ट्रंप का ‘अमरीका फर्स्ट’ और ‘अमरीका ग्रेट अगेन’ का नारा अमरीकी समाज को कट्टर राष्ट्रवाद के रास्ते पर ले जा सकता है। इसके अपने खतरे हैं, जो अमरीकी समाज के बहुलतावादी ढाँचे के ताने-बाने को कमजोर करेंगे। यह सोच अपने राजनीतिक विरोधियों को देश का दुश्मन बताती है। आशंका है कि ट्रंप की नीतियों से कहीं अमरीका अलग-थलग न पड़ जाए।
कोई खुद के लिए, तो कुछ आने वाली पीढ़ियों के लिए चिंतित है। प्रकृति के असंतुलन और पर्यावरण के खतरे ने ऐसी ही चिंता सभी देशों के लिए पैदा कर दी है। 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते से अलग होने की अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की घोषणा से दुनिया के तमाम देश और उनके नेता आर्श्चयचकित हैं। यूरोप सहित पूरी दुनिया के नेताओं ने ट्रंप के इस फैसले के खिलाफ जिस तरह अभूतपूर्व एकता दिखाई, उससे गर्म हो रही धरती को बचाने की अंतरराष्ट्रीय मुहिम की रफ्तार धीमी नहीं पड़ी है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने ट्रंप के संकीर्ण नारे ‘अमरीका ग्रेट अगेन’ के विपरीत विश्व समुदाय की भलाई के लिए नया नारा ‘प्लैनेट ग्रेट अगेन’ दिया है, जिसके पक्ष में दुनिया का नेतृत्व लामबंद हो गया है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने पर्यावरण बचाने की अपनी प्रतिबद्धता मजबूती से जताई है। पेरिस समझौते से अलग होने की ट्रंप की घोषणा से बिल्कुल अलग प्रधानमंत्री मोदी का कहना है कि पेरिस समझौता भविष्य की पीढ़ियों के लिए किया गया है, और इस संबंध में हमारे रुख में कोई बदलाव नहीं होगा। उन्होंने किसी देश या नेता का पक्ष लेने या विरोध करने के बजाय दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहा है कि भारत भावी पीढ़ी के पक्ष में खड़ा है, और भावी पीढ़ी को हम कैसा पर्यावरण देंगे, यह सोचना हम सबकी जिम्मेदारी है। पर्यावरण संरक्षण के मामले पर विश्व नेतृत्व की एकजुटता से ऐसा परिप्रेक्ष्य उभरा कि विश्व नेतृत्व ही पर्यावरण योद्धा के रूप में खड़ा हो गया है। दुनिया के नेताओं के रुख से एक नई ताकत मिली है।
पेरिस जलवायु समझौते से ट्रंप का पीछे हटना विश्व के नेतृत्व पद से अपने आप को पीछे खींचने जैसा ही है। दुनिया की चिंताओं और समस्याओं में साझेदारी करने वाला अमरीका ट्रंप के नेतृत्व में आज अपने हित की बात करने लगा है। ऐसे में अब उसकी बात कौन सुनेगा? सच पूछिए तो अमरीका रातों रात ऐसे ही महान नहीं बन गया। पूरी दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा देना, उसकी विशिष्टता रही है। अपने सामाजिक ढांचे में विभिन्न जातीय समूहों के बीच भेदभाव न करना उसकी राजनीतिक और सांस्कृतिक विशेषता रही है। इन्हीं राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बावजूद भी ईसाई-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक रंग चढ़ने नहीं दिया, लेकिन ट्रंप ने अपने महान उत्तराधिकार में प्राप्त विरासत, लोकतांत्रिक मूल्यों और नीतियों को इस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां सिर्फ आलोचना ही आलोचना है। ट्रंप का ‘अमरीका फर्स्ट’ और ‘अमरीका ग्रेट अगेन’ का नारा अमरीकी समाज को कट्टर राष्ट्रवाद के रास्ते पर ले जा सकता है।
इसके अपने खतरे हैं, जो अमरीकी समाज के बहुलतावादी ढांचे के ताने-बाने को कमजोर करेंगे। यह सोच अपने राजनीतिक विरोधियों को देश का दुश्मन बताती है। यही वजह है कि पूरी दुनिया के समाज वैज्ञानिकों में इस बात की आशंका व्याप्त है कि ट्रंप की नीतियों से कहीं अमरीका विश्व समुदाय से अलग-थलग न पड़ जाए। ट्रंप की अमरीका में ही तमाम फैसलों को लेकर लगातार आलोचना हो ही रही है। अमरीका का बर्ताव सिर्फ चेतावनी ही नहीं दे रहा, बल्कि दुनिया भर को इस फैसले ने भयभीत किया है। पेरिस समझौते से पीछे हटने के ट्रंप के फैसले से दुनिया के साथ-साथ अमरीका में भी उनकी आलोचना शुरू हो गई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतरेस ने समझौते से अमरीका के हटने को अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण बताया है। उनका कहना है कि इससे ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के वैश्विक प्रयासों को बड़ा झटका लगा है। विशेषज्ञ स्पष्ट आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन की सीधी मार फ्लोरिडा पर पड़ेगी, जहां ट्रंप की अपनी रिअल एस्टेट कंपनी का कारोबार फैला है, और उनका ड्रीम प्रोजेक्ट गोल्फ कोर्स भी उसका हिस्सा हो सकता है।
इसे ऐतिहासिक रूप से गैर-जिम्मेदाराना फैसला बताने वाले भयभीत हैं कि अगले कुछ सालों में चार डिग्री सेल्सियस तक धरती गरम हो सकती है। बहरहाल, पेरिस समझौते से अमरीका को बाहर होने में अभी तीन साल का समय है। विरोधियों ने मुखर शब्दों में ये संकेत देने शुरू कर दिए हैं कि 2020 का चुनाव हारने की नींव ट्रंप ने इस फैसले की मार्फत रख दी है। इस दौरान पेरिस जलवायु समझौते में सुधार करने और आवश्यक बदलाव करने का पूरा वक्त है। इस समय का उपयोग न्याय और समानता पर आधारित विश्व पर्यावरण दिवस के लिए किया जा सकेगा। मेरा मानना है कि समझौते से अलग होने की प्रक्रिया में काफी वक्त है। घरेलू मोर्चे पर भी अमरीका में पर्यावरण की रक्षा के पक्ष में बहुत बड़ी संख्या में लोग सक्रिय हैं। ऐसे में उम्मीद की जा सकती है कि बदलते वक्त और दुनिया के बड़े नेताओं के दबाव में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप पेरिस जलवायु समझौते से अलग होने के फैसले पर पुनर्विचार कर सकते हैं।
दुनिया का बढ़ता तापमान (सेल्सियस में) |
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1881-1890 |
13.68 |
1891-1900 |
13.67 |
1901-1910 |
13.59 |
1911-1920 |
13.64 |
1921-1930 |
13.76 |
1931-1940 |
13.89 |
1941-1950 |
13.95 |
1951-1960 |
13.92 |
1961-1970 |
13.93 |
1971-1980 |
13.95 |
1981-1990 |
14.12 |
1991-2000 |
14.26 |
2001-2010 |
14.47 |
नोट : ग्राफ डिज़ाइन विशाल तिवारी ने की है।
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