कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल खतरनाक

आज हमारे देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों के खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग हो रहा है। हमारे खाने में मीठा जहर परोसा जा रहा है, जो सिंचाई जल और कीटनाशकों के जरिए अनाज, सब्जियों और फलों में शामिल हो रहा है। कीटनाशक के ज्यादा इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है तथा यह कीटनाशक जमीन में रिसकर भूजल को जहरीला बना रहा है। नदियों तालाबों तथा अन्य जलस्रोतों में बहकर वहां के पानी को जहरीला बनाता है जिससे इंसानों के साथ-साथ पशु-पक्षियों और पर्यावरण को खासा नुकसान पहुंच रहा है। इन कीटनाशकों के इस्तेमाल के बारे में बता रहे हैं जाहिद खान।

खेती में कीटनाशकों के इस्तेमाल से बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जलस्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। जमीन में रिसने से काफी जगहों का भू-जल बेहद जहरीला हो गया है। ये रसायन बाद में बहकर नदियों, तालाबों में भी पहुंच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है। कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली फसलों के खाने से न सिर्फ इंसान की सेहत पर प्रभाव पड़ा, बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पर्यावरण भी प्रभावित हुआ।

जब भी देश के विकास की बात होती है, तो उसमें हरित क्रांति का जिक्र जरूर होता है। यह जिक्र लाजमी भी है, क्योंकि हरित क्रांति के बाद ही देश सही मायने में आत्मनिर्भर हुआ। देश में कृषि की पैदावार बढ़ी, लेकिन हरित क्रांति का एक स्याह पहलू और भी है, जो अब धीरे-धीरे हमारे सामने आ रहा है। जैसा कि हम जानते हैं, हरित क्रांति के दौरान हमारे नीति निर्धारकों ने देश में ऐसी कृषि प्रणाली को बढ़ावा दिया, जिसमें रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अलावा पानी की अधिक खपत होती है। ज्यादा पैदावार के लालच में किसानों ने भी इसे स्वेच्छा से अपना लिया। कल तक खेती में प्राकृतिक खादों का इस्तेमाल करने वाला किसान, रासायनिक खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल करने लगा। जाहिर है कि इससे कृषि पैदावार बढ़ी भी, लेकिन किसानों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ये रासायनिक खाद और कीटनाशक आगे चलकर उनकी भूमि की उर्वरा शक्ति सोख लेंगे।

रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति कम हुई तो हुई, उनका किसानों और खेतिहर मजदूरों की सेहत पर भी बुरा असर पड़ने लगा। कीटनाशकों के संपर्क और फसलों में आए उनके खतरनाक असर से किसानों में कैंसर समेत अनेक गंभीर बीमारियां पनपीं। चूंकि रासायनिक खादों और कीटनाशकों का सबसे ज्यादा असर पंजाब में हुआ था, तो इसे ही इसका भयंकर नुकसान झेलना पड़ा। बीते कुछ वर्षों में पंजाब के बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय समेत खुद, सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल की वजह से इन जिलों में कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है।

जब ये खबरें मीडिया में लगातार आईं तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर स्वत: संज्ञान लेकर राज्य सरकार को जरूरी कार्यवाही करने के निर्देश दिए। मीडिया के दबाव और मानवाधिकार आयोग के निर्देश का ही नतीजा था कि पंजाब सरकार ने अब सूबे के अंदर सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहे कीटनाशकों के इस्तेमाल, उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगा दी है। यह पाबंदी जरूरी भी थी। यदि इन कीटनाशकों पर पाबंदी नहीं लगती, तो प्रभावित किसानों का दायरा बढ़ता चला जाता। यह अकारण नहीं है कि पंजाब में साल 2000 से साल 2010 के बीच जिन पांच हजार किसानों एवं खेतिहर मजदूरों ने आत्महत्याएं कीं, उनमें से 3 हजार लोग सिर्फ दो जनपदों बठिंडा एवं संगरूर के हैं। असाध्य रोगों से जूझते किसान अपने परिवार को आर्थिक तंगी से बचाने के लिए मौत को गले लगा रहे हैं।

खेती में कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल पर रोक लगाने की जरूरत लंबे समय से महसूस की जाती रही है। इसके मद्देनजर सरकार ने कुछ कीटनाशकों के खतरनाक प्रभावों को देखते हुए उन्हें प्रतिबंधित भी किया, लेकिन फिर भी इनका इस्तेमाल नहीं रुका। फसल को बीमारी से बचाने के लिए जितना कीटनाशक इस्तेमाल होता है, उसका बहुत कम हिस्सा अपने वास्तविक मकसद के काम आता है। इसका बड़ा हिस्सा तो हमारे विभिन्न जल स्रोतों में पहुंच जाता है और भू-जल को प्रदूषित करता है। हालत यह है कि इन रसायनों के जमीन में रिसते जाने की वजह से काफी जगहों का भू-जल बेहद जहरीला हो गया है। यही नहीं, ये रसायन बाद में बहकर नदियों, तालाबों में भी पहुंच जाते हैं, जिसका दुष्प्रभाव जल-जीवों और पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है। इनमें तरह-तरह के रोग पैदा हो रहे हैं। कीटनाशकों के इस्तेमाल वाली फसलों के खाने से न सिर्फ इंसान की सेहत पर प्रभाव पड़ा, बल्कि पशु-पक्षी, कीट-पतंगे और पर्यावरण भी प्रभावित हुआ।

इतना सब कुछ होने के बाद भी सरकार में यह इच्छाशक्ति जरा सी भी नहीं दिखलाई देती कि वह कीटनाशकों के इस्तेमाल को रोकने या सीमित करने के लिए कुछ खास कदम उठाए। कुछ ऐसा करे कि कीटनाशकों का इस्तेमाल हतोत्साहित हो। जब भी रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से पैदा होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों की बात उठती है, तो यह दलील दी जाती है कि इस पर रोक लगाने से पैदावार कम हो जाएगी। देश की खाद्य सुरक्षा प्रभावित होगी, लेकिन ज्यादा पैदावार किस शर्त पर मिल रही है, इसे जानते-बूझते नजरअंदाज कर दिया जाता है। खाद्य सुरक्षा का मतलब किसी भी तरह पैदावार का बढ़ाना नहीं होता। खाद्य ऐसा होना चाहिए, जो सेहत के लिए भी मुफीद हो। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के ज्यादा इस्तेमाल से न सिर्फ इंसान और जीव-जंतुओं की सेहत पर असर पड़ रहा है, बल्कि जमीन के उपजाऊपन में भी कमी आ रही है। अब वक्त आ गया है कि सरकार अपनी कृषि नीतियों का पुनरावलोकन करे। आधुनिक कृषि प्रणाली के फायदे और नुकसान का सही-सही जायजा ले। सरकार की ओर से कीटनाशकों के इस्तेमाल को नियंत्रित करने और खेती के ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की पहल होनी चाहिए, जो सेहत और पर्यावरण दोनों के लिए अनुकूल हों, तभी जाकर खेत और किसान सुरक्षित रहेंगे।

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