कम पानी की सिंचाई पद्धतियां अधिक कारगर

वैज्ञानिकों ने निरंतर अनुसंधान द्वारा ऐसी सिंचाई विधियां विकसित की हैं जिनसे पानी व ऊर्जा की न केवल बचत होती है वरन् कृषि उपज भी अधिक प्राप्त होती है। ये पद्धतियां हैं - फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई पद्धतियां। इन पद्धतियों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि पानी का ह्रास नहीं होता क्योंकि पानी पाइप द्वारा प्रवाहित होता है तथा फव्वारा या बूंद-बूंद रूप में दिया जाता है। इन पद्धतियों से 75 से 95 प्रतिशत तक पानी खेत में फसल को मिलता है, जबकि प्रचलित सतही विधियों में 40 से 60 प्रतिशत ही फसल को मिल पाता है। इतना ही नहीं, फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई पद्धतियों की खरीद पर सरकार 50 से 75 प्रतिशत तक अनुदान भी देती है।कृषि विकास किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था का मेरुदण्ड है। सघन फसल उत्पादन में पानी एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण है जिसका कोई विकल्प भी नहीं है। वस्तुतः यह कटु सत्य है कि संपूर्ण विश्व में जल ही ऐसा संसाधन है जो निरंतर चिंता का विषय बन चुका है। वर्तमान में जल संकट के कारण निम्नवत हैं—

जनसंख्या वृद्धि, कम होता वर्षा का परिमाण, बढ़ता औद्योगिकीकरण, बढ़ता शहरीकरण, वृक्षों की अंधाधुंध कटाई, विलासिता, आधुनिकतावादी एवं भोगवादी प्रवृत्ति, स्वार्थी प्रवृत्ति एवं जल के प्रति संवेदनहीनता, भूजल पर बढ़ती निर्भरता एवं इसका अत्यधिक दोहन, परम्परागत जल संग्रहण तकनीकों की उपेक्षा, समाज की सरकार पर बढ़ती निर्भरता, कृषि में बढ़ता जल का उपभोग।

kam pani ki sinchayee padhatiya adhik kargarकृषि कार्यों में जल का अत्यधिक उपयोग होता है। यह भी प्रेक्षित किया गया है कि किसान भाई आधुनिक सिंचाई विधियों से अनभिज्ञ होने के कारण कृषि कार्यों में बहुमूल्य जल को व्यर्थ बहा देते हैं जिससे न केवल जल वरन् विद्युत ऊर्जा का भी अपव्यय ही होता है।

वैज्ञानिकों ने निरंतर अनुसंधान द्वारा ऐसी सिंचाई विधियां विकसित की हैं जिनसे पानी व ऊर्जा की न केवल बचत ही होती है वरन् कृषि उपज भी अधिक प्राप्त होती है। ये पद्धतियां हैं - फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई पद्धतियां। इन पद्धतियों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि पानी का ह्रास नहीं होता क्योंकि पानी पाइप द्वारा प्रवाहित होता है तथा फव्वारा या बूंद-बूंद रूप में दिया जाता है। इन पद्धतियों से 75 से 95 प्रतिशत तक पानी खेत में फसल को मिलता है, जबकि प्रचलित सतही विधियों में 40 से 60 प्रतिशत तक ही फसल को मिल पाता है। इतना ही नहीं, फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई पद्धतियों की खरीद पर सरकार 50 से 75 प्रतिशत तक अनुदान भी देती है।

फव्वारा पद्धति


इस पद्धति में पानी पाइप व फव्वारों द्वारा वर्षा के रूप में दिया जाता है। यह विधि असमतल भूमि के लिए अति उपयुक्त है। यह विधि 2 से 10 कि.ग्रा./ से.मी.2 दाब पर काम करती है। नोजल का व्यास 1.5 मि.मी. से 40 मि.मी. तक होता है। इनसे 1.5 लीटर/सेकंड से 50 लीटर/ सेकंड की दर से पानी फव्वारे के रूप में निकलता है। एक फव्वारे द्वारा 6 से 160 मीटर तक क्षेत्रफल सिंचित किया जा सकता है। हमारे देश में बहुधा 6 से 15 मीटर की दूरी तक पानी छिड़कने के सिंचाई फव्वारे उपलब्ध हैं। इन्हें चलाने के लिए 2.5 कि.ग्रा./ से.मी.2 दबाव की जरूरत होती है। यह विधि बाजरा, गेहूं, सरसों व सब्जियों के लिए अति उपयुक्त पाई गई है। कम लवणीय जल होने पर भी यह विधि उपयोग में लाई जा सकती है, परंतु अधिक लवणीय जल होने पर यह अनुपयुक्त है। इस विधि द्वारा नाइट्रोजन उर्वरक, कीट एवं कवकनाशक दवाइयों का भी छिड़काव किया जा सकता है।

बूंद-बूंद सिंचाई


इस विधि से भी पानी पाइप एवं ड्रिपर इत्यादि से दिया जाता है। सामान्यतया एक ड्रिप 2 से 10 लीटर प्रति घंटा पानी देता है। इस विधि में मुख्य पाइप 50 मि.मी., उपमुख्य पाइप 35 मि.मी. तथा सिंचाई पाइप 12 से 16 मि.मी. व्यास के होते हैं। इस विधि में सिंचाई वाली पाइप भूमि सतह से 30 से 40 से.मी. गहरा रखकर भी सिंचाई की जा सकती है। ड्रिप बंद होने की समस्या को एक प्रतिशत गंधक के तेजाब अथवा नमक के तेजाब (हाइड्रो-क्लोरिक अम्ल) का घोल बनाकर ड्रिपर को धोने से दूर की जा सकती है।

इस विधि से मजदूरी, पानी, बिजली तथा रासायनिक उर्वरकों की बचत होती है। काजरी, जोधपुर ने अपने अनुसंधानों द्वारा यह सिद्ध किया है कि यह विधि रेतीली मिट्टी के लिए बहुत ही उपयुक्त है।

बूंद-बूंद सिंचाई द्वारा विभिन्न फसलों में पानी की बचत व पैदावार

फसल

प्रचलित विधि

बूंद-बूंद विधि

पानी की मात्रा (मि.मी.)

पैदावार (टन/हे.)

पानी की मात्रा (मि.मी.)

पैदावार (टन/हे.)

लाल मिर्च

1184

1.93

813

2.94

टमाटर

700

50

350

90

फूल गोभी

240

20

120

26

पत्ता गोभी

240

25

120

33

शलगम

200

16

100

23

आलू

490

20

350

30

मक्का

558

6

360

12


तालिका से विदित होता है कि इस पद्धति से 30 से 50 प्रतिशत तक पानी की बचत व डेढ़ से दो गुना अधिक पैदावार मिलती है।

बूंद-बूंद सिंचाई थोड़ी महंगी है। अतः दो पंक्तियों के बीच एक ड्रिप लाइन 1.20 से 1.50 मीटर की दूरी पर डालने से 50 प्रतिशत खर्चा कम किया जा सकता है। इस विधि द्वारा लवणीय पानी भी सब्जियों में दिया जा सकता है।

सिंचाई की कोई भी विधि क्यों न हो, वाष्पोत्सर्जन की अपेक्षा वाष्पीकरण की हानि कम होनी चाहिए। पानी इस तरह से देना चाहिए जिससे अंतः भूमि सतह में कटाई के समय पानी न के बराबर रहे। इसी प्रकार सिंचाई जल की मात्रा इतनी भी ज्यादा न रहे कि भूमि की अंतःसतह में पानी चला जाए। उपर्युक्त वर्णित सिंचाई प्रबंधन से हम प्रति इकाई पानी से अधिक पैदावार ले सकते हैं। अपने जल स्रोतों को लंबे समय तक प्रयोग में ले सकते हैं। इसके साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति को बनाए रख सकते हैं। हमारा दूसरी हरित क्रांति का सपना पानी का सदुपयोग करने से ही पूरा होगा।

सरन्ध्र कटोरा सिंचाई पद्धति


इस प्रणाली में 500 मि.ली. क्षमता वाले मिट्टी के सरन्ध्र प्याले (कटोरे) रोपित पौधों के एक किनारे पर मिट्टी में गाड़ दिए जाते हैं। प्रत्येक पौधे के लिए एक अलग प्याला होता है। मौसम परिवर्तन के आधार पर इन प्यालों को 4-6 दिन के अंतराल पर जल से भर दिया जाता है। मृदा आर्द्रता तनाव के कारण इन सरन्ध्र कटोरों के बाहर जल रिसाव होता है, जो जड़ क्षेत्र में पौधे के समीप वाली मृदा को नम करते हैं। प्रायः इस विधि का उपयोग अधिक दूरी पर बोई जाने वाली सब्जियों, फलों और वनीय पौधों की सिंचाई के लिए किया जाता है।

अवमृदा सिंचाई


अवमृदा सिंचाई में जड़ क्षेत्र में लगभग 20-25 से.मी. भू-सतह के नीचे जल देने की प्रक्रिया सन्निहित होती है। यह प्रणाली मुख्य रूप से फल एवं वनीय अथवा अन्य पेड़ों की सिंचाई हेतु ही प्रयोग में ली जाती है। इस सिंचाई पद्धति में बहुत अधिक मात्रा में जल, उर्वरक अथवा कीटनाशकों की बचत के साथ ही पौधों की बढ़वार में स्पष्ट रूप से वृद्धि होती है। इस विधि में जो उपकरण उपयोग में लिया जाता है, उसे अवमृदा इंजेक्टर कहते हैं। यह पैरों के दबाव से चलाया जाने वाला चिकित्सा संबंधी पिचकारी (इंजेक्शन सीरिंज) का विस्तारित रूप है। इस उपकरण में 20 लीटर क्षमता वाले पात्र जिसे प्रवर्तक की पीठ पर या किसी हाथ से चलने वाली गाड़ी पर ढोया जाता है। तथा इसके द्वारा पौधों को जलापूर्ति की जाती है। इसका उपयोग भी बहुत सरल होता है। इस प्रणाली में वाष्पीकरण द्वारा होने वाली जल की हानि पूर्ण रूप से अवरोधित हो जाती है। इस उपकरण का उपयोग मृदा में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशी आदि के अनुपयोग में भी किया जाता है। इसके अतिरिक्त सतह पर नमी के अभाव में खरपतवार की वृद्धि भी रुक जाती है।

अधिक सिंचाई के दुष्प्रभाव


अधिक सिंचाई के निम्नांकित दुष्प्रभाव हैं—
1. हानिकारक लवणों का एकत्रित होना,
2. वायु संचार में अवरोध,
3. मृदा तापमान में कमी,
4. भूमि का दलदलीपन,
5. विनाइट्रीकरण एवं
6. मृदा संरचना में विकृति।

लवणीय जल से सिंचाई


लवणीय जल को सिंचाई हेतु उपयुक्त बनाने के कुछ सुझाव दिए गए हैं जिन्हें अपनाकर किसान भाई उपज लाभ प्राप्त कर सकते हैं।

1. लवण सहनशील फसलें, जैसे- गेहूं, बाजरा, जौ, पालक, सरसों का अधिक उपयोग करें।
2. सिंचाई करते समय फव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली को अपनाएं।
3. जल निकास की समुचित व्यवस्था रखें एवं हरी खाद का अधिक प्रयोग करें।
4. वर्षा के समय खेत में मेड़बंदी कर वर्षा के पानी को एकत्रित करें जिससे लवण घुलकर बाहर आ जाएंगे।
5. सिंचाई की संख्या बढ़ाएं तथा प्रति सिंचाई कम मात्रा में जल का प्रयोग करें।
6. यदि अच्छे पीने योग्य पानी की सुविधा उपलब्ध है तो लवणीय जल तथा मीठे जल दोनों को मिलाकर भी सिंचाई की जा सकती है।

अतः आशा की जाती है कि किसान भाई सिंचाई की उन्नत विधियों को अपनाकर कृषि में हो रहे जल अपव्यय को रोक सकते हैं।

(लेखक वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं स्वदेशी विज्ञान प्रचारक हैं)

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