कर्जमाफी, किसानों का कल्याण और उनका भविष्य

कृषि
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भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार ने अपनी पहली ही बैठक में छोटे और सीमान्त किसानों के हित में कुछ फैसले किये हैं। लेकिन बुनियादी सवाल है कि भारत के किसान अपनी भूमि से आजीविका सुनिश्चित करने में क्यों सफल नहीं हो पाते। अगर हम देश में सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करना चाहते हैं, तो इस सवाल का जवाब खोजा जाना जरूरी है। दरअसल, इसके लिये उन चुनौतियों की पहचान कर लेनी होगी जिनका सरकार को पूरे जतन से समाधान करना चाहिए।

प्रमुख चुनौतियाँ ये हैं :


1) कृषि क्षेत्र में कम उत्पादकता की समस्या और इस जानकारी का अभाव कि कर्ज माफी उत्पादकता में सुधार नहीं करती। एनएसएसओ के आँकड़ों से पता चलता है कि करीब 40 प्रतिशत फसली ऋण लिया तो जाता है कृषि कार्य के नाम पर लेकिन विवाह, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि गैर-कृषि कार्य पर खर्च कर दिया जाता है। कर्ज माफी की स्थिति में तार्किक तो यह है कि इस पैसे को अच्छे बीज और अन्य आदान मुहैया कराने पर खर्च किया जाये। इससे न केवल खेती में उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि किसानों की उत्पादन लागत में भी कमी आ सकेगी। वे कर्ज के जाल में नहीं फँसने पाएँगे।

2) सर्वेक्षणों तथा आँकड़ों से संकेत मिलता है कि मात्र ऋण से ही किसानों के समक्ष आजीविका सम्बन्धी चुनौतियों से पार नहीं पाया जा सकता। भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था इस दौरान कृषि से सेवा आधारित अर्थव्यवस्था की तरफ बढ़ चली है, लेकिन कृषि क्षेत्र को तकनीकी प्रगति से थोड़ा लाभ जरूर मिला। अलबत्ता, तकनीक स्थानान्तरण तथा समुचित आयोजना के जरिए कृषि उत्पादकता बढ़ाने की दिशा में ज्यादा प्रयास नहीं किये जा सके। सिंचाई प्रणाली, भण्डारण प्रणाली, बाजार सम्पर्क आदि जैसे कृषिगत ढाँचे में सुधार की गरज से बहुत कम प्रयास किये गए। भारतीय राजनीति और प्रशासन में पसरे भ्रष्टाचार ने स्थिति को और जटिल बना दिया।

3) बैंकों के लिये भी कर्ज माफी काफी जटिलताएँ ले आती है। बैंकों को कर्ज माफी योजना से कोई लाभ नहीं होता क्योंकि उन्हें एक ही पैमाने को आधार बनाकर कर्ज लौटा पाने या न लौटा पाने वाले ग्राहकों को ऋण मुहैया कराने को बाध्य होना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 2010-11 में प्राथमिकता क्षेत्र के लिये नियत ऋण का करीब 73 प्रतिशत हिस्सा डूबत ऋण में तब्दील हो गया। इसमें से करीब 44 प्रतिशत ऋण कृषि क्षेत्र में वितरित किया गया था। बीते सात वर्ष में कृषि बाजार प्रणाली में सुधार के लिये खास प्रयास नहीं हुआ। भण्डारण सम्बन्धी आधारभूत सुविधा और कृषि शिक्षा विस्तार प्रणाली की भी अनदेखी हुई।

4) सूदखोरों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है। ज्यादातर गाँवों में बैंकिंग सुविधा न होने से कृषि सम्बन्धी कार्यों के लिये ऋण की जरूरतों को पूरा करने को किसान सूदखोरों के चंगुल में फँस जाने को विवश हैं। कर्ज माफी योजना में सूदखोरों से लिये गए ऋणों से राहत पाने के उपाय नहीं हैं। क्या यह ग्रामीण विकास के लिये उम्मीद जगाने वाला अच्छा संकेत है?

5) भारतीय ग्रामीण समाज की स्थितियों में ऋण की जरूरतों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह गलत है। सीमान्त, छोटे तथा अन्य किसानों का वर्गीकरण अपर्याप्त है और कई बार तो दोषपूर्ण भी दिखता है क्योंकि भूमि के रकबे और उत्पादकता के बीच कोई सम्बन्ध ही नहीं। हो सकता है कि भूमि का आकार ऋण पाने की योग्यता या ऋण की जरूरत का कोई मजबूत संकेतक न हो लेकिन भूमि की गुणवत्ता और प्रबन्धन का खराब उत्पादकता से सीधे सम्बन्ध है। ऋण की योग्यता भूमि आधारित चयन प्रक्रिया पर आश्रित नहीं होनी चाहिए।

6) विश्वसनीय निगरानी तथा मूल्यांकन का अभाव भी बड़ी चुनौती है, जिसका समाधान जरूरी है। जरूरी है कि ऋण मुहैया कराने वाले संस्थान (व्यावसायिक और सार्वजनिक) प्रत्येक राज्य में शिकायत निवारण अधिकारी की नियुक्ति करें। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आरबीआई समस्या निवारण और ऋण के इस्तेमाल के मसले को किस तरह से देखती है। प्राथमिकता क्षेत्र की सूची में डाले होने के कारण बैंकों के लिये ऋण वितरित करने की मजबूरी होती है।

प्रश्न उठता है कि क्या कर्ज माफी से किसानों की आजीविका में सहायता मिलेगी? जवाब है-नहीं। यह पैसा बैंकों के पास जाना है, न कि किसानों के पास। ऐसी योजनाओं से उत्पादकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। न ही किसानों की बेहतरी हो पाती है। कर्ज माफी लक्षणों का उपचार करती है, न कि बीमारी का। तात्पर्य यह कि कर्ज माफी से किसानों की स्थिति में सुधार नहीं होने जा रहा। वह तो अभी भी दलदल में फँसा हुआ है, और जल्द ही फिर से कर्ज के जाल में फँस जाएगा।

तो क्या हैं उपाय?


1) कृषि मंत्रालय को राज्य प्रशासन की सहायता से जिलावार कार्रवाई योजना बनाकर लाभप्रद उत्पादकता सुनिश्चित करनी चाहिए। इससे किसानों को समुचित बीज, उर्वरक, सिंचाई और अन्य आदान और समुचित बाजार सुनिश्चित हो सकेंगे। कृषि विश्व विद्यालयों की भी कृषि के प्रदर्शन में सुधार के लिये जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए।

2) कृषि क्षेत्र की ऋण सम्बन्धी जरूरतों को समझा जाना चाहिए। खासकर क्षेत्रवार स्थितियों, मौसमी रुझानों और जोखिम ले सकने की क्षमता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। जोखिम को कम-से-कम रखने की गरज से अभी निवेश समुचित नहीं है। अतिरेक उत्पादन होने पर दाम गिरना सबसे बड़ा जोखिम होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत ढाँचे और समुचित बाजारों तक सम्पर्क की खराब स्थिति सबसे बड़ी चिन्ता है। किसी भी विभाग पर इन समस्याओं को लेकर जवाबदेही नहीं रखी गई है। सच तो यह है कि कानून है, नियम है, और एपीएमसी जैसे विभाग हैं, जिन्हें ये जिम्मेदारी सौंपी जरूर गई है, लेकिन उन पर जवाबदेही नहीं रखी गई।

3) किसानों को प्राथमिकता के आधार पर ऋण मुहैया कराने के लिये बैंकों को बाध्य करने के बजाय एक समग्र नीति अपनाई जानी चाहिए। बाजार सम्पर्क, मौसम, फसल बीमा, तकनीकी नवोन्मेशन जैसे मुद्दों पर ध्यान देकर उत्पादकता और कीमत सम्बन्धी मुद्दों को तरतीब में लाया जा सकता है।

4) सरकार को निजी क्षेत्र को कृषि कार्यों में भागीदारी के लिये प्रेरित करना चाहिए। कृषि सम्बन्धी शोध कार्यों के मामले में आईसीएआर का एकाधिकार है। विभिन्न प्रक्रियात्मक अड़चनों के चलते इनमें निजी क्षेत्र की मौजूदगी न के बराबर है।

5) निजी क्षेत्र के प्रति अभी जो मानसिकता है, उसे बदला जाना चाहिए। कृषि क्षेत्र बेहद विशाल क्षेत्र है कि इसे मात्र सार्वजनिक क्षेत्र से ही नहीं सम्भाला जा सकता। कृषि क्षेत्र की विविधता और जटिलताओं को ज्ञान, दक्षता और तकनीक का सम्बल मिलना जरूरी है। यह कार्य केवल कार्यालयीन प्रयासों से सम्भव नहीं है। दुर्भाग्य से ज्यादातर किसान नेता अभी भी कम्युनिस्ट दौर की मानसिकता से घिरे हुए हैं कि सभी समस्याओं का समाधान सरकार के पास होता है। सरकारी विभाग नहीं चाहते कि निजी क्षेत्र महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे क्योंकि इससे उन्हें अपनी कमजोरी और कार्य को लेकर अपनी काहिली उजागर होने का अन्देशा है। यह भी देखा जाता है कि नीति-निर्माताओं में वस्तुस्थिति की समझ नहीं होती। उन्हें लगता है कि वे सर्वज्ञ हैं। वोट बैंक की राजनीति के चलते विकास के तकाजों की अनदेखी होती रही है। जब तक हम खेती को लेकर अपने नजरिए को नहीं बदलेंगे तब तक कर्ज माफी हर चुनाव घोषणा पत्र का हिस्सा बनी रहेगी।

लेखक, कृषि व्यापार एवं नीति विशेषज्ञ हैं।

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