18-19 दिन भै गेलै... एकाएक पानी घुसलै त भागैलीये... पटुआ धोये के राखलीये, सब भैंस गेलै... आपन जिनगी में कहियो ऐहेन विनाश नै देखलीये... खाली जान लै के भागलीयै'।सदानंद पासवान मेरे सामने खड़ा है। अपने पूरे अच्चों-बच्चों के साथ। यह एक मंदिर का ओसरा है।इससे बस थोड़ी ही दूर पर सूअर- उसके छौने, आदमी- उनके बच्चे और बांय-बांय करती गायें हैं। सूअर यानी जानवरों की एक नापाक श्रेणी। गाय कुछ के लिए पूज्य। और यहां आदमी माने इस सबसे बड़े जनतंत्र में बस हांक लिया जाने वाला वोट। कोसी ने सबका वजूद एक कर दिया है। फिलहाल इनके बीच कोई फिरका नहीं बांटा जा सकता। सूअर कीचड़ से लथपथ अपने छौनों के साथ और गाय अपनी गर्दन जमीन पर गिरा-फैला 'पसर गयी है। पासवान का बेटा भी यहीं एक फटी चटाई पर औंधे मुंह लेटा है। पासवान फिर कहे जा रहे हैं-
'कहियो ऐहेन विनाश...। मैं यहां भेड़वार ब्रम्होत्तर,अचरा पंचायत के पास सुरसर से करीब 5 मीटर पहले ही खड़ा हूं। अररिया से भीमनगर-वीरपुर जाने वाली सड़क यहीं से पानी में बिला गयी है। अररिया मुख्य कस्बे से उत्तर फारबिसगंज तकरीबन 30 किमी. है। यहां से बथनाहा होते मैं नरपतगंज पहुंचा हूं। नरपतगंज में ही सुरसर बांध टूटा है और यहीं से शुरू होती है तबाही। यहां पठुआ (जूट) और धान मुख्य फसल है, अब कह सकता हूं कभी रही होगी।
कोसी मेन कैनाल (सिंचाई परियोजना) सुरसर बांध का कलवर्ट था। कोसी इसे भी बहा ले गयी है। अपने निशान तक से। बताते हैं यह सिंचाई परियोजना इस इलाके के लिए वरदान से कम नहीं था। यह कैनाल घर-घर खुशहाली ले जाती थी। इलाकाई सम्पन्नता लोगों ने कभी कोसी में भी झांकी ही थी। इसी नहर के बूते। यह नहर अब नहीं रही। कोसी ने अगर यह इलाका छोड़ा भी तो अपने पीछे जैसा कि लोग बताते हैं कोढ़िया बालू छोड़ जायेगी। इससे तकरीबन 10 हजार हेक्टेयर से भी अधिक खेती की जमीन ऊसर हो जायेगी। कोसी का सीधा हमला जमीन की कुछ भी पैदा कर पाने की ताकत पर है। कोसी की जिद इलाके को बांझ बना कर छोड़ेगी। इसी कोसी मेन मैनाल से फूटी या निकली जेबीजी नहर बची रह गयी है, जो हजारों उजड़े परिवारों की रिहाइश बन रही है। नहर के किनारे-किनारे टूटे- लाचार और कोसी की मार से बदहवाश लोगों की जमीन और आसमान के बीच तकरीबन टंगी सी बस्तियां बन गयी हैं। यहीं सुर्सर में मिल जाते हैं सृष्टिधर मिश्र। वो हाथ से इशारा करते बताते हैं- 'देखिये! सारी खेती तो अब नदी हो चली...।' वह छातापुर ब्लाक के रहने वाले हैं जो नरपतगंज और सुपौल के वार्डर पर है। बताते हैं कि वे लोग पानी में 6 दिन कैद रहे।
तमाम लोग ड्रम और केले के थम की नाव बनाकर तमुआ चौक होते अररिया भागे। पूरा दूंठी-चापिन डूब गया। एक लड़का बताता है- “रात तक रहे सारे घर सुबह अपनी नींव तक से गायब थे...। मैसेज मिला किगांव में पानी आ सकता है...7 बजे। और 8 बजे घरों में हहरा कर पानी घुसा... तकरीबन पांच फुट तक। सब छत पर भागे। एक-एक पक्की मकान की छत पर 100-100 लोग। पानी अब पूरी धार के साथ बह रहा था। करेंट इतना कि पांव उखड़ जाये। जरा सा भी पांव अड़ाने की कोशिश में आदमी दो सौ मीटर तक उछल जाय॑..।' कोसी खेल गयी। लोगों की जिन्दगी से। उसने चलती सांसे घोंटी। फिर तो आबादी दर आबादी टांगने लगी। किसी की, किसी राजनेता की भी मनौवल नहीं मानती। जाने कितनी अगरबत्तियां भी लोगों के कलजे की तरह सुलग-सुलग ठंडी हो गयी।
किसी को पता नहीं, ज्यादातर लोगों को भी नहीं कि, कोसी के इस ताडंव की वजह क्या है। ताकतवरवोट समूह न होने की वजह से ही शायद इन्हें कोई सपना भी न छू सका। सपने जो रचे जाते हैं सरकारी टकसाल में। जो नारों में सुर्ख होते हैं- केवल सपने। वे भी इन्हें कहां छू पाये। बस इतना ही फर्क है इनमें और फिल्म “तीसरी कसम” के हीरामन में। इस्स...। हीरामन आंखों के सामने नाच गया है। 'सजन रे झूठ मत बोलो...' किससे कह रहा है हीरामन। हीरामन की लौ सी कंपकपाती बहुत ईमानदार मोहब्बत को कोई छू ही तो गया था, बस कुछ क्षणों के लिए। और यही उसकी थाती हो गयी। इन बाढ़ पीड़ितों को तो कोई कभी नहीं छू गया। कोई सपना नहीं। ये हीरामन नहीं हैं। या सबके सब हीरामन हैं, नहीं समझ पा रहा हूं। फिल्म तीसरी कसम की शूटिंग इन्हीं इलाकों में हुई थी। मेरा ड्राइवर वह जगह भी दिखा गया गढ़बनैली, जहां राजकपूर “मैं
चाह नहीं पीता” कहते-कहते एक लोटा चाय पी गये थे। पिंजरे वाली मुनिया का आलोक और महुआ घटवारिन का आख्यान सब कोसी चाट ले गयी। तीसरी कसम जिंदगी थी। यहां तो मौत है। दिमाग में सारा प्लाट पलट गया है। तब परती परिकथा के पन्ने फड़फड़ाने लगते हैं।
अब बथनाहा- श्यामनगर के बीच खड़ा हूं। यहां राहत कैम्प लगा है। मेडिकल का। डा. एम. एस. मारटीलियो- सशस्त्र सीमा बल के डीआईजी- मेडिकल से मुलाकात होती है। उन्होंने बताया- “मेडिकल की दो मोबाइल यूनिट हैं जो गांवों में जा रही हैं। मरीजों का इनपुट कम हुआ है। गेस्ट्रो और डिहाईड्रेशन के मरीज ज्यादा आ रहे थे।' उनके चले जाने के बाद जहां से दवाईयां बांटी जाती है वहां चला आया हूं। यहां लोगों ने बताया कि कई दवाईयों की कमी है। मरीजों की आमद की लिहाज से उन्हें ब्रांको डाइलेटर, आई और ईयर ड्राप, रेनेटीडीन टैबलेट और एंटासीड चाहिए। अभी तक नहीं आ पाया है। देख रहा हूं दो-तीन औरतें दूर कहीं अपनी लाज छुपाये गठरी सी बनी बैठी हैं। इन्हीं लोगों ने बताया कि जच्चा-बच्चा के भी कई मामले आये और उन्हें रेफर कर दिया गया। सुरसर में नेशनल डिजास्टर रिस्पांस फोर्स बाढ़ पीड़ितों के लिए बहुत मददगार हैं। यहां उनका एक आफिसर, एक इंस्पेक्टर, तीन सब-इंस्पेक्टर, एक मेडिकल आफिसर और पैंतीस जवान हैं। दस स्पीड बोट आयी हैं। जिनकी स्पीड डेढ़ घंटे में अठारह किलो मीटर के करीब है। अगेंस्ट करेंट यह दूरी ढाई घंटे में तय होती है। ये लोग 2 अगस्त से 3 सितम्बर तक फ्लड फाइटिंग में लगे रहे और बताते हैं कि तेरह हजार लोग बाढ़ से निकाल लिये गये हैं।
आदित्य कुमार ने बताया कि स्थिति सचमुच बहुत ही भयावह रही है- “पानी सात फुट तक... औरतें छत पर... उन्हें उतारना बहुत ही मुश्किल हो रहा था। यहां फंसे लोगों को जवानों ने “बैक स्ट्रोक' से निकाला। बैक स्ट्रोक में बचाने वाले का हाथ डूबने वाले की ठुड्डी (चिन ) पर होता है। जवान डूबने वालों को धक्का देते हुए तैरा कर पानी से निकाल लेते हैं।..' वो बताते हैं कि सचमुच बड़ी खौफनाक स्थिति है। भगवान ने करे ऐसा कभी दुबारा हो। वह सिविल एडमिस्ट्रेशन की बाबत कोई बात बचा ले जाते हैं। मैं फिर वहीं आ गया हूं। मंदिर के पास। शिव मंदिर के कपाट बंद हैं। सदानंद पासवान जैसे कई की नजरें चौखट तक तड़प-तड़प कर गयी हैं। गायों की बांय-बायं और बकरियों की में-में तेज हो गयी है। एक बच्चे की पत्तल पर कुत्ते झपट्टा मारने वाले हैं। लेकिन मां का खून गरम नहीं ठंडा हो जाता है और कुत्ता भगाने के लिए दौड़ती वह खुद ढह जाती है। मैं यहां से चला आता हूं और परती परिकथा दिमाग में हरी हो रही है। हीरामन होता तो कहता- “सजन रे झूठ ही बोलो।"
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