इस सदी में मॉनसून के छठी बार धोखा दिया है। 14 साल में छह बार राज्य में सूखे की मार बहुत बड़ी बात है। हर बार किसानों को फसलों का भारी नुकसान हुआ है। इस नुकसान की भरपाई और वैकल्पिक व्यवस्था में सरकार के खजाने पर बोझ पड़ा। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कृषि क्षेत्र में कारोबार करने और भारी मुनाफा कमाने वाली कंपनियां कहां हैं, क्या कर रही हैं? बड़ी कृषि कंपनियां भी इस स्थिति में किसान और सरकार के साथ कहां तक खड़ी हैं? इस सवाल का जवाब बेहद निराश करने वाला है।
सरकार जिस किसी भी कारण से हो, कंपनियों से उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन नहीं करा पा रही है, तो ग्राम सभाओं, पंचायत सरकारों किसान संगठनों और सामाजिक संस्थाओं को आगे आना होगा। अब किसानों के बीच केवल खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि उपकरण बेचने की बात नहीं रह गई है। किसानों की जमीन और उपज पर भी वे व्यावसायिक कब्जा कर रहे हैं। यह कड़वा सच है कि कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व यानी सीएसआर के दायरे में आने वाली कृषि कंपनियों के पास बिहार के लिए कोई ठोस योजना नहीं है, जबकि यही कंपनियां दक्षिण के राज्यों में सीएसआर के तहत ठोस गतिविधियां चला रही हैं।
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी वे सामाजिक दायित्व का पालन करने में पीछे नहीं हैं। ओड़िशा में हाल के वर्षों में कॉरपोरेट जगत को बड़े विरोध और जनांदोलन को झेलने पड़े हैं। लिहाजा वहां भी वे समुदाय को स्थायी लाभ दिलाने वाली गतिविधियां चला रहे हैं, लेकिन बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के लिए उनकी झोली में कुछ नहीं है। न तो कोई कार्यक्रम है, न बजट।
खानापूर्ति के लिए किसान गोष्ठी, फुटबॉल मैच और इस तरह के छोटे-मोटे कार्यक्रम वे करते हैं, जबकि यहां के किसानों से उन्हें हर साल करोड़ों रुपए का मुनाफा होता है। सीएसआर के मुद्दे पर ज्यादातर कृषि कंपनियां कुछ बोलने-बताने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके लिए यह सवाल ही अप्रत्याशित है। जो कंपनियां पारदर्शिता में यकीन दिखाना चाहती हैं, उनके पास बताने के लिए कुछ ठोस बात नहीं है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।
यह किसान और सरकार दोनों के हित में है कि कृषि कंपनियां सीएसआर को लेकर गंभीर हों और ठोस नतीजे दें। अगर पिछले डेढ़-दो दशक के आंकड़ों, सरकार की नीतियों और कॉरपोरेट कंपनियों के विस्तार को देखें, तो बहुत साफ है कि आर्थिक उदारीकरण और नई आर्थिक नीति में किसानों का भविष्य बहुत सुनहरा नहीं है।
दरअसल किसान और खेती पर कॉरपोरेट जगत का केवल इतना ही जोर नहीं है कि वे उनके बीच मुनाफा कमाने वाले कारोबार करते हैं, बल्कि नई कृषि नीति और नई आर्थिक नीति के तहत वे उनकी जमीन और खेतों पर भी कब्जा कर रहे हैं। ऐसे में अगर कंपनियां प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में किसानों का साथ कैसे छोड़ सकती हैं? अभी हो यह रहा है कि जिन राज्यों में सरकारें कंपनियों की सीएसआर की गतिविधियों को लेकर सजग हैं और जिन्होंने अपने राज्य के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मानव संसाधन के विकास में इनकी भागीदारी का लाभ लेने का फैसला किया है, वहां ऐसी कंपनियां थोड़े-बहुत अपवाद के साथ कुछ ठोस काम कर रही हैं।
बिहार और झारखंड में इस दिशा में न तो सरकार सजग है, न समुदाय। ऐसे में किसानों को सुखाड़, बाढ़ और अतिवृष्टि जैसी परिस्थितियों में अकेला छोड़ दिया जा रहा है। कॉरपोरेट मामलों के जानकार देविंदर शर्मा बड़े सपाट शब्दों में कहते हैं : ‘अभी हाल यह है कि कृषि कंपनियां प्राकृतिक आपदा आने पर खुश होती हैं। यह उनके लिए किसानों और सरकार को लूटने का अवसर होता है। बिहार सरकार की लापरवाही के कारण कृषि कंपनियां कभी ऐसी स्थिति में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाती हैं।’ जाहिर है कि इस स्थिति को और अधिक दिनों तक नहीं टाला जा सकता है।
अगर सरकार जिस किसी भी कारण से हो, कंपनियों से उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन नहीं करा पा रही है, तो ग्राम सभाओं, पंचायत सरकारों किसान संगठनों और सामाजिक संस्थाओं को आगे आना होगा। अब किसानों के बीच केवल खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि उपकरण बेचने की बात नहीं रह गई है। किसानों की जमीन और उपज पर भी वे व्यावसायिक कब्जा कर रहे हैं। ऐसे में सीएसआर को लेकर राज्य सरकार को अपनी नीति स्पष्ट करनी होगी, नहीं तो आने वाले दिन किसानों के लिए और भी खराब होंगे।
कृषि और इससे जुड़ी दूसरी कंपनियां केवल मुनाफा कमाती रहेंगी और संकट के वक्त किसानों के नुकसान की भरपाई के लिए सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ता रहेगा।
कॉरपोरेट घरानों के सामाजिक उत्तरदायित्व पर चर्चा करें, तो एक पक्ष कांट्रेक्ट खेती भी है। कृषि उत्पादों और कृषि आधारित उत्पादों के कारोबार से जुड़ी कंपनियां अब सीधा गांवों में घुस रही हैं। उन्होंने इसके लिए कांट्रेक्ट खेती को जरिया बनाया है। दरअसल भारत सरकार ने कृषि विकास के लिए सन 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की।
इस नीति में कांट्रेक्ट खेती का भी प्रावधान किया गया है। यह खेती के क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाने की नीतिगत पहल है। इसमें कंपनियां किसानों से सीधा कांट्रैक्ट करती हैं और अपनी जरूरत के मुताबिक खास फसलों की खेती कराती है। इसमें फसल की कीमत पहले तय कर ली जाती है और किसान को फसल तैयार होने पर उस कंपनी को बेचना होता है।
कंपनियां किसानों को खाद, बीज, सिंचाई, कीटनाशक और तकनीकी प्रशिक्षण उपलब्ध कराती है। कांट्रैक्ट खेती का एक दूसरा रूप भी है। इसमें किसान को हर साल खेती से होने वाले लाभ के आधार पर एक मुश्त राशि कंपनी दे देती है और एक निश्चित समय के लिए उसकी जमीन पर खुद खेती कराती है। ये दोनों ही तरीके गांवों और खेती में कॉरपोरेट के शामिल होने के मजबूत रास्ते बन गए हैं।
ऐसी कंपनियां अभी आम तौर पर उसी किसान को एक करार के तहत लाभ पहुंचा रहे हैं, जिसकी जमीन पर वे खेती कर रहे हैं या करा रहे हैं, जबकि उन्हें सीएसआर के तहत उस क्षेत्र के समुदाय की भलाई के लिए भी धन खर्च करना है।
पेप्सी कंपनी इस दिशा में पहले से आगे हैं। पेप्सी फूड्स लिमिटेड कंपनी से जुड़ी पेप्सी कोला नामक कंपनी ने 1989 में पंजाब के होशियारपुर जिले के जाहरा गांव में 20 करोड़ रुपए की लागत से टमाटर का प्रसंस्करण करने का संयंत्र लगाया।
कहते हैं कि पंजाब में इसके बाद से ही कांट्रेक्ट खेती शुरू हुई। कंपनी ने इससे उत्साहित होकर पंजाब के जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर और संगरूर जिलों तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में बासमती चावल, आलू और मूंगफली की खेती भी शुरू की। अपाची कॉटन कंपनी ने वर्ष 2002 में तमिलनाडु के कोयंबटूर जिले के कि नाथकडाऊ विकास खंड में कृषकों को कपास बोने के लिए सहमत किया। उत्तरी कर्नाटक में कृषक गन्ने की फसल पर केंद्रित थे।
गन्ने की बार-बार सिंचाई होने के कारण भूमि क्षारीय हो रही थी। इसका लाभ उठा कर न्यूगार शुगर वर्क्स लिमिटेड ने कृषकों को जौ की खेती के लिए प्रोत्साहित किया। उसे अपनी कंपनी के लिए जौ की आवश्यकता थी। इससे कंपनी को आस-पास जौ मिलने लगा तथा उत्तर भारत से जौ मंगाने पर लगने वाली अधिक यातायात लागत बच गई। उसी तरह मध्य प्रदेश में हिंदुस्तान लीवर, रल्लीज और आईसीआईसीआई द्वारा सम्मिलित रूप से गेहूं की खेती कराई जा रही है। इस व्यवस्था में रल्लीज कृषि और प्राविधिक सलाह और आईसीआईसीआई कृषि कर्ज उपलब्ध करता है।
हिंदुस्तान लीवर उनकी उपज खरीदती है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात में कई स्थानों पर संविदा कृषि होने लगी है। दक्षिण भारत में कई स्थानों पर मसाले के उत्पादन के लिए कांट्रेक्ट खेती की जा रही है। रिलायंस कंपनी कांट्रेक्ट फार्मिंग के आधार पर अनाज, फल, मसाले, सब्जी आदि की खेती के लिए हरियाणा में आगे है।
पश्चिम बंगाल और असम की बात करें, तो वहां चाय की कांट्रेक्ट खेती हो रही है।
यदि किसानों को कृषि से संबंधित कोई समस्याएं आती है तो कंपनी के अधिकारी व कर्मचारी सहयोग करते हैं। जो महिला किसान उन्हें खेती के अलावा व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर फसल के सीजन में जिले के 30-32 गांव में किसान गोष्ठी व प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से गांव में खेलों को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर फूटबॉल टुनामेंट का आयोजन करती है। जिसमें गांव के युवा वर्ग भाग लेते हैं। और इस टूर्नामेंट में जीतने वाले टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है।बिहार में कोसी अंचल के बड़े लीची बगानों को एक शराब कंपनी ने कांट्रेक्ट खेती के तहत खरीदा। जहानाबाद जिले के धरनई गांव के अशोक कुमार बड़े जोतदार हैं। कुछ कंपनियां उनके खेतों को कांट्रेक्ट के आधार पर लेना चाहती हैं। इसके अपने फायदे हैं। किसानों को निश्चित समय में निश्चित कीमत मिल जाती है। उन्हें कर्ज नहीं लेना होता है तथा उन्नत बीज, खाद, सिंचाई की सुविधा, कीटनाशक, कृषि वैज्ञानिकों की सलाह और प्रशिक्षण भी मिल जाता है। इसलिए यह लोकप्रिय हो रही है। हालांकि इसमें नुकसान की आशंका है। यह स्थानीय जरूरतों की पूर्ति में बाधा पैदा करेगी।
यह एक प्रकार से बंधुआ खेती है। इसे अंग्रेज जमाने की नील की खेती के तर्ज पर देखा जा रहा है, लेकिन फिलहाल यह किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है।
जोनल मैनेजर शत्रुघ्न कश्यप का कहना है कि बिहार में सामाजिक स्तर कार्य के लिए किसी तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं किया। इस तरह का बजट कंपनी ने सिर्फ दक्षिणी राज्यों के लिए बनाई है। वैसे कंपनी की ओर से बिहार में कृषि पर आधारित कार्यक्रम समय-समय पर कराती रहती है। जैसे - गांव के किसानों को गोष्ठी के तहत फसल संबंधित जानकारी तथा मिट्टी की जांच करना। अब तक कंपनी की ओर से जिले के 130 गांवों में किसान गोष्ठी कर किसानों को कृषि संबंधी जानकार दी गई है। साथ ही जिले के कई गांवों का 7800 मिट्टी का सैंपल लेकर जांच करायी गई है।
मार्केटिंग डेवलपमेंट मैनेजर पुष्पपेंद्र कुमार मिश्रा का कहना है कि कृषि पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कंपनी साल में लगभग दस लाख रुपए खर्च करती है। इस बजट के तहत जिले के कई गांवों में किसान मीटिंग का आयोजन किया जाता है। इस मीटिंग में किसानों को फसल की पैदावार व बचाव अच्छी हो इसके लिए जानकारी दी जाती है। साथ ही फसलों के बुआई से पहले मिट्टी की जांच की जाती है।
खरीफ फसल में कंपनी की ओर 450 गांवों में किसान गोेष्ठी कर जागरूकता अभियान चलाई गई। जबकि मिट्टी से संबंधित जांच का कार्यक्रम सिर्फ चार प्रखंड में शुरू किया गया है। इसका फायदा यह हुआ कि वहां के किसान मिट्टी जांच कर ही खेती कर लाभ उठा रहे हैं।
रीजनल बिजनेस मैनेजर उत्तम सिंह बताते है कि कंपनी साल में गांवों में लगभग 30 लाख रुपए किसानों व सामाजिक स्तर कार्यक्रमों पर खर्च करती है। गांवों के किसानों को फसल के हर सीजन में खेती को लेकर प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें मिट्टी जांच से लेकर फसलों की बुआई तक के विधि के बारे में जानकारी दी जाती है। जिले व गांवों के किसान इस प्रशिक्षण का लाभ लेकर खेती भी कर रहे हैं।
यदि किसानों को कृषि से संबंधित कोई समस्याएं आती है तो कंपनी के अधिकारी व कर्मचारी सहयोग करते हैं। जो महिला किसान उन्हें खेती के अलावा व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर फसल के सीजन में जिले के 30-32 गांव में किसान गोष्ठी व प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से गांव में खेलों को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर फूटबॉल टुनामेंट का आयोजन करती है। जिसमें गांव के युवा वर्ग भाग लेते हैं। और इस टूर्नामेंट में जीतने वाले टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है।
रीजनल मैनेजर एसपी सिंह कहते हैं कंपनी की ओर बांका जिले के कई गांवों में नवरत्ना कृषि विकास परियोजना के अंतर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। सभी तबके लोगों के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। ताकि गांव के लोग आत्मनिर्भर हो सके।
इस कार्यक्रम के तहत खासकर महिलाओं को सिलाई के अलावा कई घरेलू उद्योग संबंधित कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से कई गांवों में किसानों की गोष्ठी आयोजित की जाती है जिसमें किसानों को फसल की पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ कीटों से फसल की क्षति को कम करने के बारे में जानकारी दी जाती है। मिट्टी की जांच कराकर खेती की सलाह दी जाती है। इसके लिए कंपनी की ओर से समय-समय पर कैंप भी लगाया जाता है। इसका फायदा हुआ कि बहुत से जागरूक किसान आज मिट्टी की जांच करा कर खेती कर दोगुना लाभ कमा रहे हैं।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से संबंधित जानकारियां दी जाती है। उहोंने कहा कि गांव की जरूरतों देखते हुए सामाजिक स्तरों के कार्यक्रमों पर राशि खर्च करती रहती है। अभी हाल में बांका के जिले के वन गांव में कन्या के बीच फलदार दो सौ फलदार वृक्ष मुफ्त बांटे गए हैं। पर्यावरण की समस्या को लेकर इस तरह का कदम उठाया गया है। इसका मुख्य उन्होंने कहा कि कंपनी जिले में कृषि प्रशिक्षण केंद्र खोलने की योजना बना रही है।
राज्य सरकार की ओर जगह देने की बात चल रही है। आशा करते हैं कि जल्दी जगह उपलब्ध करा दी जाएगी। जिससे किसानों को इसका लाभ मिलेगा। उनका कहना है कि जिले के बहुत से किसान ऐसे हैं जो बिना मिट्टी की जांच कराए ही खेती कर रहे हैं। नतीजा फसल की अधिक पैदावार अच्छी होने के कारण होने कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है।
जोनल मैनेजर डॉ. अजीत कुमार राय का कहना है कि कंपनी की ओर से गांवों में सामाजिक कार्य के लिए किसी तरह-तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं करती है। हां कृषि पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कंपनी से स्वीकृति ली जाती है। तभी कार्यक्रामों का आयोजन होता है। जिले के कई गांवों में कंपनी की ओर से किसान गोष्ठी का आयोजन कराया जाता है।
इस गोष्ठी में किसानों को बेहतर ढंग से खेती करने की सलाह हर फसलों के सीजन में दी जाती है। इसके अलावा किसान को फसलों से संबंधित कोई समस्या आती है कंपनी की ओर से मुफ्त सलाह अधिकारियों की ओर से दी जाती है। कहना है कि रीजनल आॅफिस को कंपनी की ओर से गांव के सामाजिक कार्य के लिए किसी तरह का कोई फंड निर्धारित नहीं करती है।
रीजनल मैनेजर आमीर खान का कहना है कि गांव में सामाजिक कार्यक्रमों के लिए कंपनी की ओर से किसी तरह का कोई बजट नहीं है। जिले में फसल के सीजन के समय सिर्फ किसान गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। किसानों की खेती से संबंधित समस्या का समाधान व उचित सलाह दिया जाता है। यदि किसान से संबंधित कोई कार्यक्रम, मेला व शिविर के लिए बजट बनाने के बाद कंपनी से स्वीकृति ली जाती है।
पिछले 25 वर्षों से कृषि बाजार का अध्ययन कर रही सिल्विया रिबैरो का कहना है कि हाइब्रिड बीजों के विश्व बाजार में मोंसेंटो की हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि यह कितनी बड़ी कंपनी और इसका मुनाफा कितना बड़ा है। उस हिसाब से इसके सीएसआर कार्यक्रम भी हैं, लेकिन बिहार जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले राज्य के लिए इस कंपनी से ज्यादा लाभ लेने की पहल हो सकती है।आर्थिक उदारीकरण के बाद से देश की कृषि और कृषि भूमि पर कॉरपोरेट घरानों का व्यावसायिक दबाव बढ़ा है। इसे सरकार की नीतियों ने भी प्रोत्साहित किया है। कांट्रेक्ट खेती को कृषि नीति में जगह देने के अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना को लागू करने से कॉरपोरेट जगत को खेती की जमीन पर अपना कारोबार खड़ा करने का अवसर मिला है। इसे लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर विरोध भी हो रहे हैं, लेकिन इस पर काम तो हो ही रहा है।
जाहिर है कि ऐसे में कृषि को प्रभावित करने वाली प्राकृतिक घटनाओं के वक्त ऐसी कंपनियों को भाग खड़ा होने की बजाय किसानों के साथ खड़ा होगा। सीएसआर के तहत उन्हें ऐसी गतिविधियों को योजनाबद्ध तरीके से लागू करना होगा, जो किसानों को स्थाई और ठोस आर्थिक मदद पहुंचाए, ताकि इस नुकसान की भरपाई में कंपनियों की भी भागीदारी हो।
कंपनी, बिहार को कुछ भी नहीं मोनसेंटो दुनिया की एक बड़ी कृषि कंपनी है। यह कीटनाशक और बीज तैयार करती है। इसका दावा है कि यह प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने में बड़ी भूमिका निभा रही है।
उत्पादन बढ़ाने में इसके बड़े योगदान हैं। मक्का, कपास, तेलहन, फल और सब्जियों की खेती में इसके ब्रांडेड बीज इस्तेमाल होते हैं। ये पेशेवर कंपनी है और दुनिया के कई देशों की दूसरी कंपनियों को बीज कारोबार में अपना साझेदारी बनाती है। इसके अपने सीएसआर कार्यक्रम हैं। यह टिकाऊ खेती और छोटे व कम आय वाले किसानों की भलाई के विशेष कार्यक्रम चलाती है।
मोंसेंटो 112 साल पुरानी कंपनी है। इसका मुख्यालय अमेरिका में है। इसका कारोबार करीब 7.3 अरब अमेरिकी डॉलर का है। दुनिया भर के बीज बाजारों में इसकी हिस्सेदारी 27 प्रतिशत के करीब है।
पिछले 25 वर्षों से कृषि बाजार का अध्ययन कर रही सिल्विया रिबैरो का कहना है कि हाइब्रिड बीजों के विश्व बाजार में मोंसेंटो की हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि यह कितनी बड़ी कंपनी और इसका मुनाफा कितना बड़ा है। उस हिसाब से इसके सीएसआर कार्यक्रम भी हैं, लेकिन बिहार जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले राज्य के लिए इस कंपनी से ज्यादा लाभ लेने की पहल हो सकती है। हालांकि हाइब्रिड बीज, रासायनिक कीटनाशक और परंपरागत बीजों के पेटेंट को लेकर दुनिया भर में इस कंपनी का जबरदस्त विरोध भी हो रहा है। 36 देशों के 300 शहरों में इसके विरोध हुए हैं।
यह खाद बनाने वाली कंपनी है, जो 1974 में स्थापित हुई और 1979 में इसने उत्पादन शुरू किया। इस कंपनी के भी सीएसआर कार्यक्रम हैं। इस पर कंपनी का खर्च करोड़ में है।
इसने 2010-11 में 3.0 करोड़, 2011-12 में 3.25 करोड़ तथा 2012-13 में इसे 4.35 करोड़ रुपए का सीएसआर कार्यक्रम बनाया, लेकिन इसके सभी कार्यक्रम पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओड़िशा के लिए हैं। इन राज्यों में इसके सीएसआर यूनिट हैं।
इन राज्यों में इसने बुनियादी सुविधा विकसित करने, पीने के पानी की व्यवस्था, सड़कों का निर्माण, शौचालय निर्माण, पानी के टैंक, नलकूप, ओवर हैड टैंक, आंगनवाड़ी, किसानों को कम लागत से खेती का प्रशिक्षण, बाल शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, वृक्षारोपण, सौर लाइट की व्यवस्था, बाल एवं महिला स्वास्थ्य शिविर, पशु स्वास्थ्य शिविर, जल प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण जैसी गतिविधियां बड़े पैमाने पर चलायी जा रही हैं, लेकिन बिहार और झारखंड के लिए इसके पास कोई कार्यक्रम नहीं है, जबकि इसका कारोबार यहां भी है।
भारती को-आॅपरेटिव लिमिटेड दुनिया की प्रमुख उर्वरक उत्पादक सहकारी संस्था है। इसे संक्षप में कृभको नाम से जाना जाता है। इसके भी सीएसआर कार्यक्रम हैं, लेकिन सभी कार्यक्रम उन्हीं इलाकों के लिए हैं, जहां इसके संयंत्र हैं। यह उन्हीं इलाकों में पीने के पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, आधारभूत संरचना और पर्यावरण संरक्षण आदि के क्षेत्र में अपनी गतिविधि चला रही है। ऐसे इलाकों में बिहार-झारखंड नहीं हैं। यानी इनके लिए यह कृषि कंपनी भी कुछ नहीं कर रही।
सीडस मैनेजर एके सिंह का कहना है कि कंपनी की ओर से जिले में सामाजिक स्तर पर कई तरह के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। इसके लिए किसी तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं होता है। वह कार्यक्रम के अनुसार राशि खर्च करती है। जिले के प्रत्येक गांवों में किसान गोष्ठी का आयोजन होता है। इस गोष्ठी में किसानों को तकनीक विधि से खेती करने के बारे में बताया जाता है। इसके अलावा महिलाओं व बच्चे को व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इस का मुख्य उद्देशय है कि गांव की महिलाएं स्वावलंबन हो सके।
कहना है कि गांव के जो बुजुर्ग होते हैं उन्हें प्रौढ़ शिक्षा के तहत शिक्षित किया जा रहा है। कंपनी की ओर से जो भी कृषि से संबंधित नए उत्पाद आते है उनकी जानकारी किसानों तक पहुंचाई जाती है। प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए छात्रवृत्ति दिया जाता है। और इनकी सुरक्षा के लिए कई तरह के कार्यक्रम जिले व गांव स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। इसके लिए राज्य में तीन सेंटर बनाए गए हैं एक सेंटर में चार गांवों होते हैं। इन सभी सेंटरों पर सामाजिक स्तर का कार्यक्रम समय-समय पर चलाया जाता है। एक सेंटर पर कंपनी की ओर से लगभग तीन से चार लाख रुपए खर्च किए जाते हैं।
रीजनल मैनेजर संजय कुमार का कहना है कंपनी की ओर से किसानों को खेती एवं कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल कैसे और कम करना चाहिए इसके लिए प्रशिक्षण मुफ्त दिया जाता है। ताकि किसान को इस्तेमाल के समय किसी तरह की कोई परेशानी न हो खेती में अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकें।
खेती में बेहतरी के लिए जिले के प्रत्येक गांवों में कंपनी की ओर से किसान मीटिंग का आयोजन किया जाता है। आधुनिक तरीके से किसान खेती करें इसके लिए जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। इस जागरूकता अभियान में वैज्ञानिकों से किसानों को खेती में आने वाली समस्याओं के बारे बताया जाता है। उन्होंने कहा कि गांवों में यदि कोई सामाजिक कार्य करना होता है ता इसके लिए कंपनी को बजट बनाकर भेजा जाता है। स्वीकृति मिलते ही कार्य को शुरू किया जाता है। अब तक सामाजिक कार्य के तहत जो भी बजट कंपनी को भेजा है उसकी स्वीकृति मिली।
गांव की लड़कियों को शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा राज्य सरकार की ओर से आयोजित किसान मेले में भाग लेकर जागरूकता अभियान चलाती है। कंपनी का मुख्य उद्देश्य है कि किसान अच्छे तरीके से खेती करें। और अधिक मुनाफा कमाएं।
सरकार जिस किसी भी कारण से हो, कंपनियों से उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन नहीं करा पा रही है, तो ग्राम सभाओं, पंचायत सरकारों किसान संगठनों और सामाजिक संस्थाओं को आगे आना होगा। अब किसानों के बीच केवल खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि उपकरण बेचने की बात नहीं रह गई है। किसानों की जमीन और उपज पर भी वे व्यावसायिक कब्जा कर रहे हैं। यह कड़वा सच है कि कॉरपोरेट सामाजिक दायित्व यानी सीएसआर के दायरे में आने वाली कृषि कंपनियों के पास बिहार के लिए कोई ठोस योजना नहीं है, जबकि यही कंपनियां दक्षिण के राज्यों में सीएसआर के तहत ठोस गतिविधियां चला रही हैं।
पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी वे सामाजिक दायित्व का पालन करने में पीछे नहीं हैं। ओड़िशा में हाल के वर्षों में कॉरपोरेट जगत को बड़े विरोध और जनांदोलन को झेलने पड़े हैं। लिहाजा वहां भी वे समुदाय को स्थायी लाभ दिलाने वाली गतिविधियां चला रहे हैं, लेकिन बिहार और झारखंड जैसे राज्यों के लिए उनकी झोली में कुछ नहीं है। न तो कोई कार्यक्रम है, न बजट।
खानापूर्ति के लिए किसान गोष्ठी, फुटबॉल मैच और इस तरह के छोटे-मोटे कार्यक्रम वे करते हैं, जबकि यहां के किसानों से उन्हें हर साल करोड़ों रुपए का मुनाफा होता है। सीएसआर के मुद्दे पर ज्यादातर कृषि कंपनियां कुछ बोलने-बताने के लिए तैयार नहीं हैं। उनके लिए यह सवाल ही अप्रत्याशित है। जो कंपनियां पारदर्शिता में यकीन दिखाना चाहती हैं, उनके पास बताने के लिए कुछ ठोस बात नहीं है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।
यह किसान और सरकार दोनों के हित में है कि कृषि कंपनियां सीएसआर को लेकर गंभीर हों और ठोस नतीजे दें। अगर पिछले डेढ़-दो दशक के आंकड़ों, सरकार की नीतियों और कॉरपोरेट कंपनियों के विस्तार को देखें, तो बहुत साफ है कि आर्थिक उदारीकरण और नई आर्थिक नीति में किसानों का भविष्य बहुत सुनहरा नहीं है।
दरअसल किसान और खेती पर कॉरपोरेट जगत का केवल इतना ही जोर नहीं है कि वे उनके बीच मुनाफा कमाने वाले कारोबार करते हैं, बल्कि नई कृषि नीति और नई आर्थिक नीति के तहत वे उनकी जमीन और खेतों पर भी कब्जा कर रहे हैं। ऐसे में अगर कंपनियां प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में किसानों का साथ कैसे छोड़ सकती हैं? अभी हो यह रहा है कि जिन राज्यों में सरकारें कंपनियों की सीएसआर की गतिविधियों को लेकर सजग हैं और जिन्होंने अपने राज्य के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मानव संसाधन के विकास में इनकी भागीदारी का लाभ लेने का फैसला किया है, वहां ऐसी कंपनियां थोड़े-बहुत अपवाद के साथ कुछ ठोस काम कर रही हैं।
बिहार और झारखंड में इस दिशा में न तो सरकार सजग है, न समुदाय। ऐसे में किसानों को सुखाड़, बाढ़ और अतिवृष्टि जैसी परिस्थितियों में अकेला छोड़ दिया जा रहा है। कॉरपोरेट मामलों के जानकार देविंदर शर्मा बड़े सपाट शब्दों में कहते हैं : ‘अभी हाल यह है कि कृषि कंपनियां प्राकृतिक आपदा आने पर खुश होती हैं। यह उनके लिए किसानों और सरकार को लूटने का अवसर होता है। बिहार सरकार की लापरवाही के कारण कृषि कंपनियां कभी ऐसी स्थिति में अपनी सामाजिक जिम्मेदारी नहीं निभाती हैं।’ जाहिर है कि इस स्थिति को और अधिक दिनों तक नहीं टाला जा सकता है।
अगर सरकार जिस किसी भी कारण से हो, कंपनियों से उनके सामाजिक उत्तरदायित्व का पालन नहीं करा पा रही है, तो ग्राम सभाओं, पंचायत सरकारों किसान संगठनों और सामाजिक संस्थाओं को आगे आना होगा। अब किसानों के बीच केवल खाद, बीज, कीटनाशक और कृषि उपकरण बेचने की बात नहीं रह गई है। किसानों की जमीन और उपज पर भी वे व्यावसायिक कब्जा कर रहे हैं। ऐसे में सीएसआर को लेकर राज्य सरकार को अपनी नीति स्पष्ट करनी होगी, नहीं तो आने वाले दिन किसानों के लिए और भी खराब होंगे।
कृषि और इससे जुड़ी दूसरी कंपनियां केवल मुनाफा कमाती रहेंगी और संकट के वक्त किसानों के नुकसान की भरपाई के लिए सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ता रहेगा।
कांट्रेक्ट के जरिए खेती में आ रहे कॉरपोरेट
कॉरपोरेट घरानों के सामाजिक उत्तरदायित्व पर चर्चा करें, तो एक पक्ष कांट्रेक्ट खेती भी है। कृषि उत्पादों और कृषि आधारित उत्पादों के कारोबार से जुड़ी कंपनियां अब सीधा गांवों में घुस रही हैं। उन्होंने इसके लिए कांट्रेक्ट खेती को जरिया बनाया है। दरअसल भारत सरकार ने कृषि विकास के लिए सन 2000 में राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की।
इस नीति में कांट्रेक्ट खेती का भी प्रावधान किया गया है। यह खेती के क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाने की नीतिगत पहल है। इसमें कंपनियां किसानों से सीधा कांट्रैक्ट करती हैं और अपनी जरूरत के मुताबिक खास फसलों की खेती कराती है। इसमें फसल की कीमत पहले तय कर ली जाती है और किसान को फसल तैयार होने पर उस कंपनी को बेचना होता है।
कंपनियां किसानों को खाद, बीज, सिंचाई, कीटनाशक और तकनीकी प्रशिक्षण उपलब्ध कराती है। कांट्रैक्ट खेती का एक दूसरा रूप भी है। इसमें किसान को हर साल खेती से होने वाले लाभ के आधार पर एक मुश्त राशि कंपनी दे देती है और एक निश्चित समय के लिए उसकी जमीन पर खुद खेती कराती है। ये दोनों ही तरीके गांवों और खेती में कॉरपोरेट के शामिल होने के मजबूत रास्ते बन गए हैं।
ऐसी कंपनियां अभी आम तौर पर उसी किसान को एक करार के तहत लाभ पहुंचा रहे हैं, जिसकी जमीन पर वे खेती कर रहे हैं या करा रहे हैं, जबकि उन्हें सीएसआर के तहत उस क्षेत्र के समुदाय की भलाई के लिए भी धन खर्च करना है।
कांट्रेक्ट खेती का चलन पुराना
पेप्सी कंपनी इस दिशा में पहले से आगे हैं। पेप्सी फूड्स लिमिटेड कंपनी से जुड़ी पेप्सी कोला नामक कंपनी ने 1989 में पंजाब के होशियारपुर जिले के जाहरा गांव में 20 करोड़ रुपए की लागत से टमाटर का प्रसंस्करण करने का संयंत्र लगाया।
कहते हैं कि पंजाब में इसके बाद से ही कांट्रेक्ट खेती शुरू हुई। कंपनी ने इससे उत्साहित होकर पंजाब के जालंधर, अमृतसर, होशियारपुर और संगरूर जिलों तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में बासमती चावल, आलू और मूंगफली की खेती भी शुरू की। अपाची कॉटन कंपनी ने वर्ष 2002 में तमिलनाडु के कोयंबटूर जिले के कि नाथकडाऊ विकास खंड में कृषकों को कपास बोने के लिए सहमत किया। उत्तरी कर्नाटक में कृषक गन्ने की फसल पर केंद्रित थे।
गन्ने की बार-बार सिंचाई होने के कारण भूमि क्षारीय हो रही थी। इसका लाभ उठा कर न्यूगार शुगर वर्क्स लिमिटेड ने कृषकों को जौ की खेती के लिए प्रोत्साहित किया। उसे अपनी कंपनी के लिए जौ की आवश्यकता थी। इससे कंपनी को आस-पास जौ मिलने लगा तथा उत्तर भारत से जौ मंगाने पर लगने वाली अधिक यातायात लागत बच गई। उसी तरह मध्य प्रदेश में हिंदुस्तान लीवर, रल्लीज और आईसीआईसीआई द्वारा सम्मिलित रूप से गेहूं की खेती कराई जा रही है। इस व्यवस्था में रल्लीज कृषि और प्राविधिक सलाह और आईसीआईसीआई कृषि कर्ज उपलब्ध करता है।
हिंदुस्तान लीवर उनकी उपज खरीदती है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, गुजरात में कई स्थानों पर संविदा कृषि होने लगी है। दक्षिण भारत में कई स्थानों पर मसाले के उत्पादन के लिए कांट्रेक्ट खेती की जा रही है। रिलायंस कंपनी कांट्रेक्ट फार्मिंग के आधार पर अनाज, फल, मसाले, सब्जी आदि की खेती के लिए हरियाणा में आगे है।
पश्चिम बंगाल और असम की बात करें, तो वहां चाय की कांट्रेक्ट खेती हो रही है।
बिहार में भी यह दौर
यदि किसानों को कृषि से संबंधित कोई समस्याएं आती है तो कंपनी के अधिकारी व कर्मचारी सहयोग करते हैं। जो महिला किसान उन्हें खेती के अलावा व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर फसल के सीजन में जिले के 30-32 गांव में किसान गोष्ठी व प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से गांव में खेलों को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर फूटबॉल टुनामेंट का आयोजन करती है। जिसमें गांव के युवा वर्ग भाग लेते हैं। और इस टूर्नामेंट में जीतने वाले टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है।बिहार में कोसी अंचल के बड़े लीची बगानों को एक शराब कंपनी ने कांट्रेक्ट खेती के तहत खरीदा। जहानाबाद जिले के धरनई गांव के अशोक कुमार बड़े जोतदार हैं। कुछ कंपनियां उनके खेतों को कांट्रेक्ट के आधार पर लेना चाहती हैं। इसके अपने फायदे हैं। किसानों को निश्चित समय में निश्चित कीमत मिल जाती है। उन्हें कर्ज नहीं लेना होता है तथा उन्नत बीज, खाद, सिंचाई की सुविधा, कीटनाशक, कृषि वैज्ञानिकों की सलाह और प्रशिक्षण भी मिल जाता है। इसलिए यह लोकप्रिय हो रही है। हालांकि इसमें नुकसान की आशंका है। यह स्थानीय जरूरतों की पूर्ति में बाधा पैदा करेगी।
यह एक प्रकार से बंधुआ खेती है। इसे अंग्रेज जमाने की नील की खेती के तर्ज पर देखा जा रहा है, लेकिन फिलहाल यह किसानों के लिए मुनाफे का सौदा है।
सीएसआर में कंपनियों की अभी सीमित भागीदारी
कोरोमंडल इंटरनेशनल लिमिटेड
जोनल मैनेजर शत्रुघ्न कश्यप का कहना है कि बिहार में सामाजिक स्तर कार्य के लिए किसी तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं किया। इस तरह का बजट कंपनी ने सिर्फ दक्षिणी राज्यों के लिए बनाई है। वैसे कंपनी की ओर से बिहार में कृषि पर आधारित कार्यक्रम समय-समय पर कराती रहती है। जैसे - गांव के किसानों को गोष्ठी के तहत फसल संबंधित जानकारी तथा मिट्टी की जांच करना। अब तक कंपनी की ओर से जिले के 130 गांवों में किसान गोष्ठी कर किसानों को कृषि संबंधी जानकार दी गई है। साथ ही जिले के कई गांवों का 7800 मिट्टी का सैंपल लेकर जांच करायी गई है।
महिको हाइब्रिड सीड्स कंपनी लिमिटेड
मार्केटिंग डेवलपमेंट मैनेजर पुष्पपेंद्र कुमार मिश्रा का कहना है कि कृषि पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कंपनी साल में लगभग दस लाख रुपए खर्च करती है। इस बजट के तहत जिले के कई गांवों में किसान मीटिंग का आयोजन किया जाता है। इस मीटिंग में किसानों को फसल की पैदावार व बचाव अच्छी हो इसके लिए जानकारी दी जाती है। साथ ही फसलों के बुआई से पहले मिट्टी की जांच की जाती है।
खरीफ फसल में कंपनी की ओर 450 गांवों में किसान गोेष्ठी कर जागरूकता अभियान चलाई गई। जबकि मिट्टी से संबंधित जांच का कार्यक्रम सिर्फ चार प्रखंड में शुरू किया गया है। इसका फायदा यह हुआ कि वहां के किसान मिट्टी जांच कर ही खेती कर लाभ उठा रहे हैं।
सीड्वर्क्स इंटरनेशनल प्राइवेट लिमिटेड (यूएस एग्रीसीड्स)
रीजनल बिजनेस मैनेजर उत्तम सिंह बताते है कि कंपनी साल में गांवों में लगभग 30 लाख रुपए किसानों व सामाजिक स्तर कार्यक्रमों पर खर्च करती है। गांवों के किसानों को फसल के हर सीजन में खेती को लेकर प्रशिक्षण दिया जाता है। इसमें मिट्टी जांच से लेकर फसलों की बुआई तक के विधि के बारे में जानकारी दी जाती है। जिले व गांवों के किसान इस प्रशिक्षण का लाभ लेकर खेती भी कर रहे हैं।
यदि किसानों को कृषि से संबंधित कोई समस्याएं आती है तो कंपनी के अधिकारी व कर्मचारी सहयोग करते हैं। जो महिला किसान उन्हें खेती के अलावा व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। हर फसल के सीजन में जिले के 30-32 गांव में किसान गोष्ठी व प्रशिक्षण शिविर का आयोजन करते हैं। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से गांव में खेलों को बढ़ावा देने के लिए समय-समय पर फूटबॉल टुनामेंट का आयोजन करती है। जिसमें गांव के युवा वर्ग भाग लेते हैं। और इस टूर्नामेंट में जीतने वाले टीम को पुरस्कृत भी किया जाता है।
पारादीप फॉस्फेट लिमिटेड
रीजनल मैनेजर एसपी सिंह कहते हैं कंपनी की ओर बांका जिले के कई गांवों में नवरत्ना कृषि विकास परियोजना के अंतर्गत सामाजिक, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। सभी तबके लोगों के लिए व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। ताकि गांव के लोग आत्मनिर्भर हो सके।
इस कार्यक्रम के तहत खासकर महिलाओं को सिलाई के अलावा कई घरेलू उद्योग संबंधित कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है। उन्होंने कहा कि कंपनी की ओर से कई गांवों में किसानों की गोष्ठी आयोजित की जाती है जिसमें किसानों को फसल की पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ कीटों से फसल की क्षति को कम करने के बारे में जानकारी दी जाती है। मिट्टी की जांच कराकर खेती की सलाह दी जाती है। इसके लिए कंपनी की ओर से समय-समय पर कैंप भी लगाया जाता है। इसका फायदा हुआ कि बहुत से जागरूक किसान आज मिट्टी की जांच करा कर खेती कर दोगुना लाभ कमा रहे हैं।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के तहत गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से संबंधित जानकारियां दी जाती है। उहोंने कहा कि गांव की जरूरतों देखते हुए सामाजिक स्तरों के कार्यक्रमों पर राशि खर्च करती रहती है। अभी हाल में बांका के जिले के वन गांव में कन्या के बीच फलदार दो सौ फलदार वृक्ष मुफ्त बांटे गए हैं। पर्यावरण की समस्या को लेकर इस तरह का कदम उठाया गया है। इसका मुख्य उन्होंने कहा कि कंपनी जिले में कृषि प्रशिक्षण केंद्र खोलने की योजना बना रही है।
राज्य सरकार की ओर जगह देने की बात चल रही है। आशा करते हैं कि जल्दी जगह उपलब्ध करा दी जाएगी। जिससे किसानों को इसका लाभ मिलेगा। उनका कहना है कि जिले के बहुत से किसान ऐसे हैं जो बिना मिट्टी की जांच कराए ही खेती कर रहे हैं। नतीजा फसल की अधिक पैदावार अच्छी होने के कारण होने कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है।
देवी क्रॉपसाइंस प्राइवेट लिमिटेड
जोनल मैनेजर डॉ. अजीत कुमार राय का कहना है कि कंपनी की ओर से गांवों में सामाजिक कार्य के लिए किसी तरह-तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं करती है। हां कृषि पर आधारित कार्यक्रमों के लिए कंपनी से स्वीकृति ली जाती है। तभी कार्यक्रामों का आयोजन होता है। जिले के कई गांवों में कंपनी की ओर से किसान गोष्ठी का आयोजन कराया जाता है।
इस गोष्ठी में किसानों को बेहतर ढंग से खेती करने की सलाह हर फसलों के सीजन में दी जाती है। इसके अलावा किसान को फसलों से संबंधित कोई समस्या आती है कंपनी की ओर से मुफ्त सलाह अधिकारियों की ओर से दी जाती है। कहना है कि रीजनल आॅफिस को कंपनी की ओर से गांव के सामाजिक कार्य के लिए किसी तरह का कोई फंड निर्धारित नहीं करती है।
व्हीएनआर क्रॉपसाइंस प्राइवेट लिमिटेड
रीजनल मैनेजर आमीर खान का कहना है कि गांव में सामाजिक कार्यक्रमों के लिए कंपनी की ओर से किसी तरह का कोई बजट नहीं है। जिले में फसल के सीजन के समय सिर्फ किसान गोष्ठी का आयोजन किया जाता है। किसानों की खेती से संबंधित समस्या का समाधान व उचित सलाह दिया जाता है। यदि किसान से संबंधित कोई कार्यक्रम, मेला व शिविर के लिए बजट बनाने के बाद कंपनी से स्वीकृति ली जाती है।
विशेष आर्थिक क्षेत्र योजना का हस्तक्षेप
पिछले 25 वर्षों से कृषि बाजार का अध्ययन कर रही सिल्विया रिबैरो का कहना है कि हाइब्रिड बीजों के विश्व बाजार में मोंसेंटो की हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि यह कितनी बड़ी कंपनी और इसका मुनाफा कितना बड़ा है। उस हिसाब से इसके सीएसआर कार्यक्रम भी हैं, लेकिन बिहार जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले राज्य के लिए इस कंपनी से ज्यादा लाभ लेने की पहल हो सकती है।आर्थिक उदारीकरण के बाद से देश की कृषि और कृषि भूमि पर कॉरपोरेट घरानों का व्यावसायिक दबाव बढ़ा है। इसे सरकार की नीतियों ने भी प्रोत्साहित किया है। कांट्रेक्ट खेती को कृषि नीति में जगह देने के अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्र की योजना को लागू करने से कॉरपोरेट जगत को खेती की जमीन पर अपना कारोबार खड़ा करने का अवसर मिला है। इसे लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर विरोध भी हो रहे हैं, लेकिन इस पर काम तो हो ही रहा है।
जाहिर है कि ऐसे में कृषि को प्रभावित करने वाली प्राकृतिक घटनाओं के वक्त ऐसी कंपनियों को भाग खड़ा होने की बजाय किसानों के साथ खड़ा होगा। सीएसआर के तहत उन्हें ऐसी गतिविधियों को योजनाबद्ध तरीके से लागू करना होगा, जो किसानों को स्थाई और ठोस आर्थिक मदद पहुंचाए, ताकि इस नुकसान की भरपाई में कंपनियों की भी भागीदारी हो।
मोनसेंटो : दुनिया की सबसे बड़ी कृषि
कंपनी, बिहार को कुछ भी नहीं मोनसेंटो दुनिया की एक बड़ी कृषि कंपनी है। यह कीटनाशक और बीज तैयार करती है। इसका दावा है कि यह प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने में बड़ी भूमिका निभा रही है।
उत्पादन बढ़ाने में इसके बड़े योगदान हैं। मक्का, कपास, तेलहन, फल और सब्जियों की खेती में इसके ब्रांडेड बीज इस्तेमाल होते हैं। ये पेशेवर कंपनी है और दुनिया के कई देशों की दूसरी कंपनियों को बीज कारोबार में अपना साझेदारी बनाती है। इसके अपने सीएसआर कार्यक्रम हैं। यह टिकाऊ खेती और छोटे व कम आय वाले किसानों की भलाई के विशेष कार्यक्रम चलाती है।
मोंसेंटो 112 साल पुरानी कंपनी है। इसका मुख्यालय अमेरिका में है। इसका कारोबार करीब 7.3 अरब अमेरिकी डॉलर का है। दुनिया भर के बीज बाजारों में इसकी हिस्सेदारी 27 प्रतिशत के करीब है।
पिछले 25 वर्षों से कृषि बाजार का अध्ययन कर रही सिल्विया रिबैरो का कहना है कि हाइब्रिड बीजों के विश्व बाजार में मोंसेंटो की हिस्सेदारी 86 प्रतिशत है। इससे समझा जा सकता है कि यह कितनी बड़ी कंपनी और इसका मुनाफा कितना बड़ा है। उस हिसाब से इसके सीएसआर कार्यक्रम भी हैं, लेकिन बिहार जैसे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाले राज्य के लिए इस कंपनी से ज्यादा लाभ लेने की पहल हो सकती है। हालांकि हाइब्रिड बीज, रासायनिक कीटनाशक और परंपरागत बीजों के पेटेंट को लेकर दुनिया भर में इस कंपनी का जबरदस्त विरोध भी हो रहा है। 36 देशों के 300 शहरों में इसके विरोध हुए हैं।
नेशनल फर्टिलाइजर लिमिटेड : सीएसआर तो है, पर बिहार की झोली खाली
यह खाद बनाने वाली कंपनी है, जो 1974 में स्थापित हुई और 1979 में इसने उत्पादन शुरू किया। इस कंपनी के भी सीएसआर कार्यक्रम हैं। इस पर कंपनी का खर्च करोड़ में है।
इसने 2010-11 में 3.0 करोड़, 2011-12 में 3.25 करोड़ तथा 2012-13 में इसे 4.35 करोड़ रुपए का सीएसआर कार्यक्रम बनाया, लेकिन इसके सभी कार्यक्रम पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और ओड़िशा के लिए हैं। इन राज्यों में इसके सीएसआर यूनिट हैं।
इन राज्यों में इसने बुनियादी सुविधा विकसित करने, पीने के पानी की व्यवस्था, सड़कों का निर्माण, शौचालय निर्माण, पानी के टैंक, नलकूप, ओवर हैड टैंक, आंगनवाड़ी, किसानों को कम लागत से खेती का प्रशिक्षण, बाल शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, वृक्षारोपण, सौर लाइट की व्यवस्था, बाल एवं महिला स्वास्थ्य शिविर, पशु स्वास्थ्य शिविर, जल प्रबंधन, पर्यावरण संरक्षण जैसी गतिविधियां बड़े पैमाने पर चलायी जा रही हैं, लेकिन बिहार और झारखंड के लिए इसके पास कोई कार्यक्रम नहीं है, जबकि इसका कारोबार यहां भी है।
भारती को-आॅपरेटिव लिमिटेड कुछ ही इलाकों में सीमित
भारती को-आॅपरेटिव लिमिटेड दुनिया की प्रमुख उर्वरक उत्पादक सहकारी संस्था है। इसे संक्षप में कृभको नाम से जाना जाता है। इसके भी सीएसआर कार्यक्रम हैं, लेकिन सभी कार्यक्रम उन्हीं इलाकों के लिए हैं, जहां इसके संयंत्र हैं। यह उन्हीं इलाकों में पीने के पानी, स्वास्थ्य, शिक्षा, आधारभूत संरचना और पर्यावरण संरक्षण आदि के क्षेत्र में अपनी गतिविधि चला रही है। ऐसे इलाकों में बिहार-झारखंड नहीं हैं। यानी इनके लिए यह कृषि कंपनी भी कुछ नहीं कर रही।
श्रीराम फर्टिलाइर्जस एंड केमिकल्स
सीडस मैनेजर एके सिंह का कहना है कि कंपनी की ओर से जिले में सामाजिक स्तर पर कई तरह के कार्यक्रम चलाए जाते हैं। इसके लिए किसी तरह का कोई बजट निर्धारित नहीं होता है। वह कार्यक्रम के अनुसार राशि खर्च करती है। जिले के प्रत्येक गांवों में किसान गोष्ठी का आयोजन होता है। इस गोष्ठी में किसानों को तकनीक विधि से खेती करने के बारे में बताया जाता है। इसके अलावा महिलाओं व बच्चे को व्यवसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाता है। इस का मुख्य उद्देशय है कि गांव की महिलाएं स्वावलंबन हो सके।
कहना है कि गांव के जो बुजुर्ग होते हैं उन्हें प्रौढ़ शिक्षा के तहत शिक्षित किया जा रहा है। कंपनी की ओर से जो भी कृषि से संबंधित नए उत्पाद आते है उनकी जानकारी किसानों तक पहुंचाई जाती है। प्राइमरी स्कूलों में पढ़ने वाली लड़कियों के लिए छात्रवृत्ति दिया जाता है। और इनकी सुरक्षा के लिए कई तरह के कार्यक्रम जिले व गांव स्तर पर आयोजित किए जाते हैं। इसके लिए राज्य में तीन सेंटर बनाए गए हैं एक सेंटर में चार गांवों होते हैं। इन सभी सेंटरों पर सामाजिक स्तर का कार्यक्रम समय-समय पर चलाया जाता है। एक सेंटर पर कंपनी की ओर से लगभग तीन से चार लाख रुपए खर्च किए जाते हैं।
एसडीएस रामसाइड्स : क्रॉपसाइंस प्राइवेट लिमिटेड
रीजनल मैनेजर संजय कुमार का कहना है कंपनी की ओर से किसानों को खेती एवं कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल कैसे और कम करना चाहिए इसके लिए प्रशिक्षण मुफ्त दिया जाता है। ताकि किसान को इस्तेमाल के समय किसी तरह की कोई परेशानी न हो खेती में अधिक से अधिक मुनाफा कमा सकें।
खेती में बेहतरी के लिए जिले के प्रत्येक गांवों में कंपनी की ओर से किसान मीटिंग का आयोजन किया जाता है। आधुनिक तरीके से किसान खेती करें इसके लिए जागरूकता अभियान भी चलाया जाता है। इस जागरूकता अभियान में वैज्ञानिकों से किसानों को खेती में आने वाली समस्याओं के बारे बताया जाता है। उन्होंने कहा कि गांवों में यदि कोई सामाजिक कार्य करना होता है ता इसके लिए कंपनी को बजट बनाकर भेजा जाता है। स्वीकृति मिलते ही कार्य को शुरू किया जाता है। अब तक सामाजिक कार्य के तहत जो भी बजट कंपनी को भेजा है उसकी स्वीकृति मिली।
गांव की लड़कियों को शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। इसके अलावा राज्य सरकार की ओर से आयोजित किसान मेले में भाग लेकर जागरूकता अभियान चलाती है। कंपनी का मुख्य उद्देश्य है कि किसान अच्छे तरीके से खेती करें। और अधिक मुनाफा कमाएं।
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