व्यवहार में हमने प्लास्टिक को जीवनदायी दवाओं से लेकर खाने पीने की हर चीज के पैकेज के तौर पर जरूरी मान लिया है और उसके बिना जी नहीं पाते। लेकिन उसके हानिकारक प्रभावों के सामने आने से थोड़े सचेत हुए हैं पर पूरी तरह से प्लास्टिक के विरोधी नहीं हो सके हैं। सवाल बड़ा है क्या आधुनिक सभ्यता का यह उत्पाद पर्यावरण के सवालों से टकराकर अपनी लम्बी शृंखला जो कि उसकी रासायनिक विशेषता है उसे तोड़ देगा या फिर पर्यावरण के ही नाम पर अपने को प्रासंगिक बनाकर चलता रहेगा? देश के सबसे बड़े पर्यावरण न्यायालय राष्ट्रीय हरित पंचाट में प्लास्टिक पर छिड़ी है बहस। क्या प्लास्टिक पर पूरी तरह से पाबन्दी लगाया जाना सम्भव है? क्या ऐसा करना जरूरी है या गैर जरूरी? अगर जरूरी है तो तमाम कानूनों के बावजूद प्लास्टिक पर रोक क्यों नहीं लग पा रही है? अगर गैर जरूरी है तो वे कानून बनाए ही क्यों गए जो कि लागू नहीं किये जा सकते?
क्या प्लास्टिक पर पाबन्दी लगाए जाने से और पेड़ कटेंगे और हमारे पर्यावरण की और क्षति होगी या पर्यावरण साफ और स्वास्थ्य के अनुकूल होगा? क्या प्लास्टिक हमारी आदत बन चुका है और हम लाख चाह करके भी इससे मुक्त नहीं हो सकते? या किसी समूह का निहित स्वार्थ है जो प्लास्टिक को कभी खत्म नहीं होने देगा?
शायद यह आज के दौर की सबसे जरूरी बहस हो सकती है अगर इसमें वैज्ञानिकों, प्रशासकों, नीतिकारों, उद्योग मालिकों, चिकित्सकों और उपभोक्ताओं को हर स्तर पर शामिल किया जाए और तमाम अध्ययनों के माध्यम से इस पर बात की जाए। अच्छा हो कि एनजीटी इस मामले पर जल्दी फैसला न दे बल्कि इसकी बहस को व्यापक चेतना का हिस्सा बनाए जिसमें दवा उद्योग से लेकर विभिन्न उद्योगों को शामिल किया जाये और आम जनता के पूरे अनुभव और समझ को भी शामिल किया जाये।
प्लास्टिक के प्रयोग और न प्रयोग करने की बहस को हम अपने परिवार से लेकर बाजार तक हर स्तर पर देख सकते हैं। कई बार प्लास्टिक का विरोध करने वाले स्वयं दूध, दही, सब्जी और दवाई प्लास्टिक के ही पैकेट में लेकर आते हैं। कभी-कभी वे दूसरे झोले और बर्तन ले जाना भूल जाते हैं तो कई बार वे वस्तुएँ प्लास्टिक के ही पैक में उपलब्ध होती हैं। लेकिन कई बार वे झोला लेकर बाजार जाते भी हैं और सब्जी वाले से लाख कहने के बावजूद कि वह सब्जी झोले में ही दे, सब्जीवाला किसी-न-किसी प्लास्टिक थैली में सब्जी रख ही देता है।
कई बार सब्जी वाला न रखे तो पति या पत्नी में से एक पक्ष प्लास्टिक में रखने पर जोर देता है। जाहिर है प्लास्टिक के कम-से-कम प्रयोग की चेतना का विस्तार अच्छी तरह से हुआ नहीं है न ही हो पा रहा है। प्लास्टिक का कम प्रयोग वहीं सम्भव हुआ है जहाँ पर इस तरह की स्पष्ट पाबन्दियाँ हैं। उदाहरण के लिये हिमाचल प्रदेश ऐसा राज्य है जहाँ प्लास्टिक कम-से-कम दिखाई पड़ता है लेकिन वह राज्य भी पूरी तरह से मुक्त है ऐसा नहीं कहा जा सकता। कमोबेश यही स्थिति दिल्ली की भी है। जहाँ पाबन्दी के बावजूद हर काम धड़ल्ले से होता है।
उत्तराखण्ड के एक एनजीओ हिम जागृति उत्तरांचल वेल्फेयर सोसायटी ने एनजीटी में एक याचिका दायर कर यह माँग रखी है कि प्लास्टिक को पूरी तरह से रोकने के लिये प्लास्टिक कचरा प्रबन्धन नियमावली में बदलाव किये जाएँ, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, पर्यावरण मन्त्रालय और केन्द्र सरकार इस बारे में स्पष्ट निर्देश दिया जाए। उसकी दलील है कि पैकेजिंग में होने वाले प्लास्टिक के निर्बाध और अनियन्त्रित प्रयोग का स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। वह न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है बल्कि उसके तमाम जहरीले तत्त्व मानव स्वास्थ्य को हानि कर रहे हैं।
आज की स्थिति यह है कि देश में 15,3422 मीट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा रोज निकलता है। यह नदियों, नालों, तालाबों, जंगल, जमीन, मिट्टी और इंसान के साथ जानवरों तक के लिये जानलेवा साबित हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि किसी भी सरकारी संस्था ने प्लास्टिक के पक्ष में दलील नहीं दी है बल्कि सभी का कहना है कि प्लास्टिक का प्रयोग नुकसानदेह है और इसके बारे में विस्तृत अध्ययन होना चाहिए और उन्हें इसे समाप्त करने के लिये चरणबद्ध कार्यक्रम बनाने का समय दिया जाना चाहिए।
एनजीटी का कहना था कि याचिकाकर्ता यह बताए कि किस एक पक्षकार पर दबाव डालने से यह काम सम्पन्न होगा।
लेकिन दूसरी तरफ अखिल भारतीय प्लास्टिक उत्पादक संघ (एआईपीएमए) ने प्लास्टिक के पक्ष में पूरी तरह से मोर्चा सम्भाल रखा है। उसका कहना है कि समस्या प्लास्टिक से नहीं उसके कचरे के निस्तारण से उत्पन्न हो रही है। उसका यह भी तर्क है कि प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित है और उसका न सिर्फ फिर से इस्तेमाल में लाया जा सकता है बल्कि उसको रिसाइकिल किया जा सकता है। ऐसे में अगर प्लास्टिक को कम किया गया तो पर्यावरण का ज्यादा नुकसान होगा। कागज के लिये ज्यादा पेड़ कटेंगे और अखबार व कागज के कचरे का निस्तारण भी बदइन्तजामी का ही शिकार है।
क्योंकि प्लास्टिक से कम कागज इधर-उधर उड़ता हुआ नहीं पाया जाता। प्लास्टिक के पक्ष में इस संघ की महत्त्वपूर्ण दलील यह भी है कि अगर प्लास्टिक का उत्पादन बन्द हुआ तो इस उद्योग से जुड़े लाखों लोग बेरोजगार होंगे। उसकी दलील यहाँ तक जाती है कि प्लास्टिक के खत्म किये जाने से कांच के बर्तनों का उपयोग बढ़ेगा जिससे उनकी ढुलाई में ज्यादा ईंधन खर्च होगा। काँच के बर्तनों को धोने में जो पानी खर्च होगा उससे भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा।
जाहिर है कि प्लास्टिक निर्माता संघ की दलीलों से यह बहस बहुत रोचक हो चली है और इस पर खुलकर बात होनी ही चाहिए। इसकी चेतना का विस्तार घर-घर होना चाहिए। ताकि हम समझ सकें कि आधुनिक सभ्यता के एक आविष्कार को हम कितना सहेजें और कितना फेकें। हम पिछले तीस चालीस सालों से प्लास्टिक युग की गूँज सुन रहे हैं। अब तो वह प्लास्टिक मनी में भी बदल चुकी है।
व्यवहार में हमने प्लास्टिक को जीवनदायी दवाओं से लेकर खाने पीने की हर चीज के पैकेज के तौर पर जरूरी मान लिया है और उसके बिना जी नहीं पाते। लेकिन उसके हानिकारक प्रभावों के सामने आने से थोड़े सचेत हुए हैं पर पूरी तरह से प्लास्टिक के विरोधी नहीं हो सके हैं। सवाल बड़ा है क्या आधुनिक सभ्यता का यह उत्पाद पर्यावरण के सवालों से टकराकर अपनी लम्बी शृंखला जो कि उसकी रासायनिक विशेषता है उसे तोड़ देगा या फिर पर्यावरण के ही नाम पर अपने को प्रासंगिक बनाकर चलता रहेगा? इसीलिये एनजीटी में चलने वाली यह बहस लोक बहस का हिस्सा बननी चाहिए और हमारे जीवन को नई समझ मिलनी चाहिए।
क्या प्लास्टिक पर पाबन्दी लगाए जाने से और पेड़ कटेंगे और हमारे पर्यावरण की और क्षति होगी या पर्यावरण साफ और स्वास्थ्य के अनुकूल होगा? क्या प्लास्टिक हमारी आदत बन चुका है और हम लाख चाह करके भी इससे मुक्त नहीं हो सकते? या किसी समूह का निहित स्वार्थ है जो प्लास्टिक को कभी खत्म नहीं होने देगा?
शायद यह आज के दौर की सबसे जरूरी बहस हो सकती है अगर इसमें वैज्ञानिकों, प्रशासकों, नीतिकारों, उद्योग मालिकों, चिकित्सकों और उपभोक्ताओं को हर स्तर पर शामिल किया जाए और तमाम अध्ययनों के माध्यम से इस पर बात की जाए। अच्छा हो कि एनजीटी इस मामले पर जल्दी फैसला न दे बल्कि इसकी बहस को व्यापक चेतना का हिस्सा बनाए जिसमें दवा उद्योग से लेकर विभिन्न उद्योगों को शामिल किया जाये और आम जनता के पूरे अनुभव और समझ को भी शामिल किया जाये।
प्लास्टिक के प्रयोग और न प्रयोग करने की बहस को हम अपने परिवार से लेकर बाजार तक हर स्तर पर देख सकते हैं। कई बार प्लास्टिक का विरोध करने वाले स्वयं दूध, दही, सब्जी और दवाई प्लास्टिक के ही पैकेट में लेकर आते हैं। कभी-कभी वे दूसरे झोले और बर्तन ले जाना भूल जाते हैं तो कई बार वे वस्तुएँ प्लास्टिक के ही पैक में उपलब्ध होती हैं। लेकिन कई बार वे झोला लेकर बाजार जाते भी हैं और सब्जी वाले से लाख कहने के बावजूद कि वह सब्जी झोले में ही दे, सब्जीवाला किसी-न-किसी प्लास्टिक थैली में सब्जी रख ही देता है।
कई बार सब्जी वाला न रखे तो पति या पत्नी में से एक पक्ष प्लास्टिक में रखने पर जोर देता है। जाहिर है प्लास्टिक के कम-से-कम प्रयोग की चेतना का विस्तार अच्छी तरह से हुआ नहीं है न ही हो पा रहा है। प्लास्टिक का कम प्रयोग वहीं सम्भव हुआ है जहाँ पर इस तरह की स्पष्ट पाबन्दियाँ हैं। उदाहरण के लिये हिमाचल प्रदेश ऐसा राज्य है जहाँ प्लास्टिक कम-से-कम दिखाई पड़ता है लेकिन वह राज्य भी पूरी तरह से मुक्त है ऐसा नहीं कहा जा सकता। कमोबेश यही स्थिति दिल्ली की भी है। जहाँ पाबन्दी के बावजूद हर काम धड़ल्ले से होता है।
उत्तराखण्ड के एक एनजीओ हिम जागृति उत्तरांचल वेल्फेयर सोसायटी ने एनजीटी में एक याचिका दायर कर यह माँग रखी है कि प्लास्टिक को पूरी तरह से रोकने के लिये प्लास्टिक कचरा प्रबन्धन नियमावली में बदलाव किये जाएँ, केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड, पर्यावरण मन्त्रालय और केन्द्र सरकार इस बारे में स्पष्ट निर्देश दिया जाए। उसकी दलील है कि पैकेजिंग में होने वाले प्लास्टिक के निर्बाध और अनियन्त्रित प्रयोग का स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। वह न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचा रहा है बल्कि उसके तमाम जहरीले तत्त्व मानव स्वास्थ्य को हानि कर रहे हैं।
आज की स्थिति यह है कि देश में 15,3422 मीट्रिक टन प्लास्टिक का कचरा रोज निकलता है। यह नदियों, नालों, तालाबों, जंगल, जमीन, मिट्टी और इंसान के साथ जानवरों तक के लिये जानलेवा साबित हो रहा है। दिलचस्प बात यह है कि किसी भी सरकारी संस्था ने प्लास्टिक के पक्ष में दलील नहीं दी है बल्कि सभी का कहना है कि प्लास्टिक का प्रयोग नुकसानदेह है और इसके बारे में विस्तृत अध्ययन होना चाहिए और उन्हें इसे समाप्त करने के लिये चरणबद्ध कार्यक्रम बनाने का समय दिया जाना चाहिए।
एनजीटी का कहना था कि याचिकाकर्ता यह बताए कि किस एक पक्षकार पर दबाव डालने से यह काम सम्पन्न होगा।
लेकिन दूसरी तरफ अखिल भारतीय प्लास्टिक उत्पादक संघ (एआईपीएमए) ने प्लास्टिक के पक्ष में पूरी तरह से मोर्चा सम्भाल रखा है। उसका कहना है कि समस्या प्लास्टिक से नहीं उसके कचरे के निस्तारण से उत्पन्न हो रही है। उसका यह भी तर्क है कि प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह से सुरक्षित है और उसका न सिर्फ फिर से इस्तेमाल में लाया जा सकता है बल्कि उसको रिसाइकिल किया जा सकता है। ऐसे में अगर प्लास्टिक को कम किया गया तो पर्यावरण का ज्यादा नुकसान होगा। कागज के लिये ज्यादा पेड़ कटेंगे और अखबार व कागज के कचरे का निस्तारण भी बदइन्तजामी का ही शिकार है।
क्योंकि प्लास्टिक से कम कागज इधर-उधर उड़ता हुआ नहीं पाया जाता। प्लास्टिक के पक्ष में इस संघ की महत्त्वपूर्ण दलील यह भी है कि अगर प्लास्टिक का उत्पादन बन्द हुआ तो इस उद्योग से जुड़े लाखों लोग बेरोजगार होंगे। उसकी दलील यहाँ तक जाती है कि प्लास्टिक के खत्म किये जाने से कांच के बर्तनों का उपयोग बढ़ेगा जिससे उनकी ढुलाई में ज्यादा ईंधन खर्च होगा। काँच के बर्तनों को धोने में जो पानी खर्च होगा उससे भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ेगा।
जाहिर है कि प्लास्टिक निर्माता संघ की दलीलों से यह बहस बहुत रोचक हो चली है और इस पर खुलकर बात होनी ही चाहिए। इसकी चेतना का विस्तार घर-घर होना चाहिए। ताकि हम समझ सकें कि आधुनिक सभ्यता के एक आविष्कार को हम कितना सहेजें और कितना फेकें। हम पिछले तीस चालीस सालों से प्लास्टिक युग की गूँज सुन रहे हैं। अब तो वह प्लास्टिक मनी में भी बदल चुकी है।
व्यवहार में हमने प्लास्टिक को जीवनदायी दवाओं से लेकर खाने पीने की हर चीज के पैकेज के तौर पर जरूरी मान लिया है और उसके बिना जी नहीं पाते। लेकिन उसके हानिकारक प्रभावों के सामने आने से थोड़े सचेत हुए हैं पर पूरी तरह से प्लास्टिक के विरोधी नहीं हो सके हैं। सवाल बड़ा है क्या आधुनिक सभ्यता का यह उत्पाद पर्यावरण के सवालों से टकराकर अपनी लम्बी शृंखला जो कि उसकी रासायनिक विशेषता है उसे तोड़ देगा या फिर पर्यावरण के ही नाम पर अपने को प्रासंगिक बनाकर चलता रहेगा? इसीलिये एनजीटी में चलने वाली यह बहस लोक बहस का हिस्सा बननी चाहिए और हमारे जीवन को नई समझ मिलनी चाहिए।
Path Alias
/articles/kaisae-caahaie-palaasataika
Post By: RuralWater