इन्द्र देवता ने दो साल से फेरा हुआ है मुँह
कर्नाटक बीते दो सालों से सूखे का सामना करना पड़ रहा है, स्थानीय लोगों को अपना जीवन बचाए रखने के लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि महिलाओं और बच्चों को पानी की तलाश में अपने जीवन तक को जोखिम में डालना पड़ रहा है। स्थिति इस कदर खराब हो चुकी है कि स्कूली छात्रों को परीक्षा छोड़कर पानी जुटाने के लिये उनके परिजन कह रहे हैं। स्थिति की गम्भीरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पीने और दैनिक जरूरतों के लिये पानी लाने के लिये लोगों को मीलों जाना पड़ रहा है। कर्नाटक सरकार को जलाभाव, जल प्रदूषण और बीमारियों के कारण आगामी दस वर्षों में आधे बंगलुरु को खाली कर देना होगा। यह भविष्यवाणी की है कर्नाटक के एक सेवानिवृत्त अतिरिक्त मुख्य सचिव ने। उन्होंने राज्य की राजधानी में जल संकट का विस्तृत अध्ययन किया है।
भविष्यवाणी सच होती दिख रही है, क्योंकि पिछले दो सालों से कर्नाटक बीते चालीस वर्षों के सर्वाधिक भीषण सूखे का सामना कर रहा है। निराश-हताश किसानों को उसने उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। अनेक किसानों ने आत्महत्या तक कर ली है।
कर्नाटक में संवेदनशील पारिस्थितिकी के बिना सोचे-समझे दोहन से वर्षा लाने वाले बादलों ने राज्य से मुँह मोड़ लिया है। कर्नाटक जल संकट के शिकंजे में है, जिसकी शुरुआत वर्षों पहले हो गई थी। राज्य के उत्तरी हिस्सों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक के चिलचिलाते स्तर तक पहुँच गया है।
बंगलुरु, जिसे हाल तक ‘गार्डन सिटी’ और ‘झीलों के शहर’ के रूप में जाना जाता था, में पहली दफा हुआ है कि तापमान 40 डिग्री सेल्सियस को पार कर गया है, जो सामान्य से पाँच डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। शहर के लिये यह खतरे की घंटी है। यह पहली बार है जब बंगलुरु में तापमान इतना चढ़ा है।
यह भूक्षेत्र घने दरख्तों, झीलों और खुली साँस लेने के लिये माकूल स्थलों के लिये जाना जाता रहा है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या, सीसे और कंक्रीट के बढ़ते जंगलों ने कभी ठंडे और प्रदूषण-रहित रहे शहर का तेजी से नक्शा ही बदल डाला है।
इससे भी ज्यादा चिन्ताजनक यह कि उत्तरी कर्नाटक में गम्भीर जल संकट ने वहाँ के नागरिकों को जल और नौकरी की तलाश में पलायन करके बंगलुरु, मैसूर और दक्षिण कर्नाटक के अन्य शहरों में जाने को विवश कर दिया है। पारा का स्तर चढ़ने, जलाभाव, आजीविका के अन्य साधनों की कमी और मनरेगा जैसी योजनाओं की नाकामी जैसे कारणों से राज्य के उत्तरी हिस्से के कलबुर्गी, यादगिर, बिदर, रायचुर, विजयपुर और बगलकोट जैसे जिलों से हजारों लोगों को पलायन करना पड़ा है। इन जिलों के अनेक गाँव भूतहा गाँव हो गए हैं, जहाँ केवल बीमार, अशक्त और वृद्धजन ही रह गए हैं।
बढ़ा पलायन
हालांकि बेकारी के दिनों में उत्तर कर्नाटक के जिलों से दूसरी जगहों पर जाने का सिलसिला पीढ़ियों से चला आया है, लेकिन बीते दो वर्षों से गम्भीर सूखे की स्थिति के चलते इस सिलसिले ने स्थायी शक्ल अख्तियार कर ली है। कभी धनी किसान रहे लोग आज बंगलुरु और अन्य बड़े शहरों में निर्माण मजदूर बनने को विवश हो गए हैं। सबसे ज्यादा चिन्ता में डालने वाली बात यह है कि लोग अपने पशुओं और सम्पत्ति को इस इच्छा से बेच रहे हैं, जैसे उन्हें अब कभी लौटना ही न हो।
समाजशास्त्री कहते हैं कि प्रतिष्ठा का भी प्रश्न है। कठिन समय में लोग स्थानीय इलाकों में काम करने से बचते हैं, क्योंकि यह कहना उन्हें सम्मान की बात लगती है कि वे ‘बड़े शहरों’ में ऊँची पगार पर काम कर रहे हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल एंड इकनॉमिक चेंज (आईएसईसी) के प्रो. आरवी देशपांडे कहते हैं, ‘‘सूखे से खेती-किसानी से जुड़ीं गतिविधियाँ पंगु या बाधित हो जाती हैं और वैकल्पिक रोजगार के लिये किसानों के पास बड़े शहरों की ओर पलायन ही एकमात्र चारा बचता है। लेकिन स्थानीय स्तर पर शारीरिक कार्य करने में उनका अहं आड़े आता है।”
राज्य सरकार के आग्रह पर केन्द्र की एक टीम ने उत्तर कर्नाटक के सूखा-पीड़ित इलाकों का दौरा किया है। कर्नाटक, जो दो साल से लगातार सूखे का सामना कर रहा है, ने मौजूदा रबी सीजन में उत्तर-पश्चिम मानसून की कमी के कारण उत्तर कर्नाटक के 12 जिलों को सूखा-प्रभावित घोषित किया है। मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने बताया है कि 2015-16 (जुलाई-जून) के मौजूदा रबी सीजन में कुल 35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बुवाई की गई थी। इसमें से करीब 33 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हुआ है।
सूखे से राज्य के सभी प्रमुख जलाशय सूख रहे हैं। जलाशयों में कुल क्षमता का मात्र 24 प्रतिशत ही बचा रह गया है। तुंगभद्रा, अलमाटी, घटाप्रभा, नारायनपुरा और मालाप्रभा सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। संकट की गम्भीरता को भाँपते हुए राज्य सरकार ने जलाशयों पर बंदिश लगा दी है कि बारिश के हालात बनने तक खेतिहर उद्देश्यों के लिये जल न छोड़ें। कबिनि और केआरएस जलाशयों को निर्देश दिये गए हैं कि सिंचाई के लिये पानी नहीं छोड़ें बल्कि बंगलुरु की पेयजल की माँग को पूरा करने की गरज से इसे बचाकर रखें।
गाँवों में टैंकरों से जलापूर्ति
इस वर्ष के खरीफ सीजन में भी राज्य ने दक्षिण-पश्चिम मानसून की बारिश में 20 प्रतिशत की कमी के कारण 27 जिलों को सूखा-ग्रस्त घोषित किया था। प्रसाद ने कहा कि सूखा-पीड़ित कुल 176 तालुकाओं में से 136 में 33 प्रतिशत कृषि और बागवानी की फसलें प्रभावित हुई हैं। बताया कि गम्भीर जल संकट का सामना कर रहे 385 गाँवों में सरकार ने टैंकरों से जलापूर्ति करने के बन्दोबस्त किये हैं। वह बताते हैं, ‘‘इन गाँवों में जलापूर्ति के लिये करीब 882 टैंकरों को जुटाया गया है।” सूखती धरती की गहराई से निकाले गए फ्लोराइड-युक्त पानी को पीने के दुष्प्रभावों से बचने के लिये अनेक गाँव वाले पेयजल खरीद रहे हैं। जनता दल (सेक्युलर) नेता वाईएसवी दत्ता ने कहा, ‘‘किसानों की आत्महत्या का आँकड़ा 800 को पार कर गया है, और इसके एक हजार तक पहुँच जाने का अंदेशा है; 136 तालुकाओं को सूखा-ग्रस्त घोषित कर दिया गया है, लेकिन सरकार सूखा राहत उपायों के लिये पर्याप्त धन व्यय नहीं कर रही। सूखे से मुकाबला करने के लिये सरकार ने कोई कार्रवाई योजना भी नहीं बनाई है।”
कर्नाटक बीते दो सालों से सूखे का सामना करना पड़ रहा है, स्थानीय लोगों को अपना जीवन बचाए रखने के लिये कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है, क्योंकि महिलाओं और बच्चों को पानी की तलाश में अपने जीवन तक को जोखिम में डालना पड़ रहा है। स्थिति इस कदर खराब हो चुकी है कि स्कूली छात्रों को परीक्षा छोड़कर पानी जुटाने के लिये उनके परिजन कह रहे हैं। स्थिति की गम्भीरता का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पीने और दैनिक जरूरतों के लिये पानी लाने के लिये लोगों को मीलों जाना पड़ रहा है।
बीते वर्ष मानसून पर्याप्त नहीं था, इसलिये बिजली उत्पादन पर भी असर पड़ा है। किसी को सहसा विश्वास नहीं होता कि देश के ग्लोबल शहर बंगलुरु को हर दिन पाँच से छह घंटे की बिजली कटौती का सामना करना पड़ रहा है। शहर में बिजली संकट के चलते उद्योगों ने साप्ताहिक अवकाश के विभिन्न दिन तय कर लिये हैं। जब बंगलुरु जैसे ग्लोबल शहर का यह हाल है, तो राज्य के टू-टीयर/री-टीयर शहरों में बिजली की स्थिति का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है।
राज्य में बिजली की कुल माँग 6500 से 6700 मेगावाट के बीच है। राज्य में 21 बिजली उत्पादन संयंत्र हैं, जिनमें करीब 4,069 मेगावाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जबकि इन संयंत्रों की स्थापित क्षमता 9,021 मेगावाट है। उत्पादन में कमी ऐसे समय हुई है, जब राज्य को निवेश आकर्षित करने के लिये पड़ोसी राज्यों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही है।
डगमगाया बेंगलुरु
बेंगलुरु में करीब चार लाख ट्यूबवेल/बोरवेल हैं। इसलिए उसके लिये जरूरी है कि इस्तेमाल किये जा रहे कुछ पानी को रिचार्ज करने के उपाय करे। अभी शहर में हर दिन 1400 मिलियन लीटर्स की खपत है और इसका बहुत थोड़ा हिस्सा ही ट्रीट किया जाता है। रेनवाटर हार्वेस्टिंग विशेषज्ञ एस. विश्वनाथ कहते हैं कि पानी को ट्रीट किये जाने से जलदायी स्तर और वेटलैंड रिचार्ज हो सकेंगे। वह कहते हैं, ‘‘क्षमताएँ अपार हैं। बोरवेलों को खोदने पर करीब 8 हजार करोड़ रुपए की लागत आई है। कम-से-कम इस निवेश का तो सदुपयोग कर लिया जाना चाहिए।” विश्वनाथ कहते हैं कि राज्य को आन्ध्र प्रदेश का अनुसरण करना चाहिए, जहाँ लोगों को बोरवेल खोदने और उन्हें साझा करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है।
कर्नाटक सरकार के खनन एवं भूगर्भ विज्ञान विभाग तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य विभाग के एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि बंगलुरु में बोरवेल जल का 52 प्रतिशत तथा नलों के पानी का 59 प्रतिशत पीने लायक नहीं है। इनमें क्रमश: 8.3 तथा 19 प्रतिशत ई. कोली बैक्टीरिया पाया गया है। कारण यह कि बंगलुरु का कम-से-कम आधा पानी तो सीवेज वाटर से ही प्रदूषित है।
1790 में एक ब्रिटिश कैप्टन ने बंगलुरु को एक हजार झीलों की भूमि करार दिया था। आज उन एक हजार में से 200 से भी कम झीलें बची रह गई हैं और ये भी किसी सीवेज टैंक से ज्यादा कुछ नहीं हैं। सीवेज वॉटर भूजल को प्रदूषित करता है और यह प्रदूषित जल रिस कर बोरवेल को प्रदूषित कर देता है। जब एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री थे, तो उन्होंने बंगलुरु को सिंगापुर सरीखा बनाने की बात कही थी।
एक तरह से उनकी मंशा पूरी हो गई है क्योंकि सिंगापुर की भाँति बंगलुरु भी अब सीवेज वाटर का ही इस्तेमाल कर रहा है। अलबत्ता, अन्तर यह है कि जहाँ सिंगापुर सीवेज को ट्रीट करके ‘नया जल’, जैसा कि वह इसे कहता है, तैयार करता है, वहीं बंगलुरु को बिना ट्रीट किया सीवेज वाटर इस्तेमाल करने को मजबूर होना पड़ रहा है।
गरम तवा बना गार्डन शहर
1. कर्नाटक जल संकट के शिकंजे में है। राज्य के उत्तरी हिस्सों में तापमान 46 डिग्री सेल्सियस तक के चिलचिलाते स्तर तक पहुँच गया है। शहर के लिए खतरे की घंटी
2. बेकारी के दिनों में उत्तर कर्नाटक के जिलों से दूसरी जगहों पर जाने का सिलसिला पीढ़ियों से चला आया है, लेकिन बीते दो वर्षों से गम्भीर सूखे की स्थिति के चलते इस सिलसिले ने स्थायी शक्ल अख्तियार कर ली है
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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