कोपेनहेगन जलवायु शिखर वार्ता के लिए आने वाले हर प्रतिनिधि का स्वागत शहर के मध्य में स्थित एक विशाल नकली हरी रंगीन धरती का हमशक्ल गुब्बारा दिखाकर किया जा रहा है। इस घूमते ग्लोब पर दुनिया भर के कॉर्पोरेटियों के लोगो बने हुए हैं - कोक ब्रांड की अफ्रीका पर मुहर लगी है, जबकि कार्ल्सबर्ग एशिया पर राज करता प्रतीत होता है। प्लास्टिक का यह धरती का हमशक्ल गुब्बारा इस शिखर वार्ता के लिए आदर्श और उपयुक्त प्रतीक है। दुनिया को बताया जा रहा है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए यह एक गंभीर आपातकालीन बैठक है। लेकिन कोपेनहेगन जलवायु शिखर वार्ता स्थल (बेला सेंटर) के बाहर जो जानकारियों आ रही हैं, वहां चालकी भरी चालों और धोखे भरे शब्दों के सिवाय कुछ नहीं सुनने को मिल रहा है।
शिखर सम्मेलन के बाहर जो धरतीप्रेमी लोग इकट्ठा हैं, वे नेताओं के भरोसे पर अपने-अपने देश को जीते या मरते हुए देखेंगें।
फिजी से आई लिआ विकहाम ने सम्मेलन की चुप्पी को भंग कर दिया जब उसने कहा, कि अगर हम लोग अभी कुछ नहीं करेंगे तो मेरी मातृभूमि लहरों में कहीं खो जाएगी। उसने विनती करते हुए कहा, मेरी पीढ़ी की सारी उम्मीदें कोपेनहेगन से जुड़ी हैं। चीन और भारत से गये लोग दुखी मन से कहते हैं कि कैसे हिमालय की बर्फ तेजी से पिघल रही है और 2035 खत्म हो जाएगी- इससे हिमालय से निकलने वाली एशिया की बड़ी नदियां सूख जाएंगीं। इन हिमालयी नदियों से एशिया की लगभग एक तिहाई आबादी को पानी मिलता है। डूबने की कगार पर खडे मालद्वीप के प्रधानमंत्री ने कहा, “मानव की पिछली पीढ़ी चंद्रमा पर गई थी, लेकिन इस पीढ़ी को तो यह तय करना होगा कि वह धरती पर जिंदा रहना चाहती है या नहीं.”
हम सब जानते हैं कि तबाही से बचने के लिए सबसे पहले क्या करना है। जरूरत है अमीर देशों को 1990-2020 के दौरान अपने कार्बन उत्सर्जन में 40 फीसदी की कमीं करने की। पर विकसित देश उस लक्ष्य तक पहुंचने की किसी गंभीर प्रयास के बजाय मोलभाव कर रहे हैं, गरीब देशों को कार्बन ट्रेडिंग से मिलने वाले डालर के लालच में फंसा रहे हैं। पर क्या वायुमंडल-भौतिकी के साथ मोलभाव किया जा सकता है? धरती का वायुमंडल जितना जहर ग्रहण कर सकता था, अब उसकी हद पूरी हो गई है, उसका सम्मान करना या फिर तबाही का ग्रास बनना हमारे हाथ में है।
सम्मेलन के पहले हफ्ते के बातचीत में अमीर देशों का प्रतिनिधित्व पूरी तरह छाया हुआ है और उनकी पूरी ताकत इस बात पर है कि वे डील को ऐसा करें जिसमें ऐसा दिखे कि हां कार्बन उत्सर्जन में कटौती की बातें हो रही हैं, पर असल में ऐसा न हो। इसलिए जरूरी है कि हम कोपेनहेगन डील के पीछे छुपे रहस्यों को समझें तभी इस डील की असलियत समझ पाएंगे जिसकी इसी सप्ताह बड़े जोरशोर के साथ घोषणा की जानी है।
आइए जानेंएक अमीर देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती कर सकता है लेकिन असलियत में ग्रीन हाउस गैंसों के उत्सर्जन में बिना कमी लाए ही। कैसे? इसका मतलब हुआ कि एक गरीब देश जो असलियत में बहुत कम ग्रीन हाउस गैंसों का उत्सर्जन करता है उसे ही और कटौती करने के लिए कहा जाएगा। यह सब सुनने में बहुत ही अच्छा लगता है कि हम सभी एक ही वायुमंडल में तो रहते हैं तो कौई भी कटौती करे क्या फर्क पड़ता है।
लेकिन एक ऐसा सिस्टम जहां कार्बन उत्सर्जन कटौती (कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग) देशों के बीच बेची जा सकती हो, उसमें जटिलता आ ही जाती है। यह अपने आप ही इतना तकनीकी हो जाता है कि उसे आसानी से समझा नहीं जा सकता, फिर चाहे कोई चिंतित नागरिक, पत्रकार हो या कोई पर्यावरणवादी समूह हो।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में पाया गया कि जिन परियोजनाओं को कटौती 'के रूप में 'वित्त पोषित किया जा रहा है या तो वें है ही नहीं, या काम नहीं करती या फिर जैसे-तैसे कर दी जाती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका के प्रस्ताव के मुताबिक, दुनिया में से सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश को अपने यहां 2026 तक भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन कटौती करने की जरूरत नहीं है बल्कि उसके लिए यह कुछ शेडो-प्रोजेक्टस खोजकर आसानी से कटौती के विकल्प के रूप में भुगतान कर देगा।
दरअसल ऐसा जटिल सिस्टम कोरपोरेट लॉबी के लिए तो उपहार स्वरूप है क्योंकि वे पर्यावरण के बजाय सरकारों को अपने फेवर में करने के लिए दबाव बना सकते हैं या रिश्वत दे सकते हैं। इसी तरह के घोटाले पर्दे के पीछे कोपेनहेगन में हो रहे हैं वे चाहे स्पष्ट हों या तकनीकी, असल में तो उन देशों के लिए जीवन या मृत्यु की आहट हैं जो डूबने के कगार पर हैं।
पहली चाल:
दुनिया के देशों को 1990 में ग्रीन हाउस गैंसों के उत्सर्जन के लिए परमिट जारी किए गए थे, उस वक्त सोवियत संघ भी एक बड़ी औद्योगिक शक्ति था- इसलिए उसे बड़ा हिस्सा दिया गया था। लेकिन अगले साल सोवियत संघ खत्म हो गया और इसका औद्योगिक आधार भी कार्बन उत्सर्जन के साथ मुक्त हो गया। सोवियत संघ तो रहा नहीं, पर उसका उत्सर्जन कोटा बचा हुआ है। जिसे रूस और सोवियत संघ में से बने सभी पूर्वी यूरोपीय देश सभी जलवायु वार्ताओं में उन्हें अपना ही कोटा कहते हैं। अब, वे उन गैंसों को उन अमीर देशों को बेच रहे हैं जो कटौती 'खरीदना चाहते हैं।' वर्तमान सिस्टम के तहत, अमेरिका इन गैंसों को रोमानिया से खरीद सकता हैं और कह सकता है कि उसने उत्सर्जन में कटौती कर ली है – हालांकि यह एक कानूनी कहानी के सिवा कुछ भी नहीं होगा।
हम क्लाइमेट में किसी छोटे से परिवर्तन की बात नहीं कर रहे हैं। यह गर्म हवा 10 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर है, अगर पूरी दुनिया 2020 तक कार्बन उत्सर्जन 40 फीसदी कम कर लेती है, तब भी इससे केवल 6 गीगाटन ही वातावरण से बाहर किया जा सकेगा।
दूसरी चाल
इसे एक उदाहरण से अच्छी तरह से समझा जा सकता है। अगर ब्रिटेन चीन को कोई कोल पावर स्टेशन बंद करने के लिए भुगतान करता है और चीन कोल पावर स्टेशन बंद करके उसकी बजाय एक हाइड्रो-इलेक्ट्रिक डैम बना देता है, तो इसका मतलब हुआ कि चीन के कार्बन उत्सर्जन में कटौती हुई। इसके बदले में ब्रिटेन अपने घर में कोल पावर स्टेशन चालू रख सकता है। लेकिन उस समय भी चीन इसे अपनी कुल राष्ट्रीय कार्बन उत्सर्जन में भी गिनेगा और ब्रिटेन भी ऐसा ही दावा करेगा। इस तरह कार्बन में एक जगह की कटौती दोगुना गिनती में आएगी।
यानी कुल मिलाकर पूरा सिस्टम ही गोलमोल है-और कुल मिलाकर ग्लोबल कटौती का आंकड़ा सिर्फ आंकड़ा ही रह जाएगा।
तीसरी चाल:
कल्पना करिए। आप ऐसा जीवन जीते हैं जिससे पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाते हैं। तो कार्बन कारोबार में आप हमेशा सरप्लस में रहेंगे। लेकिन इस कार्बन क्रेडिट का आप क्या करेगें। जाहिर सी बात है कि आप ऐसा कुछ नहीं करना चाहेंगे कि आपकी कार्बन कमाई में कमी आये। ऐसे में वह व्यक्ति आपसे संपर्क करेगा जो अपना कार्बन क्रेडिट खो चुका है। आपसे कहेगा कि अगर आप अपनी कार्बन कमाई का इतना हिस्सा मुझे दें दे तो बदले में आपको इतना पैसा दे दूंगा। आप उसे अपना कार्बन क्रेडिट दे देते हैं और वह व्यक्ति फिर से उसी जीवनशैली को जीने लगता है जिसके कारण पर्यावरण की समस्या पैदा हुई है।
ऐसे ही दर्जनों उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन अगर उनको यहां कह दिया गया तो शायद हम कोमा में चले जाएंगें। ये ऐसा सिस्टम है जिसे हम आप समझ गए तो शायद आपे से बाहर हो जाएंगें। अगर इन वार्ताओं के पीछे अच्छी मंशा होती तो ये सब खामियां पहले खत्म कर दी जातीं। दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे –हमारे वातावरण की स्थिरता- पर ही हमसे घोटाला, धोखा किया जा रहा है।
हमारे नेता लोग हमें होपेनहेगन की जगह कोकेनहेगन दे रहे हैं, एक ऐसा मीठा जहर जिसमें विनाश के बीज छीपे हुए हैं। उनके व्यवहार को देखकर लग रहा है कि वे लोग उफनते समुद्र या मरती हुई सभ्यताओं के बजाय कोरपोरेट लॉबी से ज्यादा डरे हुए हैं। महामानवों अगर हम राजनीतिक तापमान तेजी से नहीं बढ़ाते, तो फिजिकल तापमान बढ़ेगा- और हम उस सुरक्षित क्लाइमेट को अलविदा कहने के सिवाय कुछ नहीं कर सकेंगें, जिसे हम कभी जानते थे। (हिंदी इंडिया वाटर पोर्टल)
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