मध्य प्रदेश जंगल, खनिज सम्पदा, प्राकृतिक संसाधनों तथा अन्य मामलों में भी अर्से से 'सम्पन्न’ रहा है। कमोबेश पानी प्रबन्धन की परम्पराओं के मामले में भी इस राज्य का 'भाग्य’ काफी प्रबल रहा है। आखिर ऐसी कौन-सी प्रमुख तकनीक रही है - जो मध्य प्रदेश में नहीं रही होगी। यह इस राज्य के लिये गर्व की बात है कि क्षिप्रा नदी में अभी भी 2300 से 2600 साल पुराने ऐसे सिक्के मिल रहे हैं, जो सन्देश देते थे- जिन्दगी, समृद्धता और विकास के लिये जरूरी है कि पानी को रोका जाए..!
यहाँ पानी के अनेक चमत्कार मौजूद हैं - बरसों से झाबुआ, धार, खरगोन का आदिवासी समाज ईश्वर द्वारा दी गई समझ से बिना इंजन या कोई मोटर के पानी को पहाड़ पर ले जाता है और रबी की फसल ले लेता है। सदियों पहले माण्डव के सत्ता पुरुषों ने तीन से पाँच लाख की आबादी को वर्षा की नन्हीं बूँदों को रोककर आबाद रख रखा था- लेकिन, आज यह अफसोस है कि तमाम सुविधाओं के बावजूद यहाँ 15 में 10 हजार की आबादी को पानी ठीक से नसीब नहीं हो पा रहा है।
हम आखिर अपनी परम्पराओं में मुँह फेरकर आगे बढ़े या गर्त में चले गए- यह सोचने का विषय है। माण्डव का बहादुर समाज तो देश के उन बिरले लोगों में से रहा है, जिन्होंने इस किंवदन्ती को गलत साबित किया कि सभ्यताएँ नदी किनारे ही बसती हैं। उन्होंने तो यह सन्देश दिया था कि कुछ सभ्यताएँ ऐसी भी होती हैं, जो अपने पानी का प्रबन्धन- अपने परिवेश में आने वाली वर्षा से ही आसानी से कर लेती हैं।
पानी प्रबन्धन से रूबरू होने की लालसा हमें भूविज्ञान की पढ़ाई के दौरान ही उस समय प्रारम्भ हो गई थी- जब हमने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा विदर्भ के अनेक दूर-दराज के इलाकों में जाकर-चट्टानों, मिट्टी और बूँदों के समाने की प्रक्रिया के रिश्तों को झाँककर देखने की कोशिश की थी। नब्बे के दशक में दो मुद्दों पर हमारी अनेक यात्राएँ हुईं।
पश्चिमी मध्य प्रदेश में नर्मदा सागर परियोजनाओं का बोलबाला रहा। नर्मदा घाटी में लड़त की आँखों देखी तस्वीरें पेश कीं। इसी दरमियान गुजरात में विस्थापित हुए लोगों के दर्द को भी जानने का मौका मिला। अहम् सवाल यही उठता रहा कि क्या हम अपने परिवेश का पानी- जरूरत के हिसाब से इतना एकत्रित करके नहीं रख सकते हैं कि किसी 'सरोवर’ को हमारे आँगन को भिगोने न आना पड़े?
आखिर हमारे पूर्वजों ने ऐसा कौन-सा परम्परागत प्रबन्धन कर रखा था कि पीने का पानी हो या खेती का- सब उपलब्ध हो जाता था। इसके बाद से ही मध्य प्रदेश के परम्परागत पानी प्रबन्धन को जानने और समझने की दिलचस्पी और बढ़ती गई। इसी दौरान मध्य प्रदेश के झाबुआ तथा अन्य स्थलों पर पानी रोको के अनेक प्रयोग हो रहे थे। इन्हें भी निकट से देखने का अवसर मिला।
पानी के प्रति इस लम्बे अनुराग को देखते हुए हमें भारत के पत्रकारिता क्षेत्र की प्रतिष्ठित के.के. बिड़ला फ़ाउंडेशन, नई दिल्ली की फ़ेलोशिप अवार्ड की गई। जल संचय अभियान से जुड़े हमारे साथियों के बीच इसने उत्साह का काम किया और हमने उन महानुभावों को समाज के सामने लाने की विनम्र कोशिश की, जो पानी रोककर-सूखे से आँखें चार कर रहे थे। जन संवाद शोध संस्थान की भी एक और फ़ेलोशिप ने हमारे उत्साह को बढ़ाया।
पानी के लिये जुटे इस समाज पर केन्द्रित दो रिपोर्ट- 'बूँदों की मनुहार’ तथा 'बूंदों के तीर्थ’ सामने आई। मध्य प्रदेश के परम्परागत जल प्रबन्धन पर मध्य प्रदेश सरकार की एक और फ़ेलोशिप ने हमारे इस अभियान को प्रोत्साहन दिया। इस रिपोर्ट ने यह अहसास दिलाया कि जिस शिद्दत के साथ हम नब्बे के दशक में गुजरात के केवड़िया में सरदार सरोवर परियोजना के बाँध को दो पहाड़ियों के बीच बनते देखकर अचम्भित हो रहे थे।
इस तरह का सफल प्रयोग तो आज के अत्याधुनिक साधनों के मुकाबले कुछ नहीं - वाली स्थिति के साथ धार के परमारकालीन राजा भोज ने भोपाल से 25 किमी. दूर भोजपुर में लगभग दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी में दो पहाड़ियों के बीच बाँध बाँधकर कर दिया था...!! ...और एशिया की सबसे बड़ी झील बनाकर नई कहावत को जन्म दे दिया था। यह उस 'हांडी’ का चावल है, जो विविध तरह की परम्परा वाली जल प्रबन्धन प्रणालियों से मध्य प्रदेश का मस्तक आज भी ऊँचा रखती है...!
मध्य प्रदेश के बुरहानपुर में पानी की भण्डारा प्रणाली- सारी दुनिया में ईरान के अलावा और कहीं मौजूद नहीं है। उज्जैन के कालियादेह में तो 'महल में नदी’ का अनूठा व सुन्दर प्रयोग किया गया है।
असीरगढ़ के किले में पानी की जिन्दा किंवदन्तियों को आज भी देखा जा सकता है। महिदपुर में चौपड़े, यहाँ तथा इस्लाम नगर व सेंधवा के किलों में जल संरक्षण की अपनी तरह की परम्पराएँ रही हैं। इस्लाम नगर में बनाई कृत्रिम नदी तो आज भी कौतुहल जगाती है। मध्य प्रदेश में पहाड़ों पर पानी रोककर उसकी रिसन को 'इस्तकबाल’ करने की परम्पराएँ अनेक हिस्सों में विविधता के साथ देखने को मिलती हैं।
यह पश्चिमी मध्य प्रदेश के सिकन्दरखेड़ा, गुलाबखेड़ी, खजुरिया मंसूर, ठिकरिया, बपैया से लगाकर तो विन्ध्य के बाँधवगढ़ तक मौजूद रही है। लेकोड़ा में खास तरह के मोरी वाले तालाब भी बिरले ही मिलते हैं। बघेलखण्ड, महाकौशल तथा बुन्देलखण्ड में भी पानी की अनूठी परम्पराएँ विद्यमान रही हैं। यहाँ पानी की हवेलियाँ, बाँध, बंधिया और मोघा आज भी आपको पुरानी कहानियाँ सुनाते नजर आएँगे।
अमरपाटन के पास गौरसरी में बरसों पहले वह सिस्टम बना दिया गया था, जिसे आज के पानी तकनीशियन 'वाटर मैनेजमेंट- रीज टू वेली’ के नाम से जानते हैं। खजुराहों में चन्देल राजाओं के बनाए शृंखलाबद्ध तालाब- पानी प्रबन्धन की श्रेष्ठ मिसाल प्रस्तुत करते हैं। बुन्देलखण्ड के पन्ना में तो जल सुरंगें मौजूद रही हैं। मध्य प्रदेश में नाले भी जल प्रबन्धन के श्रेष्ठ उदाहरण रहे हैं - इनके परम्परागत स्वरूप को वापस लौटाने की सराहनीय कोशिश- नीमच में की गई है। देवास में भी टेकरी पर आई बूँदों को जगह-जगह रोका गया था।
मध्य प्रदेश में पानी प्रबन्धन के दो उदाहरण भी यहाँ देना लाजिमी हैं। कभी इन्दौर पानी के मामले में आत्मनिर्भर रहा। सत्तर के दशक में यहाँ तमाम आन्दोलनों के बाद 80 किमी. दूर से नर्मदा नदी का पानी परिवहन कर लाना पड़ा। व्यवस्था और समाज वाहवाही और खुशियों की तालियों की गड़गड़ाहट में मशगूल रहे... और इधर यहाँ की परम्परागत जीवनरेखा रही बावड़ियाँ कचरे से पाट दी गईं।
नदी-नाले में बदल गई और तालाबों में कॉलोनियाँ बस गईं। जब खुमारी उतरी तो पानी के मामले में शहर - अमरबेली संस्कृति का नायक बन चुका था। यही किस्सा कमोबेश नरसिंहगढ़ के साथ हुआ। यहाँ की कुण्डियाँ- प्रसिद्ध रही हैं। पानी का पूरा प्रबन्धन था। लेकिन, 16 किमी. दूर से पार्वती नदी का पानी लाया गया - और इस दौरान कुण्डियाँ हमसे रूठ गईं...!
...ये दोनों उदाहरण- कमोबेश मध्य प्रदेश के परम्परागत जल प्रबन्धन की समृद्ध विरासत और वर्तमान में रूठी विरासत की तस्वीर के लिये पर्याप्त हैं...!
...लेकिन, उम्मीद की किरणें न केवल कायम हैं, अपितु परम्परागत जल प्रबन्धन के प्रति समाज के अनेक लोगों के ज़मीनी संघर्ष को ये लगातार आलोकित भी कर रही हैं। मध्य प्रदेश के अनेक महानुभाव यहाँ की पुरानी पानी परम्पराओं को सहेजने के लिये आगे आ रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रगति पथ पर रफ्तार के साथ आगे बढ़ने के लिये पीछे मुड़कर देखने की क्या जरूरत? लेकिन, पानी संचय के सन्दर्भ में तो हमें पुराने समाज, उनकी शैली, परम्पराओं और उनके अनुरागी मन को वर्तमान में आत्मसात करने में कोताही नहीं बरतनी चाहिए।
...हम, ईश्वर से प्रार्थना करें - वो हमें बीते दिन फिर लौटा दें...! इसे उस अहसास की भाँति देखना होगा - जब कागज की कश्तियों के साथ, बारिश के पानी में भीगने की बचपन की स्मृतियाँ- आज भी ताज़ा होने पर होता है। यह भी कमोबेश उसी तरह है - वो पुराना समाज, वो तालाब, कुछ बावड़ियाँ और जल मन्दिर!
...मध्य प्रदेश में पानी संचय की भूली-बिसरी यादें- इस संस्मरण के रूप में आपके सामने हैं। व्यवस्था और समाज - इस दिशा में कुछ ठोस कर पाता है तो यह इस प्रदेश में बसे उन पुरखों- के प्रति कृतज्ञ भाव होगा, जो सदियों पहले किसी विश्वविद्यालय से 'इंजीनियरिंग’ तो नहीं कर पाए थे, लेकिन पानी के संरक्षण व प्रबन्धन का ऐसा कमाल दिखा गए थे, जो आज के पढ़े-लिखे और तकनीकी विशेषज्ञों को भी कुछ समय के लिये अवाक कर देता है...!
साथ ही, वर्तमान समाज के उन महानुभावों को भी प्रोत्साहन मिलेगा, जो पुरानी जल संरचनाओं के संरक्षण में मैदान पकड़े हैं... !
(लेखक पत्रकार व प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन के अध्येता हैं)
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