एक ओर तो बढ़ते प्रदूषण तथा घटते जलाधि प्राकृतिक संसाधनों से वैश्विक बृद्धिजीवी चिन्तित हैं लेकिन दूसरी ओर सरकारी तंत्र की छत्र-छाया में ही सरेआम यह सब किया जा रहा है। इसके जिम्मेदारों को न तो किसी का भय है और न ही आने वाली पीढ़ियों की चिन्ता? कानून के रखवाले उनकी मुटठी में हैं तो कानूनी पेचीदगियां उनकी हम सफर! फिर कैसे होगा निर्मल वातावरण का सपना सच? यदि हम प्रतीकात्मक रूप से केवल मेरठ की बात करें तो यहां प्रदूषण अपने चरमोत्कर्ष पर है। अन्य अनेक कारणों के साथ-साथ इसका एक मुख्य कारण है कमेला अर्थात पशु वधशाला।
हापुड़ रोड़ पर सघन आबादी क्षेत्र में स्थित यह कमेला कुछ दिनों से शासन-प्रशासन, मानवाधिकार आयोग व न्यायपालिका आदि के लिए झमेला बन गया है तो आम आदमी नारकीय जीवन जीने को विवश है। उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। समाचारों की सुर्खियां बनने के पश्चात् भी यह काबिले गौर नहीं हुआ है, आंकड़े भले ही इसके द्वारा 6 से 7 किलोमीटर क्षेत्र को प्रदूषित मानते हों लेकिन वास्तिवक रूप में इसका भूमिगत प्रभाव तो और भी अधिक दूरी तक फैला हुआ है। भूगर्भ जल के विश्लेषण से इसकी पुष्टि हो चुकी है। कमेले के झमेले से अपरीचितों को हम बताते चलें कि यह कमेला नगर निगम की सम्पत्ति है और वह इसे ठेके पर चलवाता है। ठेके पर देने का तात्पर्य है कि ठेकेदार उसकी शर्तों को मानने के लिए बाध्य होता है और अनुबन्ध में वे शर्तें लिखी जाती हैं जोकि ठेकेदार चाहता है। क्योंकि वह बाहुबलि है और सत्ता पक्ष का विधायक भी है। कुछ शर्तों की भाषा ऐसी गोल-मोल अथवा द्विअर्थी भी होती है जिनका लाभ समयानुसार ठेकेदार को ही प्राप्त होता है। नगर निगम चाहते हुए भी उसके विरूद्ध कुछ नहीं कर सकने को विवश होता है। इस प्रकार नगर निगम मालिक होते हुए भी ठकेदार के चौकीदार से अधिक कुछ नहीं होता बल्कि किन्हीं अर्थों में उससे भी गया-गुजरा सिद्ध होता है। एक आईएएस कैडर का अधिकारी अंगूठा छाप ठेकेदार के सामने मिमियाने को विवष होता है। इस कमेले के सामने न्यायपालिका, मीडिया, जनप्रतिनिधि, कार्यपालिका, सरकार, प्रशासन एवं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण विभाग आदि तक सभी बौने सिद्ध हो चुके हैं। यह कई बार सिद्ध किया जा चुका है कि कमेले में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों का खुला उल्लंघन हो रहा है लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। बोर्ड द्वारा अनेक बार क्षेत्रीय जल स्रोतों (हैण्डपम्प) के पेयजल व वायु के परीक्षणों द्वारा उन्हें निर्धारित मानकों से अत्यधिक खतरनाक स्तर तक विषैला सिद्ध किया जा चुका है। कई बार तो हैण्डपम्पों से खून एवं मांस के लोथड़े निकलते हैं क्योंकि कमेले का रक्त कैमिकल एवं मांस मिश्रित पानी सीधे भूगर्भ में उतारा जाता है। क्या यह कानूनी और मानवीय दृष्टि से ठीक है? यह पानी पीना तो दूर हाथ धोने योग्य तक नहीं रह गया है लेकिन जनता पीने के लिए विवश है।
मेरठ की इस पशु वधशाला में कानूनन प्रतिदिन 300 पशुओं को ही उनके चिकित्सकीय परीक्षण के पश्चात् काटा जा सकता है लेकिन यहां प्रतिदिन बगैर किसी चिकित्सकीय परीक्षण के करीब 5000 पशुओं को काटा जाता है। जिसके कारण समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दूध का अभाव सा हो गया है। अभी 4 से 5 वर्ष पूर्व 10 रूपये लीटर बिकने वाला दूध 30 से 32 रूपये प्रति लीटर बिक रहा है। इसी कारण प्रदेश में सिंथेटिक दूध के विरूद्ध उठने वाली आवाजें भी बन्द हो गई हैं। अब तो ऐसा यन्त्र (होमोनाइजर) भी बन गया है जो दूध को मथकर उसकी मिलावट की पहचान ही समाप्त कर देता है अर्थात शाकाहारी बच्चों को दूध नहीं मिलेगा और व कुपोषण का शिकार होंगे। बालश्रम और जरूरी शिक्षा की बातें करने वाले तथा कथित भगवान क्या उन अबोध बच्चों के लिए लिए भी आवश्यक दूध उपलब्ध कराने की गारंटी लेंगे? लेकिन यह असम्भव है क्योंकि सरकार दूध पर कोई सब्सिडी नहीं देगी जबकि फ्रोजन मीट पैकिंग के निर्यात पर 20 प्रतिशत की सब्सिडी दी जा रही है। यह सब्सिडी ही अंधाधुंध कटान एवं जनता के भयंकर कष्टों का कारण है हर कोई मालदार होना चाहता है। इसके कारण ही अनेक निर्यात कम्पनियां खुल गई हैं। सरकार ने मीट को कृषि उत्पाद माना है परन्तु यह कृषि उत्पाद कैसे हो गया समझ से परे है? यदि पशु चारा खाने से कृशि उत्पाद है तो फिर अनाज व सब्जियां खाने के कारण किसान सहित सभी मनुष्य भी कृषि उत्पाद की श्रेणी में आ जायेंगे।
मेरठ कमेला क्षेत्र में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण विभाग के अनुसार हड्डियों से चर्बी निकालने के लिए 53 स्थानों पर 449 भट्टियां बनाई गई हैं जिनमें प्रतिदिन 449 टन लकडियां ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती हैं। इस प्रक्रिया में लगभग 900 किलोलीटर पानी व्यय होता है तथा करीब 450 किलोलीटर प्रदूषित उत्प्रवाह (कचरा-मैला) उत्पन्न होता है जो मेरठ शहर के ओडियन से होता हुआ काली नदी (पश्चिम) तक पहुंचकर उसको प्रदूषित करता है और यह काली नदी मेरठ से कन्नौज तक के क्षेत्र को प्रदूषित करती हुई अपने प्रदूषण को देश की राष्ट्रीय नदी गंगा में छोड़ देती है। इस प्रकार यह प्रदूषण समुद्र तक पहुंचता जाता है। है न विस्मय जनक विषय?
मेरठ का प्रदूषण कलकत्ता और उससे भी आगे समुद्र की अपरिमित सीमाओं तक फैला है। धार्मिक आस्था वाली जनता उसी गंगाजल को पीने नहाने व पूजा में प्रयुक्त करने के लिए विवश है। कैसी है यह धर्म निरपेक्षता? कमेले के कारण वन्य एवं जल सम्पदा तेजी से समाप्त हो रही है। इस कमेले की छत्र-छाया में ही हजारों बांग्लादेशी घुसपैठिये पल-बढ़ रहे हैं जिन्हें गुप्तचर संस्थाओं ने भी खतरनाक माना है। लेकिन वोटो की गणिका (वेश्या) राजनीति सत्ता की खातिर मूक एवं पंगु बनी बैठी है। कमेले के कारण ही मेरठ साम्प्रदायिकता के सुप्त ज्वालामुखी पर बैठा है जोकि कई बार फट चुका है और कभी भी फट सकता है। यह कमेला ही मेरठ की राजनैतिक दिशा एवं दशा तय करता है। सघन वृक्षाच्छादित क्षेत्र कमेले के कारण ही वृक्ष शून्य हो गया है। नगर निगम आयुक्त ठेकेदार और व्यापारी तो बाजार का बोतल बंद पानी पीकर मेरठ नगर में सुख सुविधा सम्पन्न कोठियों में रहते हैं लेकिन वहां रहने वाली जनता स्वच्छ हवा में सांस लेने तक के लिए तरसती रहती है ऐसा क्यों? क्या कमेले के सामने सब कुछ गौण हो गया है? ऐसा नहीं है कि कमेले का विरोध नहीं है, विरोध है और हर स्तर पर है लेकिन मीट माफियों और रिश्वत संस्कृति के सामने सब पंगु बने हैं।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण विभाग वर्ष 2005 में कमेले को बन्द करने का निर्देश दे चुका है। इसी विभाग ने 2006-07 में कमेले को अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं दिया जिसके कारण इसका संचालन अवैध एवं गैर-कानूनी हो गया है। दिसम्बर 2008 में नगर निगम की बैठक में नगरायुक्त को तत्काल कमेला बन्द करने के आदेश दिये। मानवाधिकार आयोग एवं न्यायपालिका स्तर पर भी कमेला बन्द करने के आदेश दिये जा चुके हैं लेकिन नगरायुक्त सबको धता बता चुके हैं। जनता द्वारा चुना गया मेयर घायल सांप की भांति मात्र फुंकार रहा है तो सभासद या तो पैसे के सामने विवश हैं अथवा गुटों में बटे हुए हैं। एक ओर तो पशु-पक्षियों के अधिकारों के नाम पर सपेरों, बहेलियों, बन्दर, भालू नचाने वालों के परम्परागत रोटी कमाने के अधिकार छीन लिये गये हैं वहीं दूसरी ओर एक ही कमेले में प्रतिदिन 5000 पशु काटे जा रहे हैं। कैसा है यह न्याय? क्या उन पशुओं के कोई अधिकार नहीं हैं? जो व्यक्ति दो रोटियों के लिए बन्दर आदि को अपने कमाऊ पूत की तरह पालता है कानून की नजरों में वह तो अपराधी है लेकिन निरीह पशु के मांस से रातों-रात करोड़पति बनने वाला व्यक्ति ठेकेदार है। पशुवध एवं भट्टी आदि के उपरोक्त आंकड़े सरकारी हैं वास्तिवक स्थिति कहीं अधिक भयंकर है और यदि अकेले मेरठ में ही 5000 पशुओं का वध प्रतिदिन भी मान लिया जाये तो देश के कितने कमेलों में कितने पशु रोजाना कटते होंगे तथा कितना नुक्सान पानी व वन सम्पदा का होता होगा? क्या इन सब की आपूर्ति हम कर पायेंगे, अगर हां तो कितने समय में और अगर ना तो क्या देश पशु, वृक्ष एवं जल विहीन हो जाएगा? ऐसे में शाकाहारियों के लिए मुसीबतें पैदा होंगी।
आज सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के द्वारा जैविक खाद की बातें की जा रही हैं। पशु समाप्त हो जाऐंगे तो कहां से आयेगा यह जैविक खाद? कहां से बनेगा वर्मी कम्पोस्ट? जब रासायनिक खादों से कृषि भूमि बंजर हो जायेगी तो कैसे पैदा हागा अन्न? और पशु पहले ही समाप्त हो चुके होंगे तो कहां से आयेगा मांस? अर्थात न मांस होगा न शाक, और हम कटोरा लेकर विदेशों के सामने भीख मांगने को विवश होंगे। तब वे कहेंगे खरीदों दूध 50 से 100 रूपये प्रति लीटर! आज मेरठ क्षेत्र के आस-पास के किसान हरियाणा, पंजाब, गुजरात व राजस्थान आदि राज्यों से 50 हजार से एक लाख रूपयों तक के पशु खरीद कर ला रहे हैं लेकिन क्या आने वाले समय में विदेशों से महंगे पशु आयात करने होंगे? इन जैसी सभी स्थितियों पर गहनता से विचार करते हुए हमारे पूर्वजों ने वृक्ष, पशु एवं जल जैसे आवश्यक तत्व धर्म से जोड़ दिये थे। जल से जीवन कहा, उसे नदी-कुओं-तालाबों के रूप में पूज्य बना दिया तो वट सावित्रि, आंवला एकादशी आदि के रूप में वृक्षों की पूजा करना सिखा दिया, उन्हें देवों का प्रतीक बना दिया। इसी प्रकार पशु वध रोकने के लिए उन्हें देवताओं की सवारी बना दिया। चूहे से लेकर मगरमच्छ, हाथी, शेर तक देवों की सवारियां हैं। कई जानवारों को तो भगवान का अवतार तक बताया गया है। यह पषु प्रेम, पशु आवश्यकता एवं उनका वध रोकने का प्रयास ही तो था। विश्व का सबसे बड़ा सहारा मरूस्थल कभी पशु एव वृक्षों के कारण ही सर्वाधिक शस्य श्यामल भूमि था लेकिन जैसे ही पशु समाप्त हुए तो वह वैसे ही मरूस्थल बन गया। सोमालिया (रावण के नाना सुमाली का देश) भी पशु विहीन हो चुका है। इसका तात्पर्य है कि भगवान ने प्राकृतिक सम्पदा पशुओं के लिए ही बनाई है यदि पशु नहीं रहेंगे तो वह भी नहीं रहेगी। सर्वाधिक आश्चर्य जनक तो यह है कि यह क्रूरता अथवा पशु वध ऋषि-मुनियों अथवा गांधी-गौतम और महावीर के देश में हो रहा है। जहां चींटी को मारना भी पाप समझा जाता है वहां दुधारू पशु काटे जा रहे हैं। क्यों? क्यों है इस क्रूरता को सरकार का मौन समर्थन और कानूनी संरक्षण? गत वर्ष कमेला क्षेत्र के कुत्तों ने राह चलते व स्कूल जाते बच्चों को नौंच-नौंच कर फाड़ अथवा मार डाला था तथा उनको अपना निवाला बना लिया था। ऐसा उन कुत्तों में ओडियन नाले व काली नदी से मांस के लोथड़े निकालकर खाने से हुआ। उनके अन्दर की बदली प्रवृति ने कई घरों के चिराग बुझा दिए। इसके पीछे भी कमेला ही कसूरवार है।
यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि कमेले का ठेका मेरठ के कुछ निश्चित परिवारों को ही बार-बार क्यों दिया जाता है? मीट निर्यात में अनेक प्रसिद्ध और अधिक पैसे वाली कम्पनियों के होते हुए भी उन्हें ठेका देने की क्या विवशता है? अन्त में यही सारांश निकल कर आता है कि मेरठ सहित देश में जहां भी अवैध कमेले संचालित हैं वहां का सामाजिक व पर्यावरणीय ताना बाना बिगड़ रहा है।
(शोध एवं लेखन)
रमन त्यागी व हरि शंकर वर्मा
निदेशक समन्वयक नीर फाउंडेशन
प्रथम तल, सम्राट शॉपिंग मॉल, गढ़ रोड़, मेरठ (उ0 प्र0)
0121-4030595, 09411676951
हापुड़ रोड़ पर सघन आबादी क्षेत्र में स्थित यह कमेला कुछ दिनों से शासन-प्रशासन, मानवाधिकार आयोग व न्यायपालिका आदि के लिए झमेला बन गया है तो आम आदमी नारकीय जीवन जीने को विवश है। उसकी कोई सुनने वाला नहीं है। समाचारों की सुर्खियां बनने के पश्चात् भी यह काबिले गौर नहीं हुआ है, आंकड़े भले ही इसके द्वारा 6 से 7 किलोमीटर क्षेत्र को प्रदूषित मानते हों लेकिन वास्तिवक रूप में इसका भूमिगत प्रभाव तो और भी अधिक दूरी तक फैला हुआ है। भूगर्भ जल के विश्लेषण से इसकी पुष्टि हो चुकी है। कमेले के झमेले से अपरीचितों को हम बताते चलें कि यह कमेला नगर निगम की सम्पत्ति है और वह इसे ठेके पर चलवाता है। ठेके पर देने का तात्पर्य है कि ठेकेदार उसकी शर्तों को मानने के लिए बाध्य होता है और अनुबन्ध में वे शर्तें लिखी जाती हैं जोकि ठेकेदार चाहता है। क्योंकि वह बाहुबलि है और सत्ता पक्ष का विधायक भी है। कुछ शर्तों की भाषा ऐसी गोल-मोल अथवा द्विअर्थी भी होती है जिनका लाभ समयानुसार ठेकेदार को ही प्राप्त होता है। नगर निगम चाहते हुए भी उसके विरूद्ध कुछ नहीं कर सकने को विवश होता है। इस प्रकार नगर निगम मालिक होते हुए भी ठकेदार के चौकीदार से अधिक कुछ नहीं होता बल्कि किन्हीं अर्थों में उससे भी गया-गुजरा सिद्ध होता है। एक आईएएस कैडर का अधिकारी अंगूठा छाप ठेकेदार के सामने मिमियाने को विवष होता है। इस कमेले के सामने न्यायपालिका, मीडिया, जनप्रतिनिधि, कार्यपालिका, सरकार, प्रशासन एवं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण विभाग आदि तक सभी बौने सिद्ध हो चुके हैं। यह कई बार सिद्ध किया जा चुका है कि कमेले में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों का खुला उल्लंघन हो रहा है लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। बोर्ड द्वारा अनेक बार क्षेत्रीय जल स्रोतों (हैण्डपम्प) के पेयजल व वायु के परीक्षणों द्वारा उन्हें निर्धारित मानकों से अत्यधिक खतरनाक स्तर तक विषैला सिद्ध किया जा चुका है। कई बार तो हैण्डपम्पों से खून एवं मांस के लोथड़े निकलते हैं क्योंकि कमेले का रक्त कैमिकल एवं मांस मिश्रित पानी सीधे भूगर्भ में उतारा जाता है। क्या यह कानूनी और मानवीय दृष्टि से ठीक है? यह पानी पीना तो दूर हाथ धोने योग्य तक नहीं रह गया है लेकिन जनता पीने के लिए विवश है।
मेरठ की इस पशु वधशाला में कानूनन प्रतिदिन 300 पशुओं को ही उनके चिकित्सकीय परीक्षण के पश्चात् काटा जा सकता है लेकिन यहां प्रतिदिन बगैर किसी चिकित्सकीय परीक्षण के करीब 5000 पशुओं को काटा जाता है। जिसके कारण समस्त पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दूध का अभाव सा हो गया है। अभी 4 से 5 वर्ष पूर्व 10 रूपये लीटर बिकने वाला दूध 30 से 32 रूपये प्रति लीटर बिक रहा है। इसी कारण प्रदेश में सिंथेटिक दूध के विरूद्ध उठने वाली आवाजें भी बन्द हो गई हैं। अब तो ऐसा यन्त्र (होमोनाइजर) भी बन गया है जो दूध को मथकर उसकी मिलावट की पहचान ही समाप्त कर देता है अर्थात शाकाहारी बच्चों को दूध नहीं मिलेगा और व कुपोषण का शिकार होंगे। बालश्रम और जरूरी शिक्षा की बातें करने वाले तथा कथित भगवान क्या उन अबोध बच्चों के लिए लिए भी आवश्यक दूध उपलब्ध कराने की गारंटी लेंगे? लेकिन यह असम्भव है क्योंकि सरकार दूध पर कोई सब्सिडी नहीं देगी जबकि फ्रोजन मीट पैकिंग के निर्यात पर 20 प्रतिशत की सब्सिडी दी जा रही है। यह सब्सिडी ही अंधाधुंध कटान एवं जनता के भयंकर कष्टों का कारण है हर कोई मालदार होना चाहता है। इसके कारण ही अनेक निर्यात कम्पनियां खुल गई हैं। सरकार ने मीट को कृषि उत्पाद माना है परन्तु यह कृषि उत्पाद कैसे हो गया समझ से परे है? यदि पशु चारा खाने से कृशि उत्पाद है तो फिर अनाज व सब्जियां खाने के कारण किसान सहित सभी मनुष्य भी कृषि उत्पाद की श्रेणी में आ जायेंगे।
मेरठ कमेला क्षेत्र में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण विभाग के अनुसार हड्डियों से चर्बी निकालने के लिए 53 स्थानों पर 449 भट्टियां बनाई गई हैं जिनमें प्रतिदिन 449 टन लकडियां ईंधन के रूप में प्रयुक्त होती हैं। इस प्रक्रिया में लगभग 900 किलोलीटर पानी व्यय होता है तथा करीब 450 किलोलीटर प्रदूषित उत्प्रवाह (कचरा-मैला) उत्पन्न होता है जो मेरठ शहर के ओडियन से होता हुआ काली नदी (पश्चिम) तक पहुंचकर उसको प्रदूषित करता है और यह काली नदी मेरठ से कन्नौज तक के क्षेत्र को प्रदूषित करती हुई अपने प्रदूषण को देश की राष्ट्रीय नदी गंगा में छोड़ देती है। इस प्रकार यह प्रदूषण समुद्र तक पहुंचता जाता है। है न विस्मय जनक विषय?
मेरठ का प्रदूषण कलकत्ता और उससे भी आगे समुद्र की अपरिमित सीमाओं तक फैला है। धार्मिक आस्था वाली जनता उसी गंगाजल को पीने नहाने व पूजा में प्रयुक्त करने के लिए विवश है। कैसी है यह धर्म निरपेक्षता? कमेले के कारण वन्य एवं जल सम्पदा तेजी से समाप्त हो रही है। इस कमेले की छत्र-छाया में ही हजारों बांग्लादेशी घुसपैठिये पल-बढ़ रहे हैं जिन्हें गुप्तचर संस्थाओं ने भी खतरनाक माना है। लेकिन वोटो की गणिका (वेश्या) राजनीति सत्ता की खातिर मूक एवं पंगु बनी बैठी है। कमेले के कारण ही मेरठ साम्प्रदायिकता के सुप्त ज्वालामुखी पर बैठा है जोकि कई बार फट चुका है और कभी भी फट सकता है। यह कमेला ही मेरठ की राजनैतिक दिशा एवं दशा तय करता है। सघन वृक्षाच्छादित क्षेत्र कमेले के कारण ही वृक्ष शून्य हो गया है। नगर निगम आयुक्त ठेकेदार और व्यापारी तो बाजार का बोतल बंद पानी पीकर मेरठ नगर में सुख सुविधा सम्पन्न कोठियों में रहते हैं लेकिन वहां रहने वाली जनता स्वच्छ हवा में सांस लेने तक के लिए तरसती रहती है ऐसा क्यों? क्या कमेले के सामने सब कुछ गौण हो गया है? ऐसा नहीं है कि कमेले का विरोध नहीं है, विरोध है और हर स्तर पर है लेकिन मीट माफियों और रिश्वत संस्कृति के सामने सब पंगु बने हैं।
उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण विभाग वर्ष 2005 में कमेले को बन्द करने का निर्देश दे चुका है। इसी विभाग ने 2006-07 में कमेले को अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं दिया जिसके कारण इसका संचालन अवैध एवं गैर-कानूनी हो गया है। दिसम्बर 2008 में नगर निगम की बैठक में नगरायुक्त को तत्काल कमेला बन्द करने के आदेश दिये। मानवाधिकार आयोग एवं न्यायपालिका स्तर पर भी कमेला बन्द करने के आदेश दिये जा चुके हैं लेकिन नगरायुक्त सबको धता बता चुके हैं। जनता द्वारा चुना गया मेयर घायल सांप की भांति मात्र फुंकार रहा है तो सभासद या तो पैसे के सामने विवश हैं अथवा गुटों में बटे हुए हैं। एक ओर तो पशु-पक्षियों के अधिकारों के नाम पर सपेरों, बहेलियों, बन्दर, भालू नचाने वालों के परम्परागत रोटी कमाने के अधिकार छीन लिये गये हैं वहीं दूसरी ओर एक ही कमेले में प्रतिदिन 5000 पशु काटे जा रहे हैं। कैसा है यह न्याय? क्या उन पशुओं के कोई अधिकार नहीं हैं? जो व्यक्ति दो रोटियों के लिए बन्दर आदि को अपने कमाऊ पूत की तरह पालता है कानून की नजरों में वह तो अपराधी है लेकिन निरीह पशु के मांस से रातों-रात करोड़पति बनने वाला व्यक्ति ठेकेदार है। पशुवध एवं भट्टी आदि के उपरोक्त आंकड़े सरकारी हैं वास्तिवक स्थिति कहीं अधिक भयंकर है और यदि अकेले मेरठ में ही 5000 पशुओं का वध प्रतिदिन भी मान लिया जाये तो देश के कितने कमेलों में कितने पशु रोजाना कटते होंगे तथा कितना नुक्सान पानी व वन सम्पदा का होता होगा? क्या इन सब की आपूर्ति हम कर पायेंगे, अगर हां तो कितने समय में और अगर ना तो क्या देश पशु, वृक्ष एवं जल विहीन हो जाएगा? ऐसे में शाकाहारियों के लिए मुसीबतें पैदा होंगी।
आज सरकारी और गैरसरकारी संस्थाओं के द्वारा जैविक खाद की बातें की जा रही हैं। पशु समाप्त हो जाऐंगे तो कहां से आयेगा यह जैविक खाद? कहां से बनेगा वर्मी कम्पोस्ट? जब रासायनिक खादों से कृषि भूमि बंजर हो जायेगी तो कैसे पैदा हागा अन्न? और पशु पहले ही समाप्त हो चुके होंगे तो कहां से आयेगा मांस? अर्थात न मांस होगा न शाक, और हम कटोरा लेकर विदेशों के सामने भीख मांगने को विवश होंगे। तब वे कहेंगे खरीदों दूध 50 से 100 रूपये प्रति लीटर! आज मेरठ क्षेत्र के आस-पास के किसान हरियाणा, पंजाब, गुजरात व राजस्थान आदि राज्यों से 50 हजार से एक लाख रूपयों तक के पशु खरीद कर ला रहे हैं लेकिन क्या आने वाले समय में विदेशों से महंगे पशु आयात करने होंगे? इन जैसी सभी स्थितियों पर गहनता से विचार करते हुए हमारे पूर्वजों ने वृक्ष, पशु एवं जल जैसे आवश्यक तत्व धर्म से जोड़ दिये थे। जल से जीवन कहा, उसे नदी-कुओं-तालाबों के रूप में पूज्य बना दिया तो वट सावित्रि, आंवला एकादशी आदि के रूप में वृक्षों की पूजा करना सिखा दिया, उन्हें देवों का प्रतीक बना दिया। इसी प्रकार पशु वध रोकने के लिए उन्हें देवताओं की सवारी बना दिया। चूहे से लेकर मगरमच्छ, हाथी, शेर तक देवों की सवारियां हैं। कई जानवारों को तो भगवान का अवतार तक बताया गया है। यह पषु प्रेम, पशु आवश्यकता एवं उनका वध रोकने का प्रयास ही तो था। विश्व का सबसे बड़ा सहारा मरूस्थल कभी पशु एव वृक्षों के कारण ही सर्वाधिक शस्य श्यामल भूमि था लेकिन जैसे ही पशु समाप्त हुए तो वह वैसे ही मरूस्थल बन गया। सोमालिया (रावण के नाना सुमाली का देश) भी पशु विहीन हो चुका है। इसका तात्पर्य है कि भगवान ने प्राकृतिक सम्पदा पशुओं के लिए ही बनाई है यदि पशु नहीं रहेंगे तो वह भी नहीं रहेगी। सर्वाधिक आश्चर्य जनक तो यह है कि यह क्रूरता अथवा पशु वध ऋषि-मुनियों अथवा गांधी-गौतम और महावीर के देश में हो रहा है। जहां चींटी को मारना भी पाप समझा जाता है वहां दुधारू पशु काटे जा रहे हैं। क्यों? क्यों है इस क्रूरता को सरकार का मौन समर्थन और कानूनी संरक्षण? गत वर्ष कमेला क्षेत्र के कुत्तों ने राह चलते व स्कूल जाते बच्चों को नौंच-नौंच कर फाड़ अथवा मार डाला था तथा उनको अपना निवाला बना लिया था। ऐसा उन कुत्तों में ओडियन नाले व काली नदी से मांस के लोथड़े निकालकर खाने से हुआ। उनके अन्दर की बदली प्रवृति ने कई घरों के चिराग बुझा दिए। इसके पीछे भी कमेला ही कसूरवार है।
यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि कमेले का ठेका मेरठ के कुछ निश्चित परिवारों को ही बार-बार क्यों दिया जाता है? मीट निर्यात में अनेक प्रसिद्ध और अधिक पैसे वाली कम्पनियों के होते हुए भी उन्हें ठेका देने की क्या विवशता है? अन्त में यही सारांश निकल कर आता है कि मेरठ सहित देश में जहां भी अवैध कमेले संचालित हैं वहां का सामाजिक व पर्यावरणीय ताना बाना बिगड़ रहा है।
(शोध एवं लेखन)
रमन त्यागी व हरि शंकर वर्मा
निदेशक समन्वयक नीर फाउंडेशन
प्रथम तल, सम्राट शॉपिंग मॉल, गढ़ रोड़, मेरठ (उ0 प्र0)
0121-4030595, 09411676951
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