कलियुग की काशीः उत्तरकाशी

झील की कुछ अन्य विशेषता यहाँ पाई जाने वाली एक विशेष मछली ट्राउट (गेमफिश) है, यह मछली झील में बहुत अधिक मात्रा में पायी जाती है और इसका शिकार विदेशी पर्यटकों को ड्योड़ीताल की तरफ खींच लाता है। शिकार के लिए कार्यालय वन प्रभाग उत्तरकाशी, कोटबंगला से अनुमति व लाइसेंस लेना पड़ता है। ड्योड़ीताल से पैदल मार्ग द्वारा यमुनोत्री भी जाया जा सकता है। सर्दियों में यह क्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। सानिवि अब यहाँ तक पहुँचने के लिए मोटर मार्ग का निर्माण कर रहा है, जिससे आशा है कि यह क्षेत्र प्रसिद्ध व आकर्षक पर्यटक स्थल का रूप ले सकेगा।यों तो समूचा उत्तराखंड ही अपनी प्राकृतिक छटाओं रमणीक/रहस्यमय स्थलों के लिए काफी प्रसिद्ध है, परन्तु जनपद उत्तराकाशी कई कारणों से कुछ विशेष ही महत्त्व रखता है। हिमालय के वक्ष में स्थित यह सीमांत जनपद उत्तर में हिमाचल प्रदेश, दक्षिण में टिहरी, पश्चिम में देहरादून जनपद के जौनसार भाबर व पूर्व में चमोली तथा उत्तर-पूर्व में विशाल हिमालय एवं तिब्बत से घिरा हुआ है। रमणीक दृश्यावलियाँ, वनों से आच्छादित पहाड़ियाँ, नदियों का कल-कल निनाद, विशालकाय बुग्याल, फूलों की घाटियाँ, नीरव, शांत सुन्दर झीलें, मनमोहक हिमालय, ग्लेश्यिर एवं हिमशिखर, धर्म एतिहासिकता/कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध अनेकों मन्दिर आदि जैसे इस जनपद की अपनी विशेषतायें हैं। हिन्दुस्तान के बहुत बड़े हिस्से को जल प्रदान करने वाली, पतित पावनी ‘गंगा यमुना’ का इसी जनपद से उद्गम होता है।

स्कन्द-पुराण में उल्लिखित ‘कलियुग की काशी’ अर्थात ‘उत्तरकाशी नगर’ इस जनपद का मुख्यालय है। जनपद का विस्तार मुख्यतया दो घाटियों में हुआ है। भागीरथी घाटी जिसके किनारे धरांसू, चिन्यालीसौड़, डुंडा, उत्तरकाशी, मनेरी, हरसिल, लंका, गंगोत्री आदि स्थान हैं तथा दूसरी तरफ यमुना - टौंस घाटी जिसमें बड़कोट, गंगनानी, हनुमानचट्टी, यमुनोत्री, नौगाँव, पुरौला, मोरी, नैटवाड़ आदि स्थान बसे हुए हैं। इन सभी स्थानों की प्राकृतिक सुन्दरता, उत्कृष्ट जलवायु, नैसर्गिक सौंदर्य पर्यटकों को बरबस अपनी ओर आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता रखता है।

ऋषिकेश से 65 किमी. चलने के बाद टिहरी नगर पहुँचा जा सकता है। इसके अतिरिक्त देवप्रयाग एवं श्रीनगर से भी बस मार्गों से टिहरी पहुँचा जा सकता है। टिहरी से टिहरी-धरासू मोटर मार्ग पर लगभग 38 किमी. चलने के बाद ‘नगुन’ नामक स्थान आता है यहीं पर टिहरी जनपद की सीमा समाप्त होकर उत्तरकाशी जनपद की सीमा प्रारम्भ होती है। यहाँ से लगभग 15 किमी. दूर चलने के बाद ‘धरांसू’ आता है जहाँ से यमुनोत्री एवं गंगोत्री के लिये सड़कें विभक्त हो जाती है।

यमुना घाटी में ‘गंगनानी’ नामक स्थान से हिमाच्छादित शैल शिखरों की छटा सूर्यास्त के समय देखने वाले को मोहित सा कर देती है। यहाँ पर वन विभाग का विश्राम गृह भी रहने के लिए उपलब्ध है। यमुनोत्री मार्ग पर ही हनुमानचट्टी नामक एक अन्य मनोरम स्थान है जो पर्यटकों को आकर्षित करने की पर्याप्त क्षमता रखता है, इसी क्षेत्र में पुरौला भी एक सुन्दर स्थान है, गंगोत्री मार्ग पर हरसिल नामक एक अति सुन्दर स्थान है, जहाँ पर प्राकृतिक सौन्दर्य का अद्वितीय नमूना देखने को मिलता है। यहाँ पर ‘फ्रेडरिक-विल्सन’ नामक एक विदेशी का बनवाया सौ वर्षों से भी पुराना, देवदार की लकड़ी का एक बंगला है जो अब ‘विल्सन हाउस’ के नाम से जाना जाता है, हरसिल के देवदार के घने वन, सेब के मनमोहक उद्यान भुलाये नहीं भूलते।

जनपद के अनेकों सेब उद्यान न सिर्फ अपनी सुन्दरता से आँखों को आकर्षित करते हैं, वरन स्वाद की दृष्टि से भी जनपद के सेब सारे भारत के सेबों में अपना विशेष स्थान रखते हैं। हरसिल, धनारी, राड़ी, फलाचा, कफनौल, मोराल्डा, धडूली, जरमौला, सेवरी व अराकोट बंगाण में 4,000 फीट से ऊँची पहाड़ियों पर अनेकों सेब उद्यान हैं। इसके अतिरिक्त भटवाड़ी से 5 किमी. ऊपर रैथल में 90 एकड़ का एक सुन्दर दर्शनीय सरकारी फलोद्यान भी स्थित है। जनपद में वनों से आच्छादित कई सुन्दर, मनमोहक पर्वत शृंखलायें अपने आप में एक निराला ही महत्त्व रखती हैं। सुन्दरवन, नन्दनवन, तपोवन, भोजवासा, हरसिल, ड्योड़ीताल, सिरोर आदि स्थानों में चीड़, देवदार, बाँज, बुराँस, कैल, मोरू, रैई, मुरण्डों आदि के अनकों घने वन हैं। जिनमें न सिर्फ एक विचित्र सी शांति का आभास होता है, वरन बाघ, चीता, रीछ, सुअर, हिरन, खरगोश, साही आदि विभिन्न प्रकार के वन्य जन्तु भी देखने को मिलते हैं। मासूम सा कस्तूरीमृग (चोर शिकारियों द्वारा बड़ी संख्या में मार दिये जाने के बावजूद) अभी भी आसानी से दिखाई पड़ता है। हिमालय क्षेत्र होने से भाँति-भाँति के सुन्दर पक्षी हर मौसम में दिखाई देते हैं। कठफोड़ा, नीलकंठ, जंगली कबूतर, तोते, मुर्गाबियों और विभिन्न प्रकार की रंग-बिरंगी छोटी-छोटी चिड़ियों के अतिरिक्त, यहाँ पर ककलांस व ‘मुनाल’ जैसे सुन्दर पक्षी भी देखने को मिलते हैं, मुनाल इतना अधिक सुन्दर पक्षी होता है कि लोकगीतों में उसे ‘पहाड़ का मोर’ की संज्ञा दी गई है।

टौंस, यमुना, भागीरथी की घाटियों में अनेकों अंजान, सुन्दर रमणीक स्थान विद्यमान हैं, ‘कमल गंगा’ की घाटियों में ‘रामासिराई’ और ‘कमलसिराई’ नामक दो घाटियाँ स्थित हैं, जो प्राकृतिक सुन्दरता में कश्मीर घाटी से बहुत कम नहीं हैं, साथ ही इन घाटियों की माटी भी सोना उगलती है, खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से जनपद की नदी, घाटियों के विषय में इतना ही कहा जा सकता है कि उत्तरकाशी जनपद ही समस्त उत्तराखण्ड में (नैनीताल व देहरादून जनपद को छोड़कर) एक ऐसा जनपद है जो खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से आत्मनिर्भर है। असी गंगा, जाड़ गंगा, सूपिन नदी, हनुमान गंगा आदि कई अन्य छोटी-छोटी नदियाँ निरंतर अपना चाँदी सा चमकता, शीतल जल लेकर एक आनन्ददायक, लयबद्ध संगीत का रसास्वादन कराती रहती हैं। इन नदियों में भारी मात्रा में ट्राउट, औराइनस, महासेर आदि मछलियाँ भी मिलती हैं। जिनके शिकार के लिये पर्यटकों को आकर्षित किया जा सकता है।

जनपद में गंधक के अनेकों तप्तकुंड व स्रोत हैं। यमनोत्री में खौलते जल के अनेकों कुण्ड हैं, जिनमें यात्री चावल, आलू आदि कपड़े में बाँधकर डाल देते हैं और वे उबलकर स्वयं ऊपर आ जाते हैं, गंगोत्री व गंगनानी में भी गर्म जल के कुण्ड हैं, जिनमें स्नान करना न सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण से महत्त्व रखता है वरन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इन कुण्डों में स्नान करके अनेकों प्रकार के चर्म रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।

जनपद में मीलों लम्बे अनेकों ‘बुग्याल’ देखने को मिलते हैं, बुग्याल स्थानीय बोली में दूब जैसी घासों के उन लम्बे चौड़े स्थलों को कहते हैं, जिन्हें चारागाहों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, चूँकि समुद्र सतह से लगभग 4 हजार मीटर ऊपर से वृक्ष-झाड़ियाँ आदि नहीं मिलते, इसलिए इन ऊँचे-ऊँचे स्थलों पर सिर्फ घासें ही उगती हैं, भटवाड़ी से लगभग 11 किमी, ऊपर ‘द्यारा बुग्याल’ लगभग 10,000 की ऊँचाई पर स्थित प्राकृतिक सौन्दर्य से भरपूर एक मनोरम स्थल है। बंगाण में ‘पाजूधार’ लगभग सात हजार फीट की ऊँचाई पर सघन वनों से घिरा एक विस्तृत, मनोहर बुग्याल है, जनपद में भाँति-भाँति के फूलों से सुशोभित अनेकों गुमनाम फूल घाटियाँ भी मौजूद हैं, जहाँ मार्च-अप्रैल से अगस्त-सितम्बर तक ब्रह्मकमल, फेण कमल, लेशर, जंयाण, सौसुरिया, प्रिमुला, प्रिमरोज, एलियम फिटिलेरिया, पौपी, लिली, रैननकुलस आदि सैकड़ों किस्म के फूल खिलते रहते हैं।

। सहस्त्र तालों का क्षेत्र प्रायः हिमाच्छादित रहता है, जबकि ड्योड़ीताल सघन वनों से घिरा एक मनमोहक रमणीक स्थल है। उत्तरकाशी से गंगोत्री मोटर मार्ग पर 3 किमी. दूर गंगोड़ी नामक स्थान है, जहाँ से 11 कि.मी. आगे पैदल मार्ग पर कल्डियाणी नामक स्थान है। यहाँ पर टिहरी नरेश द्वारा 1910 में स्थापित एक मत्स्य पालन केन्द्र है, यहाँ से 7 किमी. दूर ‘अगौड़ा’ गाँव है, जहाँ पर वन विभाग का विश्राम गृह है। गाँव से प्रकृति को सुन्दर झरने, इठलाती बलखाती असीगंगा, घने वनों, सूर्यास्त की लालिमा आदि अनेक सुन्दर रूपों में देखा जा सकता है।जनपद के ‘पुराला विकास खण्ड’ की पंचगाई पट्टी स्थित फतेह पर्वत में मनोहारिणी ‘हर की दून’ 10-12 किमी. विस्तार में फैली हुई अनोखी फूलघाटी है, इस घाटी में हरी दूब पर असंख्य किस्मों के फूल व मूल्यवान औषधि-पादप (दूर से देखने पर ऐसा लगता है कि मानो किसी चित्रकार ने बड़े यत्न से अपनी तूलिका चलाकर चित्रकारी की हो) समुद्र सतह से 11,700 फीट ऊँचाई पर स्थित हर की दून, ईश्वर की सौन्दर्यमयी अद्भुत घाटी के नाम से विख्यात है, ‘बंदरपूँछ’ पर्वत की तलहटी में स्थित यह घाटी फूलों से सजी नवेली दुल्हन सी फूल घाटी है। पुरौला से जरमौला, नेटवाड़, ताकुला होते हुए यहाँ जाया जा सकता है (इस मार्ग में ‘ओसला’ अंतिम गाँव हैं, जहाँ से साढ़े तीन किमी. आगे से यह मखमली फूलघाटी शुरू हो जाती है, इसी फूलघाटी में सूपिन नदी की जलधारा अपना दुग्ध धवल जल लेकर बहती है) ‘हर की दून’ के पश्चिम में ‘पटागणी’ नामक लगभग 130 फीट ऊँचा एक झरना भी है।

पुरौला विकास खण्ड में ही उत्तरकाशी व हिमाचल प्रदेश की सीमा पर फूलों की एक अन्य घाटी, मांझी वन की फूल घाटी स्थित है। समुद्र सतह से 16,130 फीट ऊँची यह लम्बी-चौड़ी मीलों फैली, फूलों से लदी घाटी है। यहाँ चकरौता व हिमाचल प्रदेश से आया जा सकता है। इस घाटी का ब्रह्मकमल बहुत सुन्दर पुष्प होता है। जनपद के टकनौर पट्टी में नागड़ीडाक नामक विशाल मैदान फूलों से बारहों मास आच्छादित रहता है। उत्तरकाशी-गंगोत्री मोटर मार्ग पर (भटवाड़ी से आगे) सुक्खी गाँव है। इस गाँव से 5 किमी. ऊपर ‘सुक्खी’ शिखर है। इसे नागणी सौड़ कहते है। यह भी 5 किमी. लगभग लम्बा व 2 किमी. चौड़ा फूलों का मैदान है, हरी-भरी दूब पर विषकण्डार, सूरजकमल, जंगली गुलाब आदि अनेकों पुष्प किसी रत्नजटिल आभूषण के समान सुशोभित होते हैं। यहाँ पर नाग आदि के प्राचीन मन्दिर हैं। सुक्खी-धराली की फूल घाटियाँ मीलों तक फैली हैं।

भटवाड़ी के निकट मल्ला गाँव से ‘बूढ़ा केदार’ पवालीकाँठा होते हुए 131 किमी. चलकर केदारनाथ जाने का एक बहुत पुराना पैदल मार्ग है। इस मार्ग पर मल्ला से 20 किमी. दूर बैलख चट्टी नामक स्थान है। यहाँ से 7 किमी. आगे ‘जौराई’ नामक स्थान से आगे उत्तरकाशी वप टिहरी जनपद की सीपा पर जौराई की सुन्दर फूल घाटी है। ‘जौराई’ व ‘कुशकल्याण’ की घाटियों को 14 हजार फीट ऊँची हिमाच्छादित चोटियाँ विभाजित करती हैं। जौराई से चढ़ाई पारकर 3 किमी. आगे कुशकल्याण की फूल घाटी में पैदल मार्ग से पहुँचा जा सकता है। यह घाटी 5 किमी. विस्तृत है। स्थानीय लोग इसे ‘कोटालों की हारी’ अर्थात ‘परियों की घाटी’ कहते हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार यहाँ पर अधिक देर ठहरने से परियाँ मनुष्यों का हरण कर लेती हैं। इस घाटी से 500 फीट ऊपर ‘कोटाली शिखर’ है। शिखर के दूसरी तरफ ‘सहस्त्रताल’ की छः फूल चाटियों का विस्तृत क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है। इनको स्थानीय भाषा में क्यार्की बुग्याल की फूल घाटियाँ कहा जाता है। इस क्षेत्र में न सिर्फ अनेकों फूलों की घाटियाँ है वरन कई सुन्दर ताल एवं ग्लेशियर भी मौजूद हैं, इन तालों को सम्मिलत रूप से सहस्त्रताल कहा जाता है।

‘क्यार्की बुग्याल’ से ‘क्यार्की नदी’ के उद्गम की तरफ बढ़ने पर अंच्छरी ताल नामक एक सुन्दर झील देखने को मिलती है, यहाँ से ऊपर ‘कुरली शिखर’ चढ़ने के बाद लिंगताल नामक एक दर्शनीय ताल दिखाई देता है। लगभग 14 हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित इस ताल के बीचों-बीच शिवलिंग सा प्रकृति-निर्मित चबूतरा बना हुआ है। इसी कारण इस ताल को ‘लिंगताल’ कहते हैं। इस ताल के आस-पास अनेकों अन्य छोटे-छोटे ताल स्थित हैं, लिंगताल के ऊपर लगभग दो फलांग परिधि का ‘मातृकाताल’ है, जिसके चारों ओर बड़ी-बड़ी चट्टानें ऐसे लगी है मानो दर्शकों के बैठने के लिए रखी गई हों। निकट ही पश्चिम की तरफ छोटा सा ‘नृसिंह ताल’ है, जिसके 50-60 फीट ऊपर ‘सिद्धताल’ है। इसका जल अति स्वच्छ है। इस ताल की तलहटी भी ठोस चट्टानों से निर्मित है, जो ऊपर से देखने पर ऐसी दिखती है कि जैसे किसी मनुष्य ने वहाँ पर ‘टाइलें’ बिछाई हों, सिद्धताल के दक्षिण में लगभग 1 किमी. दूर गहरा भयंकर ‘यमताल’ है। सबसे अधिक, लगभग 16780 फीट ऊँचाई पर ‘सहस्त्रताल’ स्थित है, जो एक-डेढ किमी. लगभग परिधि में व 100-150 फीट लगभग गहरा है, जिसमें ‘द्रुपदा कटार’ नामक हिमशिखर का जल एकत्र होता है। इन सभी तालों का जल पिलग नामक नदी के रूप में बहता है।

इसी पर्वत शिखर पर उत्तर पश्चिम की ओर लगभग साढ़े तीन किमी. दूर तक अन्य ताल स्थित है। इसे भी ‘सहस्त्रताल’ के नाम से ही जाना जाता है, इससे भिलंग नामक धारा निकलती है। निकट ही भीलंक व पीलंग मिलकर भिलंगना नामक नदी का निर्माण करती हैं। भिलंगना टिहरी जनपद में बहकर टिहरी में भागीरथी नदी में मिल जाती है।

सहस्त्र तालों तक पहुँचना आसान कार्य नहीं है। मार्ग की भीषण दुर्गमता व स्थानीय मार्गदर्शकों के अभाव में कई साहसी पर्यटकों के दल मार्ग से ही वापस लौट चुके हैं। दूसरी ओर आसानी से पहुँची जा सकने वाली एक अन्य सुन्दर झील जनपद में उत्तरकाशी नगर के निकट ही स्थित है। इसे डोड़ीताल अथवा ड्योड़ीताल कहते हैं। सहस्त्र तालों का क्षेत्र प्रायः हिमाच्छादित रहता है, जबकि ड्योड़ीताल सघन वनों से घिरा एक मनमोहक रमणीक स्थल है। उत्तरकाशी से गंगोत्री मोटर मार्ग पर 3 किमी. दूर गंगोड़ी नामक स्थान है, जहाँ से 11 कि.मी. आगे पैदल मार्ग पर कल्डियाणी नामक स्थान है। यहाँ पर टिहरी नरेश द्वारा 1910 में स्थापित एक मत्स्य पालन केन्द्र है, यहाँ से 7 किमी. दूर ‘अगौड़ा’ गाँव है, जहाँ पर वन विभाग का विश्राम गृह है। गाँव से प्रकृति को सुन्दर झरने, इठलाती बलखाती असीगंगा, घने वनों, सूर्यास्त की लालिमा आदि अनेक सुन्दर रूपों में देखा जा सकता है। यहाँ से 23 किमी. आगे चलने पर लगभग 10 हजार फीट की ऊँचाई पर ड्योड़ीताल दिखाई देता है। अगौड़ा से डोड़ीताल का मार्ग पर्यटक के लिए सम्मोहक सा कार्य करता है। भाँति-भाँति के पशु पक्षी दूर घाटी में बहती असीगंगा, घने वन बुराँस के लाल सफेद फूल कहीं-कहीं बर्फ की छोटी-छोटी चट्टानें आदि इस मार्ग की अपनी विशेषताएँ हैं।

ड्योड़ीताल में वन विभाग का एक विश्रामगृह एक लौग-कैबिन, दो टैंट व टैंट लगाने की काफी जगह उपलब्ध है। ड्योड़ीताल झील पर पहुँचकर पर्यटक मंत्रमुग्ध हो जाता है। मार्ग की सारी थकान जैसे एक पल में दूर हो जाती है। झील लगभग डेढ़-दो किमी. दायरे में फैली हुई है। काफी गहरी होने से झील का पानी नीला सा दिखाई देता है। झील के निचले किनारे से ‘असीगंगा’ नामक नदी निकलती है। स्थाीनय लोगों में झील का काफी धार्मिक महत्व है। वे लोग झील के जल को बहुत पवित्र मानते हैं तथा झील की मछलियों का शिकार भी नहीं करते। झील की कुछ अन्य विशेषता यहाँ पाई जाने वाली एक विशेष मछली ट्राउट (गेमफिश) है, यह मछली झील में बहुत अधिक मात्रा में पायी जाती है और इसका शिकार विदेशी पर्यटकों को ड्योड़ीताल की तरफ खींच लाता है। शिकार के लिए कार्यालय वन प्रभाग उत्तरकाशी, कोटबंगला से अनुमति व लाइसेंस लेना पड़ता है। ड्योड़ीताल से पैदल मार्ग द्वारा यमुनोत्री भी जाया जा सकता है। सर्दियों में यह क्षेत्र हिमाच्छादित हो जाता है। सानिवि अब यहाँ तक पहुँचने के लिए मोटर मार्ग का निर्माण कर रहा है, जिससे आशा है कि यह क्षेत्र प्रसिद्ध व आकर्षक पर्यटक स्थल का रूप ले सकेगा। सहस्त्र ताल व ड्योड़ीताल के अतिरिक्त भी कई अन्य छोटे-छोटे ताल व कुण्ड भी जनपद में स्थान-स्थान पर स्थित है जिनमें ‘नहेटा ताल’, नचिकेता ताल’ आदि प्रमुख हैं।

जनपद के अनेकों स्थानों से हिमालय की अदभुत छटा निहारी जा सकती है। गौमुख के निकट भागीरथी एवं शिवलिंग शिखर देखने वालों को भावविभोर कर देते हैं। सूर्याेदय एवं सूर्यास्त के समय आँखों को यह रंग बदलते शिखर कुछ अनोखा सा ही अनुभव कराते हैं। यमुनोत्री के निकट ‘बन्दरपूंछ’ व ‘स्वर्गारोहिणी’ हिम शिखर हैं। बन्दरपूँछ की 20,931 फीट ऊँची चोटी पर्वतारोहियों के लिये भी एक विशेष आकर्षण है, स्वर्गारोहिणी की 20,390 फीट ऊँची चोट हर की दून से 13 किमी. दूरी पर स्थित है। स्थानीय लोग इसे ‘स्वर्ग का मार्ग’ भी कहते हैं। धराली के निकट ‘श्रीकंठ’ शिखर भी हिमालय का एक सुन्दर शिखर है। इसके अतिरिक्त भी अन्य कई सुन्दर हिमशिखर न सिर्फ जनपद की सुन्दरता में वृद्धि कर रहे हैं, वरन देश की सीमाओं के सजग प्रहरी के रूप में भी सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं।

जनपद में सिर्फ हिमालय के अनेकों उत्तुंग शिखर ही दृष्टिगोचर नहीं होते, बल्कि कई एक छोटे-बड़े ग्लेशियर भी जनपद की प्रकृति प्रदत्त सुन्दरताओं में एक है। गंगोत्री से 22 किमी. पैदल चलके भागीरथी का उद्गम ‘गौमुख हिमनद’ है। गंगोत्री से आगे का सारा मार्ग वनों से आच्छादित है। तपोवन आदि स्थानों की सुन्दरता अकथनीय है। भोजपत्र आदि के वृक्ष यहाँ पर बहुतायत से मिलते हैं। गौमुख ग्लेशियर 4,255 मी. ऊँचा है। इसका विस्तार ‘चौखम्बा’ हिम श्रेणियों के पार बद्रीनाथ से गौमुख तक है। यह ग्लेशियर रूद्र, केदार, नन्दा, सीता, कालिन्दी, आदि छोटे-बड़े ग्लेशियरों से पोषित है।

ग्लेशियर लगभग 22 किमी. लम्बा व 5-7 किमी. चौड़ा है। यह ग्लेशियर काफी आकर्षक है व इस तक पहुँचना अपेक्षाकृत सरल है। प्रकट रूप में भागीरथी का उद्गम ‘गौमुख’ ही है पर वास्तविकता में ‘भागीरथी’ न जाने उस स्थान से कितने पीछे बर्फ के नीचे-नीचे बहती जाती है।

यमुनोत्री मन्दिर से लगभग 6 किमी. ऊपर यमुनोत्री ग्लेशियर स्थित है, जहाँ पर श्वेत मोतियों की लड़ियों सी यमुना निकलती है। हिमालय की विशालता में छिपे अन्य कई अनाम ग्लेशियर भी जनपद में मौजूद हैं। जो साहसी पर्वतारोहियों/सैलानियों का निरन्तर आवहान कर रहे हैं।

प्रकृति का शांत/ मनमोहक /रहस्यमय रूप आस्था जाग्रत करने का एक बहुत बड़ा कारक होता है। इसीलिये प्राचीनकाल से इस भूमि में अनेकों मन्दिरों की स्थापना हुई है। विभिन्न समयों में विभिन्न देवी-देवताओं के विभिनन मन्दिर भी यहाँ स्थापित किये गये, जो न सिर्फ धार्मिकता की दृष्टि से अपना महत्त्व रखते हैं, वरन शिल्प/ कलात्मकता के दृष्टिकोण से भी महत्त्वपूर्ण है। कितनी विचित्र बात है कि जहाँ एक ओर पाण्डवों के मन्दिर यहाँ हैं, पाण्डवों की पूजा की जाती है वहीं दूसरी ओर दुर्योधन, कर्ण आदि के भी मन्दिर हैं, उनकी भी पूजा की जाती है। पुराणों में इस भूमि को देवभूमि की संज्ञा दी गई है।

ऋषिकेश से 249.3 किमी. दूर समुद्र सतह से 3200 मी. ऊँचाई पर भागीरथी के दक्षिण में गंगोत्री बसा हुआ है यहाँ पर 18 वीं सदी में गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा द्वारा निर्मित भागीरथी का एक मंदिर है, कहा जाता है कि जिस पत्थर पर बैठ कर भगीरथ ने तपस्या की थी, उसी पत्थर पर अब ‘भागीरथी’ (गंगा) की प्रतिमा बनी है। मन्दिर में आदि शंकरराचार्य की भी प्रतिमा बनी है।

शीत ऋतु में मूर्तियों को नीचे हरसिल में मुखबा गाँव से डेढ़ किमी. दूर मार्कण्डेय क्षेत्र में लाया जाता है। गंगोत्री में अनेकों कुण्ड, सूर्यकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड आदि हैं। हजारों यात्री प्रतिवर्ष यहाँ देश के विभिन्न भागों से आते हैं। गंगोत्री से 12 किमी. नीचे ‘लंका’ नामक स्थान है, जहाँ से गंगोत्री आने के लिये 1.6 किमी. पैदल चलना पड़ता है। यहाँ पर पैदल पुल बना है, जिसके पार पुनः मोटर मार्ग है। इस भयानक घाटी को भैरों घाटी कहते हैं। पुल पर खड़े होकर नीचे देखने पर समूचे बदन में सिहरन सी उठती है। घाटी पर मोटर पुल निर्माणधीन है जिसके बन जाने पर मोटर द्वारा सीधे गंगोत्री तक पहुँचा जा सकेगा।

ऋषिकेश से ल गभग 222 किमी. दूर बन्दरपूँछ शृंखला के पश्चिम की तरफ 3294 मी. ऊँचाई पर यमुनोत्री मन्दिर स्थित है। यमुना की धारा उत्तरवाहिनी होने से इसे यमुनोत्री कहा जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध यमुना मंदिर है। यमुना मंदिर है। यमुना घाटी की रवाँई संस्कृति भारत की विचित्र संस्कृतियों में एक है - इस संस्कृति का अनुभव पर्यटक के लिये एक विस्मयकारी अनुभव हो सकता है।

उत्तरकाशी नगर में मंदिरों की अधिकता के कारण इस नगर को ‘मन्दिरों का नगर’ भी कहा जाता है, यहाँ पर विश्वनाथ का एक ऐतिहासिक मंदिर है, जिसके आगे शक्ति का प्रतीक एक 21 फीट ऊँची त्रिशूल स्थापित है। त्रिशूल में पाली लिपि में अभिलेख खुदा है। त्रिशूल उत्तराखण्ड की प्रमाणित - पुरातत्विक कृतियों में से एक है। कतिपय विद्वानों के अनुसार यह उत्तरकाशी के 12 वीं सदी के नाग वंश के शासकों के समय का है। विश्वनाथ मंदिर की स्थापना उन्नीसवीं सदी के मध्य में तत्कालीन टिहरी नरेश सुदर्शन शाह द्वारा की गई थी।

उत्तरकाशी नगर में इसके अतिरिक्त दुर्गा मन्दिर, गोपेश्वर मन्दिर, दक्ष प्रजापति मन्दिर, कालभैरव मन्दिर, जयपुर मन्दिर, हनुमान मन्दिर, गोपाल मन्दिर, जड़भरत मन्दिर, दत्तात्रेय मन्दिर आदि अनेकों मन्दिर हैं। दत्तात्रेय मन्दिर में स्थापित मूर्ति के विषय में पण्डित राहुल सांकृत्यायन का मत था कि यह बुद्ध प्रतिमा हैं। उनके अनुसार 11 वीं सदी के प्रारम्भ में थोलिंग गुफा के निर्माता ‘होशे जादू’ (ज्ञान प्रभु) के पुत्र देव भट्टारक नाग ने यहाँ पर बुद्ध का मन्दिर स्थापित किया था। जो भी हो दत्तात्रेय प्रतिमा शिल्प की दृष्टि से एक अनुपम कृति थी। अब यह प्रतिमा चोरी कर ली गई हैं।

उत्तरकाशी - टिहरी मोटर मार्ग पर उत्तरकाशी से 11 किमी. दूर नाकुरी नामक स्थान से 3 किमी. दूर पैदल चलने पर परशुराम की माता रेणुका देवी की भव्य मूर्तियाँ प्राचीन गढ़ मन्दिर में स्थापित हैं। मन्दिर व मूर्तियाँ कलात्मकता की दृष्टि से अनुपम हैं, उत्तरकाशी के आस-पास कमलेश्वर महादेव, कण्डारदेवता, लक्षेश्वर आदि मन्दिरों की छोटी-बड़ी प्रतिमायें, धर्म व शिल्प दोनों दृष्टियों से अपना विशेष महत्व रखती हैं, पर उन पर दिये रहस्यों की तरफ भी शोधकर्ताओं, की दृष्टि नहीं गई है।

इतनी विलक्षणताओं के होते हुए भी जनपद में पर्यटन का विकास उसके सही रूपों में नहीं हुआ है, आवागमन के साधनों की असुविधा, आवास की समुचित व्यवस्था न होना, मार्गदर्शकों की कमी, व्यापक प्रचार का अभाव, कुछ ऐसे कारण हैं जिनके अभाव में इस क्षेत्र में पर्यटन उद्योग को सही दिशा नहीं मिल पायी है। फिर भी हजारों तीर्थयात्री, देशी-विदेशी सैलानी जनपद की प्राकृतिक छटाओं का रसास्वादन प्रतिवर्ष करते हैं। यदि प्रदेश सरकार इस क्षेत्र में पर्यटन उद्योग के विकास की तरफ अधिक ध्यान दें तो न सिर्फ राजस्व की अधिक प्राप्ति होगी वरन यह सीमान्त जनपद और अधिक प्रगति कर सकेगा।

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