अगले दिन भी सुबह से अलग-अलग इलाकों में गए। दोपहर में सभा हुई। बेलदौर से तीन बजे बस से प्रस्थान करके मानसी तक आए। मानसी से रेल पकड़ी। यह इलाक़ा खगड़िया जिले में पड़ता है। आगे हम रोसेरा में उतरे। वहां पर शुभ्रमुर्ती जी को मिले। समस्तीपुर होते हुए अगली सुबह संगोली पहुंचे। अगले दो दिनों में गंडक नदी द्वारा स्थान-स्थान पर हो रहे कटान को देखा। फिर मुज़फ़्फ़रपुर होते हुए पटना लौटे। जगह-जगह नदी को बांधने का प्रयास किया गया है। जिसे नदी ने बार-बार तोड़ा और बांधने के प्रयास को असफल कर दिया। उत्तराखंड से उद्गमित गंगा की अनेक धाराओं की बौखलाहट की तो हम थोड़ी बहुत जानकारी रखते हैं। समय-समय पर यहां के लोग इनकी बौखलाहट की मार सहते रहते हैं। गंगा जब मैदानों में प्रवेश करती हैं तो वहां उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है तथा गंगा के द्वारा वहां की धरती में किस प्रकार का कहर बरता जाता है यह समझने के लिए हमने सारनाथ, वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, छपरा और पटना तक पैदल यात्रा भी की। लेकिन इसके आगे गंगा एवं उसकी सहायक धाराओं को न देखा था, न समझा ही था। बरसात के मौसम में कभी-कभार बाढ़ के समाचार पढ़ने को मिलते। बिहार की त्रासदी की कहानियां भी पढ़ने को मिलती। कभी-कभार गंगा की बाढ़ के बारे में श्री अनिल प्रकाश या श्री दिनेश कुमार के पत्र भी प्राप्त होते रहते। समय-समय पर शांतिमय समाज तथा वरिष्ठ गांधीवादी कार्यकर्ता श्री कुमार कलानंद मणि से मिलना होता तो गंगा की धाराओं द्वारा बिहार में प्रति वर्ष होने वाली त्रासदी की गाथा सुनने को मिलती।
इसी क्रम में वर्ष 1998 में कलानंद जी के साथ उत्तरी बिहार से प्रवाहित नदियों की यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। यह आयोजन शांतिमय समाज गोवा का सतत चलने वाला कार्यक्रम था। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में कलानंद जी के साथ मैंने पटना से प्रस्थान किया। अगले दिन बेलदौर में शांतिमय समाज से जुड़े कार्यकर्ताओं की बाढ़ के संबंध में आयोजित बैठक में भाग लिया। यह कोसी की बाढ़ से प्रभावित अंतरवर्ती क्षेत्र है। पिछली बाढ़ की त्रासदी एवं सरकार की भूमिका पर खुलकर चर्चा हुई, जिसमें मुझको बाढ़ से होने वाले कहर की एक झलक समझने को मिली। यहां पर स्थानीय कार्यकर्ताओं में ग़जब का उत्साह देखने को मिला। यह सब कलानंद जी की संगठन शक्ति एवं रचनात्मक दृष्टि का परिचायक था। प्रभावित क्षेत्र को देखने के बाद रात को वहीं ठहरे।
यह क्षेत्र कोसी नदी का प्रभाव क्षेत्र है। अगले दिन भी सुबह से अलग-अलग इलाकों में गए। दोपहर में सभा हुई। बेलदौर से तीन बजे बस से प्रस्थान करके मानसी तक आए। मानसी से रेल पकड़ी। यह इलाक़ा खगड़िया जिले में पड़ता है। आगे हम रोसेरा में उतरे। वहां पर शुभ्रमुर्ती जी को मिले। समस्तीपुर होते हुए अगली सुबह संगोली पहुंचे। अगले दो दिनों में गंडक नदी द्वारा स्थान-स्थान पर हो रहे कटान को देखा। फिर मुज़फ़्फ़रपुर होते हुए पटना लौटे। जगह-जगह नदी को बांधने का प्रयास किया गया है। जिसे नदी ने बार-बार तोड़ा और बांधने के प्रयास को असफल कर दिया।
कोसी नदी की अनेक धाराएं नेपाल से निकलती हैं। उनको देखने और समझने का अवसर तो अभी तक नहीं मिला, लेकिन उसके द्वारा जो सिल्ट भारत की इन नदियों में आती है, उससे साफ पता चलता है कि इनके फैलाव वाले बेसिन की स्थिति ठीक नहीं है। इसका दुष्प्रभाव तो हर वर्ष ही बिहार के उत्तर से बहने वाली गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी आदि नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में बसने वाले ग्रामीणों को भुगतना पड़ रहा है।
लेकिन वर्ष 2008 में कोसी नदी ने भयंकर तबाही मचाई थी। इसी क्रम में शांतिमय समाज ने कोसी बचाओ अभियान के अंतर्गत तत्काल प्रभावित इलाकों में पहुंच कर लोगों का मनोबल बढ़ाने एवं सेवा का कार्य प्रारंभ कर दिया था।
लेकिन नवंबर दूसरे सप्ताह के प्रारंभ में ‘कोसी बचाओ अभियान’ के अंतर्गत वहां की जनता के साथ संवाद यात्रा का आयोजन किया गया था, जिसमें कलानंद जी ने मुझे भी भाग लेने का अवसर दिया। हम लोग 7 नवंबर की सुबह बक्सर-दानापुर पहुंच गए थे। वहां से रेल धीमी गति से आगे बढ़ रही थी। जहां जिसकी मर्जी थी वह जंजीर खींचकर रेल रोक देता था। आगे हमें मोकामा से खगड़िया, जो कि 70 किलोमीटर दूर है, जाने में तीन घंटे लगे। खगड़िया से गंगा लगभग सात किलोमीटर दूर बहती है। इसके आस-पास ही कोसी भी गंगा में समाहित होती है। हम खगड़िया में स्थानीय लोगों से मिले। यहां से हमारे साथ भारतीय नदी घाटी मंच एवं शांतिमय समाज के कई कार्यकर्ता भी हो गए थे। खगड़िया में पत्रकार भी मिलने आए। उनसे इस भीषण त्रासदी के बारे में कई प्रकार की जानकारी प्राप्त हुई।
खगड़िया से दोपहर को हमने सहरसा के लिए प्रस्थान किया। सहरसा यहां से 90 किलोमीटर दूर है। रास्ते में जगह-जगह लोगों ने बाढ़ की त्रासदी के बारे में जानकारी दी कि उनका भविष्य भी खतरे में है। खेत पानी में डूबे हैं, कब तक पानी का निकास हो सकेगा, यही चिंता सता रही है।
सहरसा से हमने सुबह ही प्रस्थान कर दिया था। रास्ते में जीपों एवं बसों में क्षमता से दुगने-तिगुने लोग भरे थे। ये वाहन इसके बावजूद भी सरपट से दौड़ रहे थे। आगे हम बैजनाथपुर चौक पर रुके। वहां पर हमने नाश्ता किया और आस-पास के स्थानों के चित्र ले रहे थे, कि पुलिस वाला आ धमका कि फोटो नहीं ले सकते हो। तुम्हें साहब बुला रहा है। हमने कह दिया कि साहब को कहो कि तुम्हें यहां बुला रहे हैं। इस सबको देख कर लगा कि किस प्रकार इस अंतरवर्ती क्षेत्र में पुलिस की मनमानी है। इधर आस-पास के गांवों में भी बाढ़ आई थी। लोग अभी तक नहीं उबर पाए हैं। इसके बाद हम 10 बजे तक राधवपुर पहुंचे। राधवपुर के पास सिमराही बाजार में लोगों का तांता लगा हुआ था।
11 बजे से सिमराही बाजार के पास एक मैदान में सभा हुई, जिसमें दूर-दूर से लोग आए थे। अधिकांश लोग बाढ़ प्रभावित इलाके से आए थे, जिसमें महिलाएं अधिक थी। अधिकांश लोग जिनके बदन में ठीक से कपड़े भी नहीं थे, उदास चेहरों के माथों पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थी। धूल भरे आंचल में कईयों ने छोटे बच्चे भी गोद में लिए हुए थे। दो तरफ दीवार से घिरा मैदान लोगों से खचा-खच भरा था। एक अनुमान के अनुसार आठ हजार से ज्यादा लोग सभा में थे।
वाक्य घोषों से सभा का शुभारंभ हुआ। फिर सरकारी लापरवाही, जिससे बांध टूटा, पर व्याख्यान हुए। इस प्रकार दो घंटे तक सभा हुई। सभा के अंत में एक कोने पर कुछ लोग खड़े होकर जोर से बोलने लगे। पता चला कि कुछ लोग चाहते हैं कि बांध जहां से टूटा है और नदी आजकल बह रही है, उसे ही रहने दिया जाए। कुछ पुराने स्थान, जहां से पहले नदी बहती थी उसे ही चाहते हैं। इस प्रकार से हमारे यहां गढ़वाल में एक कहावत है कि “ऐ बाघ मी न खा, येते खा” याने हे बाघ मुझे मत खाओ, इसको खाओ। लेकिन क्या कोई रास्ता है कि बांध में किसी को खाने की हिम्मत ही न हो। बांध और बाढ़ यहां एक दूसरे के पूरक हैं। बांध और बाढ़ से मुक्ति कैसे मिले इसी के लिए इस सभा का आयोजन किया गया था। यह बात अलग है कि इस सभा का इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कितना प्रभाव पड़ पायेगा। लेकिन शांतिमय समाज द्वारा ‘कोसी बचाओ अभियान’ के लिए इतनी बड़ी संख्या में लोगों का एकत्रित होना कार्यकर्ताओं की क्षमता का प्रदर्शन था। वहीं आमजन, जिसे राजनीति से लेना देना नहीं है, बाढ़ से छुटकारे का रास्ता तलाशना चाहता था। इसके बाद कोसी बचाओ अभियान की भी मीटिंग हुई, जिसमें अलग-अलग इलाकों से आए हुए प्रतिनिधियों ने समस्याओं एवं भावी कार्यक्रम के बारे में चर्चा की।
इसी प्रकार देवेंद्र जी कहते हैं कि लगभग आधे गाँवों में अभी भी पानी भरा है। इस कारण पलायन भी हुआ है। अगली फसल के लिए भी खेत तैयार नहीं हैं। इसलिए आगे भी अंधेरा ही दिख रहा है। ऐसे में अकाल की स्थिति पैदा हो गई है।
अगले दिन सुबह-सुबह हमने राघवपुर से कोसी बैराज की ओर प्रस्थान किया। इसमें कलानंद जी के अलावा प्रो. प्रकाश जी भारतीय नदी घाटी मंच के राष्ट्रीय समन्वयक है। श्री भगवान जी पाठक तथा दर्जनों कार्यकर्ता तथा पत्रकार भी साथ थे। सिमराही से भीमनगर 40 किलोमीटर दूर है। यहां तक बिहार का सुपोल जिला है। इसके आगे नेपाल का सप्तहरी इलाक़ा पड़ता है। यहां सीमा पर नेपाली प्रहरी मिले।
भीमनगर में कोसी बैराज है। यहीं पर शांतिमय समाज ने संकल्प का आयोजन किया। कलानंद जी ने संकल्प करवाया, जिसे हम सबने दोहराया तथा संक्षिप्त संबोधन के बाद बांध के किनारे यात्रा की। यहां से कुछ दूर पर एक सभा के बाद घनश्याम जुड़ांव जी के नेतृत्व में पद यात्रा भी निकाली गई।
इस प्रकार इस यात्रा के क्रम में खगड़िया से कोसी बैराज तक सभाओं एवं गोष्ठियों के माध्यम से हजारों बाढ़ पीड़ितों से साक्षात्कार हुआ और विनाश को प्रत्यक्ष देखा। रास्ते में नहरों, कोसी नदी एवं बैराज में चारों तरफ साद ही साद देखा गया। इसके कारण नदी, नहर और बैराज की जल धारण एवं जल प्रवाह प्रणाली में भारी व्यवधान हो गया। ऊपर से बांध के कमजोर भाग ने धारा परिवर्तन करने एवं प्रलयंकारी बाढ़ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मुख्य नदी एवं नहरों में पानी नहीं है बल्कि गांव, खेत, चरागाह और मैदान पानी से भरे पड़े देखे गए।
बताते हैं कि कोसी बांध का पूर्वी किनारा टूटा, जिसके कारण कोसी नदी की धारा 35 किलोमीटर दूर परिवर्तन हुई। जिससे चार जिले पूरी तरह तथा तीन जिले आंशिक रूप से प्रभावित हुए। लोग बता रहे थे कि वर्षों पहले कोसी यहीं से प्रवाहित होती थी। इस वर्ष की प्रलयंकारी बाढ़ 20 से 25 लाख की आबादी प्रभावित हुई। भीमनगर के पास जहां कोसी बैराज है, उसके गेटों में आधा सिल्ट जमा थी। बांध भी साद से लबालब भरा था।
कोसी की सहायक धारा अरूण नदी एवरेस्ट के उत्तर से उद्गमित होती है। इसी प्रकार दूध कोसी, सून कोसी, ताम कोसी आदि इसकी सहायक धाराएं हैं। ये सभी नदियां लंबी यात्रा कर कोसी में समाहित होकर भारत में प्रवेश करती हैं। इसके ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई जारी है, तथा कमजोर पहाड़ों में भूक्षरण और भूस्खलन प्रक्रिया दिनों दिन बढ़ती जा रही है। साद को रोकने, कम करने का कोई मुकम्मल प्रबंधन नहीं किया गया है। इसमें अंतरराष्ट्रीय मुद्दे तो हैं लेकिन अपने भूभाग में भी साद के समुचित प्रबंधन के प्रति लापरवाही तो है ही। हमारे देश में सन् 1950 के अरुणाचल प्रदेश के 8.7 रिएक्टर के भूकंप के बाद ब्रह्मपुत्र नदी सबसे ज्यादा साद बहाने वाली नदी थी। पर अब लगता है कि कोसी नदी इस बारे में ब्रह्मपुत्र को भी पीछे छोड़ देगी। यदि प्रतिवर्ष आने वाली साद की मात्रा को अति प्राथमिकता के आधार पर रोकने या कम करने के व्यावहारिक कार्यक्रम नहीं बनते तो आगे भी इसके भयंकरतम दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे।
इस यात्रा के बाद भारतीय नदी घाटी मंच ने कुछ मुद्दे इस प्रकार प्रस्तुत किए थे।
यद्यपि तटबंध बाढ़ सुरक्षा के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं, लेकिन वे इस काम में असफल सिद्ध हुए हैं। बार-बार कोसी की त्रासदी को झेलते-झेलते आम जनता का मनोबल एवं आत्मविश्वास टूट चुका है। आज सबसे ज्यादा जरूरी है जनता के आत्मविश्वास को बहाल करना एवं उसके मनोबल को उठाना ताकि उनका पुरुषार्थ जागृत हो सके।
पुनर्वास के कार्यक्रमों में प्रभावित लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करना आवश्यक है, ताकि वे राहत पाने की मारी-मारी की मानसिकता से मुक्त होकर अपने पुरुषार्थ का उपयोग कर सकें।
लगभग पूरा उत्तर बिहार विभिन्न नदियों की बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र है, किंतु बाढ़ प्रबंधन की दृष्टि नहीं है। इन क्षेत्रों में क्लस्टर आधारित बाढ़ के उच्चतम स्तर को ध्यान में रखकर स्थायी आश्रय स्थलों का विकास होना चाहिए। यहां खाद्य सामग्री, जीवन रक्षक दवाइयों एवं उपकरणों, मवेशियों के लिए चारे का भंडार होना चाहिए। बाढ़ के बाद इन आश्रय स्थलों का सामुदायिक उपयोग हो सकता है।
हमें रेडियों प्रणाली की स्थापना एवं उसके संचालन का प्रशिक्षण दिया जाए ताकि सूचनाओं का त्वरित गति से आदान-प्रदान हो सके।
बाढ़ के प्रभाव को कम करने की दृष्टि से देशज परंपरा एवं आधुनिक तकनीक का अध्ययन करते हुए बाढ़ सहजीवन की दृष्टि का विकास होना चाहिए।
बिहार संसाधनों से गरीब नहीं है। इसके पास सबसे उपजाऊ ज़मीन, प्रचुर जल संसाधन एवं बड़ी जनसंख्या है। गरीबी तो मानसिकता में है। दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर इन संसाधनों का सटीक एवं समंवित उपयोग करते हुए बिहार को देश का सबसे समृद्ध क्षेत्र बनाया जा सकता है।
भारत और नेपाल समान नदी प्रणाली से जुड़े हैं। अतः इन नदियों के संरक्षण, संवर्द्धन में दोनों देशों का समान योगदान होना चाहिए। तभी दोनों देश बाढ़ एवं वैश्विक तापमान की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।
इसी क्रम में वर्ष 1998 में कलानंद जी के साथ उत्तरी बिहार से प्रवाहित नदियों की यात्रा करने का अवसर प्राप्त हुआ था। यह आयोजन शांतिमय समाज गोवा का सतत चलने वाला कार्यक्रम था। अप्रैल के प्रथम सप्ताह में कलानंद जी के साथ मैंने पटना से प्रस्थान किया। अगले दिन बेलदौर में शांतिमय समाज से जुड़े कार्यकर्ताओं की बाढ़ के संबंध में आयोजित बैठक में भाग लिया। यह कोसी की बाढ़ से प्रभावित अंतरवर्ती क्षेत्र है। पिछली बाढ़ की त्रासदी एवं सरकार की भूमिका पर खुलकर चर्चा हुई, जिसमें मुझको बाढ़ से होने वाले कहर की एक झलक समझने को मिली। यहां पर स्थानीय कार्यकर्ताओं में ग़जब का उत्साह देखने को मिला। यह सब कलानंद जी की संगठन शक्ति एवं रचनात्मक दृष्टि का परिचायक था। प्रभावित क्षेत्र को देखने के बाद रात को वहीं ठहरे।
यह क्षेत्र कोसी नदी का प्रभाव क्षेत्र है। अगले दिन भी सुबह से अलग-अलग इलाकों में गए। दोपहर में सभा हुई। बेलदौर से तीन बजे बस से प्रस्थान करके मानसी तक आए। मानसी से रेल पकड़ी। यह इलाक़ा खगड़िया जिले में पड़ता है। आगे हम रोसेरा में उतरे। वहां पर शुभ्रमुर्ती जी को मिले। समस्तीपुर होते हुए अगली सुबह संगोली पहुंचे। अगले दो दिनों में गंडक नदी द्वारा स्थान-स्थान पर हो रहे कटान को देखा। फिर मुज़फ़्फ़रपुर होते हुए पटना लौटे। जगह-जगह नदी को बांधने का प्रयास किया गया है। जिसे नदी ने बार-बार तोड़ा और बांधने के प्रयास को असफल कर दिया।
कोसी नदी की अनेक धाराएं नेपाल से निकलती हैं। उनको देखने और समझने का अवसर तो अभी तक नहीं मिला, लेकिन उसके द्वारा जो सिल्ट भारत की इन नदियों में आती है, उससे साफ पता चलता है कि इनके फैलाव वाले बेसिन की स्थिति ठीक नहीं है। इसका दुष्प्रभाव तो हर वर्ष ही बिहार के उत्तर से बहने वाली गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी आदि नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में बसने वाले ग्रामीणों को भुगतना पड़ रहा है।
लेकिन वर्ष 2008 में कोसी नदी ने भयंकर तबाही मचाई थी। इसी क्रम में शांतिमय समाज ने कोसी बचाओ अभियान के अंतर्गत तत्काल प्रभावित इलाकों में पहुंच कर लोगों का मनोबल बढ़ाने एवं सेवा का कार्य प्रारंभ कर दिया था।
लेकिन नवंबर दूसरे सप्ताह के प्रारंभ में ‘कोसी बचाओ अभियान’ के अंतर्गत वहां की जनता के साथ संवाद यात्रा का आयोजन किया गया था, जिसमें कलानंद जी ने मुझे भी भाग लेने का अवसर दिया। हम लोग 7 नवंबर की सुबह बक्सर-दानापुर पहुंच गए थे। वहां से रेल धीमी गति से आगे बढ़ रही थी। जहां जिसकी मर्जी थी वह जंजीर खींचकर रेल रोक देता था। आगे हमें मोकामा से खगड़िया, जो कि 70 किलोमीटर दूर है, जाने में तीन घंटे लगे। खगड़िया से गंगा लगभग सात किलोमीटर दूर बहती है। इसके आस-पास ही कोसी भी गंगा में समाहित होती है। हम खगड़िया में स्थानीय लोगों से मिले। यहां से हमारे साथ भारतीय नदी घाटी मंच एवं शांतिमय समाज के कई कार्यकर्ता भी हो गए थे। खगड़िया में पत्रकार भी मिलने आए। उनसे इस भीषण त्रासदी के बारे में कई प्रकार की जानकारी प्राप्त हुई।
खगड़िया से दोपहर को हमने सहरसा के लिए प्रस्थान किया। सहरसा यहां से 90 किलोमीटर दूर है। रास्ते में जगह-जगह लोगों ने बाढ़ की त्रासदी के बारे में जानकारी दी कि उनका भविष्य भी खतरे में है। खेत पानी में डूबे हैं, कब तक पानी का निकास हो सकेगा, यही चिंता सता रही है।
सहरसा से हमने सुबह ही प्रस्थान कर दिया था। रास्ते में जीपों एवं बसों में क्षमता से दुगने-तिगुने लोग भरे थे। ये वाहन इसके बावजूद भी सरपट से दौड़ रहे थे। आगे हम बैजनाथपुर चौक पर रुके। वहां पर हमने नाश्ता किया और आस-पास के स्थानों के चित्र ले रहे थे, कि पुलिस वाला आ धमका कि फोटो नहीं ले सकते हो। तुम्हें साहब बुला रहा है। हमने कह दिया कि साहब को कहो कि तुम्हें यहां बुला रहे हैं। इस सबको देख कर लगा कि किस प्रकार इस अंतरवर्ती क्षेत्र में पुलिस की मनमानी है। इधर आस-पास के गांवों में भी बाढ़ आई थी। लोग अभी तक नहीं उबर पाए हैं। इसके बाद हम 10 बजे तक राधवपुर पहुंचे। राधवपुर के पास सिमराही बाजार में लोगों का तांता लगा हुआ था।
11 बजे से सिमराही बाजार के पास एक मैदान में सभा हुई, जिसमें दूर-दूर से लोग आए थे। अधिकांश लोग बाढ़ प्रभावित इलाके से आए थे, जिसमें महिलाएं अधिक थी। अधिकांश लोग जिनके बदन में ठीक से कपड़े भी नहीं थे, उदास चेहरों के माथों पर चिंता की लकीरें साफ पढ़ी जा सकती थी। धूल भरे आंचल में कईयों ने छोटे बच्चे भी गोद में लिए हुए थे। दो तरफ दीवार से घिरा मैदान लोगों से खचा-खच भरा था। एक अनुमान के अनुसार आठ हजार से ज्यादा लोग सभा में थे।
वाक्य घोषों से सभा का शुभारंभ हुआ। फिर सरकारी लापरवाही, जिससे बांध टूटा, पर व्याख्यान हुए। इस प्रकार दो घंटे तक सभा हुई। सभा के अंत में एक कोने पर कुछ लोग खड़े होकर जोर से बोलने लगे। पता चला कि कुछ लोग चाहते हैं कि बांध जहां से टूटा है और नदी आजकल बह रही है, उसे ही रहने दिया जाए। कुछ पुराने स्थान, जहां से पहले नदी बहती थी उसे ही चाहते हैं। इस प्रकार से हमारे यहां गढ़वाल में एक कहावत है कि “ऐ बाघ मी न खा, येते खा” याने हे बाघ मुझे मत खाओ, इसको खाओ। लेकिन क्या कोई रास्ता है कि बांध में किसी को खाने की हिम्मत ही न हो। बांध और बाढ़ यहां एक दूसरे के पूरक हैं। बांध और बाढ़ से मुक्ति कैसे मिले इसी के लिए इस सभा का आयोजन किया गया था। यह बात अलग है कि इस सभा का इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कितना प्रभाव पड़ पायेगा। लेकिन शांतिमय समाज द्वारा ‘कोसी बचाओ अभियान’ के लिए इतनी बड़ी संख्या में लोगों का एकत्रित होना कार्यकर्ताओं की क्षमता का प्रदर्शन था। वहीं आमजन, जिसे राजनीति से लेना देना नहीं है, बाढ़ से छुटकारे का रास्ता तलाशना चाहता था। इसके बाद कोसी बचाओ अभियान की भी मीटिंग हुई, जिसमें अलग-अलग इलाकों से आए हुए प्रतिनिधियों ने समस्याओं एवं भावी कार्यक्रम के बारे में चर्चा की।
कोसी की सहायक धारा अरूण नदी एवरेस्ट के उत्तर से उद्गमित होती है। इसी प्रकार दूध कोसी, सून कोसी, ताम कोसी आदि इसकी सहायक धाराएं हैं। ये सभी नदियां लंबी यात्रा कर कोसी में समाहित होकर भारत में प्रवेश करती हैं। इसके ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई जारी है, तथा कमजोर पहाड़ों में भूक्षरण और भूस्खलन प्रक्रिया दिनों दिन बढ़ती जा रही है। साद को रोकने, कम करने का कोई मुकम्मल प्रबंधन नहीं किया गया है। इसमें अंतरराष्ट्रीय मुद्दे तो हैं लेकिन अपने भूभाग में भी साद के समुचित प्रबंधन के प्रति लापरवाही तो है ही
इसी बीच कई भुक्तभोगियों से बातचीत करने का अवसर मिला। सिमराही में कपिल देव का पूरा परिवार गांव छोड़ कर आया है। रोष भरे लहज़े में कहता है कि बाढ़ आई नहीं, लाई गई है। बताता है कि जब बाढ़ लाई गई तो गांव में जो कुछ माल असबाब था सब छोड़कर आए हैं। यदि वहीं रहते तो और परिवारों की तरह जान से हाथ धोना पड़ता। हम तो जान बचाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं। इधर आने जाने के रास्ते भी नष्ट हो गए हैं। गाँवों में इतने दिन बाद भी राशन नहीं पहुंच रहा है। गरीब और मध्यम तबके के लोग ज्यादा परेशान हैं। अभी तक पड़ोसी गांव के लोगों की कृपा पर जी रहे हैं।इसी प्रकार देवेंद्र जी कहते हैं कि लगभग आधे गाँवों में अभी भी पानी भरा है। इस कारण पलायन भी हुआ है। अगली फसल के लिए भी खेत तैयार नहीं हैं। इसलिए आगे भी अंधेरा ही दिख रहा है। ऐसे में अकाल की स्थिति पैदा हो गई है।
अगले दिन सुबह-सुबह हमने राघवपुर से कोसी बैराज की ओर प्रस्थान किया। इसमें कलानंद जी के अलावा प्रो. प्रकाश जी भारतीय नदी घाटी मंच के राष्ट्रीय समन्वयक है। श्री भगवान जी पाठक तथा दर्जनों कार्यकर्ता तथा पत्रकार भी साथ थे। सिमराही से भीमनगर 40 किलोमीटर दूर है। यहां तक बिहार का सुपोल जिला है। इसके आगे नेपाल का सप्तहरी इलाक़ा पड़ता है। यहां सीमा पर नेपाली प्रहरी मिले।
भीमनगर में कोसी बैराज है। यहीं पर शांतिमय समाज ने संकल्प का आयोजन किया। कलानंद जी ने संकल्प करवाया, जिसे हम सबने दोहराया तथा संक्षिप्त संबोधन के बाद बांध के किनारे यात्रा की। यहां से कुछ दूर पर एक सभा के बाद घनश्याम जुड़ांव जी के नेतृत्व में पद यात्रा भी निकाली गई।
इस प्रकार इस यात्रा के क्रम में खगड़िया से कोसी बैराज तक सभाओं एवं गोष्ठियों के माध्यम से हजारों बाढ़ पीड़ितों से साक्षात्कार हुआ और विनाश को प्रत्यक्ष देखा। रास्ते में नहरों, कोसी नदी एवं बैराज में चारों तरफ साद ही साद देखा गया। इसके कारण नदी, नहर और बैराज की जल धारण एवं जल प्रवाह प्रणाली में भारी व्यवधान हो गया। ऊपर से बांध के कमजोर भाग ने धारा परिवर्तन करने एवं प्रलयंकारी बाढ़ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। मुख्य नदी एवं नहरों में पानी नहीं है बल्कि गांव, खेत, चरागाह और मैदान पानी से भरे पड़े देखे गए।
बताते हैं कि कोसी बांध का पूर्वी किनारा टूटा, जिसके कारण कोसी नदी की धारा 35 किलोमीटर दूर परिवर्तन हुई। जिससे चार जिले पूरी तरह तथा तीन जिले आंशिक रूप से प्रभावित हुए। लोग बता रहे थे कि वर्षों पहले कोसी यहीं से प्रवाहित होती थी। इस वर्ष की प्रलयंकारी बाढ़ 20 से 25 लाख की आबादी प्रभावित हुई। भीमनगर के पास जहां कोसी बैराज है, उसके गेटों में आधा सिल्ट जमा थी। बांध भी साद से लबालब भरा था।
कोसी की सहायक धारा अरूण नदी एवरेस्ट के उत्तर से उद्गमित होती है। इसी प्रकार दूध कोसी, सून कोसी, ताम कोसी आदि इसकी सहायक धाराएं हैं। ये सभी नदियां लंबी यात्रा कर कोसी में समाहित होकर भारत में प्रवेश करती हैं। इसके ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई जारी है, तथा कमजोर पहाड़ों में भूक्षरण और भूस्खलन प्रक्रिया दिनों दिन बढ़ती जा रही है। साद को रोकने, कम करने का कोई मुकम्मल प्रबंधन नहीं किया गया है। इसमें अंतरराष्ट्रीय मुद्दे तो हैं लेकिन अपने भूभाग में भी साद के समुचित प्रबंधन के प्रति लापरवाही तो है ही। हमारे देश में सन् 1950 के अरुणाचल प्रदेश के 8.7 रिएक्टर के भूकंप के बाद ब्रह्मपुत्र नदी सबसे ज्यादा साद बहाने वाली नदी थी। पर अब लगता है कि कोसी नदी इस बारे में ब्रह्मपुत्र को भी पीछे छोड़ देगी। यदि प्रतिवर्ष आने वाली साद की मात्रा को अति प्राथमिकता के आधार पर रोकने या कम करने के व्यावहारिक कार्यक्रम नहीं बनते तो आगे भी इसके भयंकरतम दुष्परिणाम भोगने पड़ेंगे।
इस यात्रा के बाद भारतीय नदी घाटी मंच ने कुछ मुद्दे इस प्रकार प्रस्तुत किए थे।
यद्यपि तटबंध बाढ़ सुरक्षा के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं, लेकिन वे इस काम में असफल सिद्ध हुए हैं। बार-बार कोसी की त्रासदी को झेलते-झेलते आम जनता का मनोबल एवं आत्मविश्वास टूट चुका है। आज सबसे ज्यादा जरूरी है जनता के आत्मविश्वास को बहाल करना एवं उसके मनोबल को उठाना ताकि उनका पुरुषार्थ जागृत हो सके।
पुनर्वास के कार्यक्रमों में प्रभावित लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करना आवश्यक है, ताकि वे राहत पाने की मारी-मारी की मानसिकता से मुक्त होकर अपने पुरुषार्थ का उपयोग कर सकें।
लगभग पूरा उत्तर बिहार विभिन्न नदियों की बाढ़ से प्रभावित क्षेत्र है, किंतु बाढ़ प्रबंधन की दृष्टि नहीं है। इन क्षेत्रों में क्लस्टर आधारित बाढ़ के उच्चतम स्तर को ध्यान में रखकर स्थायी आश्रय स्थलों का विकास होना चाहिए। यहां खाद्य सामग्री, जीवन रक्षक दवाइयों एवं उपकरणों, मवेशियों के लिए चारे का भंडार होना चाहिए। बाढ़ के बाद इन आश्रय स्थलों का सामुदायिक उपयोग हो सकता है।
हमें रेडियों प्रणाली की स्थापना एवं उसके संचालन का प्रशिक्षण दिया जाए ताकि सूचनाओं का त्वरित गति से आदान-प्रदान हो सके।
बाढ़ के प्रभाव को कम करने की दृष्टि से देशज परंपरा एवं आधुनिक तकनीक का अध्ययन करते हुए बाढ़ सहजीवन की दृष्टि का विकास होना चाहिए।
बिहार संसाधनों से गरीब नहीं है। इसके पास सबसे उपजाऊ ज़मीन, प्रचुर जल संसाधन एवं बड़ी जनसंख्या है। गरीबी तो मानसिकता में है। दृढ़ इच्छा शक्ति के बल पर इन संसाधनों का सटीक एवं समंवित उपयोग करते हुए बिहार को देश का सबसे समृद्ध क्षेत्र बनाया जा सकता है।
भारत और नेपाल समान नदी प्रणाली से जुड़े हैं। अतः इन नदियों के संरक्षण, संवर्द्धन में दोनों देशों का समान योगदान होना चाहिए। तभी दोनों देश बाढ़ एवं वैश्विक तापमान की चुनौतियों का सामना कर सकते हैं।
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