कम पानी में भी अधिक धान की पैदावार

भारतीय कृषि वैज्ञानिकों ने धान की एक नई किस्म ‘स्वर्ण श्रेया’ विकसित कर ली है जिसकी खेती में 35 से 40 फीसदी तक पानी की कम खपत होती है। धान की इस उत्कृष्ट किस्म की विशेषता यह है कि यह अर्द्ध सूखे की स्थिति में भी बेहतर परिणाम देती है। किसानों द्वारा ज्यादा इस्तेमाल की जाने वाली किस्मों के तैयार होने में जितना पानी लगता है, उसके मुकाबले स्वर्ण श्रेया में 35 से 40 फीसदी कम पानी भी मिले तो इसके पौधे पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ता है। सिर्फ प्रयोगशाला में ही नहीं बल्कि खेतों में भी परीक्षण के दौरान इसमें प्रति हेक्टेयर 4550 किलोग्राम की औसत उपज मिली है। मतलब यह धान की अन्य प्रचलित किस्मों से कहीं भी कमतर नहीं है। इसके लगाने से किसानों को घाटा नहीं होगा बल्कि सूखे की स्थिति में भी उनकी आर्थिक स्थिति बरकरार रहेगी।

भारत के किसानों, खासकर पूर्वी और उत्तर-पूर्वी भारत के किसानों की दुनिया भर में जहाँ भी चर्चा होती है, वहाँ यह जरूर बताया जाता है कि वहाँ के किसान मानसून के भरोसे खेती करते हैं। यदि मानसून ने साथ दिया तो भरपूर उपज होती है और किसान खुशहाल होते हैं। जब मानसून ने साथ नहीं दिया तो किसान कंगाली के कगार पर पहुँच जाते हैं। इन सब स्थितियों पर काबू पाने के लिए भारत समेत दुनिया भर की एजेंसियाँ सक्रिय हैं। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना केन्द्र ने ‘स्वर्ण श्रेया’ धान की नई किस्म विकसित की है। इसमें धान की अन्य प्रचलित किस्मों के मुकाबले 35 से 40 फीसदी कम पानी की जरूरत होती है और धान की उपज में कोई कमी नहीं आती। एक किसान की डायरी का एक-एक पन्ना जरूर पढ़ें।

आजमगढ़ के एक किसान की डायरी


वर्ष 2013 में बाढ़ से तबाह हुई धान की फसल 2014 में सूखे से तबाह होने के कगार पर थी। बीते वर्ष पूँजी लगाकर काफी उम्मीद से धान की खेती की लेकिन बाढ़ ने सब बर्बाद कर दिया। सरकार की तरफ से बाढ़ राहत या फसल बीमा का लाभ भी नहीं मिल सका। इसके बाद हमने फिर कर्ज लेकर रबी फसल की खेती की। लेकिन असमय बरसात ने फसल को चौपट कर दिया। मानसून आने के बाद किसी तरह पैसे का इन्तजाम कर धान की बुवाई की लेकिन उम्मीद से 50 फीसदी कम बारिश होने से यह फसल भी बर्बादी की कगार पर है। समझ में नहीं आता है कि कर्ज का भुगतान करने के लिए जमीन बेचूं या बीबी के गहने।

पंजाब के जोगिन्दर नगर के एक किसान की डायरी


हमारे यहाँ जल स्रोतों में भरपूर पानी होने के बावजूद भी आईपीएच की बड़ी सिंचाई योजनाएँ हाँफ गई हैं जिससे किसानों की मुश्किलें और बढ़ गई हैं। सिंचाई योजनाओं के जलविहीन हो जाने से पैदा हुई सूखे की स्थिति में धान की खेती तबाह होने लगी है। पानी के बिना धान के खेतों में दरारें उभर आई हैं और सिंचाई के पानी को लेकर किसानों में हायतौबा मचने लगी है। पानी के बिना दरारों से अटी हम जैसे सैकड़ों किसानों के खेतों में अब धान की खेती मुरझाने लगी है, तब भी विभागीय स्तर पर नहर की दशा सुधारने की सुध नहीं ली गई। यदि शीघ्र ही सरकार इस पर ध्यान नहीं देती है तो इस साल धान की खड़ी फसल बर्बाद होने में देर नहीं लगेगी। यदि इस साल फसल बर्बाद हो गई तो फिर अपनी सिमरन की धूमधाम से शादी कैसे कर पाऊँगा।

ऊपर वर्णित दो किसानों की डायरी के अंश से पता चलता है कि इन्हें धान की फसल बोने के लिए तो पानी मिला लेकिन बाद में पर्याप्त मात्रा में पानी का इन्तजाम नहीं होने से इनकी धान की खड़ी फसल सूखने लगी और अंततः वही हुआ जोकि किसानों के साथ अक्सर होता है। लेकिन धान की खेती करने वाले ऐसे किसानों को अब परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पटना स्थित पूर्व क्षेत्र के अनुसंधान परिसर में कृषि वैज्ञानिकों ने कम पानी वाले क्षेत्रों के किसानों के लिए धान की नई प्रजाति ‘स्वर्ण श्रेया’ विकसित की है। स्वर्ण श्रेया अन्य प्रजातियों की तुलना में 35 से 40 प्रतिशत कम पानी में भी तैयार हो सकती है।

आईसीएआर पटना के निदेशक डाॅ. बी.पी. भट्ट के मुताबिक केन्द्र के वैज्ञानिकों द्वारा वर्षों के सतत अनुसंधान एवं परिश्रम के परिणामस्वरूप धान की इस किस्म को विकसित किया गया है। और फसल की उपज उतनी ही होती है, जितनी होनी चाहिए। स्वर्ण श्रेया में किसानों को कितनी उपज मिलती है, इस सवाल पर डाॅ. भट्ट का कहना है कि अन्तरराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान की एक विशेष योजना के तहत पटना स्थित केन्द्र का चुनाव स्ट्रेस टोलरेंट राइस फॉर अफ्रीका एंड साउथ एशिया (स्ट्रासा) परियोजना के लिए हुआ। वह बताते हैं कि शुरुआत में कई तरह की किस्मों के साथ परीक्षण हुआ लेकिन बाद में जो स्वर्ण श्रेया के लिए प्रमुख बीज निकल कर आया उसमें से चावल के लम्बे दाने तैयार हुए। देखा गया कि इस धान के पौधों में 85 दिन में फूल आ गए और रोपाई के 120 से 125 दिनों में फसल तैयार हो जाती है। परीक्षण के दौरान देखा गया कि इसके पौधों की ऊँचाई 105 से 110 सेन्टीमीटर की होती है। जब इसके धान को पौधों से निकाल कर देखा गया तो इसमें से 60.2 फीसदी की रिकवरी पाई गई।

आईसीएआर पटना के पादप प्रजनन विभाग में वैज्ञानिक डाॅ. संतोष कुमार के मुताबिक धान की प्रचलित किस्मों की रोपाई से होने वाली धान की खेती में प्रति किलो धान पैदा करने के लिए लगभग 4000-5000 लीटर पानी की आवश्यकता होती है वहीं स्वर्ण श्रेया प्रजाति लगाने से केवल 2500-3000 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। धान की यह नई किस्म सूखी सीधी बुआई (एरोबिक परिस्थितियों) के लिए बहुत उपयोगी है। धान की यह नई किस्म कम समय (120-125 दिन) में परिपक्व होने वाली, कम पानी में भी अधिक उपज देने वाली (45-50 क्विंटल/हेक्टेयर), सूखा सहनशील तथा विविध रोगों एवं कीटों के प्रति प्रतिरोधी है। धान की इस नई प्रजाति की सीधी बुवाई जून (10-25 जून के बीच) में 25-30 किलो/हेक्टेयर बीज दर से की जा सकती है एवं महज 120-125 दिनों (अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के पहले सप्ताह के बीच) कटाई कर सकते हैं। नवम्बर माह के पहले सप्ताह में कटने से गेहूँ की बुवाई भी सही समय पर हो सकती है। अत्यधिक सूखा पड़ने की अवस्था में भी यह प्रजाति किसानों को प्रति हेक्टेयर 25-30 क्विंटल तक उपज देगी। वह बताते हैं कि स्वर्ण श्रेया की खेती से असिंचित एवं कम पानी वाले क्षेत्रों के किसानों को कम लागत, कम मेहनत एवं कम समय में अधिक उत्पादन का लाभ मिलेगा। यह वर्षा आधारित असिंचित क्षेत्रों के साथ-साथ सिंचित क्षेत्रों की उन जगहों के लिए भी उपयोगी है जहाँ पानी की उपलब्धता कम होती है।

डाॅ. भट्ट ने बताया कि स्वर्ण श्रेया के फील्ड ट्रयल में सफल हो जाने के बाद 14 मई, 2015 को बिहार स्टेट सीड सब कमेटी की बैठक में इसे रिलीज कर दिया गया। इसके बाद 26 मई, 2015 को इस बारे में अधिसूचना भी जारी कर दी गई। अधिसूचना जारी होने का अर्थ है कि अब किसान अपने खेतों में इसकी खेती कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि चालू मानसून में तो किसान स्वर्ण श्रेया की खेती नहीं कर सकते हैं क्योंकि इसकी बुवाई का समय बीत गया। लेकिन अगले मानसून में इसकी खेती जरूर कर सकते हैं। राज्य के सूखा प्रभावित सभी इलाकों में स्वर्ण श्रेया धान के बीज उपलब्ध हों, इसके लिए इस बार पर्याप्त रकबे में स्वर्ण श्रेया की खेती की गई है।

राँची विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे और अब अवकाश ग्रहण करने के बाद उत्तरी बिहार में फसलों की बदलती प्रवृत्ति पर अनुसंधान कर रहे यदुनंदन तिवारी बताते हैं कि बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के धान किसानों की स्थिति पंजाब या हरियाणा के धान किसानों से बिल्कुल अलग है। पंजाब या हरियाणा में किसान बाजार के प्रभाव में आकर धान की खेती तो करने लगे पर उनके लिए यह सिर्फ एक फसल है। यह फसल उनकी खाद्य सुरक्षा का अंग नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि पंजाब-हरियाणा के लोगों का मुख्य भोजन रोटी है और चावल वे कभी-कभार शौकिया तौर पर खाते हैं। चूँकि इस समय भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बासमती चावल की भारी मांग है इसलिए पंजाब-हरियाणा के किसान इसे उपजाने में लगे हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार पश्चिम बंगाल या पूर्वोत्तर के राज्यों में धान की फसल वहाँ के निवासियों की खाद्य सुरक्षा का अंग है। वहाँ के लोग धान इसलिए उपजाते हैं क्योंकि यही उनका रोज का मुख्य खाना है। जब उनके अपने खेत में धान नहीं होगा तो उसे बाहर से चावल खरीद कर खाना होगा। ऐसी अप्रिय स्थिति से बचने के लिए पूर्वी भारत के किसान अपने खेत में कुछ लगाए न लगाए, धान की फसल जरूर लगाते हैं।

यदुनंदन तिवारी बताते हैं कि बिहार के धान के पैदा होने वाले किसी भी इलाके में आप चले जाइए, वहाँ आप नहर या बोरवेल से कम ही सिंचाई होते देखेंगे। अधिकतर किसानों की खेती मानसून पर निर्भर करती है। यदि मानसून ने साथ दिया तो उनके चेहरे पर खुशी होती है और यदि मानसून ने दगा दे दिया तो फिर पूरे साल फाकाकशी के साथ सिर पर हजारों रुपये का कर्ज। ऐसी परिस्थिति में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पटना केन्द्र द्वारा खोजी गई धान की नई प्रजाति स्वर्ण श्रेया किसानों के लिए एक तरह से वरदान साबित हो सकती है। इस किस्म में एक और फायदा यह है कि इसकी सीधी (एरेबिक) खेती हो सकती है। इस पद्धति में किसानों की परेशानी कुछ कम हो जाती है।

ऐसा नहीं है कि धान की इस किस्म के खोजे जाने से सिर्फ किसान ही खुश हैं। उद्योग जगत भी आईसीएआर की इस नई खोज से खासा उत्साहित है। देश में उद्योग जगत का सबसे बड़ा संगठन फेडरेशन आॅफ चेम्बर्स आॅफ कामर्स एंड इंडस्ट्री से जुड़े एक कृषि अर्थशास्त्री का कहना है कि स्वर्ण श्रेया के बारे में जो दावा किया गया है, यदि वह सही हुआ तो वाकई में इससे भारतीय खेती का परिदृश्य बदल जाएगा। इसमें परम्परागत किस्म से 40 फीसदी तक कम पानी की खपत होने की बात कही गई है। आज की तारीख में तो पानी ही सबसे महत्त्वपूर्ण हो गया है। धान वैसे भी ज्यादा पानी से तैयार होने वाली फसल है। इसमें कम पानी की जरूरत, मतलब खराब मानसून में भी बंपर फसल की गारंटी। जिन इलाकों में बोरवेल से सिंचाई होती है, वहाँ भी पानी की बचत, सिंचाई का खर्च बचेगा। इसका तत्काल प्रभाव तो यह पड़ेगा कि इससे किसानों में खुशहाली बढ़ेगी और दूरगामी प्रभाव यह पड़ेगा कि देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज होगी। उनका कहना है कि जब किसान खुशहाल होंगे तो वह ज्यादा सामान खरीदेंगे और जब ज्यादा सामान बिकेगा तो उद्योग जगत खुश। इस चक्र का अंततः असर देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर पर पड़ेगा।

भारतीय उद्योग परिसंघ से जुड़े एक अर्थशास्त्री बताते हैं कि किसानों की खुशहाली से उद्योग जगत का भविष्य काफी हद तक जुड़ा होता है। तभी तो जब मानसून के कम आने या सूखे की खबर प्रसारित होती है तो शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक धड़ाम हो जाता है। उनके मुताबिक देश के अधिकतर हिस्से में मानसून के सहारे ही खेती होती है। रही धान की बात तो इसकी खेती अब लगभग पूरे देश में की जाने लगी है। दक्षिण, पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत में तो पहले से यह मुख्य फसल है। आईसीएआर के पटना केन्द्र ने जो स्वर्ण श्रेया धान की खोज की है, वह यदि सफल होता है तो यह वास्तव में क्रान्तिकारी होगा क्योंकि किसी न किसी राज्य में कम बारिश का प्रभाव तो झेलना ही होता है। इससे उद्योग जगत को भी राहत मिलेगी क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था जब समृद्ध होगी और उस क्षेत्र से वस्तुओं की मांग निकलती रहेगी। अभी ग्रामीण क्षेत्र इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया है क्योंकि कुछ सामानों की तो मांग शहरी इलाकों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है।

(लेखिका पश्चिम बंगाल स्थित बर्द्धमान विश्वविद्यालय से वनस्पति शास्त्र में स्नातक हैं और उन्होंने काफी दिनों तक पश्चिम बंगाल के धान किसानों पर अध्ययन किया है। इस समय वह केन्द्रीय वित्त मन्त्रालय की एक परियोजना से जुड़ी हैं।)ई-मेल: monikashishir@gmail.com

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