कोसी के लिए समझदारी और सावधानी

जल-विद्युत विशेषज्ञ दीपक ग्यावली, नेपाल के पूर्व जल संसाधन मन्त्री रह चुके हैं तथा नेपाल के जल संरक्षण फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं। कोसी की बाढ़ और भविष्य की तैयारियों पर दीपक ग्यावली के बेबाक विचार :-

.कोसी ने अपना तटबंध क्यों तोड़ा? मरम्मत कार्य के लिए कौन जिम्मेदार था, भारत या नेपाल?
दीपक ग्यावली: इस बात को समझने के लिए जरा पीछे मुड़कर देखना जरूरी है। तब हमें यह अनुभव होगा कि यह आपदा तीन बातों का नापाक मेल है:- 1. इस प्रकार के जल- पारिस्थितिक शासन के लिए गलत टेक्नोलॉजी का चुनाव, 2. कोसी समझौते के परिणामस्वरूप गलत संस्थागत प्रबंध, जो इस तरह की सीमांतर नदी व्यवस्था का प्रबंधन करने के लिए उपयुक्त नहीं हैं तथा 3. पिछली अर्ध शताब्दी से सार्वजनिक-सेवा में गलत आचरण, जिसमें भ्रष्टाचार के पहलू शामिल हैं और साथ ही बिहार राजनीति, जिसका दिल्ली के लोग मजाक उड़ाना पसंद करते हैं, पर जो स्वतंत्र भारत का एक आंतरिक हिस्सा बन गए हैं। आखिरकार जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो बिहार भारत का सबसे उन्नत राज्य था, पटना विश्वविद्यालय भारत के शीर्ष विश्वविद्यालयों में से एक था और जब मेरी दादी, ताउलीहावा में बीमार थीं तो मेरे पिताजी और दादाजी उन्हें इलाज के लिए, पास के लखनऊ या दिल्ली नहीं, बल्कि पटना ले गए क्योंकि वहाँ का अस्पताल सर्वश्रेष्ठ था। पर क्या यही बात हम आज स्वतंत्र भारत के बिहार के लिए कह सकते हैं? मेरी दलील है कि बिहार की समृद्धि में यह गिरावट बिहारी राजनीति में वृद्धि से मेल खाती है, जिसे कोसी परियोजना काफी तादाद में साथ लेकर आई।

पर अब हम तकनीकी पहलू से शुरू करते हैं, जब बायें किनारे का तटबंध (नदी का बैराज नहीं), 18 अगस्त को गिरा। तब यह एक प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि मानव-निर्मित आपदा थी। उस समय नदी का प्रवाह, अगस्त के न्यूनतम औसत प्रवाह से कम था, इसीलिए यह सामान्य बाढ़ के करीब भी नहीं था, जो अब तक इस मानसून के दौरान शुरू नहीं हुई थी। कोसी में यह आमतौर पर मध्य अगस्त से मध्य सितम्बर तक होती है। और जब यह प्राकृतिक बोझ मानव-निर्मित-आपदा से जुड़ जाता है तो दोनों मिलकर इनमें इस पीढ़ी की प्रमुख आपदा बनने के सभी सम्भावित लक्षण मिल जाते हैं।

कोसी परियोजना एक गलत टेक्नोलॉजी क्यों है?
दीपक ग्यावली: कोसी दुनिया की सबसे हिंसक नदियों में से एक है। क्योंकि यह सिर्फ पानी से भरी नदी ही नहीं हैं बल्कि हिमालय से बंगाल की खाड़ी तक तलछट की एक विशाल कन्वेयर बेल्ट (वाहक पट्टी) है। यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो प्राचीन टैथिस सागर से, न सिर्फ बांग्लादेश बल्कि काफी हद तक बिहार के बनने की भी जिम्मेदार है। हर साल लगभग कुछ सौ मिलियन क्यूबिक मीटर, बजरी रेत और मिट्टी, नेपाल से चतरा के बाहर बहकर जाती हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि तैमोर, अरून, सरयू और कोसी नदियों के द्वारा लाये सारे इकट्ठे पानी और मलवे को, सुदूर पूर्व में कंचनजंगा से, मकालू और एवरेस्ट से होते हुए पश्चिम में लागटांग को चतरा के इस संकरे रास्ते से गुजरना पड़ता है। और जैसे ही तराई के मैदानों पर नदी धीमी होती है, अवसाद बिछ जाता है जिससे नदी तल बढ़ जाता हैं और नदी अपने तट तोड़ कर अतिप्रवाह के लिये मजबूर हो जाती है। इसी प्रक्रिया से द्वीप डेल्टा बनते हैं, जिनके ऊपर कोसी पश्चिम में सुपौल और पूर्व में कटिहार में, चतरा से लटकाए गए एक पेंडुलम की तरह झूलती है। पिछली आधी शताब्दी में यह प्रक्रिया डेल्टा के पश्चिमी तटबंध में कोसी की जैकेटिंग की वजह से रूक गई थी। पर इससे तो नदी सारा अवसाद संकरे जैकेट पर जमा करने के लिए बाध्य हो गई, नदी तल बढ़ गया और नदी आस-पास की जमीन से चार मीटर ऊपर आ बैठी। यह इस तरह की आपदा के अंतत: होने का पूरा कारण था।

जब आप इस तरह की प्राकृतिक ताकतों से खेलते हैं तो आपको बहुत सावधानी बरतने की जरूरत होती है। जब आप बिना पूरी तरह समझे ऐसा करते हैं तो क्या होता है यह टिनाऊ, जो कि बुटवाल के दक्षिण में है के उदाहरण से समझा जा सकता है। 1961 में भारत ने टिनाऊ द्वीप पर हैटिसंडे बैरेज बनाया, ताकि दक्षिण में मर्चावाड़ में सिंचाई के लिए पानी की आपूर्ति की जा सके। किन्तु अगले ही साल नदी ने पथ परिवर्तन कर लिया और तब से बैरेज सूखा और बेकार पड़ा है, जो की मानव की मूर्खता को एक श्रद्धांजलि है और उतनी ही बड़ी श्रद्धांजलि है उसकी अपनी गलतियों से न सीख लेने की। आप ऐसे जल-तकनीकी ढाँचे एक अस्थिर डेल्टा फैन पर नहीं बना सकते। और कोसी का उदाहरण एक बड़े स्तर पर टिनाऊ को दोहराया जाना ही है।

क्या हम इन बातों के पीछे के विज्ञान को जानते हैं?
दीपक ग्यावली: हम टिनाऊ और उसकी समस्याओं के बारे में 1990 से ही अध्ययन कर रहे हैं, जो कि कोसी की तरह ही है, फर्क सिर्फ इतना ही है कि वह एक छोटे स्तर पर है। कोसी के लिए सबसे बेहतरीन उदाहरण है, निचली गंगा की वर्तमान प्रवाह की स्थितियों की तुलना,1779 में कर्नल रीनल द्वारा गर्वनर जनरल वारेन हैस्टिंग्स के लिए तैयार किए गए नक्शे से किया जाना है। उनका नक्शा बतलाता है कि कोसी असल में मेची-महानंदा से मिल गई जो अन्तत: तीस्ता में मिल गई। जबकि कोसी पश्चिम में झूली हुई है, तीस्ता पूर्व में ब्रह्मपुत्र से मिलने के लिए पूर्व की ओर झूलती है। जबकि ब्रह्मपुत्र मेघना को मिलने के लिए झूलती हुई गंगा से आ मिलती है। यह इसको दर्शाता है कि इस क्षेत्र का जल पारिस्थितिकी अति चंचल और लगातार बदलते रहने वाली है।

यह आपदा तो होनी थी क्योंकि कोसी परियोजना के जरिए प्राकृतिक कायदों में काफी बुरे वैज्ञानिक हस्तक्षेप किए गए, जिसने नदी के अवसाद की समस्या को नजर अंदाज किया। विज्ञान के संदर्भ में, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि वनोन्मूलन का कोसी अवसादन से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। कोसी जलग्रहण क्षेत्र में आज भी काफी वन आच्छादन हैं जिसका श्रेय सामुदायिक वानिकी को जाता है, जितना हमने इतिहास में कभी नहीं की: और साथ ही हिमालय के निम्नीकरण के किस्से को (कि बांग्लादेश में बाढ़ इसलिए आ रही है क्योंकि नेपाल में गरीब किसान पेड़ काट रहे हैं)। जिसकी दो दशक पहले ही वास्तविकता बताई जा चुकी हैं। यह मानसून के चलन के साथ हिमालयन जियोटॉनिक का मेल है जो कोसी के अवसादन और बाढ़ का कारण हैं।

क्या मानसून खत्म होने के बाद हम दरार की मरम्मत कर सकते हैं?


दीपक ग्यावली: मुझे इस बात पे शक है क्योंकि दरार एक किनारे के तटबंध में हुआ एक छेद नहीं जो पानी का स्तर कम होने पर और कोसी के अपनी मूल मुख्य चैनल के साथ बहने पर भरा जा सके। जो हम देख रहे है वो है नदी का मुख्य चैनल जो इसी से होकर बहते हुए, सदियों पुरानी वाहिकाओं को पकड़ रहा है और अपना रास्ता बदल रहा है। इसे वापिस बदलने का मतलब है कोसी पर एक नए बैराज की गाज गिराना और साथ ही नदी का अपने हाल ही में छोड़े हुए रास्ते में जबरदस्ती बहाने के लिए, कम से कम चार मीटर एक ऊंची छलांग लगवाना।

मेरा यकीन मानें तो अभी या आने वाले सालों में वह ऐसा नहीं करना चाहेगी और दूसरे कमजोर बिंदुओं पर, किसी न किसी तरह से तटबंध तोड़ ही लेगी। इस बात की गारंटी तो कोई इंजीनियर भी नहीं दे सकता कि ऐसा नहीं होगा, यद्यपि कोसी को नियंत्रित करने में, वे लोग महँगे खिलोनों से खेलने का लुत्फ़ उठा पाएँगे।

समस्या अब नेपाल के कुसहा में दरार की ही नहीं है: यह बात बिल्कुल अनिश्चित है कि बिहार के मध्य या निचले डेल्टा में, कोसी की नई वाहिका कहाँ होगी। उपग्रह से प्राप्त चित्र बताते हैं कि यह सुपौल की वाहिका के साथ-साथ चल सकती है, पर मेरे विचार से यह एक व्यापक तल पर मुझे लगता है, यह कोसी के साथ होता एक व्यापक तालाबीकरण है,जो हर गर्त, नहर पुरानी ऑक्सबो झील या अविवेकी ढंग से बने तटबंधों के बीच की जगह को भर रहा है। क्योंकि जमीन प्राकृतिक रूप से पूर्व की ओर झुकती है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि आने वाले सितम्बर की बाढ़ चार लाख क्यूसेक फ्लड है या 9 लाख (जैसा कि 1968 में हुआ) नई कोसी इतनी दूर हो सकती है जितना कटिहार। यदि यह इस साल उतना अधिक नहीं जाती तो भी यह बात पक्की है कि आने वाले सालों में यह ऐसा करेगी। पुराने तटबंधों की मरम्मत या निर्माण करने से पहले इस नदी की चिरपरिवर्तनशील आकृति, प्रकृति को ध्यान में रखना होगा।

तब सही टेक्नोलॉजी क्या होगी?
दीपक ग्यावली : पहले हम कोसी के बांध के लिए गलत प्रौद्योगिकी अभी तो आराम करने के लिए रख दें। यह गलत है क्योंकि इसे बनने में दो या ज्यादा दशक लगेंगे और इस तरह यह वर्तमान या भविष्य की चिन्ताओं को भी पूरा नहीं कर पाएगा, बड़ा ही महँगा है और अवसादन की प्राथमिक समस्या को भी पूरा नहीं कर पाएगा। (जलाशय फिर से हिमालय के कीचड़ से भर जाएगा।) इसके पास क्षेत्र की उच्च भूकम्प सम्बन्धी कीमत को वहन करने और साथ ही साथ निर्माण के दौरान अचानक आई तेज बाढ़ को मोड़ पाने का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं है (और यह नेपाल की जनसंख्या में और भी अधिक सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न करेगा जब नेपाल की स्थानीय जनसंख्या को उनके पुश्तैनी घरों से हटाना पड़ेगा।) कोसी में एक ऊँचा बांध बनाना, अपने संदेहास्पद फायदों के लिए, नेपाल में अनुप्रवाही मौसमी बाढ़ को इसके परिदृश्य का एक स्थायी लक्षण बनने का न्योता देने के बराबर होगा। मेरे विचार से न ही भारत और न ही नेपाल इसके तकनीकी, आर्थिक और सामाजिक लागत बर्दाश्त करने की स्थिति में है।

नेपाल और बिहार को ऐसी नई और वैकल्पिक तकनीकियों की जरूरत है, जो एक अस्थिर लेकिन काफी उपजाऊ बाढ़ वाले मैदान के लिए उपयुक्त हों। ऐसी अनुकूल तकनीकें पारम्परिक रूप में इस्तेमाल की जाती रही हैं, लोगों द्वारा लकड़ी पर बने घरों और ऊँचे प्लीन्थ पर घर बनाने के रूप में पारम्परिक रूप से इस्तेमाल की जाती रही हैं, जो जीवन और सम्पत्ति को सुरक्षित रखती हैं और बाढ़ को उपजाऊ गाद छोड़कर आसानी से निकल जाने देती हैं। यातायात, कृषि, आवास के तरीकों और दूसरे क्षेत्रों की डिज़ाइन प्रणाली पर गम्भीर प्रश्न उभरेगे, जो इस बात पर बल देंगे कि नए दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया जाए जो बाढ़ पर ज्यादा ध्यान केंद्रित न करें बल्कि समस्याओं का निदान करें। स्थाई समाधान जैसी कोई चीज नहीं होती। (आखिर स्थाई केंद्रीय बाँध भी कितना स्थाई है) किन्तु बाढ़ की गाद द्वारा घर बनाना, सस्ता, करने योग्य और बेहतर समाधान है।

क्यों मानते हैं कि कोसी बैराज और तटबंधन का वर्तमान प्रबंधन एक गलत संस्थागत व्यवस्था है?
दीपक ग्यावली: इस प्रश्न का उत्तर इस बात से दिया जा सकता है कि नेपाल को दरार के लिए दोष देना अति अराजनैतिक और गलत बयान है, जो बाढ़ के परिणामस्वरूप भारतीय दूतावास से आई है। 1950 में नेपाल पर कोसी संधि थोपने तक भारत में डिजाइन, निर्माण, परिचालन और निर्वहन की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली थी और नेपाल के पास कुछ भी नहीं रख छोड़ा था, इस बात के सिवाय कि वह भारत को मनमाफिक सारे पत्थर खोदने दें (जो कोसी में कदाचित ही इस्तेमाल हुए लेकिन जिनकी कालाबाजारी मुज्जफरपुर से सिलीगुड़ी तक रोड़ी के कोल्हू में की जाती है) कोसी संधि की आलोचना कई कारणों से की जाती हैं, पर जिस कारण से हम सामाजिक पर्यावरणीय हितो के लिए इसकी आलोचना करते हैं, वह हैं नव -औपनिवेशिक तरीके जो इसके संस्थागत ढाँचे में रचे-बसे हैं। एक समुचित द्वि-देशीय प्रबंधन व्यवस्था की जगह नेपाल सिर्फ एक मूक दर्शक बनकर रह जाता है, वो भी अपने ही अधिकार क्षेत्र में होने वाले मामलों के लिए। वो बाढ़ के दौरान द्वारों को खोलने का या सूखे के मौसम में सिंचाई की आपूर्ति का आदेश नहीं दे सकता। सब कुछ दिल्ली के जल-तंत्र के हाथ में है, जिसने सुविधाजनक ढँग से (और मेरे हिसाब से अवैध ढंग से) इसे बिहार के जल-तंत्र पर मढ़ कर, अपने हाथ झाड़ लिए हैं आरम्भिक स्तर पर ही इस संधि में गैर जिम्मेदारी की झलक मिलती है, जो कि हस्ताक्षर के वक्त एक निर्माण संधि के तौर पर देखी जा रही थी न कि प्रबंधन संधि के रूप में। इसीलिए आप कभी भी एक चिरस्थायी, वैज्ञानिक प्रबंंधन नहीं प्राप्त कर सकते। इस दुखद किन्तु प्रतिकूल ढँग की वर्तमान आपदा ने इस संधि की बुनियाद हिला दी है और इस बात पर बल पर दिया है कि कोसी के प्रबंधन को एक संतुलित और निष्पक्ष तरीके से जाए।

आपके अनुसार तब का अनाचार क्या था?
दीपक ग्यावली: अगर आपके पास एक गलत संस्थागत व्यवस्था हो तब भी सही आचार से काम हो सकते हैं, यद्यपि वे आधे सही हों। यहाँ जो हुआ वह यह था कि समूची कोसी परियोजना भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई जो बिहारी राजनीति के नाम पर चलती रही और जो नेपाल भी खुशी से अपनाता नजर आ रहा है।

एक भारतीय विद्वान जो इस समस्या का अध्ययन कर रहे हैं उनके द्वारा दिए गए इस वक्तव्य पर ध्यान दें।

इन दरारों का घपला यह था कि 2.5-3 बिलियन रूपए बिहार सरकार द्वारा मरम्मत कार्य के लिए सालाना खर्च किए गए, जिसमें से 60 प्रतिशत राजनेता- ठेकेदारों-इंजीनियर के गठबंधनों ने अपनी जेबों में डाल लिया। प्रतिशतता की एक आदर्श व्यवस्था बनाई गई जिसमें नेता से जूनियर इंजीनियर शामिल हर किसी का एक हिस्सा है। असल खर्च कभी बजट की कीमत के 30 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होता और निश्चित प्रतिशत बाँटने के बाद ठेकेदार स्वीकृत राशि का 25 प्रतिशत तक अपनी जेब में डाल पाते हैं। इसका एक हिस्सा वे अपने पालतू राजनेताओं की गतिविधियों में आर्थिक मदद करने और अतिरिक्त परियोजनाएँ हासिल करने में खर्च करते हैं। इस तरह यह चक्र चलता रहता है। इसका असर यह होता है कि ठेकेदार का बिल भुगतान, उनकी जाँच के बिना ही कर दिया जाता है। पत्थरों और क्रेटरों का वही भाग हर साल नए खरीदे गए माल के रूप में दिखला दिया जाता है और सरकारी राजकोष से करोड़ों खर्च की जाती है। बहुत से गाद हटाने और मरम्मत के काम जिन्हें कागजों पर पूरा दिखलाया गया है, कभी किए ही नहीं गए और फिर भी उनका भुगतान कर दिया गया है। प्रतिशत हिस्सेदारी से ही इंजीनियरों की आय इतनी हैं कि वे अपनी तनख्वाह लेना भी जरूरी नहीं समझते।

मेरे अनुसार यही है अनाचार। मेरी समझ से सप्तारी और संसारी तथा क्षेत्रीय एफएम चैनल से निकाली जानकारी के आधार पर लोकल कैडर और शासन करने वाले राजनैतिक दल सीमा पार से चल रहे भ्रष्टाचार को अच्छी तरह समझ गए हैं और अपने हिस्से की माँग करने लगे हैं, जिसके लिए राजी होना बिहारी ठेकेदारों के लिए कठिन था क्योंकि पारम्परिक राजनैतिक और प्रशासनिक अधिकारी और उनसे ऊपर वाले ऊँचे हिस्से की माँग करते थे। इसीलिए, ऐसा प्रतीत होता है कि मानसून शुरू होने से पहले ही बड़े कठिन समझौते हो जाते थे, पर कुछ हल नहीं निकलता था।

कोसी के अधिकारियों ने सबसे मैत्रीपूर्ण नेपाल सरकार के साथ भी कोई औपचारिक निकटता नहीं अपनायी क्योंकि अनसुलझा ये मामला उनका काम ही नहीं कर रहा था बल्कि माल भी बना रहा था। इसीलिए यह शिकायत की कि 8 अगस्त को ठेकेदार तटबंध को मजबूत बनाने के लिए आए थे, पर उन्हें ऐसा करने नहीं दिया गया, इस पर खुद एक सवाल उठ खड़ा होता है:- कि आप मरम्मत का काम करने (अगर आप करना ही चाहते ही थे।) मानसून में ही क्यों जनवरी में क्यों नहीं आए।

अब प्राथमिकता क्या होनी चाहिए?
दीपक ग्यावली: प्राथमिकता के क्रम में तीन बातें युद्धस्तर पर की जानी चाहिए- सबसे पहली बात है कि यह एक विश्व स्तरीय मानवीय त्रासदी है और इस पर खुले दिल से, उदारता से और संभल कर ध्यान देने की जरूरत है।

अगर बिहारी नेपाल जा रहे हैं, चुँकि वहाँ उच्च भू-क्षेत्र है तो उनका स्वागत होना चाहिए, उन्हें हर तरह की राहत पहुँचाई जानी चाहिए, पर एक रिकॉर्ड रखा जाना चाहिए और मानसून के ठीक बाद उन्हें भारत सरकार के सुपुर्द कर दिया जाना चाहिए। इस बात को पहचानना जरूरी है कि सभी विस्थापित 50000 या अधिक नेपाली हर सम्भावना में स्थायी रूप से विस्थापित हो चुके हैं (उनके गाँव में नई कोसी सम्भावना रहती है और आने वाले भविष्य में भी यही दिखता है।) और स्थायी बंदोबस्त से पहले उन्हें कैंपों में रखे जाने की जरूरत है। शायद अभी खाली हो रहे भूटानी कैंपों के इस्तेमाल की जरूरत है।

दूसरी बात, जितना जल्द हो सके चतरा में युद्ध स्तर पर एक पुल बनाया जाना चाहिए और महेंद्र हाईवे के साथ का यातायात वापिस फिर से चालू होना चाहिए जो नेपाल को बाकी देश से जोड़ता है। वर्तमान में कोसी बैराज पुल, हर सम्भावना में हैडिसंडे बैरेज के रूप में रहेगा जो टिनाऊ पर पुरातत्वेत्ताओं की रूचि का एक निष्क्रिय स्मारक है। पर अगर यह फिर से चालू कर भी दी गई तो भी इसमें जाने के लिए नई कोसी चैनल पर, पार ले जाने वाली नौका व्यवस्था की जरूरत पड़ेगी।

तीसरे कोसी परियोजना और संधि जिसे इस आपदा की वजह से एक गम्भीर जन पुनरीक्षण और विमर्श की जरूरत है। जाँच-पड़ताल की पहल नेपाल और भारत के नागरिक आन्दोलनों के द्वारा होने चाहिए ताकि भविष्य के लिए एक सन्तुलित रास्ता निकाला जा सके। दोनों देशों का जल-तन्त्र, इस पहल में योगदान दे सकता है, पर उनके निर्णय और औचित्य पर अभी भी उतना ही बड़ा प्रश्नचिन्ह है?

बातचीत की प्रस्तुति- पूरन पी बिष्ट और घनश्याम ओझा।
इंदू भाटी द्वारा इकोनॉमिक और पॉलिटिकल वीकली से साभार

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