यह आह्वान सरकार की चिन्ता का तो दर्शाता ही है साथ ही सूजल की गंभीर स्थिति को भी इंगीत करता हैं। आजादी के समय भारत में प्रतिव्यक्ति सालाना जल उपलब्धता 5000 घन मीटर थी जो अब घटकर 1760 घन मीटर पर पहुंच गई है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा व दिल्ली-- जैसे दक्षेत्रों में तो यह 300 से 700 घन मीटर प्रति व्यक्ति पहुंच गया है। जल संसाधन मंत्रालय के वर्ष- -2004 के आकलन के अनुसार देश में 5723 ब्लॉक में से 1065 ब्लाक भूजल के अतिदोहन के रूप मे चिन्हित किये गये है। जिसमें पंजाब 75 प्रतिशत, राजस्थान 59 प्रतिशत, हरियाणा 37 प्रतिशत एवं - दिल्ली - 78 प्रतिशत आदि सर्वाधिक अतिदोहन के क्षेत्र के रूप में सामने आये हैं। बहुत लम्बे समय से इस प्रकार की सरकारी चिन्ता की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। लेकिन भू जल का पुनर्भरण- केन्द्र के क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत हो कर राज्य के क्षेत्राधिकार में आता है। इसलिए यह परिषद अपने सुझावों पर कितना अमल करवा सकोगी यह विचार का विषय है।
वर्ष 2002 अप्रैल में केन्द्र सरकार ने भारत की जलनीति बनाई थी जिसमें भूजल के संरक्षण को पर्याप्त स्थान नहीं दिया गया था इसके बाद नवम्बर 2003 को न.प्र. शासन ने राज्य की जलनीति में भूजल के विकास के बारे में अवश्य लिखा है। लेकिन उसमें यह नहीं कहा गया है कि भूजल क्षमता का दोहन करते समय यह देखना चाहिए कि प्रत्येक एक्वीफर में उपलब्ध भूजल की तादाद और उसकी -गुणवत्ता क्या है। भूजल का उपयोग उस सीमा तक किया जाना चाहिए जहां तक उसकी पुनः पूर्ति की जा सके। इसके अतिरिक्त निकाले जा सकने योग्य भूजल के तकनीकी आर्थिक व पर्यावरणीय पक्ष का ध्यान भी रखा जाना चाहिए। भूजल के अतिदोहन को रोकने के लिए प्रदेश में विषय विशेषज्ञों के उत्तरदायी सक्षम संगठन की आवश्यकता है। इसके लिए सामाजिक नियंत्रण भी सुनिश्चित किये जाने चाहिए। भूजल संकट की गंभीर स्थिति को देखते हुए भूजल का प्रथक संस्थागत ढांचा स्थापित करना | जरूरी है। इसके बाद चर्ष 2002 में एडीबी (एशियन डेवलपमेंट बैंक की म.प्र शहरी जलापूर्ति एवं पर्यावरण सुधार की 30.35 करोड़ डालर (1365.76 करोड़ रु.) की योजना के अंतर्गत कहीं भी भूजल -संरक्षण या पुनर्भरण का जिक्र तक नहीं किया गया है। इसमें सिर्फ पानी का उपयोग व व्यापार करने की वकालत की गई है, जबकि शहरों में भूजल की स्थिति अत्यन्त निम्न स्थिति में है और पुनर्भरण नगण्य है।
शराब, चीनी और शीतल पेय के औद्योगिक संयंत्रों में भूजल का दोहन सबसे ज्यादा होता है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश व महाराष्ट्र में शराब व चीनी मिलों के कारण भूजल स्तर चिन्ताजनक स्थिति में आ चुका है। इसके बावजूद आज भी इन संयंत्रों को बड़े स्तर पर मंजूरी दी जा रही है। हाल ही में - राजस्थान में 16 जनवरी 2004 को शराब की 23 सयंत्रो को मंजूरी दी गई है जबकि राजस्थान में भूजल स्तर खतरनाक स्थिति में है। जयपुर व अलवर जिलों के 80 प्रतिशत गांवों में आज भी पेयजल का संकट मौजूद है। इसके बावजूद इन्हीं दो जिलों 17 संयत्रों को मन्जूरी दी गई है। इसके अलावा देश भर में पेप्सी, कोका- लापसी पेय-कम्पनियाँ प्रतिदिन हजारों गेलन पानी जमीन से निकाल रही है। और पूरे क्षेत्र को सूखाग्रस्त बना रही है। केरल के प्लाचीमाड़ा में कोका-कोला कम्पनी द्वारा 40 एकड़ जमीन पर 65 बोरवेलों के जरिये 45 करोड़ लिटर पानी हर रोज निकाला जा रहा है। इससे आरापारा का क्षेत्र जो कभी पानी और के लिए हराभरा हुआ करता था, वह सूखे की चपेट में आ चुका है। देश में इस प्रकार के अनेक संयंत्र लगे है जो करोड़ों लिटर पानी रोज निकाल रहे हैं।
गिरते भूजल की समस्या का विचार समग्र रूप से करना जरूरी है न की खण्डित रूप से हर समस्या को अलग-अलग करके देखना हमारी व्यवस्था को जो स्वभाव है उसके कारण समस्या के हल और भी ज्यादा पैचीदे बन जाते हैं। साथ ही विरोधाभासी क्रियाओं के कारण उसका असर भी हो नहीं पाता है।
जलनीति, कृषिनीति बननीति, जैब तकनीक नीति (बॉयो टेक्नालाजी) और उद्योगनीति और लाजी), और भूमि उपयोगनीतियां एक दूसरे की पूरक होना चाहिए। जलनीति में पानी के उपयोग की जो प्राथमिकताएं तय की जाये उनको ध्यान में रखते हुए कृषिनीति में सिंचाई व फसल चक्र की व्यवस्था होना चाहिए। आज कृषि क्षेत्र में नगद फसलों के बढ़ते चरण के कारण भूजल का दोहन बड़ेस्तर पर हुआ है। पंजाब व हरियाणा इसके साक्षात उदाहरण हैं। राजस्थान में तरुण भारत संघ या महाराष्ट्र में राले गांव सिद्धी ने जल संरक्षण का उल्लेखनीय कार्य किया है और उन्होंने अपने क्षेत्रों में कम पानी की फसलों को प्रोत्साहित किया है। यह प्रयोग वहां के सामाजिक अनुशासन के कारण ही यह संभव हुआ। है। मध्यप्रदेश के आदिवासी अचल झाबुआ में सम्पर्क संस्था ने भी ग्रामीणों के साथ मिलकर भूजल के उपयोग के नियंत्रित उपयोग के प्रयास किये है। लेकिन सरकार की बाजारवादी नीतियों के रहते इस प्रकार के छोटे-छोटे प्रयास कितने समय तक टिक पायेंगे यह अहम सवाल है। अर्थात् सामाजिक अनुशासन को बनाये रखने के लिए सरकारी नीतियां व बाजार का भी नियंत्रित करना आवश्यक है। सरकार एक तरफ नगद फसलों को प्रोत्साहित करती है और दूसरी तरफ किसानों को कम पानी की फसल लगाने का मशविरा देती है। सरकार का यह खेल लम्बे समय तक चलने वाला नहीं है। आज किसान अपने खेत में क्या होता है यह बाजार तय करता है, न कि किसान अत: पानी को बचाने के लिए बाजार को नियंत्रित करना होगा। सरकार द्वारा जेनेटिकली मोडीफाइड (जीएम फसलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है जिन्हें अधिक पानी की आवश्यकता होती है। अतः सरकार को अपनी समस्त नीतियों को पूरक बनाना होगा।-
कहने का आशय यहां है कि सरकार भूजल रिचार्ज पर चिन्ता करते समय इसके हो रहे डिस्चार्ज को भी ध्यान में रखे और इस प्रकार डिस्चार्ज की प्राथमिकता तय करे जो समाज के लिए। ज्यादा आवश्यक है। एक तरफ सरकार गिरते भूजल स्तर पर चिन्ता व्यक्त करती है और जल बचाने -के अभियान चलाती है। दूसरी तरफ ऐसे यंत्रों को बड़े स्तर पर अनुमति दे रही है, जो भूजल के अतिदोहन पर निर्भर हैं। इस प्रकार की दोमुही नीतियों के चलते जलभरण अभियान कभी सफल नही हो सकता देश में जल पुनर्भरण की तुलना में भूचाल के दोहन का आंकड़ा खतरनाक है। अब समय-आ गया है कि देश में पानी के उपयोग की प्राथमिकता तय की जाये और उसे प्रभावी तरीके से से लागू भी किया जाये। इस संदर्भ में सामाजिक न्याय एवं सामाजिक नियंत्रण भी सुनिश्चित किये जाने -की आवश्यकता है। (लेखक राष्ट्रीय भूजल के कृत्रिम पुनर्भरण संबंधी परामर्शदात्री परिषद के सदस्य है।
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