राजस्थान के जैसलमेर जिले के रामगढ़ क्षेत्र में पिछले वर्ष कुल 48 मिलीमीटर यानी 4.8 सेंटीमीटर या मात्र 2 इंच के करीब पानी बरसा और वहाँ अकाल नहीं पड़ा। भारत में इतनी कम बारिश कहीं और नहीं होती। अधिक बारिश वाले तमाम क्षेत्र सूखाग्रस्त क्यों हैं? यह एक विचारणीय प्रश्न है। हमारी कमअकली और अदूरदर्शिता ने विकास का जो मॉडल खड़ा किया है वह विनाश की ओर ले जा रहा है। क्या हम अब भी आँख खोलकर नहीं देखेंगे?
पिछले साल के कुल गिरे पानी के आँकड़े तो आपने ऊपर देखे ही हैं। अब उनको सामने रखकर इस विशाल देश के किसी भी कृषि विशेषज्ञ से पूछ लें कि दो-चार सेंटीमीटर की बरसात में क्या गेहूँ, सरसों, तारामीरा, चना जैसी फसलें पैदा हो सकती हैं। उन सभी विशेषज्ञों का पक्का उत्तर ‘ना’ में होगा। पर अभी आप रामगढ़ आएँ तो हमारे यहाँ के खड़ीनों में ये सब फसलें इतने कम पानी में खूब अच्छे से पैदा हुई हैं और अब यह फसल सब सदस्यों के खलियानों में रखी जा रही है। तो धुत्त रेगिस्तान में, सबसे कम वर्षा के क्षेत्र में आज भी भरपूर पानी है, अनाज है और पशुओं के लिये खूब मात्रा में चारा है।
टेलिविजन कहाँ नहीं है? हमारे यहाँ भी है। हमारे यहाँ यानी जैसलमेर से कोई सौ किलोमीटर पश्चिम में पाकिस्तान की सीमा पर भी। यह भी बता दें कि हमारे यहाँ देश का सबसे कम पानी गिरता है। कभी-कभी तो गिरता ही नहीं। आबादी कम जरूर है, पर पानी तो कम लोगों को भी जरूरत के मुताबिक चाहिए। फिर यहाँ खेती कम, पशुपालन ज्यादा है। लाखों भेड़, बकरी, गाय और ऊँटों के लिये भी पानी चाहिए। इस टेलिविजन के कारण हम पिछले न जाने कितने दिनों से देश के कुछ राज्यों में फैल रहे अकाल की भयानक खबरें देख रहे हैं। अब इसमें क्रिकेट का भी नया विवाद जुड़ गया है।आपके यहाँ कितना पानी गिरता है यह तो आप ही जानें। हमारे यहाँ पिछले दो साल में कुल हुई बरसात की जानकारी हम आप तक पहुँचाना चाहते हैं। सन 2014 में जुलाई में 4 मिलीमीटर और फिर अगस्त में 7 मिलीमीटर यानी कुल 11 मिलीमीटर पानी गिरा था। तब भी हमारा यह रामगढ़ क्षेत्र अकाल की खबरों में नहीं आया। अथवा हमने खबरों में आने की नौबत ही नहीं आने दी।
फिर पिछले साल सन 2015 में 23 जुलाई को 35 मिलीमीटर, 11 अगस्त को 7 मिमी और फिर 21 सितम्बर को 6 मिमी बरसात हुई। इतनी कम बरसात में भी हमने हमारे पाँच सौ बरस पुराने विप्रासर नाम के तालाब को भर लिया था। यह बहुत विशेष तालाब है।
लाखों वर्षों पहले प्रकृति में हुई भारी उथल-पुथल के कारण इस तालाब के नीचे खड़िया मिट्टी की, मेट की या जिप्सम की एक तह जम गई थी। इस पट्टी के कारण वर्षाजल रिसकर रेगिस्तान में नीचे बह रहे खारे पानी में मिल नहीं पाता। वह रेत में नमी की तरह सुरक्षित रहता है। इस नमी को हम रेजवानी पानी कहते हैं।
तालाब में ऊपर भरा पानी कुछ माह तो गाँव के काम आता है। इसे हम पालर पानी कहते हैं। उस पूरे विज्ञान में अभी नहीं जाएँगे पर तालाब ऊपर से सूख जाने के बाद रेत में समा गई इस नमी को हमारे पुरखे न जाने कब से बेरी, कुईं नाम का एक सुन्दर ढाँचा बनाकर उपयोग में ले आते हैं। अभी अप्रैल के तीसरे हफ्ते में भी हमारे तालाब में ऊपर तक पानी भरा है। जब यह सूखेगा तब रेजवानी पानी इसकी बेरियों में आ जाएगा और हम अगली बरसात तक पानी के मामले में एकदम स्वावलम्बी बने रहेंगे।
इस विशेष तालाब विप्रासर की तरह ही हमारे जैसलमेर क्षेत्र में कुछ विशेष खेत भी हैं। यों तो अकाल का ही क्षेत्र है यह सारा। पानी गिरे तो एक फसल हाथ लगती है। पर कहीं-कहीं खड़िया या जिप्सम की पट्टी खेतों में भी मिलती है। समाज ने सदियों से इन विशेष खेतों को निजी या किसी एक परिवार के हाथ में नहीं जाने दिया। इन विशेष खेतों को समाज ने सबका बना दिया।
जो बातें आप लोग शायद नारों में सुनते हैं, वे बातें, सिद्धान्त हमारे यहाँ जमीन पर उतार दिये गए हैं हमारे समझदार पुरखों द्वारा। इन विशेष खेतों में आज के इस गलाकाट जमाने में भी सामूहिक खेती होती है। इन विशेष खेतों में अकाल के बीच भी सुन्दर फसल पैदा की जाती है।
पिछले साल के कुल गिरे पानी के आँकड़े तो आपने ऊपर देखे ही हैं। अब उनको सामने रखकर इस विशाल देश के किसी भी कृषि विशेषज्ञ से पूछ लें कि दो-चार सेंटीमीटर की बरसात में क्या गेहूँ, सरसों, तारामीरा, चना जैसी फसलें पैदा हो सकती हैं। उन सभी विशेषज्ञों का पक्का उत्तर ‘ना’ में होगा। पर अभी आप रामगढ़ आएँ तो हमारे यहाँ के खड़ीनों में ये सब फसलें इतने कम पानी में खूब अच्छे से पैदा हुई हैं और अब यह फसल सब सदस्यों के खलियानों में रखी जा रही है। तो धुत्त रेगिस्तान में, सबसे कम वर्षा के क्षेत्र में आज भी भरपूर पानी है, अनाज है और पशुओं के लिये खूब मात्रा में चारा है।
यह बताते हुए भी बहुत संकोच हो रहा है कि इतने कम पानी के बीच पैदा की गई यह फसल न सिर्फ हमारे काम आ रही है, बल्कि दूर-दूर से इसे काटने के लिये दूसरे लोग भी आ जुटे हैं। इनमें बिहार, पंजाब, मध्य प्रदेश के मालवा से भी लोग पहली बार आये हैं-यानी जहाँ हमसे बहुत ज्यादा वर्षा होती है, वहाँ के लोगों को भी यहाँ काम मिला है।
इसके बीच मराठवाड़ा, लातूर की खबरें टी.वी. पर देख मन बहुत दुखी होता है। कलेक्टर ने धारा 144 लगाई है जलस्रोतों पर। पानी को लेकर झगड़ते हैं लोग। और यहाँ हमारे गाँवों में इतनी कम मात्रा में वर्षा होने के बाद भी पानी को लेकर समाज में परस्पर प्रेम का रिश्ता बना हुआ है।
आपने भोजन में मनुहार सुना है, आपके यहाँ भी मेहमान आ जाएँ तो उसे विशेष आग्रह से भोजन परोसा जाता है। हमारे यहाँ तालाब, कुएँ और कुईं पर आज भी पानी निकालने को लेकर ‘मनुहार’ चलती है- पहले आप पानी लें, पीछे हम लेंगे। पानी ने सामाजिक सम्बन्ध जोड़कर रखे हैं हमारे यहाँ। इसलिये जब पानी के कारण सामाजिक सम्बन्ध टूटते दिखते हैं देश के अन्य भागों में तो हमें बहुत ही बुरा लगता है।
इसके पीछे एक बड़ा कारण तो है अपनी चादर देख पैर तानना। मराठवाड़ा ने कुदरत से पानी थोड़ा कम पाया पर गन्ने की खेती अपना कर भूजल का बहुत सारा दोहन कर लिया। अब एक ही कुएँ में तल पर चिपका पानी और उसमें सैकड़ों बाल्टियाँ ऊपर से लटकी मिलती हैं। ऐसी आपाधापी में पड़ गया है वह इलाका।
कभी पूरे देश में पानी को लेकर समाज के मन में एक-सा भाव रहा था। आज नई खेती, नई-नई प्यास वाली फसलें, कारखानों, तालाबों को पूर कर बने और बढ़ते जा रहे शहरों में वह संयम का भाव कब का खत्म हो चुका है। तभी हमें या तो चेन्नई जैसी भयानक बाढ़ दिखती है या लातूर जैसा भयानक अकाल। चेन्नई का हवाई अड्डा डूब जाता है बाढ़ में और लातूर में रेल से पानी बहकर आता है।
पानी कहाँ कितना बरसता है, यह प्रकृति ने हजारों सालों से तय कर रखा है। कोंकण में, चेरापूँजी में खूब ज्यादा तो हमारे गाँवों में, जैसलमेर में बहुत ही कम। पर जो जहाँ है, वहाँ प्रकृति का स्वभाव देखकर उसने यदि समाज चलाने की योजना बनाई है और फिर उसमें उसने सरकारों की बातें सुनी नहीं है, लालच नहीं किया है तो वह समाज पानी कम हो या ज्यादा, रमा रहता है। यह रमना हमने छोड़ा नहीं है। कुछ गाँवों में हमारे यहाँ भी वातावरण बिगड़ा था पर अब पिछले 10-15 वर्षों से फिर सुधरने भी लगा है।
इस दौर में हमारे समाज ने कोई 200 नई बेरियाँ, 100 नए खड़ीन, 5 कुएँ पाताली मीठे पानी के, कोई 200-150 तलाई, नाड़ियाँ, टोपे अपनी हिम्मत से, अपने साधनों से बनाए हैं। इन पर सरकारी या किसी स्वयंसेवी संस्था का नाम, बोर्ड, पटरा टंगा नहीं मिलेगा। ये हम लोगों ने अपने लिये बनाए हैं। इसलिये ये सब पानी से लबालब भरे हैं।
देश में कोई भी इलाका ऐसा नहीं है, जहाँ जैसलमेर से कम पानी गिरता हो। इसलिये वहाँ पानी का कष्ट देख हमें बहुत कष्ट होता है। हमारा कष्ट तभी कम होगा जब हम अपना इलाका ठीक कर लेने के साथ-साथ देश के इन इलाकों में भी ऐसी बातें, ऐसे काम पहुँचा सकें।
हमारे एक मित्र कहते हैं कि अकाल अकेले नहीं आता। उससे पहले अच्छे कामों का, अच्छे विचारों का भी अकाल आता है।
श्री चतरसिंह जाम रेगिस्तान में खेती करने वाले किसान हैं और पशुपालन भी करते हैं।
श्री चतरसिंह ने एक पत्र श्री अनुपम मिश्र को लिखा था जिसे उन्होंने लेख बनाकर हमें भेजा है। हैं।
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