(नदी संवाद यात्रा-1)
गाँव से होकर नदी की दो धाराएँ बह गईं। कई पक्के मकान ढह गए, कई विशाल पेड़ गिर गए। तटबन्ध गाँव से करीब दो किलोमीटर दूर ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में बौर गाँव के पास अचानक टूटा और पानी एक पुरानी धारा से राह बनाते हुए बहने लगा। बूढ़े-बुजुर्गों ने बताया कि जिस अस्थाई धारा का निर्माण तटबन्ध टूटने से हुआ, वहाँ किसी जमाने से एक धारा बहती थी। नदी के मुख्य प्रवाह में अधिक पानी आने पर इस धारा में बँट जाता था। यह धारा आगे जाकर फिर कमला में ही मिल जाती थी या किसी दूसरी नदी में, इसकी जानकारी लोगों को नहीं है।नदियों और जलस्रोतों की उपलब्धता, स्वच्छता के सन्दर्भ में उनके संरक्षण, संवर्धन और प्रबन्धन के प्रचलित तौर-तरीकों को समझने और बेहतर विकल्पों के प्रति जनभागीदारी की सम्भावना खोजने निकली नदी संवाद यात्रा में कई उल्लेखनीय नमूने देखने को मिले। जन-जल जोड़ो अभियान के अन्तर्गत ‘नदी पुनर्जीवन अभियान’ के सहयोग से ‘घोघरडीहा प्रखंड स्वराज विकास समिति’ (जीपीएसवीएस) ने इसका आयोजन किया।
पहले चरण की यात्रा जयनगर से झंझारपुर के बीच 16 एवं 17 जुलाई को हुई थी। दूसरे चरण की यात्रा 30 अक्टूबर 2014 को झंझारपुर के निकट कमला नदी के पश्चिमी तटबन्ध से आरम्भ हुई। यह तटबन्ध बीती बाढ़ में दो जगह टूटा था। कुमरैल और लगमा में उन दो स्थलों को देखते हुए पूर्वी तटबन्ध के रास्ते यात्रा दल अगले दिन झंझारपुर लौटा और वहाँ गणमान्य लोगों के साथ बड़ी सभा हुई जिसमें जलपुरूष राजेन्द्र सिंह शामिल हुए। अगले दिन की यात्रा में श्री राजेन्द्र सिंह शामिल थे।
कोसी क्षेत्र की यात्रा उनके नेतृत्व में हुई। वीरपुर, सुपौल, निर्मली में सभाएँ हुईं। तीन दिनों में यात्रा दल ने कमला और कोसी दोनों नदी घाटियों के संकटग्रस्त स्थलों को देखा और तटवासी समूहों से बातचीत की।
कुमरैल मदरसा में हुई सभा की अध्यक्षता छेदी राम, जिला परिषद के पूर्व सदस्य ने की। इसमें दलित, मुसलमान और महिलाओं की अच्छी-खासी आबादी इकट्ठा हुई थी। कमला के दोनों तटबन्ध इसी ग्राम पंचायत में पड़ते हैं। उनके बनने से गाँव की उतनी ज़मीन तत्काल खेती से बाहर हो गई जिस पर तटबन्ध स्थित हैं।
फिर जितनी ज़मीन तटबन्धों के भीतर पड़ी, वह हर साल तबाही झेलती है और जब तटबन्ध टूटता है तो बाहर की तथाकथित बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र में पड़ने वाली ज़मीन व बस्ती तबाह होती है। जब तटबन्ध नहीं था, तब नदी और बाढ़ के साथ जीवन सहज था।
अताउर रहमान ने बताया कि बरसात में बाढ़ आने की जानकारी हमें थी और उसका सामना करने की मानसिक तैयारी रहती थी। बाढ़ का आकार बड़ा होने पर बर्बादी भी होती थी, पर उसकी भरपाई अगले वर्षों में हो जाती थी। अभी की स्थिति में हम असहाय से हो गए हैं।
अब्दुल करीब ने कहा कि तटबन्ध टूटने के बाद होने वाली कठिनाइयों को बता पाना कठिन है। सरकार और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से राहत सामग्री आती है, पर रास्ते की गड़बड़ी और दूसरे कई कारणों से उन लोगों तक नहीं पहुँच पाती है जो सचमुच कठिनाई में होते हैं। उस स्थिति को झेलते हुए किसी तरह उबरते हैं तो सबसे बड़ी कठिनाई आजीविका के स्रोत बन्द हो जाने से होती है जिसके बारे में कोई सोचता भी नहीं।
लालो देवी ने बताया कि इस बार तटबन्ध दोपहर तीन बजे टूटा। लोग अपने घरों में रखा अनाज भी निकाल सके। पर बच्चों के साथ भागकर बाँध पर पहुँचने और जान बचाने के सिवा कुछ सूझता नहीं था। जब रात में तटबन्ध टूटता है तो कई लोग और बच्चे उसमें डूबकर मर भी जाते हैं। जान बच जाने के बाद कठिनाई कम नहीं होती। भोजन से लेकर वर्षा और धूप से बचने के लिये पॉलिथिन इत्यादि के लिये दूसरों की सहायता पर टकटकी लगाए रहना होता है। महिलाओं को नित्यकर्मों से निपटने में भी खासी परेशानी होती है।
लगमा में संवाद यात्रा का काफिला देर से पहुँचा, वहाँ सभा नहीं हो सकी। पर रात में रुकने और सबेरे रवाना होने के बीच अलग-अलग टुकड़ियों में कुछ बातचीत हुई। लगमा अपेक्षाकृत उच्च वर्ग के लोगों का अपेक्षाकृत सम्पन्न गाँव है। पर इस वर्ष तटबन्ध टूटने से वह गाँव बूरी तरह प्रभावित हुआ। करीब दो हजार घरों के इस गाँव में शायद ही कोई घर होगा जिसमें बाढ़ का पानी नहीं गया। गाँव के भीतर गलियाँ सिमेंट-कंक्रीट की बनी हैं, पर बाढ़ में तहस नहस हो गई।
गाँव से होकर नदी की दो धाराएँ बह गईं। कई पक्के मकान ढह गए, कई विशाल पेड़ गिर गए। तटबन्ध गाँव से करीब दो किलोमीटर दूर ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में बौर गाँव के पास अचानक टूटा और पानी एक पुरानी धारा से राह बनाते हुए बहने लगा। बूढ़े-बुजुर्गों ने बताया कि जिस अस्थाई धारा का निर्माण तटबन्ध टूटने से हुआ, वहाँ किसी जमाने से एक धारा बहती थी। नदी के मुख्य प्रवाह में अधिक पानी आने पर इस धारा में बँट जाता था। यह धारा आगे जाकर फिर कमला में ही मिल जाती थी या किसी दूसरी नदी में, इसकी जानकारी लोगों को नहीं है। पर तटबन्ध बनाने में उस धारा को अवरुद्ध कर दिया गया और धारा की ज़मीन पर लोगों ने कब्जा कर लिया, खेेती होने लगी। कई लोगों ने घर भी बना लिया।
इस बार तटबन्ध टूटने पर उसके मार्ग में पड़ने वाले घर, मकान सभी टूट गए और खेती नष्ट हो गई है। गाँव से निकलने की सभी सड़कें तहस-नहस हो गई हैं। हालांकि ग्रामीणों ने आपसी सहयोग और प्रयास से कामचलाऊ ढंग से रास्ता चालू कर लिया है। पर तबाही आसानी से भूलने वाली नहीं है। यह जरूर है कि खेती की ज़मीन पर मिटटी-कीचड़ पट गई है, जिससे अगली फसल बहुत अच्छी होने की उम्मीद है।
कमला के दोनों तटबन्ध इसी गाँव की ज़मीन पर स्थित हैं। तटबन्धों ने जितनी ज़मीन को घेर रखा है, वह उनके निर्माण के साथ ही गाँव वालों के हाथ से निकल गई। कुछ ज़मीन तटबन्धों के भीतर है और कुछ तटबन्धों के बाहर। दूसरी ओर के तटबन्ध के पार (पूरब की ओर) की ज़मीन तो लोगों को कुछ ही दिनों में बेच देनी पड़ी क्योंकि वह ज़मीन आरक्षित हो गई थी। तटबन्धों के बनने के बाद उन खेतों में जाना आना भी थोड़ा कठिन हो गया था। जो ज़मीन और घर तटबन्धों के भीतर पड़े, उनकी अलग कहानी है।
उन खेतों में मिटटी जमती गई और धीरे-धीरे तटबन्धों के भीतर की ज़मीन, बाहर की ज़मीन से लगभग पाँच फीट ऊँची हो गई है। घर हर साल-दो साल पर मिट्टी भरकर ऊँचे किए जाते हैं। कुछ लोगों ने पुरानी जगह छोड़कर तटबन्ध पर घर बना लिया है। फिर भी करीब 40 घर नदी के भीतर हैं। वहाँ मिले रामजी सदा ने बताया कि इस बार बाढ़ के समय पहले से अधिक पानी था, इसलिये ऊँचाई के बावजूद घरों में पानी भरने की स्थिति बन गई थी।
परन्तु ऊपरी प्रवाह में तटबन्ध के टूट जाने से इसकी नौबत नहीं आई। तटबन्ध के भीतर की ज़मीन, बाहर की ज़मीन से ऊँची होने से तटबन्ध टूटने पर निकले पानी के प्रवाह का वेग बहुत अधिक था। इस बार सरकारी तौर पर बाढ़ से सुरक्षित बनाए गए क्षेत्र के लोग बाढ़ में फँसे। उन्हें घरों से निकाल कर वास्तविक सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने का काम हर साल बाढ़ से तबाह होने वाले तटबन्ध के भीतर रहने वाले लोगों ने किया।
इस दौरान सबसे सुरक्षित स्थान उस तालाब का महार था जिसे पूर्वजों ने कमला और उसकी उपधारा के बीच बनाया था। तटबन्ध टूटने पर वह उपधारा जीवित हो गई। दूसरा सुरक्षित स्थान वही तटबन्ध था जो वास्तव में इस तबाही का कारण भी था। परन्तु वहाँ तक पहुँचने के रास्ते से होकर बाढ़ के पानी से बनी धारा बह रही थी। इसलिये वहाँ तक पहुँचना कठिन था।
इस वर्ष बिहार में केवल दो जगह तटबन्ध टूटे हैं, दोनों कमला नदी के तटबन्ध हैं। यह आश्चर्यजनक घटना है क्योंकि इस वर्ष कम हुई थी और जब तटबन्ध टूटे तब कमला के ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में झंझारपुर के निकट औसत से कम पानी था। इसके अलावा तटबन्धों को हाल ही में ऊँचा और मजबूत बनाया गया था। फिर नदी में इतना पानी कहाँ से कि तटबन्ध टूट गए?
इस सवाल के साथ नदी वापसी अभियान के विजय कुमार ने कहा कि यह कमला नदी के ‘उल्टे प्रवाह’ का संकेत देता है। उल्टे प्रवाह को समझने के लिये नदी के प्राकृतिक प्रवाह मार्ग और उसके साथ हुई छेड़छाड़ को जानना जरूरी है। इसे चन्द्रवीर नारायण यादव बहुत बोधगम्य ढंग से बताते हैं।
सामुहिक निर्णय के बाद तटबन्ध पर करीब एक हजार लोग एकत्र हुए। तटबन्ध काटा जाने लगा। तभी एक हादसा हो गया। मिट्टी गिरने से नीचे कुदाल चला रहे दो ग्रामीण दब गए। इसे किसी ने नहीं देखा। लोग लौटने लगे। पर अपने दो साथियों को नहीं देखकर कुछ लोग लौटे तो इसका पता चला। लोगों ने मिट्टी हटाकर बेचन कामत और सत्यनारायण राउत को बाहर निकाला और मरने से बचाया। तटबन्ध टूट गया था, कमला के पानी से गाँव के चौर भरने लगे थे।कमला नदी जयनगर के पास भारत में प्रवेश करने के बाद कई छोटी धाराओं को समेटती और कई धाराओं में बँटती हुई कुशेश्वर स्थान के पास करेह और फिर कोसी में समाहित होती है। करेह दरअसल बागमती नदी का नया नाम है जो दरभंगा जिला में अधवारा समूह की नदियों के समाहित होने के बाद प्रचलित होता है।
अधवारा समूह में सोलह धाराएँ हैं जो दरभंगा जिले के विभिन्न स्थानों पर बागमती में मिलती हैं। इस प्रकार, कुशेश्वर स्थान कमला की अनेक धाराओं और कोसी से आई कुछ धाराओं के करेह में समाहित होने का क्षेत्र होने से परम्परागत रूप से जलजमाव से ग्रस्त रहा है। कुशेश्वर स्थान का जनजीवन जलजमाव का अभ्यस्त रहा है। पर कोसी और कमला तटबन्धों के निर्माण के दौर में जलजमाव की स्थिति, आवृत्ति और प्रकृति तेजी से बदलने लगी। तटबन्धों की लम्बाई बढ़ाए जाने से समस्या अधिक उलझती गई है।
उल्लेखनीय है कि कमला नदी पर तटबन्धों का निर्माण कई दौर में हुआ है। पहले जयनगर से झंझारपुर, फिर झंझारपुर से दर्जिया। दर्जिया से फुहिया तक तटबन्ध निर्माण का फैसला 1980 में कर्पूरी ठाकुर के जमाने में हुआ। दर्जिया सरकारी फाइलों में चर्चित नाम है। उस तटबन्ध को लेकर खूब बयानबाजी हुई थी। पहले बने तटबन्धों से सूपैन और सुगरवे नामक छोटी नदियों का कमला में विसर्जन रुक गया था। उनके प्रवाह मार्ग पर स्लुइस बने तो उन्हें कमला ने अपनी सिल्ट से भर दिया था।
दोनों नदियों का पानी तटबन्ध के किनारे-किनारे, जगह-जगह जमा होते और बहते हुए अररिया-संग्राम गाँव के पास गेहूँमा नामक नदी से मिलने लगी थी। पूरे इलाके का जलचक्र बदलने लगा था। गेहूँमा नदी भीठ भगवानपुर गाँव के उत्तर से प्रवाहित होती है और पूरब आकर ‘दलदली टोल’ के पास चौर से होकर कमला में मिल जाती थी। तटबन्धों के इस विस्तार में गेहूँमा-कमला के मिलन स्थल पर स्लुइस लगा दिया गया। वह स्लुइस जल्दी ही सिल्ट से भर गया। दोबारा कुछ हटकर स्लुइस बना, वह भी निकम्मा हो गया। भीठ भगवानपुर में भयंकर जलजमाव होने लगा था।
तटबन्ध दर्जिया से आगे पुनाछ गाँव तक बना, पुनाछ के चौरों की रोहू और दूसरी मछलियाँ पूरे मिथिलांचल में प्रसिद्ध थी। उन चौरों में कमला का पानी आना रुक जाने से मछलियों का अकाल हो गया। तटबन्धों से हुए नुकसानों का समाधान करने के बजाय सरकार ने एक बार फिर 2005 में पुनाछ से बलथरवा तक तटबन्ध बनाने का काम आरम्भ कर दिया। बलथरवा कुशेश्वरस्थान प्रखण्ड में इटहर गाँव का एक टोला है।
नदी के दूसरी तरफ कमला की उन दो धाराओं को पश्चिमी तटबन्ध ने अवरुद्ध कर दिया था, जिनसे होकर वह करेह में समाहित होती थी। उन दो उपधाराओं का पानी अब केवल एक पूर्वीधारा से प्रवाहित हो सकता है। कमला की नई तीन उपधाराओं में कुशेश्वरस्थान के सलहा के पास बागमती अर्थात करेह से संगम करने वाली धारा मुख्यधारा थी। उसे भी पूर्वी उपधारा की ओर मोड़ दिया गया है। अब कमला नदी कोसी की पश्चिमी धारा से मिलती है। इससे अलग किस्म की समस्या पैदा हुई है जो कहीं अधिक भयावह है।
चन्द्रवीर यादव बताते है कि पहले पश्चिमी तटबन्ध पहले मनसारा गाँव तक ही बना था, पिछले तीन वर्षों में उसे बढ़ाया गया है। इस प्रकार समूची कमला को प्रवाहित करने की कृत्रिम व्यवस्था हुई है और इससे कमला के संगम क्षेत्र में नई परिस्थिति उत्पन्न हो गई है।
कमला नदी और उसकी घाटी की गहराई से कोसी नदी का तल करीब 35 फीट ऊँचा है। उधर कुशेश्वर स्थान से दक्षिण का इलाका सिल्ट जम जाने से ऊँचा हो गया है। इस तरह, बरसात के समय अधिकाई पानी का विसर्जन नहीं कर पाने से कमला का पानी उल्टी दिशा में लौटने लगा है। अर्थात कुमरैल व लगमा जैसी घटनाएँ बढ़ने जा रही हैं।
भीठ भगवानपुर गाँव कमला तटबन्धों की वजह से हुई तबाही और उससे उठ खड़ा होने की जीवट का नमूना है। भीठ भगवानपुर के ग्रामीणों ने 1993 में तटबन्ध को काट दिया था। वह बहुत चर्चित और राजनीतिक-प्रशासनिक तौर पर बेहद संवेदनशील घटना थी। लोग जलजमाव से त्रस्त थे। लोगों ने तटबन्ध काटा ताकि बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी से उनके चौर भर जाएँ। 1987 में तटबन्ध टूटने से इस गाँव में बहुत तबाही हुई थी। गाँव के सारे तालाब भर गए थे। गाँव के चारों ओर पानी भर गया। उस टूटान को तो बाँध दिया गया, पर पानी को निकालने का उपाय नहीं हुआ।
सुगरवे और सुपैन नदियों का पानी आकर वहाँ जम जाता था। इस पानी को गेहूँमा नदी से निकलना होता था। दोनों नदियाँ पहले कमला नदी से मिलती थी। पर उनके मुहाने तटबन्ध में बन्द हो गए थे। स्लुइस गेट बने, पर जाम हो गए थे। दोनों नदियों का पानी पहले गेहूँमा नदी में जाने लगा जो पहले कोसी की तिलजुगा धार में मिलती थी। पर कोसी तटबन्ध बन जाने पर तिलजुगा से मिलने का वह मार्ग बन्द हो गया और गेहूँमा ने भीठ भगवानपुर के थोड़ा आगे कमला में मिल जाने का रास्ता बनाया। कमला तटबन्ध बन जाने पर गेहूँमा में सुगरवे और सुपैन नदियों का पानी भी आने लगा। इकलौती धारा से तीन धाराओं का पानी निकलना होता था।
भीठ भगवानपुर में भारी जल-जमाव होता था। सरकारी लोग सूनने, करने के लिये तैयार नहीं थे, प्रखण्ड मुख्यालय में गाँव के कुछ लोग अनशन पर बैठे। उनका नेतृत्व हरि झा कर रहे थे। कोई सुनवाई नहीं हो रही थी। ऐसी परिस्थिति में गाँवों वालों ने कमला से पानी की आवाजाही का मार्ग स्वयं खोलना तय किया। इतना तय था कि बाढ़ के पानी के साथ आई मिट्टी से चौर और स्थाई जल-जमाव वाले इलाकों में जम जाएगी और जल जमाव किंचित कम होगा।
सामुहिक निर्णय के बाद तटबन्ध पर करीब एक हजार लोग एकत्र हुए। तटबन्ध काटा जाने लगा। तभी एक हादसा हो गया। मिट्टी गिरने से नीचे कुदाल चला रहे दो ग्रामीण दब गए। इसे किसी ने नहीं देखा। लोग लौटने लगे। पर अपने दो साथियों को नहीं देखकर कुछ लोग लौटे तो इसका पता चला। लोगों ने मिट्टी हटाकर बेचन कामत और सत्यनारायण राउत को बाहर निकाला और मरने से बचाया। तटबन्ध टूट गया था, कमला के पानी से गाँव के चौर भरने लगे थे।
इस घटना से उत्साहित होकर समान समस्या से पीड़ित आसपास के कई गाँवों में तटबन्ध काटे गए। मुकदमे हुए, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान के आरोप में हुए मुकदमों में सुलह-सफाई हो गई और टूटान या कटान स्थलों पर तटबन्ध फिर से बना दिए गए। पर जिस समस्या की वजह से लोग सरकारी सम्पत्ति का नुकसान (सरकारी भाषा यही है) करने पर उतारू हुए, उस समस्या को समझने और समाधान करने का प्रयास नहीं हुआ। तटबन्ध काटने से चौर में कुछ मिट्टी जरूर भरी, पर पानी की निकासी का कोई मुकम्मल इन्तज़ाम नहीं हुआ। स्लुइश बने थे जो जल्दी ही नाकाम हो गए। गेहूँमा का पानी इधर-उधर भटकता रहा।
भीठ भगवानपुर ऐतिहासिक और जागरूक गाँव है। इसे दरभंगा राज घराने के एक वंशज से सम्बन्धित बताया जाता है। विभिन्न जातियों की करीब दस हजार आबादी वाला यह गाँव ऐतिहासिक अवशेषों के कारण भी चर्चित रहा है। बाढ़ और सुखाड़ का बेहतरीन प्रबन्धन करके इस गाँव ने सम्पन्नता हासिल की थी।
तालाबों की शृंखला बनी थी। ऐसी व्यवस्था थी कि जब बाढ़ आए तो एक-एककर तालाबों को भरता और फैलता आए ताकि उसकी रफ्तार घटती जाए और जनजीवन अधिक परेशान न हो। पर गाँव के पास कमला नदी पर तटबन्ध बनने के तत्काल बाद 1987 में टूट गए। एकाएक इतना पानी आया कि अधिकतर तालाब भर गए और चौर में काफी पानी भर गया।
धीरे-धीरे साफ हुआ कि गेहूँमा नदी के मुहाने पर मिट्टी जमने और सुगरवे-सुपौन का पानी आ जाने से यह समस्या है। तटबन्ध काटने से यह हुआ कि चौर में मिट्टी भरने से कुछ खेत निकले। खेती के तौर-तरीके बदलकर लोग उठ खड़े हुए हैं। पर खतरा बना हुआ है क्योंकि गेहूँमा का नदी का प्रवाह खुला नहीं है और कमला या कोसी का पश्चिमी तटबन्ध टूटा तो उस पानी के निकलने की कोई राह नहीं है। कोसी तटबन्ध गाँव से महज दो-तीन किलोमीटर दूर है।
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