इंसान को जीवित रहने के लिये सबसे ज्यादा संघर्ष बाहरी और भीतरी संक्रमणों और कीटों से निपटने के लिये करना पड़ता है। यह बात सदियों पहले भी सच थी और आज भी। घरों में ही नहीं, आधुनिक हवाई जहाजों तक में मक्खी-मच्छर मौजूद रहने की चुनौती इतनी बड़ी है कि विमान कम्पनियों के कर्मचारी हवाई जहाज के जमीन पर उतरते ही उसके अन्दर स्प्रे से कीटनाशकों का छिड़काव शुरू कर देते हैं। कई बार यह काम यात्रियों की मौजूदगी में किया जाता है। इस पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने हवाई सेवाओं को ऐसी बौछार को रोकने के लिये कहा है।
अमेरिका के टेक्सास में बेलर अस्पताल में कार्यरत न्यूरोलॉजिस्ट जय कुमार ने इस बारे में एक याचिका एनजीटी के पास भेजी थी कि विमान कम्पनियाँ अपने हवाई जहाजों में तब कीटनाशकों का छिड़काव करती हैं, जब वे जमीन पर होते हैं और उनमें यात्री मौजूद रहते हैं। उनका तर्क था कि मक्खी-मच्छर मारने वाले ऐसे कीटनाशकों में मौजूद फीनोथ्रीन इंसानों की सेहत को भारी नुकसान पहुँचाता है।
मामला सिर्फ हवाई जहाजों में कीटनाशकों के छिड़काव का नहीं है, आजकल तकरीबन हर घर-दफ्तर में मच्छरों और कीटों से निजात पाने के लिये धड़ल्ले से कीटनाशक इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। कहने को इन कीटनाशकों की बदौलत जीवन कीटों से सुरक्षित रहता है, लेकिन इनका विपरीत प्रभाव हमारी सेहत पर भी पड़ता है।
कीटनाशक दो तरीकों से हम तक पहुँच रहे हैं। अव्वल तो मक्खी, मच्छर और तिलचट्टों के खिलाफ हम खुद इनका इस्तेमाल करते हैं। और दूसरे, खेतों में फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों के अंश फल, सब्जियों और अनाजों के जरिए हम तक पहुँचते हैं। गर्मी आते ही हर तरह के मच्छर-मार दवाओं की बिक्री और इस्तेमाल बढ़ जाता है।
कस्बों और शहरों से मच्छरदानियाँ तकरीबन गायब हो गई हैं और बिजली से चलने वाले ‘मॉस्किटो रिप्लेंट्स’ तेजी से प्रचलन में आए हैं। लोगबाग पूरी रात मच्छरों के प्रकोप से बचते हुए आराम से सोने के बावजूद आँखों में जलन, सुस्ती, चक्कर आदि की शिकायत जरूर करते हैं।
कुछ ही समय पहले अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक विस्तृत अध्ययन में पाया गया कि मच्छर-मारने वाली टिकिया नुकसानदेह है। मॉस्किटो रिप्लेंट का नियमित इस्तेमाल करने वाले लोगों की त्वचा में खुजली, आँखों में जलन, सुस्ती, होठों पर खुश्की और सिरदर्द जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं।
इन अध्ययनों के असर से अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ के देशों में मॉस्किटो रिप्लेंट से लेकर अन्य घरेलू कीटनाशकों में डाले जाने वाले रसायनों की मात्रा सख्ती से नियंत्रित की जाने लगी। लेकिन भारत में ऐसा कोई मापदण्ड या कायदा-कानून नहीं है जो ऐसे खतरनाक रसायनों का तय मात्रा से ज्यादा इस्तेमाल करने वाली कम्पनियों को दण्डित करे या लोगों को इनके इस्तेमाल के प्रति सचेत करने वाली हिदायतों का भी उतने ही जोरशोर से प्रचार करने को बाध्यकारी बनाए जितने बड़े दावे ऐसे उत्पाद बनाने वाली कम्पनियाँ करती हैं।
कीटनाशकों की इस घेराबन्दी का दूसरा छोर खेतों में फल, सब्जियों और अनाजों को कीटों से बचाने वाले रसायनों के छिड़काव से जुड़ा है। जिस हरित क्रान्ति ने अनाज के लिये विदेशों पर हमारी निर्भरता को खत्म किया है और जिसकी बदौलत हमारे खेत हरे और पेट भरे हैं, उसका विपरीत प्रभाव यह है कि हमारी जमीन कीटनाशकों के जहर में डूब चुकी है और धमनियों में खून के साथ कीटनाशकों के अवशेष और रासायनिक कचरा होड़ लेने लगा है।
हालात यह है कि फ़ैक्टरियों और खेतों के जरिए हम तक आया यह विष हमारे डीएनए में घुस रहा है और ये चेतावनियाँ लगातार आ रही हैं कि इनके असर से भावी पीढ़ियों में ऐसे अनुवांशिक बदलाव हो सकते हैं जो उन्हें विकलांग बना सकते हैं।
यह स्थिति कुछ ऐसी ही है जैसे परमाणु बम की बरसात के बाद बचे लोगों के खून में रेडियोधर्मी तत्व घुस गए हों। पंजाब के बारे में ऐसी खबरें और रिपोर्टें पहले भी आती रही हैं। केन्द्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ सेंटर फॉर साइंस एण्ड इनवायरनमेंट (सीएसई) ने पंजाब के गाँवों में रहने वाले तमाम किसानों के शरीर में कीटनाशक अवशेषों की भारी मात्रा पाई थी।
सीएसई ने कहा था कि यह मात्रा इंसानों में पहुँचने वाली सामान्य और अहानिकर मात्रा के मुकाबले डेढ़ सौ गुना ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की फूड एण्ड एग्रीकल्चर इकाई ने मनुष्यों में कीटनाशकों की उपस्थिति के जो मानक तय कर रखे हैं, सीएसई के मुताबिक उनके मुकाबले यह मौजूदगी 158 गुना ज्यादा थी। साथ ही, अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एण्ड प्रिवेंशन द्वारा 2003 में अमेरिकी किसानों में पाये गए कीटनाशक अवशेष के मुकाबले पंजाब के किसानों में इनकी मौजूदगी पन्द्रह से छह सौ पाँच गुना ज्यादा बताई गई थी।
दुनिया भर में घरेलू और खेती में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों का जानवरों पर प्रयोग करके पाया गया है कि इनसे मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है और दिमागी संरचना में विकार आ सकता है। अगर गर्भवती महिलाओं पर इन कीटनाशकों का हल्का सा भी असर हो जाए तो इससे गर्भस्थ शिशु गम्भीर रूप से प्रभावित हो सकता है। यानी मामला सिर्फ एक पीढ़ी तक नहीं रुकता बल्कि भावी पीढ़ियों में भी विकृतियाँ पैदा करता है।
कीटनाशकों के बचे अवशेषों की सीमा यानी मैक्सिमम रेसेड्यू लिमिट (एनआरएल) तय करना इसी समस्या के समाधान का एक रास्ता है। एमआरएल या फिर अधिकतम अवशेष सीमा असल में कीटनाशकों की बची हुई वह मात्रा है, जो उपचारित किये जाने के बाद भी दूध, सब्जियों, अनाजों और मांस में बची रहती है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अनाजों और फल-सब्जियों में यह मात्रा इतनी रहनी चाहिए कि मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर न पड़े। इसके लिये फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों और मवेशियों को दी जाने वाली दवाइयों के लिये एक अवधि तय की जाती है।
जब तक यह वक्त बीत नहीं जाता है, तब तक किसी भी उत्पाद को मनुष्यों के इस्तेमाल में लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इस तरह से एमआरएल कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध और गलत प्रयोग पर बन्दिश लगाने वाली पहली शर्त है, लेकिन फसल को बाजार में ले जाने की जल्दी में क्या कोई इसका ध्यान रखता होगा? हमारे देश में तो यह तकरीबन नामुमकिन ही लगता है।
ईमेल : abhi.romi20@gmail.com
अमेरिका के टेक्सास में बेलर अस्पताल में कार्यरत न्यूरोलॉजिस्ट जय कुमार ने इस बारे में एक याचिका एनजीटी के पास भेजी थी कि विमान कम्पनियाँ अपने हवाई जहाजों में तब कीटनाशकों का छिड़काव करती हैं, जब वे जमीन पर होते हैं और उनमें यात्री मौजूद रहते हैं। उनका तर्क था कि मक्खी-मच्छर मारने वाले ऐसे कीटनाशकों में मौजूद फीनोथ्रीन इंसानों की सेहत को भारी नुकसान पहुँचाता है।
मामला सिर्फ हवाई जहाजों में कीटनाशकों के छिड़काव का नहीं है, आजकल तकरीबन हर घर-दफ्तर में मच्छरों और कीटों से निजात पाने के लिये धड़ल्ले से कीटनाशक इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। कहने को इन कीटनाशकों की बदौलत जीवन कीटों से सुरक्षित रहता है, लेकिन इनका विपरीत प्रभाव हमारी सेहत पर भी पड़ता है।
कीटनाशक दो तरीकों से हम तक पहुँच रहे हैं। अव्वल तो मक्खी, मच्छर और तिलचट्टों के खिलाफ हम खुद इनका इस्तेमाल करते हैं। और दूसरे, खेतों में फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों के अंश फल, सब्जियों और अनाजों के जरिए हम तक पहुँचते हैं। गर्मी आते ही हर तरह के मच्छर-मार दवाओं की बिक्री और इस्तेमाल बढ़ जाता है।
कस्बों और शहरों से मच्छरदानियाँ तकरीबन गायब हो गई हैं और बिजली से चलने वाले ‘मॉस्किटो रिप्लेंट्स’ तेजी से प्रचलन में आए हैं। लोगबाग पूरी रात मच्छरों के प्रकोप से बचते हुए आराम से सोने के बावजूद आँखों में जलन, सुस्ती, चक्कर आदि की शिकायत जरूर करते हैं।
कुछ ही समय पहले अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के एक विस्तृत अध्ययन में पाया गया कि मच्छर-मारने वाली टिकिया नुकसानदेह है। मॉस्किटो रिप्लेंट का नियमित इस्तेमाल करने वाले लोगों की त्वचा में खुजली, आँखों में जलन, सुस्ती, होठों पर खुश्की और सिरदर्द जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं।
इन अध्ययनों के असर से अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय संघ के देशों में मॉस्किटो रिप्लेंट से लेकर अन्य घरेलू कीटनाशकों में डाले जाने वाले रसायनों की मात्रा सख्ती से नियंत्रित की जाने लगी। लेकिन भारत में ऐसा कोई मापदण्ड या कायदा-कानून नहीं है जो ऐसे खतरनाक रसायनों का तय मात्रा से ज्यादा इस्तेमाल करने वाली कम्पनियों को दण्डित करे या लोगों को इनके इस्तेमाल के प्रति सचेत करने वाली हिदायतों का भी उतने ही जोरशोर से प्रचार करने को बाध्यकारी बनाए जितने बड़े दावे ऐसे उत्पाद बनाने वाली कम्पनियाँ करती हैं।
कीटनाशकों की इस घेराबन्दी का दूसरा छोर खेतों में फल, सब्जियों और अनाजों को कीटों से बचाने वाले रसायनों के छिड़काव से जुड़ा है। जिस हरित क्रान्ति ने अनाज के लिये विदेशों पर हमारी निर्भरता को खत्म किया है और जिसकी बदौलत हमारे खेत हरे और पेट भरे हैं, उसका विपरीत प्रभाव यह है कि हमारी जमीन कीटनाशकों के जहर में डूब चुकी है और धमनियों में खून के साथ कीटनाशकों के अवशेष और रासायनिक कचरा होड़ लेने लगा है।
हालात यह है कि फ़ैक्टरियों और खेतों के जरिए हम तक आया यह विष हमारे डीएनए में घुस रहा है और ये चेतावनियाँ लगातार आ रही हैं कि इनके असर से भावी पीढ़ियों में ऐसे अनुवांशिक बदलाव हो सकते हैं जो उन्हें विकलांग बना सकते हैं।
दुनिया भर में घरेलू और खेती में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों का जानवरों पर प्रयोग करके पाया गया है कि इनसे मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है और दिमागी संरचना में विकार आ सकता है। अगर गर्भवती महिलाओं पर इन कीटनाशकों का हल्का सा भी असर हो जाए तो इससे गर्भस्थ शिशु भी गम्भीर रूप से प्रभावित हो सकता है।
2013 में पंजाब में जो रिपोर्ट आई थी, उनसे जमीन में घुलते जहर की स्थिति और उसका असर साफ हुआ था। चंडीगढ़ की एक संस्था ने पंजाब के पच्चीस गाँवों में किये गए सर्वेक्षण के आधार पर इस नतीजे पर पहुँची थी कि खेती में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों और खतरनाक औद्योगिक कचरे ने वहाँ के लोगों की सेहत का सत्यानाश कर डाला है। इस अध्ययन में खून के नमूनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि जिन लोगों के नमूने लिये गए हैं, उनमें से पैंसठ फीसद लोगों में जेनेटिक बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। यह नतीजा देखकर तो किसी के भी रोंगटे खड़े हो सकते हैं।यह स्थिति कुछ ऐसी ही है जैसे परमाणु बम की बरसात के बाद बचे लोगों के खून में रेडियोधर्मी तत्व घुस गए हों। पंजाब के बारे में ऐसी खबरें और रिपोर्टें पहले भी आती रही हैं। केन्द्रीय प्रदूषण निगरानी प्रयोगशाला के साथ सेंटर फॉर साइंस एण्ड इनवायरनमेंट (सीएसई) ने पंजाब के गाँवों में रहने वाले तमाम किसानों के शरीर में कीटनाशक अवशेषों की भारी मात्रा पाई थी।
सीएसई ने कहा था कि यह मात्रा इंसानों में पहुँचने वाली सामान्य और अहानिकर मात्रा के मुकाबले डेढ़ सौ गुना ज्यादा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की फूड एण्ड एग्रीकल्चर इकाई ने मनुष्यों में कीटनाशकों की उपस्थिति के जो मानक तय कर रखे हैं, सीएसई के मुताबिक उनके मुकाबले यह मौजूदगी 158 गुना ज्यादा थी। साथ ही, अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एण्ड प्रिवेंशन द्वारा 2003 में अमेरिकी किसानों में पाये गए कीटनाशक अवशेष के मुकाबले पंजाब के किसानों में इनकी मौजूदगी पन्द्रह से छह सौ पाँच गुना ज्यादा बताई गई थी।
दुनिया भर में घरेलू और खेती में प्रयुक्त होने वाले कीटनाशकों का जानवरों पर प्रयोग करके पाया गया है कि इनसे मस्तिष्क का विकास प्रभावित होता है और दिमागी संरचना में विकार आ सकता है। अगर गर्भवती महिलाओं पर इन कीटनाशकों का हल्का सा भी असर हो जाए तो इससे गर्भस्थ शिशु गम्भीर रूप से प्रभावित हो सकता है। यानी मामला सिर्फ एक पीढ़ी तक नहीं रुकता बल्कि भावी पीढ़ियों में भी विकृतियाँ पैदा करता है।
कीटनाशकों के बचे अवशेषों की सीमा यानी मैक्सिमम रेसेड्यू लिमिट (एनआरएल) तय करना इसी समस्या के समाधान का एक रास्ता है। एमआरएल या फिर अधिकतम अवशेष सीमा असल में कीटनाशकों की बची हुई वह मात्रा है, जो उपचारित किये जाने के बाद भी दूध, सब्जियों, अनाजों और मांस में बची रहती है।
विशेषज्ञ कहते हैं कि अनाजों और फल-सब्जियों में यह मात्रा इतनी रहनी चाहिए कि मनुष्यों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर न पड़े। इसके लिये फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों और मवेशियों को दी जाने वाली दवाइयों के लिये एक अवधि तय की जाती है।
जब तक यह वक्त बीत नहीं जाता है, तब तक किसी भी उत्पाद को मनुष्यों के इस्तेमाल में लाने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। इस तरह से एमआरएल कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध और गलत प्रयोग पर बन्दिश लगाने वाली पहली शर्त है, लेकिन फसल को बाजार में ले जाने की जल्दी में क्या कोई इसका ध्यान रखता होगा? हमारे देश में तो यह तकरीबन नामुमकिन ही लगता है।
ईमेल : abhi.romi20@gmail.com
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Post By: RuralWater