किसानों का कातिल कौन


बेईमान मौसम पर्यटकों और शहरियों के लिये भले खुशनुमा लगता हो, मगर यूपी में यह ‘धरती पुत्रों’ का हत्यारा बन गया है। केन्द्र व राज्य सरकार भी इसमें बराबरी की भागीदार हैं। केन्द्र का भूमि अधिग्रहण बिल और राज्य की बेरुखी किसानों को जान देने पर विवश कर रही है।

इसे मौसम की मार कहें या सरकारों का उपेक्षापूर्ण रवैया कि उत्तर प्रदेश का गाँव-गाँव ‘अन्नदाता’ की मौत से गमगीन है। बेमौसमी बारिश अभी तक 70 किसानों को काल के गाल में झोंक चुकी है। कर्ज लेकर खेती करने वाले किसान जब जिन्दगी से लड़ते-लड़ते हार जाते हैं तो मौत का फंदा अपने गले में डाल लेते हैं। वजह यह कि जिन्दा रहते उन्हें कर्ज चुकाने की चिन्ता सताती तो आगे की खेती करने के लिये पूँजी न मिलने की आशंका भी सालती।

पिछले महीने जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेडियो पर किसानों से ‘मन की बात’ कह रहे थे, उसी वक्त उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के दो किसान सिद्धपाल और रामपाल ने भी आत्मदाह करने की कोशिश की। वजह साफ है। पहले केन्द्र सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल से तनाव, फिर मौसम की मार और उसके बाद राज्य सरकार से मिलती बेरुखी से किसानों को आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा विकल्प नजर नहीं आ रहा।

अभी तक महाराष्ट्र के किसान ही बड़ी संख्या में आत्महत्या करते थे, मगर अब उत्तर प्रदेश के किसान भी बेमौसमी बरसात की मार से मौत को गले लगा रहे हैं। बरेली के भमौरा में खुद को मौत की आग में झोंकने वाले पूर्व प्रधान शिशुपाल ने 1995 में खादी ग्रामोद्योग के माध्यम से बैंक आॅफ इण्डिया से 33 हजार रुपए का कर्ज मसाला चक्की के लिये लिया था, जो 2015 तक 80 हजार हो गया।

इसे चुकाने के लिये उन्होंने खेती की राह चुनी, जिसके लिये बैंक से 60 हजार रुपये का कर्ज फिर लिया। खादी ग्रामोद्योग की तरफ से उन पर कर्ज चुकाने का दबाव बनाया गया तो कर्ज मुक्त होने के लिये उन्होंने जीवन से ही मुक्ति को बेहतर समझा। सुसाइड नोट में भी खादी ग्रामोद्योग को ही उनकी मौत का जिम्मेदार ठहराया गया है।

इसी जिले में मीरगंज के किसान वेदराम को पहले डकैतों के डर से पुश्तैनी गाँव से पलायन करना पड़ा। फिर मीरगंज में जो जमीन ली, उसमें से पाँच बीघा रामगंगा की बाढ़ में कट गई। लहलहाती फसल से कुछ आस बँधी तो बेमौसमी बारिश और ओलावृष्टि ने पहले फसल और फिर वेदराम को लील लिया।

विडम्बना यह है कि कर्ज में डूबे किसान जहाँ प्राकृतिक आपदा झेल रहे हैं, वहीं उनके लिये चलाई जा रहीं सरकारी योजनाएँ और कार्यक्रम भी उन तक नहीं पहुँच पा रहे हैं। ऐसे में कर्ज के चक्रव्यूह में फँस कर वे गले में मौत का फन्दा डालने को मजबूर हो रहे हैं। हालात ये हैं कि पिछले 20 साल में देश में 2,53,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

देश में किसान हताश-निराश हैं और सरकारें ‘कुम्भकरणी नींद’ सो रही हैं। प्रकृति प्रदत्त मौसम को तो काबू नहीं किया जा सकता, मगर सरकार को तो हर मौसम में प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिये तैयार रहना चाहिए था। वैसे बेमौसमी बरसात में किसानों की आत्महत्या की इतनी अधिक वारदातें उत्तर प्रदेश में पहली बार देखने को मिली हैं। गहराई से छानने पर भी सूबे में किसानों की आत्महत्याओं के दो ही कारण सामने आ रहे हैं। पहला फसल की बर्बादी से उपजा तनाव और दूसरा कर्ज की मार। दरअसल, किसानों को उनकी फसल का सही दाम नहीं मिलता है, जिससे कर्ज से उनका नाता ही नहीं टूटता और वे आत्मघाती कदम उठाने को विवश होते हैं।

एक महीने में 70 किसानों की मौत पर सवाल उठने लाजमी हैं। अँगुलियाँ राज्य की अखिलेश सरकार पर उठ रही हैं तो बचाव में समाजवादी सरकार के मंत्री केन्द्र सरकार पर सवाल उठा रहे हैं। वरिष्ठ सपा नेता अहमद हसन आरोप लगाते हैं, ‘केन्द्र सरकार प्रदेश की उपेक्षा कर रही है। प्रदेश में 47 जिलों में इस बार की बारिश से जो किसान तबाह हुए हैं, उन्हें सूबे की सरकार की तरफ से मदद राशि मुहैया कराई जा रही है। 24 जिलों को 44.50 करोड़ रुपए तो मार्च के पहले सप्ताह में ही भेज दिये गए थे।’

बात यहीं खत्म नहीं होती। प्रदेश सरकार किसानों की इतने बड़े पैमाने पर हुई आत्महत्याओं के पीछे निजी कारण बता रही है। सरकार का कहना है कि अधिकांश मौतें घर, दीवार, बिजली गिरने या फिर बिजली के तार के टूटने से हुई हैं। यही वजह है कि सरकारी मशीनरी की तरफ से किसानों की उपेक्षा पर पूर्ण विराम नहीं लग पा रहा। हाल यह है कि बरेली में किसानों को मुआवजा देने के लिये 12.68 करोड़ की धनराशि घोषित की गई, मगर मुहैया कराए गए महज डेढ़ करोड़ रुपए, जिसकी वजह से अधिकांश किसानों को मुआवजा ही नहीं मिल पाया।

वैसे गेहूँ, चावल और चीनी के बड़े उत्पादक रहे उत्तर प्रदेश में किसानों की बदहाली नई नहीं है। इससे पहले चीनी मिलों पर गन्ना किसानों के काफी रुपए बकाया थे, जिसके लिये किसानों ने लम्बा आन्दोलन भी किया। 2013-14 में बुन्देलखण्ड में किसानों ने आत्महत्याएँ भी इसी वजह से कीं। मौजूदा हालात उस समय से भी ज्यादा खराब हैं। भूमि अधिग्रहण बिल पर केन्द्र सरकार का कड़ा विरोध कर रही भारतीय किसान यूनियन ने अब राज्य सरकार से आपदा प्रभावित जनपदों के सभी किसानों के बिजली, पानी सम्बन्धी बिल माफ करने के साथ ही पीड़ित किसानों को खाद्य फसलों पर 25 हजार व नकदी फसलों पर 50 हजार रुपए प्रति एकड़ मुआवजा देने की माँग उठाई है। इसके बावजूद सूबे में किसानों की मौत का सिलसिला थम नहीं रहा। अगर हालात यही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब किसान खेत और खेती दोनों छोड़ देंगे।

मौत-दर-मौत और मथुरा महोत्सव


मौत-दर-मौत से गाँव के गाँव गमगीन हैं और फसल बर्बादी से अन्नदाता कराह रहे हैं तो दूसरी ओर सांसद हेमा मालिनी के संसदीय क्षेत्र में मथुरा महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इसकी भनक लगते ही किसानों का गुबार सड़क पर फूट पड़ा। उन्होंने सांसद का पुतला फूँक कर गुस्सा निकाला। किसानों का कहना है कि बेमौसम बारिश ने उनकी फसलों पर तबाही मचाई, तब भी हेमा किसी से मिलने नहीं पहुँची। किसानों की मानें तो लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान हेमा ने कहा था कि वह किसानों के साथ गेहूँ की फसल काटेंगी और अपने हाथों से हैण्डपम्प से पानी लाकर खेतों में देंगी, लेकिन सांसद बनने के बाद वह अपना वादा भूल गईं। बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से फसल नष्ट होने पर किसानों की जिन्दगी तबाह हो रही है। दस से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं और सांसद हेमा मालिनी इस दुख की घड़ी में किसानों का साथ देने के बजाय मथुरा महोत्सव का आयोजन करा रही हैं। यही नहीं, महोत्सव के नाम पर बॉलीवुड कलाकारों के नृत्य-गीत के कार्यक्रम फाइनल किये जा रहे हैं।

बरेली : कस्बा भमौरा में 65 वर्षीय पूर्व प्रधान शिशुपाल सिंह को उम्मीद थी कि इस बार वह कर्ज मुक्त हो जाएँगे, लेकिन असमय बारिश ने 16 बीघे में खड़ी पकी फसल बर्बाद कर दी। उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या कर ली। मीरगंज कस्बे के बेदराम गंगवार को चार साल से खेती में लगातार घाटा हो रहा था। लाखों के कर्ज तले दबे बेदराम ने आत्महत्या को ही अन्तिम विकल्प माना और 22 मार्च को पेड़ से लटक कर मौत को गले लगा लिया।

मुरादाबाद : कुन्दरकी में सोमपाल ने भी फसल नष्ट होने और ट्रैक्टर की भारी-भरकम किस्तें जमा करने के बोझ तले दबकर जीवनलीला समाप्त कर ली। उनका शव रेलवे ट्रैक पर पड़ा मिला। शाहजहाँपुर के मुकरमपुर में 65 वर्षीय किसान रामस्वरूप यादव ने 28 मार्च को गोली मार कर दुनिया को अलविदा कह दिया। कानपुर, अलीगढ़, मथुरा, बागपत, लखीमपुर खीरी जनपदों में भी किसानों की मौत-दर-मौत के दृश्यों से करुण-क्रंदन का आलम है।

मेरठ : गाँव झिझाड़पुर के 50 वर्षीय किसान वीरपाल की पत्नी सरिता को कैंसर था। उसने इलाके लिये काफी कर्ज लिया। कुछ दिन पहले उसकी मौत हो गई। गन्ना भुगतान पूरा हुआ नहीं था और सहकारी समिति की ओर से कर्ज की रकम जमा करने की समय सीमा खत्म होने से वह काफी तनाव में था। तिस पर बारिश ने फसल नष्ट कर उसकी परेशानी और बढ़ा दी। दुखियारे वीरपाल अपने खेत में पेड़ पर फाँसी का फन्दा डाल उससे झूल गए।

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