हाल ही में इंदौर में जैविक खेती पर आयोजित संगोष्ठी में कृषि वैज्ञानिकों ने इस समस्या के प्रति अपनी सजगता प्रदर्शित करते हुए कई ऐसे उपाय सुझाए जिससे इन कीटनाशियों से उत्पन्न होने वाली सम्भावित हानियों से बचा जा सके। कीड़ों एवं पौधों की बीमारियों को नियन्त्रित करने हेतु पारम्परिक कीटनाशियों- नीम, करंज, चूना, तम्बाकू, नीला थोथा, हींग आदि के प्रयोग की भी संस्तुति की गई। यह भी बताया गया कि कीटनाशी रसायनों के लगातार उपयोग से कीड़ों एवं रोग जीवाणुओं में इनके प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है। आज बढ़ते मुँह और घटते भोजन के बीच की खाई को पाटना न केवल भारत अपितु सारे विश्व के लिए एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। हमारे प्राचीन ग्रन्थों में कहा गया है कि ‘‘भूख के समान न तो कोई दुख है, न ही इसके समान दुखदायी कोई रोग है। क्रोध के समान कोई शत्रु नहीं है और भोजन के समान कोई भी सुख नहीं है।’’ किन्तु इसे एक विडम्बना ही कहा जाएगा कि आज एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के कई देशों की लगभग आधी जनसंख्या दोनों समय भरपेट भोजन से वंचित रहती है।
इसमें सन्देह नहीं कि निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन उपलब्ध कराने हेतु भूमि के प्रति इकाई भाग से अधिकाधिक उपज लेना अनिवार्य हो गया है। कृषि के पुराने तरीके बढ़ती खाद्य सामग्री की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं थे। फलस्वरूप कृषि के आधुनिक तरीकों (जिनमें रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशी रसायनों का उपयोग भी शामिल है) को अपनाना आवश्यक समझा गया। यह सच है कि फसलों से अच्छी उपज लेने के लिये रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशी रसायनों के अतिरिक्त अन्य कोई साधन तुरन्त कारगर नहीं हैं किन्तु इन विषैले रसायनों के प्रति सजग और सचेष्ट रहना समय की मांग है।
रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग मिट्टी को प्रदूषित कर उसके भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण के लिए अमोनियम सल्फेट के लगातार प्रयोग से अमोनिया तो फसल द्वारा इस्तेमाल होता रहता है और सल्फेट आयन धीरे-धीरे मिट्टी में बढ़ते जाते हैं जो मिट्टी को अम्लीय बना देते हैं। इसी प्रकार सोडियम नाइट्रेट और पोटेशियम नाइट्रेट के लगातार उपयोग से भी ऐसा ही हो सकता है। नाइट्रेट तत्व फसल द्वारा सोख लिया जाता है और सोडियम तथा पोटैशियम की मात्रा मिट्टी में बढ़ती रहती है। फलस्वरूप मिट्टी की संरचना पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यही नहीं, पौधे उर्वरकों के नाइट्रेट तत्वों का कुछ ही भाग उपयोग में ला पाते हैं और इन तत्वों का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी में एकत्र होता रहता है जो वर्षा के पानी के साथ रिसकर पृथ्वी के भीतर जाकर भूमिगत जल में नाइट्रेट आयनों की सान्द्रता में वृद्धि करता है। इस जल जल के उपयोग से नवजात शिशुओं में ‘मेट-हीमोग्लोबोनीमिया’ या ‘ब्लू-बेबी डिजीज’ नामक बीमारी की सम्भावना बढ़ जाती है। कुछ शोधों से यह निष्कर्ष भी निकला है कि ये नाइट्रेट आयन कैंसर जैसी बीमारी भी पैदा कर सकते हैं। रासायनिक उर्वरकों के अधिक इस्तेमाल से सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता पड़ती है और यह प्रक्रिया मिट्टी को लवणीय बना सकती है। लवणीय भूमि फसल उगाने के लिए अनुपयुक्त हो सकती है।
विश्व भर में संश्लेषित कार्बनिक रसायनों का उत्पादन पिछले दशक में चौगुना हो गया है। आज नये-नये संश्लेषित रसायनों की अचानक बाढ़ सी आ गई है। एक ताजा अनुमान के अनुसार अब तक 40 लाख से अधिक रसायन प्राकृतिक पदार्थों से पृथक या संश्लेषित किए जा चुके हैं। इनमें से लगभग 60,000 से अधिक रसायनों का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में होता है- लगभग 1500 रसायन कीटनाशियों में सक्रिय घटक के रूप में, 4000 औषधियों और अर्द्ध-औषधियों के रूप में तथा 5,500 खाद्य योजकों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। शेष 49,000 का वर्गीकरण मोटे तौर पर औद्योगिक और कृषि रसायनों ईंधन और रोगन, सीमेन्ट, सौन्दर्य प्रसाधन, प्लास्टिक तथा रेशों जैसे उपभोक्ता उत्पादों के रूप में किया जा सकता है। अपने देश में तथा विश्व के अन्य देशों में हुए अनुसंधानों में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इन रसायनों में से कुछ या सभी हमारे कामकाजी और आवासीय पर्यावरण में वायु, जल और मृदा प्रदूषकों के रूप में आ जाते हैं। उत्पादन और उपयोग के दौरान बचे रसायनों के लिए सारा पर्यावरण एक ‘रद्दी की टोकरी’ बना हुआ है। यदि रासायनिक प्रदूषण की यह प्रक्रिया अबाध गति से चलती रही तो जीवन के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जायेगा।
कीटनाशी रसायनों का उपयोग फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए होता है किन्तु इनका निरन्तर अधिक उपयोग मृदा, जल तथा वायु को प्रदूषित कर रहा है। कीटनाशी रसायनों का दीर्घ स्थायित्व ही प्रदूषण का मुख्य कारण है। कुछ रसायन तो इतने स्थायी हैं कि एक बार प्रयेाग करने के बाद इनके अवशेष वर्षों तक मृदा में विद्यमान रहते हैं। मृदा में आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशियों की स्थिरता पर बहुत शोध किये गये हैं। डी.डी.टी. एवं इससे मिलते-जुलते अन्य हाइड्रोकार्बन वातावरण में बहुत लम्बे समय तक रहते हैं। ये आहार शृंखला द्वारा एक निकाय से दूसरे निकाय में पहुँचते हैं। प्रकृति में इनका विघटन बहुत धीरे-धीरे होता है। इसलिए जब पौधे इन रसायनों की कुछ-न-कुछ मात्रा अपने भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं तो ये उनके ऊतकों में जमा हो जाते हैं और उसके बाद अगर इन पौधों का इस्तेमाल बड़े मांसाहारी जानवर या मनुष्य अपने भोजन के रूप में करते हैं तो उनमें ये काफी अधिक मात्रा में पहुँच जाते हैं।
डी.डी.टी., बी.एच.सी., एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर लिन्डेन आदि आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशियों की अपेक्षा आर्गेनोफास्फेट कीटनाशी रसायन कम हानिकारक माने जाते हैं क्योंकि ये जल्दी विघटटित हो जाते हैं तथा पेड़-पौधे, पशु इत्यादि के शरीर में अधिक मात्रा में जमा नहीं हो पाते। यद्यपि कीटनाशी रसायनों तथा अन्य विषैले प्रदूषकों का प्राकृतिक अपक्षय भी होता रहता है परन्तु कुछ कीटनाशी रसायनों के अवशेष मृदा जैव मंडल में बहुत समय तक विद्यमान रहते हैं। ये अवशेष मृदा में उपस्थित लाभकारी जीवाणुओं तथा अन्य सूक्ष्म-जीवों को, जो मृदा की उर्वरता के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, कुप्रभावित कर उनकी क्रियाशीलता को कम कर देते हैं। कुछ रसायन तथा उनके अवशेष इतने स्थायी देखे गये हैं कि एक बार उपयोग करने के बाद उनके अवशेष वर्षों तक मृदा में विद्यमान रहते हैं। आर्गेनोक्लोरीन रसायनों के दीर्घकालीन प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। यद्यपि आर्गेनोफॉस्फेट, कार्बोनेट आदि रसायन अल्प स्थायी हैं पर इनके तीक्ष्ण विषाक्त गुण पर्यावरण को अपने प्रभाव से अछूता नहीं रख सके हैं। इन कीटनाशी रसायनों के स्थायित्व का अध्ययन पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है। विभिन्न कीटनाशी रसायनों की मिट्टी में दीर्घ स्थायित्व अवधि संलग्न सारणी में दी गई है।
इन कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए इनके प्रयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता है। इन रसायनों का प्रयोग एकाएक बन्द तो नहीं किया जा सकता परन्तु धीरे-धीरे इनकी मात्रा कम अवश्य की जा सकती है। इनके लिये किसानों को ऐसी फसल किस्मों का चयन करना होगा जिनमें कीटों के प्रकोप की सम्भावनाएँ कम से कम होें। साथ ही सिंचित अथवा असिंचित कृषि भूमि के अनुरूप ही फसलें बोई जाएँ। उदाहरण के तौर पर सिंचित भूमि से गेहूँ, धान आदि की फसलें उगाई जाएँ और असिंचित भूमि से चना एवं मटर जैसी कम सिंचाई वाली फसलें ली जाएँ। समुचित फसल चक्र अपना कर भी हम फसलों को विभिन्न प्रकार के कीटों एवं रोगों से बचा सकते हैं।
प्रमुख जीवनाशी रसायनों की दीर्घ स्थायित्व अवधि
हाल ही में इंदौर में जैविक खेती पर आयोजित संगोष्ठी में कृषि वैज्ञानिकों ने इस समस्या के प्रति अपनी सजगता प्रदर्शित करते हुए कई ऐसे उपाय सुझाए जिससे इन कीटनाशियों से उत्पन्न होने वाली सम्भावित हानियों से बचा जा सके। कीड़ों एवं पौधों की बीमारियों को नियन्त्रित करने हेतु पारम्परिक कीटनाशियों- नीम, करंज, चूना, तम्बाकू, नीला थोथा, हींग आदि के प्रयोग की भी संस्तुति की गई। यह भी बताया गया कि कीटनाशी रसायनों के लगातार उपयोग से कीड़ों एवं रोग जीवाणुओं में इनके प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है। अतः कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ ही साथ हमें दीर्घकालीन, स्थिर उत्पादकता प्राप्त करने की सुरक्षित एवं वैकल्पिक विधियाँ तलाश करनी होगी। कुछ अन्य सामान्य विधियाँ हाथ द्वारा कीटों को हटाना, क्षतिग्रस्त पौधों को नष्ट कर देना, बुवाई की तिथियों में फेर बदल कर देना एवं फसल चक्रों का प्रयोग आदि है जिन्हें अपनाने से कृषि रसायनों के अनुचित एवं अंधाधुंध उपयोग से बचा जा सकता है।
(व्याख्याता, रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश)
इसमें सन्देह नहीं कि निरन्तर बढ़ती जनसंख्या के लिए भोजन उपलब्ध कराने हेतु भूमि के प्रति इकाई भाग से अधिकाधिक उपज लेना अनिवार्य हो गया है। कृषि के पुराने तरीके बढ़ती खाद्य सामग्री की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं थे। फलस्वरूप कृषि के आधुनिक तरीकों (जिनमें रासायनिक उर्वरक तथा कीटनाशी रसायनों का उपयोग भी शामिल है) को अपनाना आवश्यक समझा गया। यह सच है कि फसलों से अच्छी उपज लेने के लिये रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशी रसायनों के अतिरिक्त अन्य कोई साधन तुरन्त कारगर नहीं हैं किन्तु इन विषैले रसायनों के प्रति सजग और सचेष्ट रहना समय की मांग है।
रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग मिट्टी को प्रदूषित कर उसके भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है। उदाहरण के लिए अमोनियम सल्फेट के लगातार प्रयोग से अमोनिया तो फसल द्वारा इस्तेमाल होता रहता है और सल्फेट आयन धीरे-धीरे मिट्टी में बढ़ते जाते हैं जो मिट्टी को अम्लीय बना देते हैं। इसी प्रकार सोडियम नाइट्रेट और पोटेशियम नाइट्रेट के लगातार उपयोग से भी ऐसा ही हो सकता है। नाइट्रेट तत्व फसल द्वारा सोख लिया जाता है और सोडियम तथा पोटैशियम की मात्रा मिट्टी में बढ़ती रहती है। फलस्वरूप मिट्टी की संरचना पर प्रतिकूल असर पड़ता है। यही नहीं, पौधे उर्वरकों के नाइट्रेट तत्वों का कुछ ही भाग उपयोग में ला पाते हैं और इन तत्वों का एक बड़ा हिस्सा मिट्टी में एकत्र होता रहता है जो वर्षा के पानी के साथ रिसकर पृथ्वी के भीतर जाकर भूमिगत जल में नाइट्रेट आयनों की सान्द्रता में वृद्धि करता है। इस जल जल के उपयोग से नवजात शिशुओं में ‘मेट-हीमोग्लोबोनीमिया’ या ‘ब्लू-बेबी डिजीज’ नामक बीमारी की सम्भावना बढ़ जाती है। कुछ शोधों से यह निष्कर्ष भी निकला है कि ये नाइट्रेट आयन कैंसर जैसी बीमारी भी पैदा कर सकते हैं। रासायनिक उर्वरकों के अधिक इस्तेमाल से सिंचाई की भी अधिक आवश्यकता पड़ती है और यह प्रक्रिया मिट्टी को लवणीय बना सकती है। लवणीय भूमि फसल उगाने के लिए अनुपयुक्त हो सकती है।
विश्व भर में संश्लेषित कार्बनिक रसायनों का उत्पादन पिछले दशक में चौगुना हो गया है। आज नये-नये संश्लेषित रसायनों की अचानक बाढ़ सी आ गई है। एक ताजा अनुमान के अनुसार अब तक 40 लाख से अधिक रसायन प्राकृतिक पदार्थों से पृथक या संश्लेषित किए जा चुके हैं। इनमें से लगभग 60,000 से अधिक रसायनों का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में होता है- लगभग 1500 रसायन कीटनाशियों में सक्रिय घटक के रूप में, 4000 औषधियों और अर्द्ध-औषधियों के रूप में तथा 5,500 खाद्य योजकों के रूप में प्रयुक्त होते हैं। शेष 49,000 का वर्गीकरण मोटे तौर पर औद्योगिक और कृषि रसायनों ईंधन और रोगन, सीमेन्ट, सौन्दर्य प्रसाधन, प्लास्टिक तथा रेशों जैसे उपभोक्ता उत्पादों के रूप में किया जा सकता है। अपने देश में तथा विश्व के अन्य देशों में हुए अनुसंधानों में अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इन रसायनों में से कुछ या सभी हमारे कामकाजी और आवासीय पर्यावरण में वायु, जल और मृदा प्रदूषकों के रूप में आ जाते हैं। उत्पादन और उपयोग के दौरान बचे रसायनों के लिए सारा पर्यावरण एक ‘रद्दी की टोकरी’ बना हुआ है। यदि रासायनिक प्रदूषण की यह प्रक्रिया अबाध गति से चलती रही तो जीवन के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जायेगा।
कीटनाशी रसायनों का उपयोग फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए होता है किन्तु इनका निरन्तर अधिक उपयोग मृदा, जल तथा वायु को प्रदूषित कर रहा है। कीटनाशी रसायनों का दीर्घ स्थायित्व ही प्रदूषण का मुख्य कारण है। कुछ रसायन तो इतने स्थायी हैं कि एक बार प्रयेाग करने के बाद इनके अवशेष वर्षों तक मृदा में विद्यमान रहते हैं। मृदा में आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशियों की स्थिरता पर बहुत शोध किये गये हैं। डी.डी.टी. एवं इससे मिलते-जुलते अन्य हाइड्रोकार्बन वातावरण में बहुत लम्बे समय तक रहते हैं। ये आहार शृंखला द्वारा एक निकाय से दूसरे निकाय में पहुँचते हैं। प्रकृति में इनका विघटन बहुत धीरे-धीरे होता है। इसलिए जब पौधे इन रसायनों की कुछ-न-कुछ मात्रा अपने भोजन के रूप में इस्तेमाल करते हैं तो ये उनके ऊतकों में जमा हो जाते हैं और उसके बाद अगर इन पौधों का इस्तेमाल बड़े मांसाहारी जानवर या मनुष्य अपने भोजन के रूप में करते हैं तो उनमें ये काफी अधिक मात्रा में पहुँच जाते हैं।
डी.डी.टी., बी.एच.सी., एल्ड्रिन, हेप्टाक्लोर लिन्डेन आदि आर्गेनोक्लोरीन कीटनाशियों की अपेक्षा आर्गेनोफास्फेट कीटनाशी रसायन कम हानिकारक माने जाते हैं क्योंकि ये जल्दी विघटटित हो जाते हैं तथा पेड़-पौधे, पशु इत्यादि के शरीर में अधिक मात्रा में जमा नहीं हो पाते। यद्यपि कीटनाशी रसायनों तथा अन्य विषैले प्रदूषकों का प्राकृतिक अपक्षय भी होता रहता है परन्तु कुछ कीटनाशी रसायनों के अवशेष मृदा जैव मंडल में बहुत समय तक विद्यमान रहते हैं। ये अवशेष मृदा में उपस्थित लाभकारी जीवाणुओं तथा अन्य सूक्ष्म-जीवों को, जो मृदा की उर्वरता के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, कुप्रभावित कर उनकी क्रियाशीलता को कम कर देते हैं। कुछ रसायन तथा उनके अवशेष इतने स्थायी देखे गये हैं कि एक बार उपयोग करने के बाद उनके अवशेष वर्षों तक मृदा में विद्यमान रहते हैं। आर्गेनोक्लोरीन रसायनों के दीर्घकालीन प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। यद्यपि आर्गेनोफॉस्फेट, कार्बोनेट आदि रसायन अल्प स्थायी हैं पर इनके तीक्ष्ण विषाक्त गुण पर्यावरण को अपने प्रभाव से अछूता नहीं रख सके हैं। इन कीटनाशी रसायनों के स्थायित्व का अध्ययन पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है। विभिन्न कीटनाशी रसायनों की मिट्टी में दीर्घ स्थायित्व अवधि संलग्न सारणी में दी गई है।
इन कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए इनके प्रयोग में सावधानी बरतने की आवश्यकता है। इन रसायनों का प्रयोग एकाएक बन्द तो नहीं किया जा सकता परन्तु धीरे-धीरे इनकी मात्रा कम अवश्य की जा सकती है। इनके लिये किसानों को ऐसी फसल किस्मों का चयन करना होगा जिनमें कीटों के प्रकोप की सम्भावनाएँ कम से कम होें। साथ ही सिंचित अथवा असिंचित कृषि भूमि के अनुरूप ही फसलें बोई जाएँ। उदाहरण के तौर पर सिंचित भूमि से गेहूँ, धान आदि की फसलें उगाई जाएँ और असिंचित भूमि से चना एवं मटर जैसी कम सिंचाई वाली फसलें ली जाएँ। समुचित फसल चक्र अपना कर भी हम फसलों को विभिन्न प्रकार के कीटों एवं रोगों से बचा सकते हैं।
प्रमुख जीवनाशी रसायनों की दीर्घ स्थायित्व अवधि
क्र.सं. | जीवनाशी रसायन | स्थायित्व अवधि |
1. | आर्सेनिक | अनिश्चित |
2. | क्लोरीनेटिड हाइड्रोकार्बन (जैसे डी.डी.टी., क्लोरीन आदि) | 2 से 5 वर्ष |
3. | ट्रायजीन शाकनाशी (जैसे एट्राजीन, सिमेजीन आदि) | 1 से 2 वर्ष |
4. | बैन्जोइक एसिड शाकनाशी (जैसे एनीबेन, डाइकेम्बा) | 2 से 12 महीने |
5. | यूरिया शाकनाशी (जैसे मोन्यूरान, डाइयूरान) | 2 से 10 महीने |
6. | फिनाक्सी शाकनाशी (जैसे 2,4 डी, 2,4,5,-टी) | 1 से 5 महीने |
7. | आर्गेनोफास्फेट कीटनशी (जैसे मेलाथियान आदि) | 1 से 2 सप्ताह |
8. | कार्बोनेट कीटनाशी | 1 से 8 सप्ताह |
9. | कार्बोनेट शाकनाशी | 2 से 8 सप्ताह |
हाल ही में इंदौर में जैविक खेती पर आयोजित संगोष्ठी में कृषि वैज्ञानिकों ने इस समस्या के प्रति अपनी सजगता प्रदर्शित करते हुए कई ऐसे उपाय सुझाए जिससे इन कीटनाशियों से उत्पन्न होने वाली सम्भावित हानियों से बचा जा सके। कीड़ों एवं पौधों की बीमारियों को नियन्त्रित करने हेतु पारम्परिक कीटनाशियों- नीम, करंज, चूना, तम्बाकू, नीला थोथा, हींग आदि के प्रयोग की भी संस्तुति की गई। यह भी बताया गया कि कीटनाशी रसायनों के लगातार उपयोग से कीड़ों एवं रोग जीवाणुओं में इनके प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न हो जाती है। अतः कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ ही साथ हमें दीर्घकालीन, स्थिर उत्पादकता प्राप्त करने की सुरक्षित एवं वैकल्पिक विधियाँ तलाश करनी होगी। कुछ अन्य सामान्य विधियाँ हाथ द्वारा कीटों को हटाना, क्षतिग्रस्त पौधों को नष्ट कर देना, बुवाई की तिथियों में फेर बदल कर देना एवं फसल चक्रों का प्रयोग आदि है जिन्हें अपनाने से कृषि रसायनों के अनुचित एवं अंधाधुंध उपयोग से बचा जा सकता है।
(व्याख्याता, रसायन विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश)
Path Alias
/articles/kaitanae-saurakasaita-haain-maitatai-kae-laie-karsai-rasaayana
Post By: Hindi