छरबा गांव में लगने वाले कोकाकोला प्लांट को यमुना नदी का पानी दिया जाएगा। जबकि यमुना में पानी की पहले ही कमी है और उत्तर प्रदेश व हरियाणा राज्यों के दो दर्जन से अधिक जिले यमुना के पानी पर ही पेयजल और खेती के लिए निर्भर हैं। बैराज से बिजली उत्पादन भी कोकाकोला को पानी दिए जाने के बाद घट जाएगा। एक अनुमान के लिए कोकाकोला प्लांट को प्रतिदिन 2 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होगी। कंपनी यमुना से पानी लेने के साथ ही ट्यूबवेल लगाकर भी पानी भूगर्भीय जल खींचेगी और गांव में पानी का जलस्तर घट जाएगा जिसका सीधा मतलब है कि गांव में खेती, पशुपालन और पानी के स्रोत चौपट हो जाएंगे। उत्तराखंड सरकार ने 17 अप्रैल को हिंदुस्तान कोकाकोला बेवरेजेज प्राइवेट लिमिटेड के साथ इस बात का समझौता किया कि कंपनी को राजधानी देहरादून के निकट छरबा गांव में 368 बीघा ज़मीन 19 लाख रुपए प्रति बीघा के हिसाब से कोकाकोला प्लांट स्थापित करने के लिए दी जाएगी। मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की मौजूदगी में हुए समझौते में सिडकुल के प्रबंध निदेशक राकेश शर्मा और कोकाकोला की ओर से एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर शुक्ला वासन ने हस्ताक्षर किए। सरकार ने इस समझौते को इतना महत्वपूर्ण समझा है कि फाइल पर हस्ताक्षर के बाद कोकाकोला के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट पैट्रिक जॉर्ज और मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने एक दूसरे को फाइल हस्तांतरित की। सरकार का दावा है कि छरबा में कोकाकोला प्लांट लगने से राज्य में 600 करोड़ का निवेश होगा और 1000 लोगों को रोज़गार मिलेगा। लेकिन विदेशी कंपनी से करार और रोज़गार के दावों के बीच सरकार ने उन ग्रामीणों को इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनाया जिनसे ग्राम समाज की ज़मीन लेकर यह ताना-बाना बुना जा रहा है।यहां तक कि छरबा गांव के लोगों को यह खबर समाचार पत्रों के माध्यम से ही मिली जिनकी ज़मीन पर 600 करोड़ का प्लांट लगाने का समझौता सरकार कर रही है। जैसे ही सरकार के इस समझौते की खबर फैली वैसे ही इसका विरोध भी तेज हो गया है। सरकार जितनी बड़ी उपलब्धि बताकर इस समझौते को पेश कर रही थी। पर्यावरण के जानकार इसे उतना ही बड़ा खतरा बता रहे हैं।
जिस गांव में सरकार कोकाकोला प्लांट लगाने की मंजूरी दे रही है। वह राजधानी देहरादून से 32 किमी दूर शीतल नदी से किनारे बसा छरबा गांव है। 1659 परिवारों के छरबा गांव की आबादी 10,046 है। कृषि पर निर्भर गांव में 18 आंगनबाड़ी केन्द्र संचालित हैं और यह गांव अप्रैल 2012 में केन्द्रीय पंचायती राज मंत्रालय से आदर्श ग्राम पंचायत का पुरस्कार भी जीत चुका है। यह गांव के राज्य के कुछ बेहद प्रगतिशील और आदर्श गाँवों में से एक है। सांप्रदायिक एकता के लिहाज से भी गांव उदाहरण है। यहां हिंदु, मुस्लिमों के अलावा सिख भी निवास करते हैं। हिमाचल के साथ ही जौनसार और उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन कर आए लोग यहां रहते हैं।
इस गांव को किसी सरकार ने आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंचाया बल्कि गांव के लोगों की एक पीढ़ी की मेहनत ने यह स्थिति तैयार की है। सीआईएसएफ के सेवानिवृत्त इंस्पेक्टर पीसी चंदेल कहते हैं कि चालीस साल पहले तक हमारे गांव में पानी की भयंकर कमी थी। इस कारण गांव में कोई अपनी लड़कियों की शादी गांव में करने को तैयार नहीं होता था यहां तक कि दर्जनों परिवार गांव से अपनी जमीनें बेचकर दूर चले गए। तब गांव में दो किमी के दायरे में केवल तीन स्थानों पर पानी के बहुत छोटे स्रोत थे जिनसे कटोरे से खुरचकर पानी निकालना पड़ता था। लेकिन आज हमारे गांव में पर्याप्त पानी है। गांव में पर्याप्त पानी के पीछे गांव के लोगों का चार दशक से जारी संघर्ष बड़ी वजह है। गांव वालों ने पानी की समस्या का समाधन प्रकृति में खोजा और सबसे पहले ग्राम समाज की लगभग 1100 बीघा ज़मीन में वृक्षारोपण किया। पूर्व प्रधान मुन्ना खां बताते हैं कि उन्हें दो कार्यकाल लगातार काम किया। तब प्रधान को पट्टे देने का भी अधिकार था लेकिन उन्होंने एक भी पट्टा किसी को नहीं दिया बल्कि ग्राम पंचायत की 450 बीघा ज़मीन में जंगल लगवाए। यहां तक कि इन वनों की सुरक्षा गांव वालों ने खुद चौकीदार की व्यवस्था कराकर की। ग्राम प्रधान रोमी राम जसवाल बताते हैं कि ग्राम समाज की भूमि में 90 प्रतिशत में खैर और शीशम जबकि 10 प्रतिशत में यूकेलिप्टस के जंगल हैं।
सरकार ने जिस ज़मीन का सौदा कोकाकोला के साथ किया वह शीतल नदी के किनारे गांव के 100 मीटर के दायरे में है। गांव वालों को एक तो इस बात का गुस्सा है कि सरकार ने बिना उनसे बात किए ज़मीन का सौदा कर दिया और दूसरा कोकाकोला ने जहां- जहां अपने प्रोजेक्ट लगाए वहां भयंकर प्रदूषण फैला है। भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन के कारण उन क्षेत्रों में पानी के लिए हाहाकार मचा है। खेती की जमीनें ऊसर हुई हैं। और कंपनी द्वारा किए गए रोज़गार के दावे भी खोखले साबित हुए हैं। इसी बात को लेकर पर्यावरणविद् भी इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।
कहा यह जा रहा है कि छरबा गांव में लगने वाले कोकाकोला प्लांट को यमुना नदी का पानी दिया जाएगा। जबकि यमुना में पानी की पहले ही कमी है और उत्तर प्रदेश व हरियाणा राज्यों के दो दर्जन से अधिक जिले यमुना के पानी पर ही पेयजल और खेती के लिए निर्भर हैं। जिस आसन बैराज से कोकाकोला को पानी देने की बात हो रही है वह बैराज पर्यटन और पर्यावरणीय दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं इस बैराज पर प्रतिवर्ष विदेशी पक्षियों को देखने के लिए देशी-विदेशी पर्यटक जुटते हैं। बैराज से बिजली उत्पादन भी कोकाकोला को पानी दिए जाने के बाद घट जाएगा। एक अनुमान के लिए कोकाकोला प्लांट को प्रतिदिन 2 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होगी। छरबा गांव की सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता रावत को इसी बात की चिंता है। सुनीता कहती हैं कि कंपनी यमुना से पानी लेने के साथ ही ट्यूबवेल लगाकर भी पानी भूगर्भीय जल खींचेगी और गांव में पानी का जलस्तर घट जाएगा जिसका सीधा मतलब है कि गांव में खेती, पशुपालन और पानी के स्रोत चौपट हो जाएंगे। हमें पीने और सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिलेगा।
जबकि पीसी चंदेल का कहना है कि हमारा गांव पहले ही तीन दिशाओं से उद्योग धंधों से घिर चुका है। रात में खेत में सोने जाओ तो सुबह तक नाक में काला भर जाता है ऐसें में चौथी दिशा में भी अगर हमारा पाला हुआ जंगल भी हमारे हाथ से निकल जाएगा तो हमें अपना गांव छोड़कर जाना पड़ेगा। छरबा गांव से लगे सहसपुर, सेलाकुई इत्यादि क्षेत्रों में सरकार पहले ही उद्योग स्थापित कर चुकी है। अब उसकी नजर इस गांव पर है। यहां तक कि सरकार ने कोकाकोला से यह सौदा गांव के लोगों को भरोसे में लिए बिना ही कर डाला है। सहसपुर के प्रधान सुन्दर थापा भी छरबा गांव के लोगों को सहयोग का पूरा भरोसा दिलाते हैं। उनका कहना है कि सरकार को ऐसा काम करना चाहिए जैसा जनता चाहती है।
नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई ने अध्ययन दल के साथ छरबा गांव पहुंचकर ग्रामीणों को समर्थन दिया और ग्राम प्रधान की मौजूदगी में आयोजित एक बैठक में भी भाग लिया। सुरेश भाई का कहना है कि गांव वालों की मर्जी के बिना कोई प्रोजेक्ट गांव में नहीं लग सकता। विदेशी कंपनियों और विदेशी पूंजी के आगे सरकार नतमस्तक है जबकि सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या कोकाकोला के साथ समझौता करने से पहले देश के अन्य भागों में लगे कोकाकोला के प्रोजेक्ट के प्रभावों का अध्ययन किया गया है? क्या राज्य सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए ग्राम पंचायत से एनओसी ली है? उन्होंने सवाल उठाया कि यमुना का पानी यूपी और हरियाणा में खेती और पेयजल के लिए प्रयोग होता है ऐसे में राज्य सरकार को इन राज्यों को भी भरोसे में लेना चाहिए था? सुरेश भाई ने कहा कि सरकार निजी कंपनियों के हाथों खेल रही है।
छरबा के ग्रामीणों ने ग्राम समाज की ज़मीन में गौ वंश संरक्षण केन्द्र, कृषि अनुसंधान प्रशिक्षण केन्द्र जैसे अनेक उपयोगी केन्द्र खोलने का आग्रह पहले किया था लेकिन सरकार ने इन्हें खारिज कर दिया। जबकि यूनियन बैंक की ओर से कृषि प्रशिक्षण केन्द्र के लिए सहयोग का प्रस्ताव दिया गया था। सरकार ने गांव वालों को झांसा देकर 2003 में दून विवि की स्थापना के नाम पर गांव की 520 बीघा ज़मीन की एनओसी कराई थी अब बिना दुबारा एनओसी के इसी ज़मीन में से 368 बीघा जमीन सरकार ने कोकाकोला को बेच दी है। जबकि विवि के लिए ली गई ज़मीन पर कोकाकोला जैसा प्रोजेक्ट बिना गांव वालों की सहमति के नहीं लग सकता है।
पीएसआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. अनिल गौतम भी गांव के पास प्रस्तावित इस प्रोजेक्ट को खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि कोकाकोला प्लांट से निकलने वाला रसायन उपजाऊ ज़मीन को भी बंजर कर देता है। उनका कहना है कि कोक के प्लांट में जितना पानी एक दिन में अंदर लिया जाता है उसका आधा पानी कैमिकल के रूप में बाहर छोड़ा जाता है। यह कैमिकल मिला पानी ज़मीन की सतह पर बहे या जमीन के अंदर जाए दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है। उन्होंने कहा कि बनारस का मेंहदीगंज इलाके में जहां 2002 में कोकाकोला ने अपना प्लांट लगाया था वहां आज भू जलस्तर 50-60 फीट नीचे चला गया है। उन्होंने कहा कि इससे आत्मनिर्भर बनाने वाला रोज़गार तो विकसित हो नहीं सकता हां खेती और पशुपालन चौपट होने से भूखमरी की नौबत ज़रूर आ जाएगी।
उत्तराखंड जलविद्युत निगम के निदेशक आपरेशन पुरुषोत्तम का कहना है कि यमुना में पहले ही पानी की कमी है। पानी अगर कहीं और शिफ्ट किया गया तो पानी की और कमी होगी। जिससे उत्पादन प्रभावित होगा। वर्तमान में कोकाकोला के प्रस्तावित स्थल के बाद यमुना में तीन परियोजनाओं ढकरानी, ढालीपुर और कुल्हाल से लगभग 100 मेगावाट बिजली पैदा होती है।
जिस गांव में सरकार कोकाकोला प्लांट लगाने की मंजूरी दे रही है। वह राजधानी देहरादून से 32 किमी दूर शीतल नदी से किनारे बसा छरबा गांव है। 1659 परिवारों के छरबा गांव की आबादी 10,046 है। कृषि पर निर्भर गांव में 18 आंगनबाड़ी केन्द्र संचालित हैं और यह गांव अप्रैल 2012 में केन्द्रीय पंचायती राज मंत्रालय से आदर्श ग्राम पंचायत का पुरस्कार भी जीत चुका है। यह गांव के राज्य के कुछ बेहद प्रगतिशील और आदर्श गाँवों में से एक है। सांप्रदायिक एकता के लिहाज से भी गांव उदाहरण है। यहां हिंदु, मुस्लिमों के अलावा सिख भी निवास करते हैं। हिमाचल के साथ ही जौनसार और उत्तराखंड के पहाड़ों से पलायन कर आए लोग यहां रहते हैं।
इस गांव को किसी सरकार ने आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंचाया बल्कि गांव के लोगों की एक पीढ़ी की मेहनत ने यह स्थिति तैयार की है। सीआईएसएफ के सेवानिवृत्त इंस्पेक्टर पीसी चंदेल कहते हैं कि चालीस साल पहले तक हमारे गांव में पानी की भयंकर कमी थी। इस कारण गांव में कोई अपनी लड़कियों की शादी गांव में करने को तैयार नहीं होता था यहां तक कि दर्जनों परिवार गांव से अपनी जमीनें बेचकर दूर चले गए। तब गांव में दो किमी के दायरे में केवल तीन स्थानों पर पानी के बहुत छोटे स्रोत थे जिनसे कटोरे से खुरचकर पानी निकालना पड़ता था। लेकिन आज हमारे गांव में पर्याप्त पानी है। गांव में पर्याप्त पानी के पीछे गांव के लोगों का चार दशक से जारी संघर्ष बड़ी वजह है। गांव वालों ने पानी की समस्या का समाधन प्रकृति में खोजा और सबसे पहले ग्राम समाज की लगभग 1100 बीघा ज़मीन में वृक्षारोपण किया। पूर्व प्रधान मुन्ना खां बताते हैं कि उन्हें दो कार्यकाल लगातार काम किया। तब प्रधान को पट्टे देने का भी अधिकार था लेकिन उन्होंने एक भी पट्टा किसी को नहीं दिया बल्कि ग्राम पंचायत की 450 बीघा ज़मीन में जंगल लगवाए। यहां तक कि इन वनों की सुरक्षा गांव वालों ने खुद चौकीदार की व्यवस्था कराकर की। ग्राम प्रधान रोमी राम जसवाल बताते हैं कि ग्राम समाज की भूमि में 90 प्रतिशत में खैर और शीशम जबकि 10 प्रतिशत में यूकेलिप्टस के जंगल हैं।
सरकार ने जिस ज़मीन का सौदा कोकाकोला के साथ किया वह शीतल नदी के किनारे गांव के 100 मीटर के दायरे में है। गांव वालों को एक तो इस बात का गुस्सा है कि सरकार ने बिना उनसे बात किए ज़मीन का सौदा कर दिया और दूसरा कोकाकोला ने जहां- जहां अपने प्रोजेक्ट लगाए वहां भयंकर प्रदूषण फैला है। भूगर्भीय जल के अत्यधिक दोहन के कारण उन क्षेत्रों में पानी के लिए हाहाकार मचा है। खेती की जमीनें ऊसर हुई हैं। और कंपनी द्वारा किए गए रोज़गार के दावे भी खोखले साबित हुए हैं। इसी बात को लेकर पर्यावरणविद् भी इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं।
कहा यह जा रहा है कि छरबा गांव में लगने वाले कोकाकोला प्लांट को यमुना नदी का पानी दिया जाएगा। जबकि यमुना में पानी की पहले ही कमी है और उत्तर प्रदेश व हरियाणा राज्यों के दो दर्जन से अधिक जिले यमुना के पानी पर ही पेयजल और खेती के लिए निर्भर हैं। जिस आसन बैराज से कोकाकोला को पानी देने की बात हो रही है वह बैराज पर्यटन और पर्यावरणीय दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण है। इतना ही नहीं इस बैराज पर प्रतिवर्ष विदेशी पक्षियों को देखने के लिए देशी-विदेशी पर्यटक जुटते हैं। बैराज से बिजली उत्पादन भी कोकाकोला को पानी दिए जाने के बाद घट जाएगा। एक अनुमान के लिए कोकाकोला प्लांट को प्रतिदिन 2 लाख लीटर पानी की आवश्यकता होगी। छरबा गांव की सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता रावत को इसी बात की चिंता है। सुनीता कहती हैं कि कंपनी यमुना से पानी लेने के साथ ही ट्यूबवेल लगाकर भी पानी भूगर्भीय जल खींचेगी और गांव में पानी का जलस्तर घट जाएगा जिसका सीधा मतलब है कि गांव में खेती, पशुपालन और पानी के स्रोत चौपट हो जाएंगे। हमें पीने और सिंचाई के लिए भी पानी नहीं मिलेगा।
जबकि पीसी चंदेल का कहना है कि हमारा गांव पहले ही तीन दिशाओं से उद्योग धंधों से घिर चुका है। रात में खेत में सोने जाओ तो सुबह तक नाक में काला भर जाता है ऐसें में चौथी दिशा में भी अगर हमारा पाला हुआ जंगल भी हमारे हाथ से निकल जाएगा तो हमें अपना गांव छोड़कर जाना पड़ेगा। छरबा गांव से लगे सहसपुर, सेलाकुई इत्यादि क्षेत्रों में सरकार पहले ही उद्योग स्थापित कर चुकी है। अब उसकी नजर इस गांव पर है। यहां तक कि सरकार ने कोकाकोला से यह सौदा गांव के लोगों को भरोसे में लिए बिना ही कर डाला है। सहसपुर के प्रधान सुन्दर थापा भी छरबा गांव के लोगों को सहयोग का पूरा भरोसा दिलाते हैं। उनका कहना है कि सरकार को ऐसा काम करना चाहिए जैसा जनता चाहती है।
नदी बचाओ अभियान के संयोजक सुरेश भाई ने अध्ययन दल के साथ छरबा गांव पहुंचकर ग्रामीणों को समर्थन दिया और ग्राम प्रधान की मौजूदगी में आयोजित एक बैठक में भी भाग लिया। सुरेश भाई का कहना है कि गांव वालों की मर्जी के बिना कोई प्रोजेक्ट गांव में नहीं लग सकता। विदेशी कंपनियों और विदेशी पूंजी के आगे सरकार नतमस्तक है जबकि सरकार को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या कोकाकोला के साथ समझौता करने से पहले देश के अन्य भागों में लगे कोकाकोला के प्रोजेक्ट के प्रभावों का अध्ययन किया गया है? क्या राज्य सरकार ने इस प्रोजेक्ट के लिए ग्राम पंचायत से एनओसी ली है? उन्होंने सवाल उठाया कि यमुना का पानी यूपी और हरियाणा में खेती और पेयजल के लिए प्रयोग होता है ऐसे में राज्य सरकार को इन राज्यों को भी भरोसे में लेना चाहिए था? सुरेश भाई ने कहा कि सरकार निजी कंपनियों के हाथों खेल रही है।
छरबा के ग्रामीणों ने ग्राम समाज की ज़मीन में गौ वंश संरक्षण केन्द्र, कृषि अनुसंधान प्रशिक्षण केन्द्र जैसे अनेक उपयोगी केन्द्र खोलने का आग्रह पहले किया था लेकिन सरकार ने इन्हें खारिज कर दिया। जबकि यूनियन बैंक की ओर से कृषि प्रशिक्षण केन्द्र के लिए सहयोग का प्रस्ताव दिया गया था। सरकार ने गांव वालों को झांसा देकर 2003 में दून विवि की स्थापना के नाम पर गांव की 520 बीघा ज़मीन की एनओसी कराई थी अब बिना दुबारा एनओसी के इसी ज़मीन में से 368 बीघा जमीन सरकार ने कोकाकोला को बेच दी है। जबकि विवि के लिए ली गई ज़मीन पर कोकाकोला जैसा प्रोजेक्ट बिना गांव वालों की सहमति के नहीं लग सकता है।
पीएसआई के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. अनिल गौतम भी गांव के पास प्रस्तावित इस प्रोजेक्ट को खतरनाक मानते हैं। उनका कहना है कि कोकाकोला प्लांट से निकलने वाला रसायन उपजाऊ ज़मीन को भी बंजर कर देता है। उनका कहना है कि कोक के प्लांट में जितना पानी एक दिन में अंदर लिया जाता है उसका आधा पानी कैमिकल के रूप में बाहर छोड़ा जाता है। यह कैमिकल मिला पानी ज़मीन की सतह पर बहे या जमीन के अंदर जाए दोनों ही स्थितियों में खतरनाक है। उन्होंने कहा कि बनारस का मेंहदीगंज इलाके में जहां 2002 में कोकाकोला ने अपना प्लांट लगाया था वहां आज भू जलस्तर 50-60 फीट नीचे चला गया है। उन्होंने कहा कि इससे आत्मनिर्भर बनाने वाला रोज़गार तो विकसित हो नहीं सकता हां खेती और पशुपालन चौपट होने से भूखमरी की नौबत ज़रूर आ जाएगी।
उत्तराखंड जलविद्युत निगम के निदेशक आपरेशन पुरुषोत्तम का कहना है कि यमुना में पहले ही पानी की कमी है। पानी अगर कहीं और शिफ्ट किया गया तो पानी की और कमी होगी। जिससे उत्पादन प्रभावित होगा। वर्तमान में कोकाकोला के प्रस्तावित स्थल के बाद यमुना में तीन परियोजनाओं ढकरानी, ढालीपुर और कुल्हाल से लगभग 100 मेगावाट बिजली पैदा होती है।
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