सूखा प्रतिरोधी धान की खेती करना अब मुमकिन हो गया है। शुक्र है कि गेहूं की तरह अब चावल उगाने के लिए तकनीक उपलब्ध हो गई है। इसका मतलब यह हुआ कि धान के खेत को हमेशा पानी से भरा हुआ रखे बिना भी इसकी खेती की जा सकती है। नई तकनीक से धान की फसल के लिए पानी की जरूरत में 40 से 50 फीसदी तक कम करने में मदद मिलेगी।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) और फिलिपींस स्थित अंतरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) ने संयुक्त रूप से यह तकनीक विकसित की है। इस परियोजना में कटक स्थित केंद्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (सीआरआरआई) की भी भागीदारी है। कटक स्थित संस्थान ने ही धान की वैसी किस्मों की पहचान की है जिन्हें दूसरी फसलों की तरह कुछ दौर की सिंचाई के जरिए उगाया जा सकता है। इसने ऐसी कृषि पध्दतियों की भी खोज की है जिसके जरिए धान की ऐसी किस्मों से करीब-करीब उतनी उपज हो सकती है जितनी सामान्य तौर से ज्यादा पैदावार वाली धान की होती है। तकनीकी तौर पर यह एरोबिक राइस कल्टिवेशन कहलाता है। इस तकनीक में धान के खेत में स्थिर पानी की जरूरत नहीं होती और न ही धान के छोटे पौधे तैयार करने की आवश्यकता होती है जैसा कि आम तौर पर होता है और बाद में उसे उखाड़कर दूसरी जगह लगा दिया जाता है। इस तकनीक में कुशलता से तैयार किए गए खेतों में सीधे बीज बो दिए जाते हैं और इस तरह श्रम लागत की भी बचत हो जाती है।
सीआरआरआई के निदेशक टी. के. आद्या के मुताबिक, एपो नाम के ब्राजील के एरोबिक राइस को दुनिया के सबसे अच्छा एरोबिक राइस माना जाता है। एपो को भारतीय धान के साथ क्रॉसब्रीड करवाकर ऐसी किस्म तैयार की जा रही है जो भारतीय कृषि की पारिस्थितिकी के लिए उपयुक्त हो। इन किस्मों में 40 फीसदी कम पानी का इस्तेमाल होता है और अच्छे प्रबंधन के जरिए यह 4-5 टन धान की उपज हो सकती है। एरोबिक स्थितियों में (बिना स्थिर पानी के) उगाए जाने वाले धान की पैदावार सामान्य तौर पर प्रति हेक्टेयर दो टन से कम होती है। एपो जर्मप्लाज्म समेत एरोबिक धान तैयार करने की लिए ब्रीडिंग सामग्री आरआरआरआई से प्राप्त की गई थी। नई किस्मों से कई का परीक्षण खेत में किया जा चुका है। इनमें से एक किस्म शहभागी धान आईआरआरआई इंडिया सीआरआरआई ब्रीडिंग नेटवर्क के जरिए पहले ही अधिसूचित किया जा चुका है ताकि सूखा प्रभावित इलाकों में इसकी खेती हो सके। एक किलोग्राम धान के उत्पादन में सामान्यत: तीन से पांच हजार लीटर पानी की दरकार होती है। सीआरआरआई के क्रॉप प्रॉडक्शन डिवीजन के प्रमुख के. एस. राव कहते हैं कि धान की खेती में ऐसे अपव्ययी तरीके से पानी का इस्तेमाल टिकाऊ नहीं होता है।
आईआरआरआई के मुताबिक, धान की खेती में पानी का इस्तेमाल अगर वैश्विक स्तर पर 10 फीसदी कम कर दिया जाए तो गैर-कृषि की जरूरतों के लिए 150 अरब क्यूबिक मीटर पानी उपलब्ध हो सकता है। हालांकि एरोबिक राइस कल्टिवेशन में कुछ निश्चित तकनीकी समस्याएं हैं जिनसे उबरने के लिए खास कदमों की दरकार है। ऐसी ही एक समस्या है बिना खेतों में भरपूर पानी पहुंचाए बोआई करने के बाद प्रचुरता से उग आए खरपतवार। ये खरपतवार वहां मौजूद पोषक तत्त्व का उपभोग करने में फसलों से होड़ लेते हैं और इस तरह से फसलों को पर्याप्त पोषण से वंचित कर देते हैं। फसलों के विकास के शुरुआती 30 दिन की अवधि में यह समस्या खास तौर पर ज्यादा गंभीर होती है। सीआरआरआई वैज्ञानिकों ने खरपतवार के नाश के लिए रसायन इस्तेमाल करने की सिफारिश की है। दूसरी मुख्य समस्या लौह की कमी की है। जब वहां स्थिर पानी नहीं होता है तो वातावरण में मौजूद ऑक्सीजन मिट्टी में उपलब्ध लौह का ऑक्सीजनीकरण कर देती है जिससे लौह पौधों के लिए अनुपलब्ध हो जाता है। यह फसलों की उत्पादकता में कमी ला देता है। इससे निपटने के लिए विशेषज्ञ मिट्टी में आयरन सल्फेट मिलाने की सलाह देते हैं। एरोबिक राइस कल्टिवेशन की बाबत किए गए प्रयोग से जाहिर हुआ है कि बेहतर परिणाम तभी सामने आता है जब लेजर लैंड लेवलिंग मशीन के जरिए खेत को जोता और समतल किया जाता है। इसके साथ ही सीड ड्रिल मशीन की मदद से बीज बोने की दरकार होती है। पर्याप्त दूरी और गहराई के साथ-साथ एक सीध में बीज बोने के लिए मशीन पहले ही विकसित किए जा चुकेहैं। इसे बैल, ट्रैक्टर या पावर ट्रिल के जरिए संचालित किया जा सकता है। बीज बोने में मशीन के इस्तेमाल से कई फायदे मिलते हैं, जिनमें बीजों की बचत, प्रति हेक्टेयर ज्यादा से ज्यादा पौधों को लगाना, खरपतवार में कम से कम लागत और बेहतर उत्पादन शामिल हैं।
कम बारिश या सिंचाई के लिए अपर्याप्त जल की उपलब्धता से पड़ने वाले विपरीत प्रभाव से बचाने में एरोबिक राइस कल्टिवेशन काफी सहायक हो सकता है। यह वैसे इलाकों के लिए भी खासा उपयोगी हो सकता है जहां भूमिगत जल में एक साथ कई फसलें उगाई जाती है मसलन पंजाब के उत्तरी पश्चिमी इलाके, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, साथ ही दक्षिण के कुछ इलाके। अन्यथा ज्यादा दोहन के चलते गिर रहे भूजल स्तर को बचाने के लिए उन इलाकों में धान की खेती त्याग दी जानी चाहिए।
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