किसान की तबाही से अलगर्ज सियासत

जब आजादी के बाद पहली बार फसलों की तबाही हुई थी तो उसका जो राजनीतिक रिस्पांस था, वह जबरदस्त था और उस मुसीबत से बचने के लिए शास्त्री जी की सरकार ने जो पहल की थी, उसके कारण भारत में सही मायनों में ग्रामीण तरक्की का माहौल बना था। इस बार भी उसी तरह के राजनीतिक जवाब की जरूरत थी, लेकिन सरकार और विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ राजनीतिक प्वाइण्ट स्कोर करने की नूराकुश्ती में लगे हुए हैं, क्योंकि दोनों की ही आर्थिक राजनीतिक सोच के केन्द्र में किसान दूर-दूर तक नहीं है...किसानों की जमीन अधिग्रहण करने के मामले में राजनीति गरम हो गई है। लोकसभा चुनाव और उसके बाद के चुनावों में हुई करारी हार के बाद कांग्रेस में चौतरफा निराशा का माहौल बन गया था, लेकिन जमीन अधिग्रहण के मामले में प्रधानमन्त्री मोदी की नीतियों के चलते कांग्रेस में थोड़ी बहुत उम्मीद जगना शुरू हुई है। अगर कांग्रेस में एक परिवार की इच्छा पर आधारित राजनीति का रिवाज न होता तो माहौल और भी गरमा गया होता।

जमीन से जुड़े किसानों को निराश होने का एक और कारण प्रकृति ने उपलब्ध करवा दिया। उत्तर भारत में रबी की फसल पूरी तरह से तबाह हो गई है। उसके बारे में केन्द्र सरकार के किसी विभाग के पास सही आकलन नहीं है। वह शुद्ध रूप से मुआवजा बढ़ाने की बात कर रही है। इस बात की तरफ गौर ही नहीं किया जा रहा है कि फसल की तबाही के बाद किसान खाएगा क्या। मौजूदा सरकार के जितने भी समर्थक हैं, सभी मुआवजा ज्यादा देने की बात करते पाए जा रहे हैं। लगता है कि सभी हार मान चुके हैं, हालाँकि सरकार के लिए अभी बहुत बड़ा मौका है, अगर आज केन्द्र सरकार सभी राज्य सरकारों को चिट्ठी लिख दे कि रबी की बर्बादी की भरपाई जायद की फसल से की जानी चाहिए तो हारी हुई बाजी जीती जा सकती है और किसान के चेहरे पर एक बार फिर मुस्कराहट आ सकती है, लेकिन बदकिस्मती की बात यह है कि सत्ताधारी पार्टी में बहुत सारे बड़े नेताओं को जायद की फसल के बारे में जानकारी ही नहीं है। और अगर है भी तो अपने सुप्रीम लीडर के सामने कोई सुझाव पेश कर सकने की किसी की हिम्मत नहीं है।

किसान की तबाही से अलगर्ज सियासतगेहूँ सहित रबी की फसलों के तैयार होने के बाद देश में आमतौर पर खेत खाली रहते हैं। जायद की फसल इसलिए भी प्राथमिकता नहीं पाती कि उसमें पानी बहुत लगता है और देश में बिजली की हालत ठीक नहीं रहती, लेकिन अगर सरकार तय कर ले और युद्ध स्तर पर काम शुरू कर दिया जाए तो हालात बदल सकते हैं। सरकार बिजली, पानी, खाद, बीज सबकुछ राष्ट्रीय प्राथमिकता के आधार पर उपलब्ध करवा सकती है।

जायद की फसल में रबी और खरीफ के सारे अनाज और सब्जियाँ पैदा की जा सकती हैं यानी रबी की तबाही की भरपाई से ज्यादा पैदा किया जा सकता है। आज अगर केन्द्र सरकार इस तरह से जुट जाए जैसे वह एक किसान हो और उसकी फसल तबाह हो गई हो और अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर अपने बच्चों के खाने के लिए कुछ पैदा करना उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है तो हालात बदल सकते हैं। लेकिन हम देख चुके हैं कि सरकार किसानों को जमीन का सौदागर मान रही है और मुआवजे से आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। जमीन अधिग्रहण और फसल की बरबादी दोनों मुद्दों पर सरकार का रवैया खरीदार का ही है।

समकालीन इतिहास में केवल 1964-65 में फसल की इस तरह की तबाही देखी गई है। देश चीन से युद्ध की आग में झुलस चुका था। जवाहरलाल नेहरू नहीं थे, लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमन्त्री थे। रक्षा और खेती के मामले में देश को जबरदस्त झटका लगा था। शास्त्री जी जमीन से जुड़े हुए नेता थे, गरीबी के अर्थशास्त्र को समझते थे। उन्होंने किसान और जवान की इज्जत की, फौज और किसान के हौसलों को बुलन्द किया। लाल बहादुर शास्त्री ने ही ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया। जवान यानी सेना को सही लीडरशिप मिली और उसने पाकिस्तान के जनरल अय्यूब खान को भारत की सेना के बारे में सही बात समझा दी। यह जरूरी था क्योंकि पकिस्तानी फौज और सरकार के मुखिया जनरल अय्यूब खान को भारत की सैन्य शक्ति के बारे में कुछ मुगालते हो गए थे। उनकी समझ को सेना ने दुरुस्त कर दिया।

किसानी के मैदान में भी शास्त्री जी की सोच विजयी रही। उन्होंने भुखमरी की स्थिति से बचा लिया। विकसित देशों से अनाज का बहुत बड़े पैमाने पर आयात किया और अपने कृषि वैज्ञानिकों को आगाह किया कि तकनीक के सहारे खेती के विकास का वक्त आ चुका है। विश्वविद्यालयों में खेती के विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई की बुनियाद जवाहरलाल नेहरू ने पहले ही डाल दी थी। भारत के कृषि वैज्ञानिक अमेरिकी विश्वविद्यालयों में बहुत बड़े स्तर पर सम्मान पा रहे थे। शीर्ष कृषि वैज्ञानिक नारमन बोरलाग से सम्पर्क किया गया, शास्त्री जी ने 1965 में सी. सुब्रमण्यम को कृषि मन्त्री बनाया और उनको निर्देश दिया कि अनाज के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाया जाना है। उसके लिए सुब्रमण्यम ने खेती के बारे में एक रणनीति बनाई। किसी भी कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने के लिए उनकी किताब ‘ए न्यू स्ट्रेटेजी इन इडियन एग्रीकल्चर’ मील का पत्थर मानी जाती है। उनकी इसी किताब के आधार पर जो नीतियाँ बनीं, उनको ही ग्रीन रिवोल्यूशन कहा जाता है।

आम धारणा है कि ग्रीन रिवोल्यूशन इन्दिरा गाँधी की देन है, लेकिन यह सच नहीं है। इसकी शुरुआत शास्त्री जी के कार्यकाल में हो चुकी थी, उनकी असामयिक मृत्यु के बाद इन्दिरा गाँधी ने उस योजना को चलने भर दिया था। दुनिया जानती है कि इस देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्रीन रिवोल्यूशन का सबसे बड़ा योगदान है। इस तरह से हम देखते हैं, जब आजादी के बाद पहली बार फसलों की तबाही हुई थी तो उसका जो राजनीतिक रिस्पांस था, वह जबरदस्त था और उस मुसीबत से बचने के लिए शास्त्री जी की सरकार ने जो पहल की थी, उसके कारण भारत में सही मायनों में ग्रामीण तरक्की का माहौल बना था। इस बार भी उसी तरह के राजनीतिक जवाब की जरूरत थी लेकिन सरकार और विपक्ष दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक प्वाइण्ट स्कोर करने की नूराकुश्ती में लगे हुए हैं क्योंकि दोनों की ही आर्थिक राजनीतिक सोच के केन्द्र में किसान दूर-दूर तक नहीं है।

आज उत्तर भारत में किसान ही हालत बहुत खराब है। आशंका यह भी है कि लोग भूख से भी मरने लगें। भूख से मरना बहुत बड़ी बात है, दुर्दिन की इन्तहा है, लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैं। गाँव का किसान, जिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती है, वह राजनेताओं की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। कोई इनसे पूछे कि फसल चौपट हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा, जिसका सबकुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच करेगा, क्योंकि गाँव का गरीब और इज्जतदार आदमी माँगकर नहीं खाता।

1963-64 में उत्तर भारत में मौसम अजीब हो गया था। रबी और खरीफ दोनों ही फसलें तबाह हो गई थीं। जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तानी जनरल अयूब खान ने भी हमला कर दिया। युद्ध का दौर और खाने की कमी। ऐसे ही बुरे वक्त में प्रधानमन्त्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश का जिम्मा सम्भाला और जय जवान, जय किसान का नारा दिया। अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आह्वान किया कि सभी लोग हफ्ते में एक दिन का उपवास रखें यानी मुसीबत से लड़ने के लिए हौसलों की जरूरत पर बल दिया, लेकिन भूख की लड़ाई केवल हौसलों से नहीं लड़ी जाती। जो लोग 60 के दशक में समझने लायक थे, उनसे कोई भी पता लगा सकता है कि विदेशों से सहायता में मिले बादामी रंग के बाजरे को निगल पाना कितना मुश्किल होता है और अमेरिका से पीएल 480 योजना के तहत मंगाए गए गेहूँ की रोटियाँ बिल्कुल रबड़ की तरह होती हैं, लेकिन भूख सबकुछ करवाती है।

केन्द्र सरकार में ऊंचे पदों पर बैठे लोगों को क्या मालूम कि गाँव का गरीब किसान जब कोटेदार के यहाँ अनाज खरीदने या माँगने जाता है तो कितनी बार मरता है। अपमान के कितने कड़वे घूँट पीता है। गाँवों में रहने वाले किसान के यहाँ खरीदकर खाना शर्म की बात मानी जाती है। आज के पत्रकारों को चाहिए कि गाँव के किसानों की इस सच्चाई का आईना इन नेताओं और नौकरशाहों को दिखाएँ। गाँव के गरीब की इस निराशा और हताशा को एक नेता ने समझा था। शास्त्री जी के कृषि मन्त्री रहे सी. सुब्रमण्यम ने इस बात को समझा था और बाद में अपनी प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी को यह सच्चाई समझाई थी। आज देश को उसी तरह के रिस्पांस की जरूरत है जैसी शास्त्री ने दी थी। इस दिशा में कोई भी नहीं सोच रहा है, लेकिन नेताओं और दिल्ली दरबार को खबरदार हो जाना चाहिए कि अगर जरा सा भी चूक हुई तो बहुत भारी खामियाजा देश को भुगतना पड़ सकता है।

लेखक का ई-मेल : sheshji@gmail.com

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