कोल बेल्ट के खेतों में टपक रहीं अमृत बूंदे

धनबाद के कोयला खदानों के आसपास खेती करने वाले किसान जो पहले सिंचाई के अभाव में खेती नहीं कर पा रहे थे उनके लिए वरदान साबित हो रही है टपक सिंचाई प्रणाली..

अभी महज कुछ साल पहले की बात है। बाघमारा के किसान बैजनाथ यादव अपनी छह एकड़ जमीन से इतनी फसल भी नहीं उगा पाते थे कि साल भर के लिए भोजन-पानी नसीब हो सके। कुआं होने के बावजूद वे कभी अपने खेतों की सिंचाई ठीक से नहीं कर पाते थे। वे कहते हैं कि दिन-दिन भर बोरिंग चलता रहता था और दो एकड़ जमीन की प्यास भी नहीं बुझाती थी। तिस पर से पड़ोस में कोयले का बुरादा उगलने वाला मधुबन कोल वाशरी उनके खेतों में उगी फसल को झुलसाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मगर आज उनके खेतों में हरियाली है और चेहरे पर रौनक। वे बड़े गर्व से कहते हैं। इन खेतों से हर महीने आसानी से दस हजार रुपये कमा लेता हूं। खेत वही है, कोल वाशरी भी वही है कुआं भी वहीं, मगर यह बदलाव आया है उनके द्वारा टपक सिंचाई प्रणाली को अपनाने से।

धान की विभिन्न प्रजातियों के लिए मशहूर धनबाद जिले में जब से कोयला खनन का काम शुरू हुआ यहां की खेती चौपट ही हो गयी। कोल वाशरीज द्वारा भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण पानी का लेवल काफी नीचे चला गया और इसके अलावा खदान से लेकर कोल वाशरी तक से उड़ने वाले कोयले के बुरादे ने कभी फसलों पर हरियाली नहीं आने दी। वैसे धनबाद का जल संकट अपने-आप में ही एक बड़ा संकट है। अप्रैल से ही हर शहर कस्बे और गांव में लोग साइकिल पर कनस्तर टांग कर पानी की तलाश में यहां-वहां भटकते नजर आते हैं। ऐसे में खेती के लिए पानी का इंतजाम भला कैसे हो पाता। मगर इन हालात में टपक (ड्रिप सिंचाई) प्रणाली से किसानों के लिए एक बेहतर राह निकली है। अब हालात बदल रहे हैं।

प्रदीप पांडे बने अगुआ


मगर तीन-चार साल पहले बाघमारा प्रखंड के झगड़ाही गांव के प्रगतिशील किसान प्रदीप पांडे ने सिंचाई की टपक प्रणाली (ड्रिप इरिगेशन) को अपनाया और जब उनका प्रयोग सफल रहा तो उन्होंने पूरे कोल बेल्ट में इस प्रसार करना शुरू किया। प्रदीप पांडे बताते हैं कि आज जिले में लगभग 350 किसानों ने इस प्रणाली को अपना लिया है और वे खुशहाल जीवन जी रहे हैं। सरकार भी इस प्रणाली को अपनाने वाले किसानों को नब्बे फीसदी सब्सिडी देती है। कई ऐसे लोगों ने भी इसे अपनाया है जो पुश्तैनी खेती के बावजूद कल तक साइकिल पर कोयला ढोते थे। आज वे किसान उसी साइकिल पर खीरा और दूसरी सब्जियां ढो रहे हैं।

एक ड्रम के बदले एक मग पानी


बैजनाथ यादव ने भी प्रदीप पांडे के समझाने पर ही टपक प्रणाली को अपनाया। वे कहते हैं इस बात को ऐसे समझिये कि महज 500 लीटर पानी में उनके एक एकड़ खेत की सिंचाई हो जाती है। हम तो यही समझते हैं कि पहले जो काम ड्रम से नहीं होता था आज एक मग पानी से होने लगा है। उन्होंने कहा कि उन्हें अपने पूरे खेत में टपक प्रणाली को लागू करने के लिए कुल 2.5 लाख रुपये खर्चने पड़े। मगर इसमें सरकार की ओर से 90 फीसदी राशि का अनुदान मिल गया। उन्हें अपनी जेब से सिर्फ 25 हजार रुपये चुकाने पड़े।

दो मजदूरों को साल भर मजदूरी


महज एक साल पहले ड्रिप इरिगेशन को अपनाने के बाद बैजनाथ यावद अब अपनी जमीन पर पूरे साल खेती करते हैं। वे वहां बैगन, भिंडी, करेला, टमाटर, गोभी, फर्शबीन, लोकी, नेनुआ, झींगा आदि सब्जियों के अलावा घरेलू उपयोग के लिए धान, गेहूं, सरसों और अरहर उगाते हैं। आज उनके खेत पर पूरे साल रोजाना दो मजदूर काम करते हैं। बैजनाथ उन दोनों को खाने-पीने के अलावा 150 रुपये रोजाना बतौर मजदूरी भुगतान करते हैं।

कोल वाशरी से चौपट हुई खेती


वे बताते हैं कि 1948 से ही उनके पूर्वज इस जमीन पर खेती करते रहे हैं। पहले यहां काफी अच्छी खेती होती थी। वे जिस कुएं से सिंचाई करते हैं वह भी उसी जमाने में खुदा था। मगर 1987 में जब उनके पड़ोस में मधुबन कोल वाशरी खुला तब से उनकी जमीन की पैदावार लगातार घटने लगी। अचानक पानी का लेवल नीचे चला गया और वाशरी से उड़ने वाले कोयले के बुरादे से उनकी फसल चौपट होने लगी। अब टपक प्रणाली को अपनाने के बाद पानी की समस्या का तो समाधान हो गया, मगर बुरादा आने वाली समस्या जस की तस है।

मदद के लिए तैयार नहीं बीसीसीएल


बैजनाथ बताते हैं कि बीसीसीएल (भारतीय कोकिंग कोल लिमिटेड) के अधिकारी तो उनकी जमीन को खेत मानते ही नहीं हैं। वे तो उसे बंजर जमीन बताते रहे हैं। उनके खेतों से महज 50 गज की दूरी पर वाशरी है, वे रोज देखते होंगे कि उनके पिछवाड़े में कैसे सब्जियां उग रही है। मगर हर्जाना तो दूर वे हमें मदद करने के लिए भी तैयार नहीं है। उनके खेतों के बगल से बीसीसीएल की पावर लाइन गुजरती है। इस लाइन से पूरे इलाके के लोगों को बिजली मिलती है, मगर उन्हें बिजली नहीं दी जाती। दरअसल वे चाहते ही नहीं कि उनकी जमीन को खेत की मान्यता मिले। अगर ऐसा हुआ तो उन्हें मुआवजा देना पड़ेगा।

मनरेगा के जरिये नहीं मिली मदद


बैजनाथ की शिकायत राज्य सरकार के ग्रामीण विकास विभाग से भी है। उन्होंने दो साल पहले मनरेगा के तहत एक कूप के लिए आवेदन किया था। मगर उन्हें आज तक कुआं आवंटित नहीं किया गया। वे कहते हैं कि कुएं भले न दिया जाये। उनके पैतृक कुएं के जीणोद्धार के लिए ही कुछ पैसे मिल जाये तो वे काम चला लेंगे।.

पशुपालन और जैविक खाद


सरकारी मदद मिले न मिले बैजनाथ यादव ने अपने खेतों से सोना उगाने का हुनर तलाश लिया है। और इसी हुनर को बाघमारा के दर्जनों किसान अपना चुके हैं। पंक्तियों में पाइप बिछा कर खेतों को हरा भरा करने में जुटे बैजनाथ यादव ने अब अपने कदम अपनी पुश्तैनी पेशे पशुपालन की ओर भी बढ़ा दिये हैं। उन्होंने आठ गायें पाल रखी हैं। वे इन गायों का दूध तो बेचते ही हैं। उसके गोबर से गोबर गैस और खाद भी तैयार करते हैं। वे अपने खेतों में रासायनिक उर्वरक को बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करते, कीटनाशक भी आयुवर्दिक ही प्रयोग करते हैं।

बाघमारा बस्ती से सटे बैजनाथ यादव के खेत धीरे-धीरे इलाके के किसानों के लिए प्रयोगशाला में तब्दील होने लगे हैं। अक्सर किसान उनकी खेती देखने और टपक प्रणाली के लाभ को समझने के लिए उनके यहां आ जाते हैं। बैजनाथ भी उन्हें इस खेती के लाभ समझाने में हिचकते नहीं।

(यह खबर झारखंड राज्य मीडिया फैलोशिप के तहत लिखी गयी है)

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