जमीन किसान के लिये सिर्फ जमीन नहीं है। जमीन उत्पादन के लिये महत्त्वपूर्ण इनपुट है। जोखिम से बचाव का इंश्योरेंस है। विरासत में देने-लेने की संपत्ति है। और सबसे बढ़कर किसान के तौर पर उसकी थाती है। इसलिये वह अपनी जमीन बचाने के लिये खुद को जमीन में गाड़ने और विरोध-प्रदर्शन के लिये जी-जान लगाने से भी गुरेज नहीं करता।
लेकिन बड़ा सवाल यह है कि आखिर, क्यों किसानों को अपनी जमीन बचाने के लिये खुद को जमीन में गाड़कर विरोध-प्रदर्शन करना पड़ा? क्यों देश के अलग-अलग हिस्सों में आदिवासी, किसान अपनी जमीन बचाने के लिये कभी सरकार तो कभी कॉरपोरेट से मोर्चा लेते दिखाई पड़ते हैं? जाहिर है कि सरकार और कॉरपोरेट का गठजोड़ लंबे समय से किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने पर उतारू है। यह सिलसिला शुरू तो आजादी के बाद ही हो गया था, जब बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर भूमि अधिग्रहण का सिलसिला तेज हुआ। नब्बे के दशक में जब अर्थव्यवस्था के दरवाजे आर्थिक उदारीकरण के लिये खुले तो औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों में तेजी आई और आधारभूत ढांचे के निर्माण पर ध्यान गया। इस समूची प्रक्रिया में जमीन महत्त्वपूर्ण थी। खास तौर पर वह जमीन जो किसान के पास है, और सस्ते दाम पर मिल सकती है। इसके बाद सिंगूर से लेकर सिंगरौली तक क्या हुआ, सबके सामने है। सरकारें विकास के नाम पर किसानों की जमीन हड़प कर उद्योगपतियों को सौंपने के धंधे में उतर गईं। इसके लिये अपनी ताकत और सत्ता का मनमाना इस्तेमाल किया।
किसानों और गरीब आदिवासियों से जमीन छीन कर लैंड बैंक के तौर कॉरपोरेट के सामने सजाने की होड़ राज्य सरकारों में मच गई। भूमि अधिग्रहण को लेकर देश भर में असंतोष बढ़ा तो 2013 में अंग्रेजी राज के भूमि अधिग्रहण कानून को बदल कर नया कानून बनाया गया। हालाँकि, यह कानून भी खामियों से भरपूर था, लेकिन पुराने कानून के मुकाबले इसमें किसानों को बेहतर मुआवजे के प्रावधान थे, और भूस्वामियों की सहमति को महत्त्व दिया गया। मौजूदा मोदी सरकार कॉरपोरेट के पक्ष में इस कानून को भी कमजोर करना चाहती थी, मगर विपक्ष की एकजुटता के चलते इन मंसूबों पर पानी फिर गया। बहरहाल, अब पहले से बेहतर भूमि अधिग्रहण कानून लागू है, जिसका फायदा किसानों को बेहतर मुआवजे के तौर पर दिख रहा है।
इस बीच, प्रॉपर्टी बाजार के धराशायी होने और औद्योगिक गतिविधियों में सुस्ती के चलते जमीन के भाव गिरे हैं। ऐसे में भूमि अधिग्रहण के जरिए कई जगह किसानों को बाजार से भी बेहतर दाम मिल रहा है। पहले जो किसान बाजार भाव पर जमीन के मुआवजे की मांग करते थे, उन्हें अब सरकारी दाम लुभा रहा है। लेकिन इससे सरकारी परियोजनाओं के लिये जमीन की लागत बढ़ी है। अब पहले से ज्यादा मुआवजा देना पड़ रहा है।
मुआवजे को लेकर किसानों में है असंतोष
इस बीच, जिन लोगों की जमीन का अधिग्रहण 2013 से पहले हुआ, उन्हें मिले मुआवजे और बाद में मिल रहे मुआवजे में जमीन-आसमान का अंतर है। इससे किसानों में असंतोष बढ़ा है, और वे बढ़ा मुआवजा हासिल करने के लिये अदालत के दरवाजे खटखटा रहे हैं। जहाँ बरसों से परियोजनाएँ शुरू ही नहीं हुई हैं, वहाँ किसान अपनी जमीनें वापस मांग रहे हैं। वैसे, ये मांग जायज भी हैं क्योंकि जनिहत के नाम पर जिस मकसद से अधिग्रहण हुआ था, वह काम ही शुरू नहीं हुआ।
किसानों की स्थिति सुधारने के लिये जरूरी है कि ऐसे उपाय किए जाएँ जिनसे न सिर्फ उनकी आय बढ़े बल्कि फसल की पैदावार भी अधिक हो। हमारे यहाँ कुछ किसानों के पास काफी जमीन है, और कुछ के पास कम। जिनके पास ज्यादा जमीन है, वे खेत किराए पर उठाने (एग्रीकल्चर टीनेंसी) से इसलिये डरते हैं कि कहीं उनकी जमीन न चली जाए। दूसरी ओर, ऐसे किसान भी हैं, जो टीनेंसी के तहत ली गई जमीन पर कर्ज, बीमा जैसी सुविधाएँ नहीं मिलने से जमीन लेने से हिचकते हैं। ऐसे में नीति आयोग ने मॉडल कृषि लैंड लीजिंग एक्ट का मसौदा बनाया है, जिसमें दोनों के हितों का ध्यान रखा गया है। इस एक्ट को सभी राज्य सरकारों को भेजा गया है। इसके प्रमुख प्रावधानों के अनुसार जो लोग अपनी जमीन खेती के लिये लीज पर देना या लेना चाहते हैं, उन्हें लिखित करार करना होगा। करार में सभी शर्तें आपसी सहमति से तय होंगी। लीज की अवधि और किराया खेत मालिक और किसान आपसी सहमति से ही तय करेंगे।
अगर लीज की अवधि नहीं बढ़ाई गई तो जमीन स्वत: मालिक के पास चली जाएगी। खेत लीज पर लेने वाला किसान लीज की अवधि के दौरान किसान फसल कर्ज, बीमा, आपदा राहत पाने का हकदार होगा। लीज पर दोनों पक्षों के बीच कोई विवाद होता है, तो उसे तीसरे पक्ष या ग्राम पंचायत या ग्राम सभा की मध्यस्थता से सुलझाया जाना चाहिए। इससे भी विवाद न सुलझे तो तहसीलदार या उसके समकक्ष अफसर के पास अर्जी डालनी चाहिए। इसके बाद वह साक्ष्यों और सबूतों के आधार पर इस विवाद का हल चार सप्ताह में करेगा। फिर भी विवाद बना रहे तो उसके लिये भूमि विशेष न्यायाधिकरण होगा, जिसका गठन राज्य सरकार को इस कानूनी मसौदे के मुताबिक करना होगा। हाई कोर्ट के रिटार्यड जज या जिला कोर्ट के जज को इसका प्रमुख बनाना चाहिए। इस कानूनी मसौदे के तहत ऐसे विवाद दीवानी अदालतों के दायरे में नहीं आएँगे।
मॉडल कृषि लैंड लीजिंग एक्ट में प्रावधान है कि जमीन लीज पर देने की प्रक्रिया को कानूनी रूप दिया जाए। ऐसा करने से जमीन लीज पर देने वाले में जमीन जाने का भय खत्म होगा और जमीन लेने वाले को कर्ज, बीमा, आपदा राहत मिलने का हक मिलेगा। ऐसा होने से ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले गरीबों द्वारा जमीन का समुचित उपयोग तो होगा ही, लोगों को रोजगार के ज्यादा साधन भी उपलब्ध होंगे। लैंड लीजिंग ग्रामीण लोगों को रोजगार के लिये बाहर जाने के लिये भी प्रेरित करेगा जिससे गरीबी कम होगी। ऐसे में हम कह सकते हैं कि यह जमीन के मालिक और लीज पर लेने वाले, दोनों के लिये फायदेमंद होगा।
लेखक आउटलुक में एसोशिएट एडिटर हैं।
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