के फलस्वरूप इन्हें अंधविश्वास की संज्ञा प्राप्त हो चुकी है, जिसे निर्मूल करना आर्थिक विकास के लिये अत्यन्त आवश्यक है।

भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में गोबर व गोमूत्र सर्वत्र सहजता से मिलने वाला पदार्थ है। इन दोनों को समुचित व्यवहारिक उपयोग में लाने की कई सरल व प्राचीन ग्रामीण प्रौद्योगिकियाँ भारत में उपलब्ध हैं जिनके माध्यम से कृषि संवर्धन व स्वास्थ्य संरक्षण क्षेत्र में भरपूर लाभ उठाने के साथ-साथ गैस व बिजली जैसे अधिक तापक्षमता युक्त आधुनिक ईंधनों का उत्पादन कर स्थानीय ऊर्जा माँग के एक बड़े भाग की पूर्ति की जा सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में कई स्वयंसेवी संस्थाओं ने गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि व रोग उपचारक पद्धतियों को अपनाकर सभी का ध्यान इनके अधिकाधिक उपयोग की ओर आकृष्ट किया है। इनमें से कुछ संस्थाएँ हैं श्राफ फाउंडेशन, कच्छ; अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ, गौपुरी, वर्धा एवं दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट।

सूक्ष्मदर्शक यंत्र से देखने पर ज्ञात होता है कि गाय के एक ग्राम गोबर में 100 करोड़ से लेकर 1000 करोड़ विविध क्षमतायुक्त सूक्ष्म जीवाणु विद्यमान होते हैं। वास्तविक परीक्षणों से यह देखने में आता है कि कैसा भी गंदा/विषाक्त कचरा क्यों न हो, गोबर में समाये सूक्ष्म जीवाणु उसे ठीक कर देते हैं।

एक टन कचरे में 10 किलोग्राम गोबर मिलाने पर ये सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय होकर कुछ ही दिनों में सजीव खेती के लिये उत्तम खाद तैयार कर देते हैं।

मुम्बई में आयोजित (1997) भारतीय जनता पार्टी के सम्मेलन स्थल पर ‘श्राफ फाउंडेशन’ ने मानव मल-मूत्र सफाई का कार्य किया था। यह कार्य पर्यावरण समकक्ष विधि से करने के लिये उन्होंने मल के साथ गोबर और राक फास्फेट मिलाया जिसके फलस्वरूप 15 मिनटों में दुर्गंध समाप्त होने के अलावा मच्छर व मक्खी की समस्या से छुटकारा भी मिला।

फिर 15 दिनों के भीतर सम्पूर्ण मल-मूत्र एक अमूल्य खाद में परिवर्तित हो गया जिसे अब ‘सोन खाद’ के नाम से जाना जाता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है परती भूमि सुधार। इस महत्त्व को समझते हुए श्राफ फाउंडेशन ने दुर्गंध रहित पखाने व सूखे संडासों की डिजाइन विकसित की है और इसके प्रचार के लिये कच्छ के कई ग्रामों में इनका निर्माण भी किया है।

श्राफ फाउंडेशन, अखिल भारतीय कृषि गौ सेवा संघ और कई अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा किये गए वास्तविक परीक्षणों से स्पष्ट है कि एक गाय अथवा बैल एक हेक्टेयर भूमि-सुधार के लिये पर्याप्त हैं।

इस प्रकार भारत में 14.2 करोड़ कृषि भूमि के लिये गाय/बैलों की संख्या की दृष्टि से भारत एक समृद्ध देश है (1992 की गणना में 28.87 करोड़)। इसलिये गोबर-गोमूत्र आधारित कृषि प्रचार भारत में लाभदायक सिद्ध होगा।

परीक्षणों से ज्ञात होने लगा है कि जिस कृषिभूमि को गोबर व गोमूत्र प्राप्त होता है, उसमें समाये सूक्ष्म जीवाणु अपनी सक्रियता से फसल को नुकसान पहुँचाने वाले अन्य जीवाणुओं पर अंकुश लगा देते हैं।

30 भारतीय गौशालाओं में गोमूत्र के आधार पर 100 से अधिक रोगों के इलाज की दवाए बन रही हैं। इनमें से कई गौशालाएँ तो अपना पूरा खर्च केवल गोमूत्र-आधारित औषधियों के निर्माण से निकाल रही हैं। एक सुलभ व सस्ता विकल्प होने के कारण हम गोमूत्र को दवा मानने को तैयार नहीं हैं। इस भावना को प्रचार के माध्यम से निर्मूलकर इसके सर्वसाधारण उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।उदाहरण के लिये कपास की खेती में इस प्रयोग से यह देखने में आया है कि रासायनिक खाद के विपरीत गोबर-गोमूत्र खाद उपयोग करने पर हानिकारक कीटाणुओं की रोकथाम के साथ-साथ फसल उत्पादन में गुणात्मक वृद्धि होती है- अर्थात अधिक लंबे, मजबूत व सुंदर कपास के रेशे इस कृषि विधि को अपना कर प्राप्त किये जा सकते हैं और फसल उत्पादन भी बढ़ता है।

यद्यपि गोबर व गोमूत्र से खाद और कीटनाशक निर्माण की कई विधियाँ उपलब्ध हैं, कुछ सरल विधियाँ इस प्रकार हैं-

1. एक माटी के मटके में 15 किलोग्राम गोबर, 15 लीटर गोमूत्र और 15 लीटर पानी तथा एक किलोग्राम गुड़ डालकर मटके का मुख सील कर दें। 10 दिनों के पश्चात इस खाद में 5 गुना पानी मिलाकर खेत में नालियों के माध्यम से एक एकड़ भूमि में छोड़ दें। इस खाद का चार बार उपयोग करने पर रासायनिक खाद की आवश्यकता नहीं रहेगी। प्रथम उपचार बुआई पूर्व, तत्पश्चात बुआई के 10 दिन बाद और फिर 15-20 दिनों के अन्तर पर दो बार करना आवश्यक है।

2. एक भारतीय गाय से औसतन 10 कि.ग्रा. गोबर और 17 लीटर गोमूत्र प्रतिदिन प्राप्त होता है। इन्हें शहरी कचरे व मिट्टी के साथ घोलकर एक 3×2×1 मीटर गड्ढे में 75 से 100 दिन दबाकर रखने पर ‘नेडेप’ कम्पोस्ट खाद प्राप्त होती है।

3. गोमूत्र में 10 गुना पानी मिलाकर उसका छिड़काव प्रति सप्ताह फसलों पर करने से सभी फसलें स्वस्थ व हानिकारक कीटाणुओं से सुरक्षित रहती हैं।

4. फसल उगने के पश्चात जब अच्छी तरह बढ़ने लगती (पत्ते व टहनियाँ निकलने पर) है, तब एक लीटर गोमूत्र में 20 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव करना चाहिए। फिर पौध विकसित होने पर फूल निकलने के पूर्व एक लीटर गोमूत्र में 15 लीटर पानी मिलाकर छिड़काव और इस प्रकार तीन बार किये छिड़काव से पेड़-पौधों का अच्छा विकास होता है, कई बीमारियों पर रोक लगती है और पेड़-पौधों को आवश्यकतानुसार पौष्टिक द्रव्य/खनिज प्राप्त होते हैं। इसका प्रयोग गेहूँ सीताफल, प्याज, बैंगन पत्तावर्गीय साग-सब्जियों, केला, आम आदि में करने पर अच्छे परिणाम मिले हैं। गोमूत्र के दो छिड़कावों के बीच या साथ में नीम पत्ती का अर्क या पूरी रात भीगी नीम-खली के पानी को छानकर, बीस गुना पानी के साथ मिलाकर छिड़काव करने से बीमारियों की रोकथाम की जा सकती है।

5. बीज बोने के पहले उनका गोमूत्र से शोधन करना लाभकारी होता है।

रासायनिक गुण एवं उपचार क्षमता


इसमें कार्बोलिक एसिड होता है जो कीटाणुनाशक है। इस गुण की जानकारी के फलस्वरूप ही भारतीय मनीषियों ने गोमूत्र का शुद्धिकरण के लिये उपयोग करने की सामान्य प्रथा भारत में स्थापित की जो आज भी भारतीय जन-मानस में गहराई से पैठी है।

वैज्ञानिक जाँच करने पर ज्ञात होता है कि गोमूत्र में नाइट्रोजन, फास्फेट, यूरिक एसिड, सोडियम, पोटेशियम और यूरिया होता है। फिर जिन दिनों गाय दूध देती है, उसके मूत्र में लैक्टोस रहता है जो हृदय और मस्तिष्क विकारों को दूर करने में उपयोगी होता है।

गोमूत्र सेवन के लिये जो गाय चुनी जाए वह निरोगी व जवान होनी चाहिए। जंगल क्षेत्र व चट्टानीय इलाकों में प्राकृतिक वनस्पतियाँ चरने वाली गाय का मूत्र सेवन के लिये सर्वोत्तम होता है।

लेकिन भारत में गोमूत्र के चमत्कारिक वैज्ञानिक गुणों का ज्ञान कुछ सीमित-सा है। इस क्षेत्र में कार्यरत भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि पेट के रोगों के लिये गोमूत्र रामबाण है।

वर्तमान में 30 भारतीय गौशालाओं में गोमूत्र के आधार पर 100 से अधिक रोगों (कब्ज, एसिडिटी, डायबिटीज, ल्यूकोडर्मा, गले का कैंसर, चर्म रोग, पीलिया, प्रसव पीड़ा, दांत दर्द, आँख की कमजोरी आदि) के इलाज की दवाए बन रही हैं। इनमें से कई गौशालाएँ तो अपना पूरा खर्च केवल गोमूत्र-आधारित औषधियों के निर्माण से निकाल रही हैं।

एक सुलभ व सस्ता विकल्प होने के कारण हम गोमूत्र को दवा मानने को तैयार नहीं हैं। इस भावना को प्रचार के माध्यम से निर्मूलकर इसके सर्वसाधारण उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

मुम्बई के प्रसिद्ध एक्सेल उद्योग समूह के मालिक व श्राफ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्री कांतिसेन श्राफ को सही मायने में एक वैज्ञानिक उद्योगपति कहा जा सकता है। उन्होंने अपने जन्म क्षेत्र ‘कच्छ’ को ग्राम विकास के लिये चुना।

इस विकास कार्यक्रम के लिये उन्होंने एक बंजर भूमि के टुकड़े को मांडवी जिले में एक आदर्श रूप में 20 वर्ष पूर्व चुना, जिसका उद्देश्य था सूखाग्रस्त जमीन को उपजाऊ बनाना। कार्य का श्रीगणेश उन्होंने गौ-पालन से किया जिसने 3 साल में ही अपना चमत्कार दिखाना आरम्भ कर दिया।

गोबर व गोमूत्र के संयोग से वह बंजर भूमि उर्वर बनने लगी और गौशाला पशु खाद में स्वावलंबी हो गई। इसके पश्चात उन्होंने स्थानीय उपलब्ध बायोमास (पागल बबूल के बीज, बाजरे के डंठल, भूसे आदि) को गोबर व गोमूत्र के साथ मिलाकर कार्बनिक खाद निर्माण कार्यक्रम आरम्भ किया।

इस खाद के प्रयोग से जैविक कृषि उत्पादों का उत्पादन बढ़ा व रसायनिक उर्वरकों की आवश्यकता समाप्त हो गई। साथ ही उन्होंने भूजल भंडारों के पुनर्निर्माण व उनकी क्षमता वृद्धि के लिये परम्परागत भारतीय तरीकों के साथ-साथ इसराइल में विकसित आधुनिक जल-सम्भर कौशल तकनीक को वास्तविक रूप में अंजाम दिया।

फलस्वरूप वहाँ का भूजल-स्तर 100 मीटर से उठकर 15.20 मीटर गहराई पर आ गया। इसका एक अन्य लाभ यह हुआ कि भूजल स्तर ऊँचा उठने से खारा पानी स्वतः मीठे पानी के नीचे रह गया।

इस योजना को कच्छ में बड़े पैमाने पर लागू किया गया। कच्छ में 900 गाँव हैं और उनमें से 300 गाँवों में इस प्रकार के जलसंग्रहण कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं और अब इसने आन्दोलन का रूप ले लिया है।

30 भारतीय गौशालाओं में गोमूत्र के आधार पर 100 से अधिक रोगों के इलाज की दवाए बन रही हैं। इनमें से कई गौशालाएँ तो अपना पूरा खर्च केवल गोमूत्र-आधारित औषधियों के निर्माण से निकाल रही हैं। एक सुलभ व सस्ता विकल्प होने के कारण हम गोमूत्र को दवा मानने को तैयार नहीं हैं। इस भावना को प्रचार के माध्यम से निर्मूलकर इसके सर्वसाधारण उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।इस संसार में जीवित रहने व विकास के लिये भोजन द्वारा ऊर्जा प्राप्त करना सभी जीवन स्वरूपों की नियति है। जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की माँग लगातार बढ़ रही है और कृषि उत्पादन बढ़ाने के प्रयास में रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा है जिसके फलस्वरूप खाद्य शृंखला (भूमि, अनाज, फल-फूल, अंडे, दूध, पानी सभी) में अवांछनीय एवं हानिकारक खनिज समाने लगे हैं।

यह तथ्य अब प्रमाणित हो चुका है कि रासायनिक खाद/पेस्टीसाइड्स के लगातार उपयोग से मिट्टी में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध खनिज लवणों की कमी होने लगती है। उदाहरण के लिये नाइट्रोजन खाद के उपयोग से भूमि में प्राकृतिक रूप से उपलब्ध पोटेशियम की कमी होने लगती है।

इस कमी को दूर करने के लिये जब पोटाश प्रयोग में लाते हैं तो फसल में एस्कोरलिक एसिड (विटामिन सी) और कैरोटीन की कमी हो जाती है। नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश उर्वरक से सिंचित भूमि में उगाये गए गेहूँ व मकई में प्रोटीन की मात्रा 20 से 25 प्रतिशत कम होती है। इन माइक्रो अवयवों की कमी के चलते पेड़-पौधों की रोग प्रतिरोध क्षमता काफी घट जाती है। फिर ये खाद्य पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक भी नहीं रह पाते।

रासायनिक दवाओं व खाद के कारण एक अन्य गम्भीर समस्या उभरने लगी है, वह है भूजल का प्रदूषण। गौरतलब है कि इसके उपचार के लिये अभी तक कोई विधि विकसित नहीं हुई है, जिसके माध्यम से भूमिगत जल में समाये रासायनिक जहर से मुक्ति प्राप्त कर मीठा जल उपलब्ध हो सके। याद रहे, अब पृथ्वी में पेयजल की आपूर्ति का एकमात्र सहारा भूमिगत जल ही बचा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट (1998) के अनुसार पेस्टीसाइड विष के कारण विश्व भर में 20,000 मौतें प्रतिवर्ष होती हैं और विकासशील देशों के लगभग 2.5 करोड़ कृषि श्रमिक इनके विष से प्रभावित होते हैं डी.डी.टी., क्लोरडेन, हेप्टाक्लर आदि जैसे आर्गेनिक्लोरीन पेस्टीसाइड्स व अन्य विशिष्ट रासायनिक तत्वों के कारण जीव-जन्तुओं (मानव भी शामिल) में प्रजनक असामान्यताएँ प्रकट होने लगी हैं और कैंसर जैसी बीमारियों में वृद्धि होने लगी हैं।

जैसे-जैसे इस विषय पर अधिक जानकारी प्राप्त हो रही है, कई देशों में रोग वृद्धि करने वाले पेस्टीसाइड्स का उपयोग नियन्त्रित-स्तर पर रखने व सम्पूर्ण निषेध के कानून बनाये जाने लगे हैं और इनके विकल्प के रूप में प्राकृतिक कृषि संवर्धन स्रोतों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाने लगा है।

कार्बनिक खाद व प्राकृतिक कीटनाशकों (नीम, तुलसी, गुलदावरी, गेंदा आदि) का महत्त्व समझ आने पर ‘केमिकल फ्री फूड’ उत्पादन व उपभोग की ओर सबका ध्यान आकृष्ट होने लगा है व इनका बाजार मूल्य ज्यादा होने पर भी इनकी माँग बढ़ती जा रही है।

लेकिन गोबर-गोमूत्र पर आधारित प्राचीन भारतीय कृषि पद्धतियों को विश्व-स्तर की मान्यता दिलाने के लिये भारतीय वैज्ञानिकों को इस विषय पर वैज्ञानिक शोध द्वारा उन्हें आधुनिक मापदंडों के अनुरूप परखी हुई विधि के रूप में प्रस्तुत करना होगा अन्यथा नीम, हल्दी, बासमती चावल आदि के समान विदेशी कम्पनियाँ इनका भी पेटेंट प्राप्त कर लाभ उठाने का प्रयास कर सकती हैं।

भारतीय गौशालाओं में कार्यरत विशेषज्ञों के अनुसार स्वदेशी नस्लों (भारतीय मूल) की गाय के गोबर व मूत्र में जो औषधीय गुण होते हैं, वे विदेशी तथा संकर नस्ल की गायों के गोबर व गोमूत्र में नहीं होते। इसके पीछे यह तथ्य हो सकता है कि विदेशी व संकर गायें बहुत अधिक दूध देने वाली होती हैं और उन्हें दाना भी अधिक दिया जाता है।

अधिक दाना खाने के कारण उनके गोबर व मूत्र में ऐसे औषधीय गुण नहीं होते जैसे कि भारतीय देशी गाय के गोबर व गोमूत्र में होते हैं क्योंकि अधिकतर भारतीय देशी गायें मैदानों व जंगलों में चरती हैं, जहाँ उन्हें कई जड़ी-बूटियाँ खाने को मिलती हैं इसलिये उनके गोबर व मूत्र में अधिक औषधीय गुण समाये होते हैं।

इस तथ्य की पुष्टि के लिये कई अन्य विशेषज्ञों से चर्चा करने पर लेखक को ज्ञात हुआ कि भारतीय व विदेशी मूल की गायों के गोबर व गोमूत्र के रासायनिक गुणों में इस असामान्यता को आधुनिक वैज्ञानिक मापदंडों के अनुरूप विश्लेषण कर प्रस्तुत करने की दिशा में कोई व्यवस्थित प्रयास भारत में नहीं किये गए हैं।

उत्तरांचल के अल्मोड़ा जिले में पिछले 25 वर्षों से दूर-दराज के ग्रामों में स्वयं जाकर जनसमुदाय की चिकित्सा में सक्रिय डाॅ. देवेन्द्र कुमार पांडे, एमबीबीएस, एमएस के अनुसार उन्होंने धामुस, साई देवी, लमगढ़ा, कटारमल आदि कई ग्रामों में वयोवृद्ध लोगों (70 से 80 वर्ष) को गाय द्वारा मूत्र त्यागते समय, उसे शरीर पर मलते व चुल्लू में भर सीधे पीते हुए देखा है।

डाॅ. पांडे के अनुसार गोमूत्र सेवन ही उनके स्वास्थ्य व दीर्घायु होने का राज है। यह एक महत्त्वपूर्ण जानकारी है जिसके आधार पर यह समझना अनुचित नहीं होगा कि हिमालय, पश्चिमी व पूर्वी घाट के भारतीय क्षेत्र जिनकी गणना विश्व के जैव-विविधता भरे जाने-माने, सुस्पष्ट व स्थापित प्रदेशों में की जाती है, वहाँ की गाय/बैल के गोबर व मूत्र में अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक औषधीय गुण विद्यमान हैं। इस अन्तर को शोध द्वारा ही प्रमाणित किया जा सकता है और यह प्रमाणित होने पर भारत एक नए क्षेत्र में अन्तरराष्ट्रीय-स्तर पर आर्थिक लाभ उठा सकता है।

भारतीय बैलों के कंधों में कूबड़ होना व विदेशी बैलों का कूबड़ रहित होना, एक ऐसा भौतिक अन्तर है, जो स्पष्ट दिखाई देता है। भारतीय बैलों में कूबड़ विद्यमान होने के कारण ही उनका सहज उपयोग कृषि के लिये हल चलाने व बैलगाड़ियों को खींचने में सम्भव हो सका है। इसी प्रकार का एक भिन्न अन्तर, केरल के वैकोम क्षेत्र में पाई जाने वाली लुप्तप्राय भारतीय प्रजाति ‘वेचूर’ गाय के दूध में दिखाई पड़ता है।

दुनिया की सबसे छोटी गाय में इसकी गिनती की जाती है। 67 सेन्टीमीटर ऊँची व मोटाई 124 सेन्टीमीटर। वेचुर गाय की विशेषता है कि उनके खाने का खर्च कम और दूध की मात्रा अधिक होने के साथ-साथ उसका दूध अधिक चर्बी-युक्त होना-6.02 से 7.86 प्रतिशत। इसके विपरीत यूरोप की सर्वाधिक दूध देने वाली गौ-प्रजाति के दूध में चर्बी की मात्रा 3.5 से 4.5 प्रतिशत ही होती है। इसके अलावा वेचुर गाय के दूध में दवा के गुण भी पाये गए हैं।

गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग करने से स्वास्थ्यवर्धक कृषि उत्पादन बढ़ेगा व कई रोगों के फैलने को रोका जा सकेगा और भूजल भी प्रदूषित नहीं होगा। रासायनिक खाद/कीटनाशकों की आवश्यकता न होने पर उनके लिये कल-कारखानों के निर्माण व रख-रखाव खर्च की बचत होगी, उदाहरण के लिये 1 टन यूरिया निर्माण के लिये 5 टन कोयला दहन करना पड़ता है। इस प्रकार की बचत का उपयोग अन्य विकास कार्यक्रमों में करना सम्भव होगा।पर्यावरण विशेषज्ञ वंदना शिवा के अनुसार वेचुर गाय के उल्लिखित गुणों का लाभ उठाने के लिये रोइलीन-इंस्टीट्यूट (क्लोनिंग द्वारा विश्व में प्रथम मेड़ ‘डाली’ के निर्माता) ने इस भारतीय गौ-प्रजाति का पेटेन्ट प्राप्त करने के प्रयास आरम्भ कर दिये हैं।

यद्यपि इस गाय पर जेनेटिक शोध कार्य त्रिचुर के पास मन्नूथी स्थित केरल विद्यापीठ में किया जा रहा है लेकिन भारतीय शोध के परिणामों की जानकारी विदेशों में चोर रास्ते पहुँच जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

वेचूर गाय के जनुक का उपयोग कर विदेशी कम्पनी अन्तरराष्ट्रीय बाजार में करोड़ों डाॅलर कमाने का स्वप्न देख रही है, जिसमें अन्तरराष्ट्रीय व्यापार नियमों के अन्तर्गत भौगोलिक उपलब्धता के अनुसार भारत का एकमात्र अधिकार होना चाहिए। अब यह अधिकार स्थापित करना भारतीय वैज्ञानिकों के हाथ में है।

स्वदेशी व विदेशी गोधन के उल्लिखित गुणों की चर्चा से यह समझ आता है कि दोनों नस्लों के जेनेटिक प्रोफाइल/जनुकों में अन्तर अवश्य है, जिसके कारण उनके उपोत्पादों (गोबर, मूत्र, दूध) के गुणों में भी अन्तर दिखाई पड़ता है।

इन गुणों के आधार पर भारतीय गोधन का पलड़ा भारी प्रतीत होता है। लेकिन इसकी स्पष्ट वैज्ञानिक व्याख्या भारतीय वैज्ञानिकों को प्रस्तुत करनी होगी ताकि गोबर व गोमूत्र-आधारित कृषि और औषध की प्राचीन भारतीय पद्धतियों को अन्तरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त हो।

इस क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित कर लेने पर भारत को कई आर्थिक लाभ स्वतः प्राप्त होने लगेंगे। कृषि उत्पादन बढ़ने के साथ-साथ बायोमास प्रजनन में वृद्धि होगी, जो एक अक्षय ऊर्जा स्रोत है व जिसके माध्यम से अधिक ताप क्षमता की ईंधन (गैस व बिजली) उत्पादन तकनीकों के विकास व उपयोग में भारत एक अग्रणी देश बन चुका है।

गोबर व गोमूत्र आधारित कृषि तकनीक का बड़े पैमाने पर उपयोग करने से स्वास्थ्यवर्धक कृषि उत्पादन बढ़ेगा व कई रोगों के फैलने को रोका जा सकेगा और भूजल भी प्रदूषित नहीं होगा। रासायनिक खाद/कीटनाशकों की आवश्यकता न होने पर उनके लिये कल-कारखानों के निर्माण व रख-रखाव खर्च की बचत होगी, उदाहरण के लिये 1 टन यूरिया निर्माण के लिये 5 टन कोयला दहन करना पड़ता है।

इस प्रकार की बचत का उपयोग अन्य विकास कार्यक्रमों में करना सम्भव होगा। फिर गोमूत्र आधारित सस्ती दवाईयाँ उपयोग करने पर महंगी एलोपैथी दवाओं से छुटकारा मिलेगा जिनके सेवन से कई बार दूसरे विकार उभरने लगते हैं।

अब समय आ गया है कि हम गोबर व गोमूत्र के महत्त्व को गम्भीरता से समझने का प्रयास कर, उसको अधिक-से-अधिक उपयोग में लाएँ। भारतीय वैज्ञानिकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए क्योंकि ये ही प्राचीन मान्यता प्राप्त प्राकृतिक स्रोत भारत को एक बार फिर से सोने की चिड़ियाँ बना सकते हैं।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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