कलाकारों की रिलीफ पार्टी

वर्ष 1966 का भयानक सूखा-जब अकाल की काली छाया ने पूरे दक्षिण बिहार को अपने लपेट में ले लिया था और शुष्कप्राण धरती पर कंकाल ही कंकाल नजर आने लगे थे... और सन् 1975 की प्रलयंकर बाढ़- जब पटना की सड़कों पर वेगवती वन्या उमड़ पड़ी थी और लाखों का जीवन संकट में पड़ गया था....। अक्षय करुणा और अतल-स्पर्शी संवेदना के धनी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु प्राकृतिकप्रकोप की इन दो महती विभीषिकाओं के प्रत्यक्षदर्शी तो रहे ही, बाढ़ के दौरान कई दिनों तक एक मकान के दुतल्ले पर घिरे रह जाने के कारण भुक्तभोगी भी। अपने सामने और अपने चारों ओर मानवीय विवशता और यातना का वह त्रासमय हाहाकार देखकर उनका पीड़ा-मथित हो उठना स्वाभाविक था। विशेषतः तब, जबकि उनके लिए हमेशा ‘लोग’ और ‘लोगों का जीवन’ ही सत्य रहे। आगे चलकर मानव-यातना के उन्हीं चरम साक्षात्कार-क्षणों को शाब्दिक अक्षरता प्रदान करने के क्रम में उन्होंने संस्मरणात्मक रिपोर्ताज लिखे।

फणीश्वरनाथ रेणु के बाढ़ के अनेक रिपोर्ताज में से एक -



) अभी टेलीफोन लाइन ठीक रहती तो कहीं से जाकर सीधे अपने पुराने मित्र सरदार चंद्रमोलेस्वर सिंह को इन संवादों के साथ बधाई दे देता...चंद्रमौलेश्वर नाम सिक्ख नामावलि में असाधारण, ‘अनकॉमन’ और अजनवी भले ही हो- सरदार चंद्रमौलेश्वर श्री पटणासाहब गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के जनरल सेकेटरी हैं। आज सुबह सुबह से ही ‘अपने लोग’ स्वजन-सनेही, मित्र और प्रतिभाजन-जन-हमारी सुधि लेने आ रहे हैं। कोई खाली हाथ नहीं आता। एक हाथ में लट्ठ और दूसरे में हमरे लिए कोई-न-कोई आवश्यक सामान...सभी एक अभूतपूर्व ‘मेकअप’ में – लूंगी या धोती लपेटे, गंजी पहने, डाक्टर रामवचन राय आये, तो उनके हाथ में जो लाठी थी वह उनसे भी वजनी रही होगी। मैंने हंसकर कहा था— “आचार्यजी, लाठी में गुण बहुत है, सदा राखिये संग। नदि-नाला...”

परेसजी आये, हाथ में बोतल लेकर – “बहुत मुश्किल से एक बोतल “ऊपर” किया है। आज-भर तो काम चल जायेगा न...?”

बोतल पर ‘ब्लैकनाइट’ का लेबुल ...हालांकि काफी मटमैला और बदरंग था। लतिकाजी आतंकित स्वर में बोलीं- “यह ...क्यों...फिर...फिर...”

“जी, किरासन तेल!”

एक क्षण पहले ही जिनको मेरा कोई महामध्यप और ‘माताल’ मित्र समझकर दरवाजे पर से ही विदा करने को सोच रही थीं लज्जित और पुलकित होकर उन्हें धन्यवाद देने लगीं- “अंदर आइए न...भीगकर आये हैं। चाय पी लीजिए।”

मैंने लतिकाजी से एकांत में अनुनय किया- “तुम दया करके इनसे यह मत पूछा करो कि दाम कितना लगा। आर्टिस्ट लोग हैं, छोटी-सी बात से ही ठेस लग जाती है इन्हें।”

अभी कुछ देर पहले डॉक्टर रामवचन राय एक बड़े झोले में हरी और टटकी सब्जियाँ भरकर ले आये – झिंगुनी, रामतोरई, करेला, परवल, फ्रेंचबीन, हरी मिर्च और चार दूधिया – नाजुक मकई के बाल...

लतिकाजी ने औपचारिकतापूर्ण बातों के साथ ही पूछ लिया – “तीन-चार किलों तो जरूर होगा – सब मिलाकर। इतना ढेर क्यों ले आये? ...कितना दाम...?”

मैंने बात को बीच में काटते हुए रामवचनजी से कहा- “असल दिक्कत किरासन तेल की है।”

‘तोमार बस एकई कथा-किरासन तेल। नहीं, रामवचनजी, आप किरासन तेल मत लाइएगा। मैं भी अभी निकलूँगी, ले आऊँगी...देखिए न, आज सुबह से जो भी आते हैं सबसे बस किरासन तेल की दिक्कत ...मैं तो डरी कि कहीं अपने नये ‘जमाय’ और ‘कुटुंब’ को भी किरासन तेल की दिक्कत सुनाकर फरमाइस न कर बैठें।’

परेसजी बैठे ही थे कि डाक्टर रामवचन राय ‘डालडा’ के नये डिब्बे में किरासन तेल लेकर लौटे। इसके तुरंत बाद ही श्रीमान घायल एक किरासन तेल वेंडर को ही गाड़ी के साथ लेकर प्रकट हुए – “लीजिए, कितना तेल लीजिएगा।” घायल के हाथ में ‘फैरेजनी’ की दो डबल रोटियाँ थीं- “अशोक राजपक्ष पर एक दुकान में मिल गयीं...”

मित्रों के जाने के बाद लतिकाजी की बेकार की बहस को मैंने समाप्त करने की चेष्टा की- “देखिए मैं, यानी पटना का एक लेखक, अर्थात् कलाकार, बाढ़ से घिरा हुआ हूं..एरा आमार जातेर लोक,...ये हमारी बिरादरी के लोग हैं – लेखक, कवि, पत्रकार, कथाकार, आर्टिस्ट, अभिनेता-मेरी सुधि लेने आते हैं और मेरे लिए ‘रिलीफ’ ले आते हैं। मुझे जिस चीज की जरूरत होती है उनसे बेझिझक कह देता हूँ...अपने को धन्य मानकर, उनके लाये हुए ‘सौगात’ को प्रसाद से भी अधिक पवित्र समझकर, निर्विकार चित्त से उपभोग करता हूँ। इसमें लाज-शर्म की बात अथवा ‘जग/हंसाई’ कहां है?...हां, बेटी ससुराल से आये हुए फल तथा अन्न की आप निश्चय ही अलग रख दीजिए।”

सरदारों की रिलीफ टोली आज दोपहर में भी रोटी-पानी बांट गयी है। आसपास के मकानों में बसेरा लिये हुए लोग-गर्म-गर्म रोटियां खाते हुए बतिया रहे हैं- “पूरी से भी ज्यादा स्वाद है इस रोटी में...कितना प्रेम से ‘बांट-बखर’ करते हैं; न किसी को कम, न किसी को ज्यादा ...बोल रहे थे कि सांझ को भी ‘लंगर’ आयेगा, घबराना मत...ई ‘लंगर’ का है हो? ...”हँ हँ हँ – लंगर नहीं समझा – यही जो खा रहे हो।”

अभी टेलीफोन लाइन ठीक रहती तो कहीं से जाकर सीधे अपने पुराने मित्र सरदार चंद्रमोलेस्वर सिंह को इन संवादों के साथ बधाई दे देता...चंद्रमौलेश्वर नाम सिक्ख नामावलि में असाधारण, ‘अनकॉमन’ और अजनवी भले ही हो- सरदार चंद्रमौलेश्वर श्री पटणासाहब गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के जनरल सेकेटरी हैं। पंजाबी सिक्ख नहीं, पूर्णियाँ के सिक्ख हैं।

इसलिए इतना मनोहर नाम है। हाँ, हमारे जिला में पंद्रह-बीस टोलों के ऐसे-ऐसे बड़े गाँव भी हैं जहाँ अचानक पहुँचकर किसी को भ्रम हो सकता है कि हरियाणा अथवा पंजाब के किसी इलाके में आ गया है...ढोर चराते हुए सिक्ख, खेत गोंडते हुए सिक्ख, बैलगाड़ी पर सरदार घोड़े पर-इधर-उधर हर तरफ छोटी-बड़ी, रंग-बिरंगी (और बदरंगी भी) पगड़ियोंवाले – छोटे-बड़े सरदार ...गुरु तेगबहादुर ने असम जाते समय यहां गंगा पार कर डेरा डाला था और यहां के लोगों के भीच ‘सतसंग’ करके धर्मप्रचार किया था।

पांच धर्मप्रचारकों को वह छोड़कर गये थे। अब तो इस इलाके में दो गुरुद्वारे हैं – उचला में, लक्ष्मीपुर में। बोली, पूर्णियाँ के गाँव की ही बोलते हैं...हमारे मित्र सरदार श्री चंद्रमौलेश्वर इसी इलाके के एक बड़े गांव ‘उजला’ के निवासी हैं तथा तेगबहादुर द्वारा रखे गये पांच धर्मप्रचारकों में से एक के वंशज हैं। इसलिए गुरुद्वारा पटना साहब की ओर से बंटनेवाली ‘रिलीफ’ का थोड़ा श्रेय स्वयं लेता हुआ मैं कहता हूं- “यह भी समझो कि ...हमारे पूर्णियां के ‘परताप’ से ही...”

शाम को एक नया दल आया। एक मुहल्ले के की प्रवासी बंगाली-बिहारी गायक, वादक, लेखक, गीतकार, कवियों ने मिलकर मुहल्ले के घर-घर से ‘मुठिया’ जमा किया। एक नाव किराये पर ले आए। अपने हाथों से रोटियाँ बेलकर सेंककर, सब्जी पकाकर बड़े-गड़े ‘देग’ में ले आये हैं। दूध के चूरे और दवाइयाँ भी हैं...नाव पर खड़े एक युवक की सूरत अतिपरिचित-सी लग रही थी। वह भी मुझे उसी दृष्टि से देख रहा था और मेरी ही तरह भटक रहा था। मैंने पुकारा – “आलोक ? आलोधन्वा?” वह हँसा। नाव से नीचे उतरकर हमारे फ्लैट के नीचे आया। उसने दाढ़ी मुड़ा ली है और मेरी दाढ़ी बढ़ गयी है, इसलिए...

मैंने फिर लतिका को छेड़ा – “बाहर आकर देखिए, हमारे तरुण कलाकारों का रिलीफ पार्टी।”

तरुण कलाकारों की नाव रोटी, सब्जी, दूध, दवा बांटती हुई चली गयी। मैं बहुत देर तक चुपचाप न जाने क्या सब सोचता रहा कि मन फिर कातर होने लगा। किंतु अपनी कसम की याद करके तुरंत ‘चंगा’ हो गया।

लतिका देवी अपने सगे, संबंधियों और छात्राओं का हाल-समाचार जानने के लिए निकल पड़ी हैं। मुझसे इस बार इस औपचारिकता का निर्वाह भी नहीं हो सकेगा-मुझे इसका खेद है।

इन दिनों छत पर पहुँचने का अर्थ है ‘गांधी मैदान’ पहुँचा जाना; मतलब छत पर पहुँचते ही अपार जनता के बीच पहुँच जाना-सा हो जाता है। पहुँचते ही चारों ओर से प्रत्येक फ्लैट के निवासियों द्वारा संचित, संग्रहीत तथा संपादित समाचार मिलने लग जाते हैं...इंडस्ट्रियल स्टेट में दरवाजा नहीं खुल सकने के कारण एक पूरा परिवार ही ..किदवईपुरी में एक स्कूटर पर स्वामी-स्त्री और बच्चे की लाशें-स्वामी स्कूटर का हैंडिल एकदम ‘टाइट’ होकर पकड़े हुए था...एक लकड़ी के बक्से में दो बच्चे मिले। एक मर चुका था। बक्से के अंदर एक चिट्ठी थी.. ‘हम लोग पानी से घिरे हैं। अगर आप लोगों में से किसी को यह बक्सा मिले..’ ‘अरे साहब, तटबंध को तो ‘फलाना’ ने उड़ा दिया है- वीमेंस कालेज में क्या हुआ सो मालूम है?’

अब मैं ऐसी बातों से नहीं चिढ़ता। मुझे इन लोगों से अब सहानुभूति होने लगी है। बेचारे चारों ओर से पानी से घिरे हुए लोग। छत पर आकर कुछ सुन-सुनाकर अपनी ‘बोरियत’ को दूर कर लेते हैं...संभव है ऐसी विपदा की घड़ी में आदमी तोड़ा बेमतलब और बेसिर-पैर की ‘नानसेंस’ बोलकर कुछ राहत हासिल करता हो।

किंतु, आज पहुंचते ही एक मतलब की बात की – बोरिंग रोड की ओर से किसी फ्लेट में आकर टिके हुए एक पटनियाँ-बंगाली नौजवान ने। बोला – “हमलोग अगस्त से लेकर अक्तूबर तक किसी भी स्थानीय समाचारपत्र के दो-तीन कालम को कभी नहीं पढ़ते थे- उत्तर बिहार की बाढ़ के समाचारों के कारण। हर वर्ष नियमपूर्वक आनेवाली हर बाढ़ को पिछले साल की बाढ़ से बढ़कर बताया जाता। किसी तटबंध का टूट जाना और फसल के साथ जान– माल की बर्बादी के समाचारों के कोई प्रभाव हम पर नहीं पड़ते थे। इसीलिए इस बार ऐसा लगता है कि ..हे मोर अभागा देश, जादेर कोरेछो अपमान हते हबे तादेर समान...”

उस युवक को इस तरह आवेश में आकर आवेगपूर्ण आवृत्ति करते सुनकर उसकी फूफी या मौसी ने पुकारकर कहा था – “खोकन, की सब जा-ता देश-देश निये जादेर –तादेर संगे तुई ‘आबोल-ताबोल’ बले बेड़ाच्छिस?..नीचे चल!”

मन में हुआ कि टोकूं – “की दीदी?...आपनि रवि ठाकुरेर कविता के आबोल-ताबोल बलछेन?” किंतु फिर समझा कि वह ‘भद्रमहिला’ शायद ठीक ही कह रही है।

इंप्रूवमेंट ट्रस्ट के नये मकान की छत पर बाढ़पीड़ितों के कई परिवार एकत्रित होकर वार्तालाप कर रहे हैं। ऐसी ही खबरें वहाँ भी प्रसारित-प्रचारित हो रही हैं...कमला-बलान नदियों के इलाके में रहनेवाले एक व्यक्ति ने कहा- “जे दुखे छोड़लहु घोराघाट, से दुख लागले रहल साथ...जिस दुख के कारण घोराघाट छोड़ा, वह दुख साथ लगा ही रहा। कमला-बलान ने गांव उजाड़ दिया तो भागकर पटना आये। पटना आये तो-ले बलैया! पटना में भी वही हाल!”

उसके साथी ने कहा – “पटना में भी वही हाल कैसे? वहाँ, अपने गांव में, बाढ़ के समय रहने को तिमंजिला मकान मिलता था! एँ! बोलो! ऐसन नरम नरम, गर्म-गरम रोटी और रसादार तरकारी वहाँ मिलता था? ए? बोलो?”

“अयँ हो, रेडियों में तो बोलिस है कि होली-कफ्टर से बनल-बनाबल, पकल-पकाबल खाना गिराबल जाता है। मरदा इधर कहाँ गिराइस है एको दिन? अयँ हो..?”

“सुनते हैं जी? सरदारजी लोग के ‘लंगर’ में अभी जो पियाज की चटनी दिया था ऐसा स्वाद था कि क्या बतावें। कि सच्चो कहते हैं – टोकरियो-भर रोटी हम उत्ती-सी चटनी से खा जाते!”

“धेत्त मर्दे! टोकरी –भर रोटी खाने का मिजाल है तुम्हारा?”

शाम को साढ़े सात बजे पटना उर्फ फतुहा कैंप-केंद्र ट्यून किया – “अब आप रामरेणु गुप्त से समाचार सुनिए...!”

तो आज न्यू एडिटर श्री एस.एन. मिश्रा सदलबल फतुहा कैंप-केंद्र पहुँच गये हैं?...रात में दो विशेष प्रसारण की विशेष सूचनाएं प्रसारित की गयी हैं।

लतिकाजी रात के साढ़े आठ बजे लौट आयीं, तो उधर से जितनी खबरें लेकर लौटी थीं उनमें से प्रायः सभी समाचार कुछ हेर-फेर के साथ मैं अपनी छत पर ही सुन चुका था।...पानी में ‘क्लोरिन’ की मात्रा इतनी बढ़ा दी गयी है कि चाय, कॉफी, रोटी, दाल, सबमें बस एक ही स्वाद। कहते हैं क्लोरिन का दांत के ‘एनामेल’ पर बुरा असर होता है।

आज पानी घटा है। अविराम बहती हुई धारा की गति और भी मंद हुई है। बाढ़ के जल में अब एक विचित्र-सी महक आ गयी है...आज भी नहाने-वाला नहीं, कहीं भी। पानी में नहाते हुए ऊधमी लड़कों ने कई दिनों से जी को काफी कुढ़ाया था। ...कल रात को काले भयावने बादलों को देखकर मुँह से सहसा निकला था और मैंने सिगरेट की डब्बी पर लिख दिया था- ‘तुम्ही क्यों बाकी रहोगे आस्मां!’ आज उसके नीचे दूसरी पंक्ति लिखकर प्रसन्न हुआ। … तुम्ही क्यों बाकी रहोगे आस्मां! कहर बरसाकर शहर पर देख लो! कहर ‘बरसा’ कर या बरपा कर? नहीं, बरसाकर ही ठीक है!...किंतु मुझे संदेह है कि ये पंक्तियां मेरी नहीं किसी और शायर की है...दुष्यंत को लिखकर पूछूँ । बहुत देर तक दुष्यंत की एक गजल की कई पंक्तियों को मन ही मन दुहराया। फिर शमशेर के शेर की इन दो पंक्तियों को तरन्नुम के साथ गुनगुनाता रहा- “जहाँ में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है। तुम्हारी चोटें होनी हैं, हमारा सीना होना हैं। जहाँ में अब तो जितने रोज...”

शायद क्लोरीन में अन्य गुण-अवगुण के अलावा शीघ्र सुलाने की भी थोड़ी शक्ति होती है। बिछावन पर लेटा और संभवतः दस मिनट के बाद ही गहरी नींद आ गयी।

सुबह साढ़े छह बजे छत पर दौड़-धूप और आपाधापी से नींच खुली...आकाश में एक साथ कई विमानों की सम्मिलित भनभनाहट ...हाँ ! हाँ ! लगता है इसी में है। इसी में..? इंडियन एयरफोर्स का प्लेन है न? तब इसी में हैं!...

उठकर खिड़की पर गया। आज अभी भीड़ कम है। बाहर, भीतर सभी लोग आस्मान की ओर आंकें उठाकर देख रहे हैं। ‘एहि में हौ...एहि में हौ? एहि में...बीचवाला में...हमको तो आवाज से ही पता लग गया कि यही प्लेन है।’

आकाशवाणी से प्रसारित प्रत्येक बुलेटिन में कल से ही कहा जा रहा है कि सेना के विमान और हैलिकॉप्टरों के द्वारा बाढ़ में फंसे हुए लोगों को सुरक्षित स्थानों में भेजा जा रहा है और पके-पकाये भोजन के पैकेट गिराये जा रहे हैं! अतः हवाई जहाज की आवाज सुनते ही सभी की आँखें आकाश की ओर टँग जाती हैं...कहाँ गिराया कुछ?

दरवाजे की कुंडी खड़की..सुबह साढ़े सात बजे ही पानी हेलकर सुधि लेने कौन ‘उदार बंधु’ आ गये? बिछावन छोड़ना ही पड़ा..पास-पड़ोस के ब्लॉक के दो-तीन सज्जन। उनका अधेड़ अगुआ आगे बढ़कर बोला – “आपको थोड़ा कष्ट दिया। माफ किया जाये। देखिए, तीन दिन हो गये। अब तक हम लोगों के चारों ब्लॉक में एक भी नाव नहीं मिली। सुना है कि ‘कलेक्टेरियट’ में ‘ज्वायंटली’ जाकर कहने से नाव मिलती है। तो सोचा कि आपको ही अगुआ बनाकर ले चलें। आपके रहते फिर...”

“मुझे ? अरे...मेरे लिए तो...मुश्किल है ...मैं तो इतना लाचार हो गया हूं...कि,” मैं हकलाने लगा।

“क्यों-क्यों? बीमार-उमार हैं क्या ?”

“मेरा चेहरा देखकर आप कुछ नहीं समझ सके?”

“हां, हां। इधर थोड़ा कमजोर लग रहे हैं। तो क्या तकलीफ है?”

साथ में आये हुए नौजवान को मालूम था कि मैं पेप्टिक अलसर का मरीज हूँ। उसने कहा “पेप्टिक अलसर है तो ऑपरेशन क्यों नहीं करवा लेते?”

“ऑपरेशन नहीं। इसको इंडियन मेडिकल इंस्टिट्यूट – दिल्ली में डाक्टर आत्मप्रकाश के द्वारा ‘फ्रीज’ करवाना है।”

“यह फ्रीज क्या होता है?”
“होता है....”
“माफ किया जाये । आपको कष्ट दिया।”


“साला, मिथ्येवादी, बेईमान जोच्चोर...झूठा। भाग यहां से।” कमरे के कोने से मुझ पर दनादन गालियाँ दागी गयीं। ऐसी गालियाँ सुनकर मन प्रसन्न हो जाता है..तो ठाकुर प्रसन्न है।

“तुम तो जानते हो ठाकुर, मैंने एक शब्द भी झूठ नहीं कहा। मैंने यह भी नहीं कहा कि पेप्टिक अलसर के कारण उनके साथ जाने में असमर्थ हूं..अब तुम्हीं बताओ न, नाव लेकर मैं क्या करता, अथवा वे ही क्या करेंगे? उधर सारा पश्चिमी पटना अगम पानी में है – आप छाती-भर पानी में ही हैं। कहीं डुबाव पानी तो है नहीं। कहीं से एक नाव मिल भी गयी तो रोज आपस में ही सिर-फुटौवल...”

सुबह आठ बजे का समाचार सुनकर ही समझा कि लोग आज सुबह साढ़े छः बजे आकाश की ओर हवाई जहाज को क्यों देख रहे थे। केंद्रीय खाद्यमंत्री के बाद स्वयं प्रधानमंत्री हवाई सर्वेक्षण करने के लिये (आयी थीं) आये थे।

आज पानी घटा है। अविराम बहती हुई धारा की गति और भी मंद हुई है। बाढ़ के जल में अब एक विचित्र-सी महक आ गयी है...आज भी नहाने-वाला नहीं, कहीं भी। पानी में नहाते हुए ऊधमी लड़कों ने कई दिनों से जी को काफी कुढ़ाया था। आज वे नहीं है, तो लगता है कहीं जिंदगी है ही नहीं...जलप्रलय में भी वे जलकेलि करते रहे। रोग के कीड़ों की परवाह किये बिना, राजेंद्रनगर गोलंबर के गोल पार्क के चारों ओर ‘तेज गति से चलकर मारनेवाली’ जिस अभूतपूर्व ‘नयी नदी’ में नहानेवाले लड़के सब आज कहां चले गये?

एक नाव से मेडिकल स्वयंसेवकों की टोली एलान कर रही है। - “भाइयों! बाढ़ के कारण पटना नगर में तरह-तरह के संक्रामक रोगों के फैलने की आशंका है। आपके दरवाजे पर हमारे स्वयंसेवक टीका लगाने पहुँच रहे है। कृपया, फौरन टायफायड तथा हैजे का टीका ले लें।”

एलान सुनकर मन में तुरंत सवाल उठा- ‘इतनी दवाइयाँ अभी मौजूद होंगी? अथवा ...बाहर से आनेवाली दवाओं के समाचार के आधार पर...?’

रेडियो से बिहार के बाढ़पीड़ितों के लिए ‘दान’ मिलने के समाचार निरंतर आ रहे हैं...रोटियाँ, दूध के चूरे, पके-पकाये भोजन, विटामिन की गोलियाँ, दवाइयाँ, रुपये-अनाज...

रात में छत पर सुना कल हम लोगों के इलाके पर – राजंद्रनगर-लोहानीपुर में हेलीकॉप्टर से खाने के लिए सामान गिराये जायेंगे। ..कल दिल्ली से और भी कई बड़े मंत्री आ रहे हैं...सेना ने पटना शहर को बचाने का काम अपने हाथ में ले लिया है। आर्मी के जवानों ने बचाव-कार्य शुरू कर दिया है...राजेंद्रनगर में कल खाद्यसामग्री गिराये जाने की बात एकदम पक्की है। देख लीजिएगा!

और सचमुच दूसरे दिन सुबह सात बजे से ही राजेंद्रनगर में ‘एयर-ड्रॉपिंग’ का काम शुरू हो गया।

...आकाश में एक दैत्याकार आँखफोड़वा-टिड्डा जैसा भूरे रंग का फौजी हेलिकॉप्टर, साइरन की तरह अविराम पतली सीटी-सी बजाता हुआ, घोर गर्जन करता हुआ, छतों पर धूल का धूर्णिचक उड़ाता, ‘लो-फ्लाइंग’ करके धीरे-धीरे नीचे की ओर आता है। ‘थुथने’ को तनिक आगे की ओर झुकाकर, पूंछ ऊपर किया...। गरगराहट और भी तेज हो गयी और लो...लो..वह गिरा बड़ा बक्सा है...कार्ड बोर्ड का बक्सा..हा-हा...

‘सीं-ई-ई-ई-ई-...गरगरगरगरगरगर...गुड़रगुड़रगुड़र...सींई-ई-ई-ई—गर-गर-गरगरगरगरगर एक और आ गया उधर से ..उस छत पर एक बक्सा फिर गिरा। एक नहीं दो?’ ...सिं-ई-ई-ई- गरगरगरगर...इस छत पर भी गिरेगा, अपने छत पर भी गिरेगा...सिंई-ई-ई-ई ...पाइलट सिख नौजवान है, हंस रहा है ...ए, देखो। होशियार। बच्चों को पकड़ो। उड़ जायेंगे...वह चटाई उड़ी...साड़ी-ब्लाउज-तौलिया सब उड़ा ....सिंई-ई-गरगरगरगर-गिरा, गिरा...

निश्चय ही उनके पास मूवी कैमरा होगा। उनके पास-अर्थात हेलिकॉप्टर पर जो लोग बैठे हैं? ...कैसे लगते होंगे ऊपर से हर छतों के दृश्य ...सभी मकान के मुंडेर पर औरत – मर्द-बच्चे, इधर से उधर दौड़ रहे हैं, ऊपर की ओर हाथ पसारे। एक दूसरे को धकेलते, गिरते-पड़ते लोगों के झुंड, हर मकान के छत पर..?

...सिं-ई-ई-ई-ई—गरगरगरगर-गुड़र-गुड़र-गुड़र-अपने छत पर कोई लाल फ्लैग नहीं? लाल फ्लैग दिखलाओ...यहाँ भी गिराओ...ओ मिस्टर पाइलट – ऑन दिस रूफ...पाइलट साहेब, इधर भी...इधर भी...अरे यहां कुछ बिछा दो –सिगनल दो, यहां गिरावेगा...यहां-यहां...ए, पाइलट साहेब, सर्दारजी-ई ...गिराइए...ए, लाल ‘फ्लैगिंग’ करो...सिं-ई-ई-ई-ई-ई-गरगरगरगर-गुड़रगुड़ड-गुड़र...यहां इस छत पर क्यों नहीं गिरता? ...सिंई. ई ई ई ई। गरगर-गर-गर-गर-गर...।

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